प्राची - नवंबर 2016 / आलेख / त्रिलोचन का लोक-संरचना और सरोकार / उमाशंकर सिंह परमार

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आलेख त्रिलोचन का लोक -संरचना और सरोकार उमाशंकर सिंह परमार आत्म परिचय नाम : उमाशंकर सिंह परमार जन्म : 29.06.1978 सम्प्रति : लेखन, स...

आलेख

त्रिलोचन का लोक-संरचना और सरोकार

उमाशंकर सिंह परमार

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आत्म परिचय

नाम : उमाशंकर सिंह परमार

जन्म : 29.06.1978

सम्प्रति : लेखन, समाज सेवा, किसान आन्दोलन से जुडाव, जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश के राज्य उप सचिव

विधा : आलोचना, कभी कभार कविता

पुस्तक : प्रतिपक्ष का पक्ष (आलोचना), सुधीर सक्सेना : प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य

प्रकाशन : हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं जैसे कृति ओर, हिमतरु, नयापथ, हंस, प्रयाग पथ, मंतव्य सप्तपर्णी, दुनिया इन दिनों, प्रसंग, स्वाधीनता, वर्तमान साहित्य, जनपथ, लहक, जागरण, रस्साकसी, अनहद, माटी, वसुधा, यात्रा, लोकोदय, बाखली, बिहान आदि में आलेखों का प्रकाशन.

महत्वपूर्ण ब्लॉगों में प्रकाशन, लोकविमर्श ब्लॉग एवं आलोचना पत्रिका का लोकविमर्श का संपादन,

पता : द्वारा रमेश चन्द्र रस्तोगी, कालेज गेट के सामने, बांदा रोड बबेरू, जनपद बांदा-21021. मो : 09838610776

इमेलः नउेींदांतेपदहीचंतउंत/हउंपसण्बवउ

केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, प्रगतिशील जनवादी कविता के बृहद त्रयी के रूप में विख्यात हैं. प्रगतिशील कविता के अनुसरणकर्ता तीनों को जनपद और लोक का कवि कहते हैं. यह कहना बडे कवियों का सामान्यीकरण नहीं; बल्कि कवि और कविता का यथार्थ द्वारा प्रमाणन है. प्रगतिशील कविता जब उस वैचारिक दावों से विमुक्त होकर लोक की संस्कृति, परम्परा, जमीनी सरंचनाओं, प्रकृति एवं जन के गहरे नितल में उतरती है तो वह कवि की जमीन का परिदृश्य उभारने लगती है. कवि अपने भूखंड का गायक बन जाता है. वह अपने लोक से इस कदर हिल मिल जाता है कि कवि की जमीन व उसकी सांस्कृतिक विरासत को कविता से पृथक करना बेहद कठिन हो जाता है. लोक की अस्मिता कवि की अस्मिता बन जाती है और कवि की पहचान लोक की पहचान अभिव्यक्त करने लगती है. उपरोक्त तीनों कवियों का व्यक्तित्व अपने अपने जनपद व जन से जुडा हुआ है. जनपद और कवि का जुडाव इतना गहरा है कि जनपद की भौगौलिक व सांस्कृतिक अवस्थितियों में ही कवि के सांकेतिक मन्तव्य भी झलकने लगते हैं. केदार को पढ़ना बुन्देलखंड और बांदा के जनजीवन को पढना है उन्होंने केन, गडरा नाला, टुनटुनियां पहाड़, चित्रकूट, चने के खेत, साफा, मुरैठा, लाठी, करबी, हंसिया, गीत, संगीत आदि सबका कविताकरण किया है. इसी तरह नागार्जुन को पढ़ने का आशय है मिथिला को पढ़ना और त्रिलोचन को पढ़ने का मतलब अवध के

वैविध्यपूर्ण जनजीवन को पढ़ना. त्रिलोचन उस जनपद का कवि है ‘जो भूखा और दूखा है’. उनके गीतों और कविताओं का आकाश भूखे और दूखे लोगों का अपना आकाश है. इन लोगों को चैती का सौन्दर्य भाता है, जीने की कला आती है. इन लोगों को

