आलेख त्रिलोचन का जीवन -संघर्ष और कवि-व्यक्तित्व केदारनाथ सिंह त्रि लोचन का काव्य-व्यक्त्वि लगभग पचास वर्षों के लंबे-काल विस्तार में फैला ...
आलेख
त्रिलोचन का जीवन-संघर्ष और कवि-व्यक्तित्व
केदारनाथ सिंह
त्रिलोचन का काव्य-व्यक्त्वि लगभग पचास वर्षों के लंबे-काल विस्तार में फैला हुआ है. परंतु यह तथ्य कि वे हमारे समय के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि हैं- लगभग एक अद्वितीय कवि- अभी पिछले कुछ वर्षों में उभरकर सामने आया है और उनके प्रत्येक नये काव्य-संकलन के साथ और गहरा तथा और पुष्ट होता गया है. इसका एक बहुत सीधा और स्थूल कारण तो यह है कि उनकी बहुत-सी महत्वपूर्ण काव्य-कृतियां पिछले पांच-छह वर्षों में ही पाठकों के सामने आयी हैं. पर जैसा कि मैंने कहा, यह सिर्फ एक स्थूल कारण है. असली कारण है समकालीन हिंदी-कविता के पाठकों की अभिरुचि में धीरे-धीरे घटित होनेवाला मूलभूत परिवर्तन. हमारे समय के सामाजिक यथार्थ की प्रक्रिया के समानांतर चुपचाप घटित होनेवाले इस परिवर्तन की छानबीन अलग से की जानी चाहिए और जाहिर है, ऐसा करते समय हमें कविता से बाहर की सच्चाइयों की पड़ताल भी करनी होगी. परंतु यहां न तो उसकी अपेक्षा है, न ही अवकाश. पर कुछ बातों को साफ-साफ लक्ष्य किया जा सकता है- जैसे यह कि पिछले कुछ वर्षों में हमारी सांस्कृतिक चेतना पर पश्चिम का औपनिवेशिक दबाव कम हुआ है, आधुनिकतावाद द्वारा स्थापित तथा प्रस्तावित बहुत-से काव्यमूल्य संदिग्ध या अस्वीकार्य लगने लगे हैं और कुल मिलाकर कविता में- और किसी हद तक साहित्य की अन्य विधाओं में भी- अपने यथार्थ के मूल स्रोतों से जुड़ने की आकांक्षा प्रबल हुई है. फलतः नगर-केंद्रित आधुनिक सृजनशीलता और हमारी ग्रामोन्मुख जातीय सृजन-चेतना के बीच का अंतराल कम हुआ है. इसी बदले हुए माहौल में त्रिलोचन की कविता ने अपनी अर्थवत्ता नये सिरे से अर्जित की है और बृहत्तर पाठक-समुदाय का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है.
त्रिलोचन एक विषम धरातलवाले कवि हैं. साथ ही उनके रचनात्मक व्यक्तित्व में एक विचित्र विरोधाभास भी दिखाई पड़ता है. एक ओर यदि उनके यहां गांव की धरती का-सा ऊबड़खाबड़पन दिखाई पड़ेगा तो दूसरी ओर कला की दृष्टि से एक अद्भुत क्लासिकी कसाव या अनुशासन भी. सृजनात्मक अनुशासन का सबसे विलक्षण और रंगारंग रूप उनके सॉनेटों में दिखाई पड़ता है. शब्दों की जैसी मितव्ययिता और शिल्पगत कसाव उनके सॉनेटों में मिलता है, वैसा निराला को छोड़कर आधुनिक हिंदी कविता में अन्यत्र दुर्लभ है. त्रिलोचन के सॉनेटों के बारे में बहुत कुछ कहा-सुना गया है. परंतु इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान कम दिया गया है कि सॉनेट जैसे विजातीय काव्यरूप को हिंदी भाषा की सहज लय और संगीत में ढालकर त्रिलोचन ने एक ऐसी नयी काव्य-विधा का आविष्कार किया है, जो लगभग हिंदी की अपनी विरासत बन गयी है.
त्रिलोचन जितने मानव-संघर्ष के कवि हैं, उतने ही प्रकृति की लीला और सौंदर्य के भी. इसीलिए प्रकृति बहुत गहराई तक उनकी कविता में रची-बसी है. प्रकृति के बारे में त्रिलोचन का दृष्टिकोण बहुत कुछ उस ठेठ भारतीय किसान के दृष्टिकोण जैसा है जो कठिन श्रम के बीच भी उगते हुए पौधों की हरियाली को देखकर रोमांचित होता है. निराला की तरह त्रिलोचन ने भी पावस के अनेक चित्र अंकित किये हैं और बादलों के कठोर संगीत को अपनी अनेक कविताओं में पकड़ने की कोशिश की है. परंतु ऐसा करते हुए वे किसी विलक्षण सौंदर्य-लोक का निर्माण नहीं करते, बल्कि अपनी चेतना के किसी कोने में दबे हुए किसान का मानो आह्वान करते हैं- ‘उठ किसान ओ, उठ किसान ओ, बादल घिर आये.’ प्रकृति और जीवन के प्रति यह किसान-सुलभ दृष्टि त्रिलोचन की एक ऐसी विशेषता है, जो सिर्फ उनकी अलग पहचान ही नहीं बनाती, बल्कि उनकी विश्व-दृष्टि को समझने की कुंजी भी हमें देती है.
