रिपोर्ताज प्रेमचंद के शहर में भैया विवेक प्रियदर्शी अ हले सुबह ‘‘उठ जा हो ऽ ऽ ऽ मोगल सराई आ गइनी. अरे उठीं ऽऽऽ.’’ मेरे एक सहयात्री मुझे झ...
रिपोर्ताज
प्रेमचंद के शहर में
भैया विवेक प्रियदर्शी
अहले सुबह ‘‘उठ जा हो ऽ ऽ ऽ मोगल सराई आ गइनी. अरे उठीं ऽऽऽ.’’ मेरे एक सहयात्री मुझे झकझोरे जा रहे थे, ‘‘ए भाई तनि उठी. अगिला स्टाप बनारसे बा ऽऽ.’’ बनारस यानी अपने गंतव्य का नाम सुनते ही मेरे बदन में स्फूर्ति आ गई. मैं अपने बर्थ पर उठकर बैठ गया और खिड़की का पर्दा हटाकर बाहर देखा. हमारी ‘गंगा-सतलज एक्सप्रेस’ सचमुच ‘मुगल सराय जंक्शन’ पर खड़ी थी. आनन-फानन में मैंने अपने ब्रीफकेस से टूथब्रश-पेस्ट आदि निकाला और वाशबेसिन की ओर लपका. ए.सी. केबिन से बाहर निकलते ही कर्कश स्वर में ‘चा ऽऽऽ य, चा ऽऽऽऽ य’ के बेसुरे आलाप ने मेरा स्वागत किया.
मैंने उस चायवाले से कहा, ‘‘भइया, पहले हाथ-मुंह तो धो लेने दो.’’ मेरे हाथ-मुंह धोते-धोते ट्रेन चल पड़ी. अब हम चल पड़े थे बनारस के लिए. ये बनारस भी बहुत अनोखा शहर है. इतना अनोखा कि जिस भी चीज के साथ इसका नाम जुड़ जाए, वो चीज भी अनोखी हो जाती है. बनारसी साड़ी, बनारसी पान, बनारसी चाट, बनारसी घाट, बनारसी पंडा, बनारसी संगीत, बनारसी कोठे, बनारसी ठग से लेकर बनारसी सांड तक अपनी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं. देखते ही देखते ट्रेन गंगाजी का दर्शन कराती हुई बनारस शहर के ही एक स्टेशन, ‘काशी’ पर आ ठहरी.
काशी! हिन्दू मान्यतानुसार भगवान शिव के त्रिशूल पर टिका हुआ वो मिथकीय भूखंड, जिसकी गणना मोक्ष प्रदान करने वाले सप्त पुरों में की जाती है. प्राचीन काल में लोग यहां ‘काशी करवट’ लेकर अपनी इहलीला समाप्त करने आते थे. इस शहर की प्रशस्ति में अनेक शास्त्रों में अनेकों अध्याय लिखे गए हैं. मैं कुछ पुराणों का स्मरण करने का प्रयास कर ही रहा था कि शास्त्रों के सूत्र-वाक्य ‘चरैवेति चरैवेति’ को चरितार्थ करती हमारी ट्रेन बढ़ चली.
कुछ ही मिनटों में हम, ‘वरुणा’ और ‘अस्सी’, इन दो नदियों के बीच बसे अत्यंत पौराणिक शहर, जिसका नामाकरण भी इन्हीं दोनों के नामों के मेल से किया गया है और जो एक तीर्थ के रूप में विश्वविख्यात है, ‘वाराणसी’ पहुंच गए. यह शहर वाराणसी, बनारस और काशी इन तीन नामों से जाना जाता है. अस्सी नदी और गंगा के संगम पर बने घाट का नाम ‘अस्सी घाट’ क्या रख दिया कि बनारस के एक बड़े तबके ने ‘अस्सी’ को व्यक्तिवाचक संज्ञा की जगह संख्यावाची मान लिया. ऐसे लोगों की धारणा है कि बनारस में गिनती से अस्सी घाट हैं. यही नहीं, जैसे सिंहासन बत्तीसी की बत्तीस पुतलियों की बत्तीस कहानियां थीं, वैसे ही यहां के अस्सी घाटों के भी अस्सी आख्यान बताने वाले लोग जगह-जगह मिल जाते हैं. इन घाटों पर न जाने कितनी पोथियां लिखी गईं और न जाने कितने मंत्र रचे गए. मेरी समझ से ‘घाट-घाट का पानी पीना’ मुहावरे का जन्म भी इन्हीं घाटों में हुआ होगा.