धूप में उजले हुए जगत का रूप अति सुन्दर प्रतीत होता है. प्रकृति और जगत की सचेतन क्रियाएं इन्हें मानव की सचेष्ट क्रियाएं प्रतीत होती है. लोक और उसके अनुभवों का जितना कविताकरण त्रिलोचन ने किया है उतना शायद हिन्दी के किसी कवि ने नहीं किया है. त्रिलोचन ने खुद को लोक की प्रकृति व संरचनाओं से भर नहीं जोड़ा, अपितु काव्य परम्परा में भी अपनी जमीन और अपने आकाश का आभार व्यक्त किया है. उन्होंने लिखा है- ‘दाऊद मुहमद तुलसी कई हम दास/केहि गिनती मंह गिनती जस बन घास’ यहां पर मुल्ला दाऊद, जायसी और तुलसी की परम्परा का उल्लेख करते हुए त्रिलोचन स्वयं को बनघास कहते हैं यह विनम्रता के साथ साथ अपने अग्रज कवियों का मान बढाना भी है. स्वयं को हीन कहना आभार प्रकट करने की पुरातन काव्य परिपाटी है कालिदास ने रघुवंश में, बाणभट्ट ने कादम्बरी में, जायसी ने पदमावत में, तुलसी ने रामचरित मानस में खुद को हीन मति और मन्दमति जैसे अभिधानों से नवाजा है. त्रिलोचन को तुलसी दास अति प्रिय हैं. वो अपनी कई कविताओं में तुलसी की चर्चा करते हैं ‘तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी/मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो’ त्रिलोचन ने तुलसीदास से भाषा सीखी और तुलसी उनकी सजग चेतना में रमे हुए हैं. यह सच है यदि त्रिलोचन का काव्य और तुलसी का काव्य भाषा और रूप के आधार पर विवेचित किया जाय तो हम पाते हैं कि तुलसी ने अपने समकालीन हरएक छन्द का प्रयोग किया. संस्कृत के तमाम छन्दों जैसे मालिनी, मनहरण, बसन्तिलका आदि का हिन्दीकरण किया है. त्रिलोचन ने भी यही किया. उन्होंने शास्त्रीय छन्दों के अतिरिक्त लोक छन्दों और काव्य रूपों को भी अपनी कविता में जगह दी. यहां तक कि अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध छन्द सानेट को भी अपने देशी अन्दाज में ढाल लिया. जैसी रूपगत वैविध्यता तुलसी में है वैसी वैविध्यता त्रिलोचन में भी है. तुलसी के लिए आभार प्रकट करने का आशय यह कतई नहीं है कि त्रिलोचन का अपना निजी सरोकार नहीं था. भले ही काव्य रूपों की दृष्टि से तुलसी उनके आदर्श रहे हैं पर उन्होंने अपना मार्ग खुद विनिर्मित किया है. उनके कविता संग्रह ‘अनकहनी भी कुछ कहनी है’ में एक कविता है जिसमें वो परम्परा से बनी लीक को अस्वीकार करते हैं. वो लिखते हैं ‘बनी बनाई राह मुझे कब कहां सुहाई/गहन विपिन में धंसा, नहीं की राम दुहाई’ यहां कवि गहन विपिन में धंसने की बात कह रहा है. इसका आशय है कि वो परम्परा को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए भी जनजीवन में धंसकर कविता कहने के आदी हैं. इसीलिए त्रिलोचन के शब्दों और कहन में जो ताकत है वह किसी दूसरे कवि में नहीं दिखती है. त्रिलोचन को पूरा विश्वास है कि कविता की सच्ची ताकत जीवन से जुडने में ही अन्तर्निहित