आलेख साहित्य में उदासीनता की गूंज कुसुमलता सिंह साहित्य में उदासीनता की गूंज पर कुछ कहना साहित्यकार की दुखती रग पर हाथ रखने जैसा है. म...
आलेख
साहित्य में उदासीनता की गूंज
कुसुमलता सिंह
साहित्य में उदासीनता की गूंज पर कुछ कहना साहित्यकार की दुखती रग पर हाथ रखने जैसा है. मानवीय चेतना की परिधि में आने वाले यथार्थ को जांचने परखने और परिभा-िात करने का काम बहुत जटिल है. उसकी कोई कसौटी नहीं बनाई जा सकती है. प्रेम जैसे कोमल भाव और संवेदना में भी कभी-कभी मानव चेतना अपने अवसाद के चरम क्षणों में अपने प्रिय को कुल्हाड़ी, चाकू और रिवाल्वर जैसे घातक अस्त्रों से नृशंस वार और हत्या करने से भी नहीं चूकती. मैं यहां प्रेम को परिभा-िात नहीं कर रही हूं वरन् मानवीय चेतना के संदर्भ में बस इतना ही रेखांकित करना है कि सभी प्रकार की रचनात्मक विधाएं विशे-ाकर साहित्य और कला रूपों के प्रति जिम्मेदारी और सजगता मानव चेतना के उसी यथार्थ तक पहुंचने की पद्धतियां होती हैं जिनकी मानवीय चेतना में अपनी वैधता होती है.
इन दिनों रचनाकारों और प्रकाशकों के सामने एक बड़ा प्रश्न तैरता रहता है कि क्या साहित्य के प्रति समाज में उदासीनता आ गई है? क्या साहित्य के पाठक कम होते जा रहे हैं? मोटे तौर पर इसका विश्ले-ाण अगर हिंदी पाठकों को लेकर करें तो कहा जा सकता हैं कि देश में खास तौर पर हिंदी पट्टी क्षेत्रों में साक्षर लोगों की संख्या कम है. वर्तमान समय में जो स्कूल कॉलेज की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं, तथाकथित पढ़े-लिखे हैं उनमें भी साहित्य के प्रति ललक नहीं दिखाई देती. साहित्य के प्रति इतनी उदासीनता क्यों होती जा रही है? इतना तो लिखा जा रहा है लेकिन साहित्य क्यों विरल होता जा रहा है? किसी अच्छे-खासे पढ़े-लिखे व्यक्ति से पूछिये कि क्या आपकी हिंदी साहित्य को पढ़ने में रुचि है? तो उसका उत्तर नि-ोधात्मक तो होगा ही साथ-साथ ही वह सफाई में कहेगा कि वह वाणिज्य या विज्ञान या अर्थशास्त्र आदि वि-ाय का विद्यार्थी रहा है. हिंदी को तो उसने अनिवार्य -िशय के रूप में एक या दो साल ही पढ़ा है. चूंकि मैंने यहां हिंदी पट्टी की बात ली है तो उनके इस उत्तर को सुनकर लगता है कि मानों साहित्य सिर्फ हिंदी विद्यार्थियों के लिए ही लिखा जा रहा है बाकी वि-ाय पढने वालों का उससे कोई संबंध नहीं है. क्या साहित्य के प्रति सदैव ही ऐसी उदासीनता रही या ृाब्द ही अब कुछ नहीं कह पा रहे हैं? कहीें कोई तार टूट गया है, कोई सूत्र खो गया दिखता है.वर्ना सभी कुछ तो बढ़ा है इस बीच. जीवन को सुंदर और सुखमय बनाने के साधन बढ़े हैं, हमारी चीजों के बारे में जानकारी बढ़ी है, अपने और दूसरों के बारे में, मनोविज्ञान के बारे में जानकारी बढ़ी है, जीवन के बारे में सोचना व्यापक हुआ है, फिर जीवन की महत्वपूर्ण विधा साहित्य के प्रति इतनी उदासीनता क्यों?
यह कहना कि हिंदी साहित्य के पठनीयता की गिरती हालत व अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व इसके लिए जिम्मेदार है तो वह भी पूरा सच नहीं है. एक हद तक यह जरूर सच हो गया है कि अंग्रेजी सिर्फ अपने व्यापारिक और तथाकथित राजनैतिक महत्व के कारण ही पढ़ी जाती है. हमारे युवा ठीक ही सोचते हैं कि अंग्रेजी पढ़े बिना उन्हें नौकरियां नहीं मिल सकतीं. बहुत से ऐसे परिवार हैं जहां अंग्रेजी को मातृभा-ाा बनाया जा रहा है. पर यह भी सही नहीं कि अपनी मातृभा-ाा को भुला दें, उसकी उपेक्षा करें या उसके लिए लज्जित हों. बात हिंदी-अंग्रेजी भा-ाा की उतनी नहीं है, जितनी यह है कि सांस्कृतिक संक्रमण के दौर में हमारे समाज में हमारी मानसिकता अभी पढ़ने की परंपरा के अनुकूल नहीं है. साहित्य अभी तक पढ़ने से ज्यादा सुनने की वस्तु है. ऐसे लोगों की संख्या कम है जो बदलती परिस्थितियों के अनुसार अपने को पढ़ने की प्रवृत्ति में ढाल पाएं.