लगभग यह मान लिया गया है कि त्रिलोचन एक अत्यंत सहज-सरल कवि हैं- बहुत कुछ अपने व्यक्तित्व की तरह ही हैं. इससे एक बहुत सीधा-सा निष्कर्ष यह निकाल लिया गया है कि उनके यहां आधुनिक बोध की जटिलता का एकांत अभाव है. जो लोग मानते हैं, उनसे मैं आग्रह करूंगा कि इस संकलन में छपी ‘रैन बसेरा’ कविता को ध्यान से पढ़ें. वस्तुतः त्रिलोचन एक समग्र चेतना के कवि हैं, जिनके अनुभव का एक छोर यदि ‘चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ जैसी सीधी-सरल कविता में दिखाई पड़ता है तो दूसरा ‘रैन बसेरा’ जैसी कविता की बहुतस्तरीय बनावट में. वास्तवविकता यह है कि त्रिलोचन की सहज-सरल सी प्रतीत होनेवाली कविताओं को भी यदि ध्यान से देखा जाय तो उनकी तह में अनुभव की कई पर्तें खुलती दिखाई पड़ेंगी.
त्रिलोचन के यहां आत्मपरक कविताओं की संख्या बहुत अधिक है. अपने बारे में हिंदी के शायद ही किसी कवि ने इतने रंगों में और इतनी कविताएं लिखी हों. पर त्रिलोचन की आत्मपरक कविताएं किसी भी स्तर पर आत्मग्रस्त कविताएं नहीं हैं और यह उनकी गहरी यथार्थ-दृष्टि और कलात्मक क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण है. त्रिलोचन अनुभव के इस धरातल तक पहुंचने के लिए जिस कौशल का इस्तेमाल करते हैं, वह खासतौर से ध्यान देने योग्य है. वे अपनी आत्मपरक कविताओं में ‘त्रिलोचन’ का प्रयोग प्रायः अन्य पुरुष में करते हैं और इस तरह बड़ी कुशलता से अपने ‘आत्म’ से एक कलात्मक दूरी प्राप्त कर लेते हैं. अपने ‘आत्म’ के प्रति यह गहरी निर्मम दृष्टि उन्हें एक ऐसी शक्ति प्रदान करती है, जिसके चलते वे मानो अपनी ही धज्जियां उड़ाते हैं और फिर उनके मुंह से ऐसी बेलाग और तिलमिला देनेवाली पंक्ति निकलती है- ‘भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल.’ अपने प्रति यह अचूक निर्मम दृष्टि समकालीन साहित्य में कम ही मिलेगी.
भाषा के प्रति त्रिलोचन एक बेहद सजग कवि हैं- एक ऐसे कवि जो अपनी भाषा की समस्त गूंजों और अनुगूजों को बखूबी जानते हैं और एक रचनाकार की हैसियत से उनके प्रति गहरा सम्मान का भाव रखते हैं. यही कारण है कि उनकी कविता में भाषा के विविध धरातल दिखाई पड़ते हैं. वे ठेठ अवध के कवि हैं और फलतः अवधी बोली की सर्जनात्मक क्षमता से खड़ी बोली को अधिक आत्मीय और अधिक व्यंजनाक्षम बनाने के आग्रही कवि भी. परंतु वे लोकबोली और पंडितों की भाषा के बीच कोई सुविधाजनक सेतु निर्मित करने की कोशिश कभी नहीं करते. इस मानी में उनके आदर्श तुलसीदास हैं, जहां कविता एक साथ बोली के सारे ठाठ और अभिव्यक्ति की सारी परिचित-अपरिचित अभिभाओं को अपने भीतर समेटकर चलती है. इसीलिए आप पायेंगे कि त्रिलोचन की कविता में बोली के अपरिचित शब्द जितनी सहजता से आते हैं, कई बार संस्कृत के कठिन और लगभग प्रवाहच्युत शब्द भी उतनी ही सहजता से कविता में प्रवेश करते हैं और चुपचाप अपनी जगह बना लेते हैं. वस्तुतः त्रिलोचन ‘हिंदी’ शब्द से जिस विपुल भाषिक संपदा का बोध होता है उसकी संपूर्णता को अपनी रचनाशीलता के विविध स्तरों पर पकड़ने और उद्घाटित करनेवाले कवि हैं- एक ऐसे कवि जिनके यहां भाषा की श्रेणियां नहीं बनायी जा सकतीं.
त्रिलोचन ने बहुत लिखा है. जहां तक मुझे ज्ञात है उनका जितना प्रकाशित है, उतना या कदाचित उससे अधिक ही अप्रकाशित. जाहिर है, यहां केवल उनके प्रकाशित कृतित्व (‘धरती’ से तुम्हें सौंपता हूं’ तक) को ही चयन का आधार बनाया गया है. मैंने यहां कवि के लगभग पचास वर्षों के विस्तार में फैले कृतित्व से उसके सर्वोत्तम को छांटकर अलग कर लिया है, ऐसा दावा मेरा कदापि नहीं है.
COMMENTS