है. जैसा जीवन का यथार्थ होगा वैसी कविता होगी. जब जीवन जटिलताओं और संकटों से भरा पूरा है तो कविता भी जटिल होगी और खतरों के बरक्स अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेगी. सच्चा लोकधर्मी कवि वही होता है जो दुखों और पीड़ाओं से कविता निचोड़ ले त्रिलोचन यदि अपने परिवेश और लोक को कविता में तरजीह देते हैं तो स्वाभाविक है लोक उपार्जित पीड़ाओं का प्रबोध भी उन्हें त्रास रहा होगा. वो कहते हैं ‘अगर न पीड़ा होती तो भी क्या मैं गाता/यदि मैं गाता तो क्या उसमें ऐसा स्वर आता’ (अनकहनी भी कुछ कहनी है). इसका मन्तव्य स्पष्ट है कि त्रिलोचन का लोक पीड़ाओं, दुखों, विसंगतियों का लोक है. वह दिव्यलोक नहीं देखते, यथार्थ जीवन की जटिलताओं को देखते हैं, समाज की वर्गीय सरंचनाओं शोषण व प्रपीड़न को देखते हैं. त्रिलोचन की काव्य यात्रा लोक जीवन की यात्रा है, सामाजिक यथार्थ की बहुआयामी बहुरंगी यात्रा है. कविता में उल्लास और ताजगी है तो बेचैनी और असमंजस भी है. ललकार और चेतावनी है तो अनुभवों से तपी निखरी वैचारिकता भी है. कहीं स्वरों में उदघोष है तो कहीं संयमित चिन्तन है. कहीं लोक की भयावहता और विद्रूपता है तो कहीं इनके खिलाफ प्रतिरोध का मुकम्मल आगाज है. कहीं ऐन्द्रिक रमणीयता से उत्फुल्ल दिव्य और अपार्थिव सौन्दर्य है तो कहीं लोक जीवन का ताजातरीन बिम्ब है जो नयेपन के साथ साथ परम्परा अर्जित भाषा का बहिष्कार कर रहा है. ऐसा ही एक बिम्ब उनके कविता संग्रह ‘बात मेरी कविता’ के पृष्ठ संख्या 139 में आया है ‘आंख मूंदे पेट पर सिर टेक/गाय करती है घमौनी बंधी जड़ से/पेड़ की छाया खड़ी दीवार पर है’ इस कविता का सरंचनात्मक फार्मेट गद्यात्मक है परन्तु इसमें जो बिम्ब है वह एकदम नया है. गाय घमौनी कर रही है भाषा भी नयी है. घमौनी शब्द कितने कवियों ने प्रयोग किया है? इस शब्द का प्रयोग वही कर सकता है जो गाय के इस बिम्ब का साक्षात्कार कर चुका हो. घमौनी मतलब धूप का सेवन है. जाड़े के महीने में अवध के किसी गांव में जाइए- ऐसे बिम्ब आपको हर गांव में दिखाई पड़ेंगे. त्रिलोचन अवध की प्रकृति और जन दोनों से आत्मीयता रखते हैं. कवि जिस जमीन का बिम्ब रचता है, जिस जमीन से भाषा लेता है, जिस जमीन में रहता है, वहां के आमजन में भी वो अपने लोग अन्वेषित कर लेता है. इसलिए जितने भी लोकधर्मी कवि हुए हैं उनकी कविता में लोकचरित्र अवश्य आए हैं. त्रिलोचन लोकधर्मी कवि हैं स्वाभाविक है उनकी कविता चरित्रों से अछूती नहीं होगी. लेकिन त्रिलोचन जब चरित्रों पर बात करते हैं तो उनका मन अभिजात्य चरित्रों पर नहीं रमता है. वह समाज में हाशिये पर स्थापित समुदायों की चर्चा करते हैं. हाशिया मतलब कि आर्थिक और जातीय कारण से व्यापक भागीदारी से वंचित समुदाय होता है. उनका यह नजरिया आज के लिए भी एकदम सटीक है. उत्तर