उदाहरण के तौर पर उ. प्र. के पूर्वी जिलों की यदि बात करें तों आजकल गांव, मोहल्ले, कस्बों के ज्यादातर युवा किसी डिग्री, डिप्लोमा की पढ़ाई के उपक्रम में लगे होते हैं. या तो कोई छोटा-मोटा काम करते हैं या फिर बेरोजगारी में तरह-तरह से (जिसमें मोबाइल संस्कृति मुख्य है) टाइम पास करते रहते हैं. उस टाइम पास करने में कोई किताब कोर्स से हटकर उनके हाथ में ृाायद ही कभी दिखाई दे. इतिहास गवाह है कि हर युग में परिवर्तन होता हैं हमारे यहां भी हुआ. मॉल संस्कृति का विस्तार हुआ, मल्टीप्लेक्स, फूडकोर्ट, आइसक्रीम पार्लर, ब्युटी पार्लर, फैशन डिजाइनर तो बढ़े किंतु पब्लिक लाइब्रेरियां कम होती गईं. पुस्तकालय भ्र-ट धंधे वालों के मठ बनते. पाठक और स्तरीय लेखन के बीच ऊंची दीवार खड़ी हो गई. हिंदी किताबें बेचने वाली मशहूर दुकानें बंद होती देखी गईं. सच तो यह है कि पढ़ने की प्रवृत्ति में कमी होने के लिए हमारी शिक्षा पद्धति और घटिया पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी सबसे अधिक है इसके साथ ही स्तरीय पत्रिकाओं और पुस्तकों का लोगों तक न पहुंच पाना एक बड़ा कारण है. धीरे-धीरे हममें एक ऐसी आदत का विकसित हो जाना कि कोई चीज उपयोगी है तभी महत्वपूर्ण है. जितनी ज्यादा उपयोगी है...त्वरित लाभ दे सकती है..तभी वह महत्वपूर्ण है. यहां तक देखा जा रहा है कि अब मानवीय संबंध भी इसी आधार पर बनते हैं कि जो उपयोगी नहीं उससे संबंध बनाना वक्त की बरबादी है. किसी संस्कृति या किसी भा-ाा से भी गहरा संबंध बना तो हम अपने से बार-बार पूछते हैं कि वह देता क्या है? हानि-लाभ के ऐसे गहरे आत्म विश्ले-ाण ृाुरू हो जाते हैं कि उस संबंध को जीना छूट जाता है, हम उसकी व्याख्या में ज्यादा उलझ जाते हैं. हमारी युवा पीढ़ी को भी ृाायद यही लगता है कि साहित्य को पढ़ने से तुरंत क्या लाभ मिलेगा? और उनमें साहित्य के प्रति उदासीनता तारी हो जाती है.
पर यह सार्वभौमिक सत्य है कि कोई भी समाज अपने साहित्य के प्रति लंबे समय तक उदासीन रहकर विकासमान नहीं रह सकता. साहित्य को किसी भी वर्ग या समाज की आत्मकथा कहा गया है. साहित्य से उदासीनता, अपनी संवेदना व भा-ाा का मर जाना है. आदमी के जीवन में कोई आदर्श हो भी कैसे सकता है, अगर वह संसार की सुंदरता और विविधता में आनंद की ही खातिर आनंद लेना नहीं जानता, अगर उसे फूल के खिलने, पशु-पक्षी के खेलने का कोई महत्व नजर नहीं आता, अगर वह गैर उपयोगी चीजों में भी कोई उपयोगिता नहीं ढ़ूंढ़ पाता. तो स्तरीय साहित्य हमें यही देता है. अंधेरे में रोशनी की किरण की तरह वह हमारी आत्मा में उतरता चला जाता है. स्तरीय साहित्य किसी वैधता या व्याख्या का मोहताज नहीं वरन् एक विचारधारा और सोच है जो पढ़ने वाले के समूचे रचनात्मक व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनकर सामने आती है और हमारे लिए वैचारिक जमीन और खाद-पानी देती है. स्तरीय साहित्य देश और काल को दृ-िटगत रखते हुए जीवन के बुनियादी सवालों को उठाता है और उनके उत्तरों की तलाश में आदमी को खड़ा करता है. ऐसे में पढ़ने की परंपरा का न होना और साहित्य के प्रति उदासीनता एक गंभीर वैचारिक प्रश्न है. स्तरीयता की बात बार-बार इसमें दोहराई गई है कि हमें यह भी देखना होगा कि गुणवत्ता की दृ-िट से स्तरीय साहित्य लिखा तो जा रहा है न?
सम्पर्कः संपादक-‘परिंदे’
(साहित्यिक द्वैमासिक पत्रिका)
परामर्श संपादक- ‘ककसाड़’
(साहित्यिक राष्ट्रीय मासिक पत्रिका)
सी-54 रिट्रीट अपार्टमेंट,
20. आई. पी. एक्सटेंशन,
मो. 09968288050
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