प्लेटफार्म पर उतरकर मैंने घड़ी देखी, सुबह के पौने छः बज रहे थे. अंग्रेजी मत के अनुसार वो 30 जुलाई थी. अपने वाराणसी पहुंचने की सूचना देने के लिए मैंने राजीव गोंड, जो ‘प्रेमचन्द पथ’ पत्रिका के सम्पादक हैं और जिनके स्नेह-निमंत्रण पर मैं यहां आया था, को कई बार फोन लगाने का प्रयास किया, परन्तु फोन ‘कनेक्ट’ नहीं हो पा रहा था. फिर जैसे ही मैं प्लेटफॉर्म से बाहर निकला, कि सामने ‘गिन्नी’, जिसके घर मुझे ठहरना था, खड़ा मिला. मैं विज्ञान की ऐसी तरक्की को, जिसमें लोग मोबाइल के ‘ऐप्स’ से आपके आवागमन के पल-पल की खबर रखते हैं, सराहता हुआ गिन्नी के साथ सिद्धिगिरि बाग स्थित उसके घर पहुंचा.
गिन्नी के घर के आत्मीय वातावरण में मैंने स्नान-ध्यान से लेकर जलपान तक किया. फिर 11 बजे ‘प्रेमचन्द पथ’ पत्रिका के ‘विमोचन सह प्रेमचन्द पथ सम्मान समारोह’ में भाग लेने को मैं निकला और बनारसी गलियों के जाल का आनन्द उठाता हुआ मैदागिन स्थित ‘पराड़कर स्मृति भवन’ पहुंचा. वहां युवा राजीव गोंड ने अत्यंत उत्साह के साथ मेरा स्वागत किया. पहली मुलाकात में ही इतनी आत्मीयता, मन को मोह लेने वाली थी. फिर हमदोनों ‘खांड़लकर सभागार’ जिसे ‘पत्रकार वार्ता कक्ष’ भी कहा जाता है, के अंदर आए. बारह बजे के आसपास कार्यक्रम का शुभारंभ पारम्परिक रूप से दीप प्रज्जवलित कर हुआ. दीप प्रज्वलन के उपरान्त सभाध्यक्ष श्री जितेन्द्र नाथ मिश्र, मुख्य अतिथि प्रोफेसर राजकुमार, विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर एस.एच. अब्बास तथा राजीव गोंड जी के कर कमलों द्वारा त्रैमासिक पत्रिका ‘प्रेमचन्द पथ’ के ‘जुलाई-सितम्बर, 2016 अंक’ का विमोचन किया गया. यह व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए भी गौरव का क्षण था क्योंकि जिस ‘प्रेमचन्द’ के कंधों पर चढ़कर मैंने साहित्य की दुनिया देखी थी, उसी प्रेमचंद को समर्पित पत्रिका ‘प्रेमचन्द पथ’ के इसी अंक में मेरी पहली कहानी ‘सत्यमेव जयते’ प्रकाशित हुई थी. सुखद संयोग यह भी था कि पत्रिका के इसी अंक का विमोचन प्रेमचन्द के शहर में ही, उन्हीं की जयन्ती के अवसर पर हो रहा था. एक साथ इतने सारे संयोग से मन अत्यंत प्रसन्न था.
इसके पश्चात् कथा, काव्य, पत्रकारिता, समाजसेवा एवं चित्रकला में उल्लेखनीय योगदान के लिए क्रमशः डॉ. उमेश प्रसाद सिंह, श्री ओमप्रकाश चौबे, श्री अशोक सिंह, डॉ. रत्नेश वर्मा एवं श्री वंशीलाल परमार को स्मृति चिह्व एवं अंगवस्त्र प्रदान कर सम्मानित किया गया.