आधुनिकता भी यही कहती है कि जब हम अस्मिताओं और वंचितों पर बात रखें तो जातीय और आर्थिक सवालों को लेकर ही बात करें आज का युग विमशरें का युग है विमशरें की अवहेलना नही की जा सकती है, लेकिन त्रिलोचन ने विमशरें को पहले ही समझ लिया था. ऐसा किसी वैचारिक प्रभाव से नहीं हुआ; बल्कि यथार्थ के सन्दभरें के कारण हुआ है. जो कवि यथार्थ को कविता का केन्द्र बनाएगा, वह जरूर ‘फेरू’ जैसे चरित्र को कविता में जगह देगा. ‘फेरू अमरेथू रहता है/वह कहार है/ काक वर्ण है सृष्टि वृक्ष का/एक पर्ण है/मन का मौजी/ और निरंकुश/ राग रंग में ही रहता है’. उनकी यह कविता जमीन पत्रिका में छपी थ.ी बाद में मैं तुम्हें सौंपता हूं में संकलित हुई थी. त्रिलोचन का लोक भाषा की विनिर्मिति नहीं है जैसे आज के युवा कवि समझते हैं. न ही उनका लोग बना बनाया फार्मेट है जिसे संवेदनाओं के सहारे कविता में टांक दिया गया हो. यहां लोक अपनी मौलिकता के साथ आया है, इसलिए त्रिलोचन फेरू जैसा चरित्र देने में समर्थ हुए हैं. उनकी नगई महरा कविता को देखिए जो उनके कविता संग्रह ताप के ताये हुए दिन में संकलित है. इस कविता में गांव का सामन्ती और जातीय संघर्ष अपने हूबहू स्वरूप में उभर आया है. आजादी के बाद यह आशा थी कि भारतीय गांव आधुनिकता के संवाहक बनेगें और सामाजिक राजनैतिक परिवर्तनों की भूमिका तय करेगें, मगर त्रिस्तरीय भारतीय लोकतन्त्र ने गांवों को परिवर्तनकारी चेतना से दूर किया है. त्रिलोचन का नगई महरा 1980 का गांव है निश्चित है इस गांव में भारतीय पूंजीवाद और सामन्तवाद की जड़ें गहरे तक जमीं हैं. इसी तथ्य को परखते हुए त्रिलोचन ने इस लम्बी कविता में भारतीय सामाजिक और धार्मिक असंगतियों का विस्तृत विश्लेषण किया है. वर्गीय विभेदों की तो वो बार बार परिचर्चा करते हैं. इस सन्दर्भ में वो केवल लोक के चरित्रों का ही परीक्षण नहीं करते अपने आप को भी देखते हैं. त्रिलोचन के आत्मवक्तव्यों को केवल उनका जीवन कथ्य समझना बड़ी भूल होगी. दरअसल अपने बहाने वो लोक की वर्गीय अवस्थिति से परिचय करा रहे होते हैं. उनकी एक कविता है ‘वही त्रिलोचन है वह जिसके तन पर गन्दे/कपड़े हैं कपड़े भी कैसे फटे लटे हैं/यह कविता उनके कविता संग्रह उसी जनपद का कवि हूं में संकलित है. इस कवि को अवध जनपद का आम निवासी समझा जाए. अवध ही क्या समूचे भारतीय गांवों का यही हाल है. जिस व्यक्ति को सम्पत्ति और स्वामित्व से विस्थापित कर दिया जाए वह इसी वेश भूषा में दिखता है. यहां कवि अपने भीतर की दुनिया को जीकर बाहर की दुनिया का अक्स दिखा रहा है. अपने किये धरे और भोगे जीवन से कविता खींच रहा है. यहां कवि जो भी लोक में भोग रहा है उसे सबके साथ साझा कर रहा है. वह अपने कष्ट भी बांट रहा है और अपनी आत्मीयता भी बांट रहा है. लोकधर्म का निर्वहन करने वाला कवि अपने लोक की संरचना से आत्मीयता रखता है उसकी आत्मीयता के दायरे में चेतन और अचेतन का भेद मिथ्या हो जाता है. जैसे केदारनाथ अग्रवाल केन से आत्मीयता रखते थे. लगभग हर शाम वो पैदल केन देखने जाते थे, उसके प्रवाह से मूक संवाद करते थे. केन के प्रति केदार का प्रेम उनकी कविताओं में देखा जा सकता है. त्रिलोचन के यहां भी यही स्थिति है. वह भी अपने गांव घर के आसपास की सारी वस्तुओं से अनुराग रखते हैं. चिडिया, खेत, सेमल का उल्लेख तो बहुत बार हुआ है. अपनी एक कविता में वो सेमल के पेड़ को अपना साथी तक कह देते हैं. यह कविता उनके अरधान कविता संग्रह में हैं. वो कहते हैं ‘साथी है मेरा एक/सेमल का पेड़/जो पुराना है/किसी ने लगाया नहीं/और/न ही रक्षा के लिए/गोड़ा और खड़ा किया/बस्ती से दूर/ताल के समीप खड़ा है’. चेतन मनुष्य का अचेतन प्रकृति के साथ तादाम्य केवल लोकजीवी कवि में ही मिल सकता है. प्रकृति के प्रति ऐसा प्रेम अन्ततः पर्यावरण चेतना में समाप्त होता है. यह भी एक प्रकार का प्रतिरोध है. पूंजी औद्योगीकरण करती है, वह जंगल उजाड़ती है और खेतों को नष्ट कर उसे बाजार में तब्दील करती है. ऐसे में प्रकृति के साथ आत्मीयता पूंजीवादी सरोकारों का प्रतिरोध ही कहा जाएगा. यह आरोपित प्रतिरोध नहीं है अपितु संवेदित प्रतिरोध है. यहां बैनरबाजी और पोस्टरबाजी नहीं है, न ही भाषा का छल है. यह मनुष्य होने की चेतना का दायित्व है. त्रिलोचन की आत्मीयता एक सामान्य आदमी की आत्मीयता है. प्रकृति और मनुष्य के बिम्ब तो कविता में आम बात है छायावाद से लेकर अब तक की कविता मे प्रकृति के मनमोहक दृश्य मिलते हैं. पर मनमोहक दृश्यों के संग संग आत्मीयता का होना कविता को लोकधर्मी बना देता है. कई जगह तो त्रिलोचन प्रकृति के साथ मानवीय आवेग और आवेश को भी आरोपित कर देते हैं. यानी सीधे गांव से मनुष्य के अकृत्रिम बिम्ब लेकर प्रकृति से जोड़ देते हैं. ऐसी कविताओं में मनुष्य के सुख दुख और प्रकृति के सुख दुख दोनों एकाकार हो जाते हैं. यह विशेषता केदारनाथ अग्रवाल में भी पायी जाती है. केन के प्रवाह पर कसी हुई मुट्ठी की कल्पना करके चट्टानी तट तोड़ने का बिम्ब मनुष्य के सक्रिय आक्रोश की व्यंजना करने लगता है. इसी तरह त्रिलोचन का एकाकार बिम्ब देखिए जो उनकी फसल, ऋतु, धूप, शीत, बरसात आदि की कविताओं में बरबस आ गये हैं ‘चैती अब पककर तैयार है/खेतों के रंग बदल गए हैं/मटर उखड रही है/गेहूं जौ खड़े हैं/हवा में झूम रहे हैं’ ये कविता चैती में संकलित है. इसका रचनाकाल 1963 है. यह कविता का वह युग था जब प्रयोगवादी और अकवितावादियों का साहित्य में बोलबाला था. एक तरफ कुछ कवि अपनी निजी कुंठाओं को प्रकृति से जोडकर उसके मौलिक स्वरूप को विकृत कर रहे थे तो कुछ कवि प्रेम व सौन्दर्यबोध के बहाने विकृत पिपासाओं का बिम्ब बना रहे थे. ऐसे कवियों के बीच त्रिलोचन और केदार, नागार्जुन जैसे कवि प्रकृति के आत्मीयता भरे बिम्बों में गहन संवेदनाओं का संकेतक अर्थ दे रहे थे. चैती का पकना केवल घटना नहीं है, यह एक उत्सव भी है. भारत का किसान चैत के महीने में सर्वाधिक खुश होता है, क्योंकि उसकी फसल पककर तैयार हो गयी होती है व वर्षपर्यन्त उसके द्वारा किए गये परिश्रम का प्रतिफल मिलता है. इस कविता में त्रिलोचन ने फसल को भी हर्ष से भर दिया है. इस हर्ष को वही समझ सकता है जिसने कभी खेती की हो. जैसे किसान आह्लादित है वैसे ही उसकी फसल आह्लादित है. यही है प्रकृति और मनुष्य का एकाकार हो जाना. त्रिलोचन की लोक आसक्ति इस हद तक है कि वो अपने लोगों को उन तमाम अवधारणाओं और विचारों से बचाना चाहते हैं जिससे मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को बल मिलता है. जिससे परिवर्तनकारी शक्तियां कुंठित होती है वो समाज के नकारात्मक और गैरवैज्ञानिक तरीकों का मुखर