फिर बारी आई ‘प्रेमचन्द’ पर अपने विचार व्यक्त करने की. प्रथम वक्ता के रूप में विशिष्ट अतिथि जनाब हसन अब्बास, जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के प्रोफेसर हैं, ने फरमाया कि प्रेमचन्द की अनेक रचनाओं के उर्दू में होने के कारण, आज भी समाज का एक बड़ा तबका उन महान कृतियों से महरूम है. उन सभी रचनाओं का हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद होना निहायत जरूरी है. अब्बास साहब ने भरोसा दिलाया कि वे खुद प्रेमचन्द की वैसी रचनाओं का उर्दू से हिन्दी में तर्जुमा करेंगे.
उनकी बातों को सुनते-सुनते प्रेमचन्द को लेकर एक से एक बातें मेरे मन में इस प्रकार से उमड़ने लगीं, जैसे सावन-भादों के महीनों में आकाश में मेघ घुमड़ते हैं. मेरे विचारों के बादल बरस जाने को उतावले हुए जा रहे थे, लेकिन कुछ ही मिनटों में मुझे यह समझ में आ गया कि यह वो क्षेत्र है, जहां के लोगों को बारिश की चाह ही नहीं, क्योंकि अगले वक्ता के तौर पर सीधे मुख्य अतिथि प्रो. राजकुमार, जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर हैं, के नाम की उद्घो-ाणा हुई.
प्रो. राजकुमार ने कहा कि हमारे साहित्य की शुरुआत ही प्रेमचन्द से होती है. हम साहित्य का मतलब ही प्रेमचन्द समझते हैं, जिनके व्यक्तित्व और साहित्य के इतने आयाम हैं कि उनके किसी भी एक पक्ष को लेकर उसपर घंटों बोला जाता रहा है. प्रेमचन्द किस्सागोई वाली दुनिया में ले जाते हैं. एक समय अज्ञेय ने उनपे यह आरोप लगाया था कि प्रेमचन्द पुराने दौर की तरह, वाचिक परम्परा के लेखक हैं और उनकी कहानियां पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि सुनने के लिए हैं. इसलिए वे नई परम्परा के लेखक नहीं माने जा सकते. परन्तु बाद के वर्षों में अज्ञेय ने स्वयं ही अपने आरोपों को खारिज करते हुए कहा था कि यह प्रेमचन्द की कमजोरी या खामी नहीं बल्कि खूबी है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए.
प्रो. राजकुमर ने आगे कहा कि जो भी बड़े लेखक होते हैं, वे लोक कथाओं का ही विस्तार कर अपनी रचनाओं के माध्यम से उसे संरक्षित रखते हैं. प्रेमचन्द ने भी अपनी कई रचनाओं में लोक कथाओं का संरक्षण किया है, और अब उनकी परम्परा को सुरक्षित रखना, हमारी जिम्मेवारी है.
मुख्य अतिथि के बाद अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में साहित्यभूषण जितेन्द्र नाथ मिश्र ने कहा कि आज रचनाकार रचना लिखता है, स्वयं अपनी रचना को जीता नहीं है. इस कारण साहित्य एवं जीवन में एक बड़ा फांक दिखाई पड़ता है, जबकि प्रेमचन्द अपनी रचनाओं को स्वयं जीते थे. वे कहते नहीं थे बल्कि करके दिखाते थे. उनका कहना था कि यथार्थ और आदर्श अलग-अलग चीजें नहीं हैं. अच्छे और आदर्श लोग आज भी हैं, लेकिन हमने बुरे लोगों की भीड़ को ही यथार्थ मान लिया है. मनुष्य के भीतर देव और दानव दोनों बसते हैं. अब उनमें से किसे उभारा जाए यह अपना-अपना विवेक है. हमें अपने लेखन के माध्यम से मनुष्य के अंदर बंधी मनुष्यता को मुक्त कराना है.
प्रेमचन्द अपने आदर्शों से जरा भी डिग जाते तो काफी पैसा कमा सकते थे. राजनीति में अपना मुकाम बना सकते थे, लेकिन वे अपनी सोच से टस से मस नहीं हुए. उन्होंने साहित्यकारों को सम्बोधित करते हुए कहा भी था, ‘राजनीति के पीछे चलने वाला साहित्य नहीं होता, बल्कि साहित्य राजनीति के आगे मशाल की तरह चलने वाली चीज है.’ इसलिए वे सबके थे, लेकिन किसी की तरह नहीं थे.