विरोध करते हैं. यह हर एक लोकधर्मी कवि करता है नागार्जुन ने भी अन्धविश्वासों, पापाचारों का विरोध किया यही केदार की कविताओं में भी है. वह खुलकर धर्म और पूजापाठ का

विरोध करते हैं. त्रिलोचन में उतना मुखर विरोध नहीं है जितना कि नागार्जुन और केदार में है पर दमित और शोषित जनता के प्रति सहानुभूति ने त्रिलोचन को धर्म और पाखंडों के विरोध में जरूर कर दिया है, क्योंकि धर्मादि पाखंड ही जनता को कायर और क्रान्तिविरोधी करके पंगु बना देते हैं. अपनी एक कविता मे वो कहते हैं ‘करता हूं आक्रमण धर्म के दृढ़ दुगरें पर/कवि हूं नया मनुष्य मुझे यदि अपनाएगा/उन गानों में अपने विजयगान पायेगा’ यह कविता उनके दिगन्त कविता संग्रह में है. इस कविता को पढ़कर कहा जा सकता है कि त्रिलोचन महज लोक के भोक्ता और व्याख्याता नहीं हैं. वह लोक के सचेष्ट

साधक भी हैं वह समझते हैं कि जब तक लोकमानस से पूंजीवादी बुर्जुवा मान्यताओं का क्षरण न होगा, तब तक मनुष्यता का विकास नहीं हो सकता है. त्रिलोचन लोक के हर पहलू को कविता में गढ़ते हैं बिम्ब, प्रतीक, अप्रस्तुत विधान, चित्र वीथी, प्रकृति, मनुष्य, संवेदना, संवेग सब कुछ उनकी कविता में उपस्थित है. यदि हम भाषा पर बात करें तो त्रिलोचन कई भाषाओं के आचार्य थे, लिहाजा उनका भाषा ज्ञान मुखर है. फिर भी उनकी रचनात्मकता की मूल जमीन अवध बार बार उनकी कविता में भाषायी हस्तक्षेप करती है. हमने आरम्भ में चर्चा की है कि त्रिलोचन खुद को अवधी काव्य परम्परा से जोडते हैं पर संवेदना के स्तर पर वो अन्य की अपेक्षा तुलसी के लोकमंगल पर अधिक रमते हैं. अवधी भाषा के शब्द उनकी कविता में इस प्रकार बुन गये हैं कि उन्हें हटाने का अर्थ है कविता का सत्यानाश कर देना. कोई शब्द फालतू नहीं है. सब कुछ सुगढ और सुचिन्तित है. इन शब्दों से लोक की वास्तविक प्रकृति और बनावट के साथ साथ भाषायी अर्थवत्ता में भी बढोत्तरी होती है. इसी तरह का शब्द है ‘घमौनी’ जो कविता को नया कर रहा है. इस तरह के शब्द तो उनकी सभी कविताओं में मिल जाते हैं पर भाषा के प्रति कवि की आत्मीयता का पता उनके कविता संग्रह अमोला से चलता है. अमोला में बरवै छन्द का प्रयोग है. यह अवधी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है रोपाई वाला पौधा जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोपा जाता है. अमोला कविता संग्रह के बरवै अवधी में लिखे गए हैं जो यह समझते हैं कि अवधी मृदुल भाषा नहीं है, वह उच्चारण में कठोर है तो उन्हें अमोला के बरवै पढ़ना चाहिए यहां अवधी में भी कान्तासम्मित उपदेश