अध्यक्ष के भाषण के पश्चात् डॉ. एम.के. श्रीवास्तव, जो ‘प्रेमचंद पथ’ पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं, ने धन्यवाद ज्ञापित किया और समारोह सम्पन्न हुआ.
सभागार में ही जलपान करने के दौरान मेरा परिचय डॉ. रामसुधार सिंह से हुआ, जो बनारस में आयोजित होने वाली तमाम गो-िठयों के अनिवार्य तत्व माने जाते हैं. जिस तरह अंग्रेजी में बिना वॉवेल के कोई भी ृाब्द सार्थक नहीं हो सकता, उसी प्रकार बनारस में डॉ. रामसुधार सिंह, श्री जितेन्द्र नाथ मिश्र, और डॉ. श्रद्धानंद के बिना कोई भी गोष्ठी, सभा या सम्मेलन आयोजित हो ही नहीं सकता. यदि आप कोई भी सभा आयोजित कर रहे हों, तो आपको इन त्रिदेवों में से कम से कम एक को तो बुलाना ही पड़ेगा, अन्यथा आपकी सभा, सभा मानी ही नहीं जाएगी.
सभागार से मैं और राजीव गोंड जी साथ ही बाहर निकले और पड़ारकर स्मृति भवन के ठीक सामने ‘पाखण्डीलाल’ (अब उनके अभिभावकों ने उनका यही नाम रखा है, तो मुझे वही नाम लिखना पड़ेगा न) के होटल में चाय पी. चाय की चुस्कियों के बीच मुझे पता चला कि आज तो पूरा बनारस ही प्रेमचंदमय है. छोटे-बड़े स्कूलों से लेकर सारे कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों तक में आज बस प्रेमचन्द की जयन्ती की ही धूम है. राजीव जी की सलाह पर मैं वहां से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पहुंचा, जहां प्रेमचन्द पर आयोजित समारोह चल ही रहा था. वहीं मेरा परिचय डॉ. श्रद्धानंद से हुआ, जिनका जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूं.
अत्यंत विनम्र और सौजन्यशील डॉ. श्रद्धानंद के साथ मैंने एक अन्य गोष्ठी में व्याख्यानों का आनन्द उठाया और फिर उन्हीं के साथ मैं ‘भारत माता मंदिर’ पहुंचा, जहां प्रेमचंद पर एक प्रदर्शनी लगी थी. इस प्रदर्शनी में प्रेमचंद के हस्तलिखित कई पत्रों तथा कई कहानियों की पाण्डुलिपियों की छायाप्रति प्रदर्शित की गई थी. यही नहीं, वहां आर्ट कॉलेज के छात्र-छात्राओं द्वारा प्रेमचंद के पात्रों तथा कहानी की ‘थीम’ पर बनाई गई पेंटिंग्स का भी प्रदर्शन किया जा रहा था. प्रत्येक तस्वीर अपने कलाकार की सोच, प्रतिभा और लगन को दर्शा रही थी. उन तस्वीरों की दुनिया में विचरते हुए मुझे समय की सुधि नहीं रही, लेकिन तभी ‘गिन्नी’ के ‘कॉल’ ने जैसे मुझे यथार्थ की दुनिया के लिए ‘रिटर्न टिकट’ पकड़ा दिया.
शाम के साढ़े पांच बज चुके थे, अतः डॉ. श्रद्धानंद से अनुमति लेकर भारतमाता के मंदिर से बाहर निकला और फिर ‘गिन्नी’ के संग उसके घर चल पड़ा.