हैं देखें ‘तोहंसे बिछुरे जिऊ होई जाई उदास/अऊंतिआई मन विसरई भूखि पियास’ यह भाषा नकली नहीं है. यह लोक की कोख से उत्पन्न लोकजीवी भाषा है. कवि अपने अनुभव व लोक की पीड़ाओं का जायजा इसी भाषा में लेता है. यह भाषा कवि का स्वभाव है. कविता लोक की संवेदनाओं को तब तक आत्मसात नहीं कर सकती है, जब तक कवि लोक से लोक की भाषा में संवाद न करे. त्रिलोचन इसी कारण लोकधर्मी कहे जाते हैं, क्योंकि वह लोक को उसी की भाषा संवेदना और आत्मीयता से पहचानते हैं. त्रिलोचन वामपंथी थे या नहीं थे, यह विवाद नहीं है पर वो लोकधर्मी अवश्य थे इसलिए वो रचनात्मक स्तर बडे मजबूत कवि हैं. उन्होंने दुखों और पीड़ाओं को कविता का हेतु बनाया है उन्होंने तो यह भी कह डाला है कि जहां पर शोषण और दुख होते हैं वहीं क्रान्ति पलती है. यह सच है लेनिन ने अपनी किताब स्टेट एंड रिलोल्यूसन में इसी तथ्य की व्यंजना की है. लेनिन का अभिमत था कि जब पूंजीवाद अपने चरम में होता है उसी समय परिवर्तन होते हैं. अर्थात शोषण की चरम सीमा ही लोगों में आक्रोश पैदा करती है. त्रिलोचन ने कहा है ‘क्रान्ति उन्हीं लोगों के पास पला करती है/दुख के तम में जीवन ज्योति जला करती है’ अर्थात जो भीषण दुखों में अपना जीवन गुजार रहे हैं वही क्रान्तिकारी होंगे. क्रांति के लिए संगठन जरूरी होता है और संगठन के लिए पारस्परिक प्रेम आवश्यक होता है. इसलिए त्रिलोचन प्रेम व पारस्परिक साहचर्य का उपदेश देते हैं. प्रेम और साहचर्य व्यक्ति को परस्पर संगठित कर सहानुभूति पैदा करता है प्रेम और विश्वास ही संसार को बदलने का सूत्र प्रदत्त कर सकता है. त्रिलोचन द्वारा प्रस्तावित संभावना का मार्ग प्रेम से होकर गुजरता है. प्रेम को बुनियादी परिवर्तन का आधार कहा जा सकता है ‘लुटे सताए हुए आदमी जहां पड़े हों/अच्छा हो जाग्रत जन उनके लिए खड़े हों. यही त्रिलोचन की रचनात्मक जमीन है जिसकी मनोभूमि को पहले तुलसी ने ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई’ कहकर परिभाषित किया. फिर त्रिलोचन ने प्रेम और सहानुभूति द्वारा परिभाषित किया. दोनों कवियों ने अपने निर्धारित अस्त्रों को लोकभावनाओं और लोकमान्यताओं से अर्जित किया और अपने युग के अनुरूप उनकी नवीन व्यख्या की है.

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: प्राची - नवंबर 2016 / आलेख / त्रिलोचन का लोक-संरचना और सरोकार / उमाशंकर सिंह परमार
प्राची - नवंबर 2016 / आलेख / त्रिलोचन का लोक-संरचना और सरोकार / उमाशंकर सिंह परमार
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