अगले दिन अर्थात 31 जुलाई को ‘लमही’ में ‘प्रेमचन्द जयन्ती’ पर वृहद कार्यक्रम आयोजित था. अतः पूर्वाह्न दस बजे ही गिन्नी के पिताश्री ने स्वयं ड्राइविंग कर मुझे ‘लमही’ ग्राम में समारोह स्थल तक पहुंचा दिया. लमही में तो उस दिन मेला ही लगा हुआ था. वहां दो जगहों पर कार्यक्रम चल रहा था. एक प्रेमचंद के निवास स्थान में और दूसरा वहां से थोड़ी ही दूर पर स्थित ‘पोखर’ के पास. प्रेमचंद जहां रहा करते थे, वह मकान अब स्मारक की भांति संरक्षित किया जा रहा है, और प्रेमचंद जयन्ती के दिन उसे जनता के दर्शनार्थ खोल दिया जाता है, जिससे कि लोग उस महान आत्मा के संघर्ष और कृतित्व के साक्षी रहे उस मकान में कुछ पल बिताकर, अपने जीवन के संघर्षों से जूझने की प्रेरणा प्राप्त कर सकें. उसी मकान के विस्तारित हिस्से में प्रेमचन्द की मूर्ति लगी हुई है, जहां लोग फूलों के रूप में उनपर अपनी श्रद्धा अर्पित कर रहे थे. वहां दिन भर में कई मंत्री और विधायक आए और वे प्रेमचन्द को ‘फूल’ चढ़ाने के साथ-साथ, जनता को भी अपने भाषणों से ‘फूल’ (पौधों का ‘फूल’ नहीं बल्कि अंग्रेजी वाला) बनाने के प्रयास से बाज नहीं आए.
वहीं मूर्ति के एक तरफ मंच बना हुआ था, जिसपर कई संस्थाओं और स्कूलों के नन्हें कलाकार प्रेमचंद की कहानियों के नाट्य रूपांतरण का भावप्रवण मंचन कर रहे थे. कलाकारों की लगन और उत्साह देखते ही बन रहा था. वहां दिन भर में दर्जन भर से अधिक ही नाटक मंचित किए गए. दो नाटकों के अंतराल में कुछ स्थानीय गवैये भी मौसम के अनुरूप ‘कजरी’ गायन से समां बांधने का प्रयास कर रहे थे. लेकिन एक सिद्धहस्त गवैये द्वारा, एक ही गीत की बारम्बार प्रस्तुति खटकने वाली थी. बनारस के लगभग सभी जाने माने साहित्यकार, सैकड़ों की संख्या में उमड़ रहे ग्रामीणों के साथ वहां मौजूद थे और प्रेमचंद को श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे थे.
प्रेमचंद के घर के सामने ही प्रेमचंद पर शोध करने वालों के लिए एक रिसर्च सेंटर का भी उस दिन उद्घाटन हुआ.
इसके बाद मैं प्रेमचंद के घर से तकरीबन तीन-साढ़े तीन सौ मीटर की दूरी पर स्थित बहुचर्चित पोखर के पास पहुंचा. वहां तो सचमुच का मेला लगा हुआ था. पोखर के बगल में एक बड़ा-सा मंच बना हुआ था और यहां भी प्रेमचंद की कई कहानियों के नाट्य रूपांतर का बारी बारी से मंचन किया जा रहा था. सामने हजार के लगभग दर्शक नाटकों का आनंद उठा रहे थे.
दर्शकों के चारों ओर ठेले और खोमचेवालों ने जैसे घेरा डाल रखा था. तरह-तरह के खाने की चीजों से ठेले और खोमचे भरे पड़े थे. अमरूद बेचनेवालों से लेकर आइसक्रीम बेचनेवालों तक को फुर्सत नहीं मिल रही थी. हरेक ठेले के चारों ओर के पहले घेरे के बाहर दूसरा घेरा लगाए लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे. छोटे बच्चों की अधीरता देखते ही बन रही थी. जिन बच्चों की बारी आने में देर हो रही थी, वे या तो जमीन पर पड़कर रोने लग जा रहे थे या फिर गुस्से में आकर अपनी मां या पिता से हाथापाई किए जा रहे थे.
ठेलेवालों के पीछे कुछ लोग चादर तान कर अपनी-अपनी अस्थाई दुकानें लगाए बैठे थे. उनमें चाइनिज व्यंजन से लेकर नकली गहनों तक की दुकानें थीं. लड़कियां और महिलाएं वस्त्रों से लेकर चूड़ी-बिन्दी या फिर चांदी जैसी लगती धातु की पायल-बिछिया आदि की खरीदारी में मशगूल थीं.
चारों ओर हर्षोल्लास का माहौल था. काफी दूर दूर से आए लोग यहां मेले और नाटकों का लुत्फ उठा रहे थे. काफी देर तक मैंने भी इन सबका आनन्द उठाया. फिर इस मेले का इतिहास जानने के लिए वहां उपस्थित लोगों से पूछताछ की, तो किसी ने भी बिल्कुल पक्के तौर पर शुरुआत का वर्ष तो नहीं बताया, लेकिन हां! सभी ने इतना जरूर कहा कि दशकों से ये मेला प्रतिवर्ष लगता आ रहा है. यही नहीं, लोगों ने यह भी बताया कि प्रेमचंद की जयन्ती के अवसर पर लमही और बनारस में 15-15 दिनों तक कोई न कोई आयोजन होता ही रहता है. फिर मैंने वहां के निवासियों से प्रेमचंद के विषय में पूछताछ की. पूछने के पीछे मेरा स्पष्ट उद्देश्य था कि क्या लोग-बाग महज मेला घूमने यहां आते हैं या फिर उन्हें प्रेमचंद से सचमुच लगाव है?
वहां के लोगों की प्रतिक्रिया से मैं तो दंग ही रह गया. मेले में तफरीह कर रहे युवकों की तो बात ही छोड़ दें, जिनमें प्रेमचंद को लेकर अतिरंजित गर्व की भावना भरी हुई थी, वहां के अल्पशिक्षित ग्रामीण भी प्रेमचंद के प्रति श्रद्धा भाव से भरे हुए थे. और हां! उनकी श्रद्धा, धार्मिकों की तरह बस मान लेने वाली नहीं थी, बल्कि यथासंभव उन्होंने प्रेमचंद की रचनाओं को खुद पढ़ा था. कई रचनाओं के बारे में दूसरों से सुना था, तो कुछ को नाटकों के जरिए जाना था.
मेले के एक छोर से दूसरे छोर तक जितने भी लोगों से मैं मिला, वे सभी बहुत ही उत्साह के साथ प्रेमचंद पर चर्चा करते दिखे. उन्होंने बताया कि प्रेमचंद ने सामाजिक चेतना और जागरूकता की जो मशाल जलाई थी, उसकी रोशनी से समाज का एक बड़ा हिस्सा आलोकित हुआ है और उस मशाल की आंच में झुलसकर, कई कुरीतियां दम तोड़ चुकी हैं. बदलाव में समय थोड़ा जरूर लगा है, लेकिन अब ब्राह्मण और मोची एक ही पांत में बैठकर भोजन करते हैं.
एक ओर हमारे देश में पाठकों की नगण्यता की बात बताकर छाती पिटौव्वल चलता है, हाय-तौबा मचाई जाती है, विधवा विलाप किया जाता है, वहीं दूसरी ओर एक लेखक के देहावसान के अस्सी बरस बाद भी उनके प्रति ऐसा प्रेम-भाव! यही तो इस महान देश की विशि-टता है कि किसी भी क्षेत्र में, यहां तक कि दर्शकों, श्रोताओं और वोटरों तक में यहां ‘यूनिफॉर्मिटी’ नहीं पाई जाती है. यह वो देश है, जिसकी राजभाषा में ‘निराशा’ लिखने पर भी, ‘आशा’ प्रतिध्वनित होती है.
उस रात को जब मैं वाराणसी से वापसी के लिए ट्रेन में बैठा, तो बरबस ही मुझे अपने पिताजी की बातें याद आईं. साहित्य की अच्छी समझ रखने वाले मेरे अधिवक्ता पिताजी, अक्सर यह कहा करते हैं कि लेखक के शब्द, सिपाही के कारतूस से ज्यादा असर डालनेवाले होते हैं, क्योंकि कारतूस तो एक ही बार चल सकता है और एक ही आदमी पर अपना असर छोड़ सकता है, लेकिन लेखक के शब्द सैकड़ों साल तक जीवित रहते हैं और हरेक युग के, हर दौर के पाठक पर अपना असर छोड़ा करते हैं. प्रेमचंद को समर्पित इस यात्रा ने मेरे पिताजी के इस कथन की पुष्टि कर दी. तभी तो जिस प्रेमचंद को दिवंगत हुए अस्सी बरस बीत चुके हैं, उनके शब्द आज भी ‘वैचारिक विस्फोट’ कर रहे हैं.
सम्पर्कः न्यू एरिया, पहली गली,
हजारीबाग (झारखण्ड)
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