कहानी सरबतिया डॉ. विकास कुमार लेखक परिचय नामः डॉ. विकास कुमार जन्मः 12 दिसम्बर, 1986 शिक्षाः एम ए, एम फिल, नेट, जे आर एफ, एस आर एफ, ...
कहानी
सरबतिया
डॉ. विकास कुमार
लेखक परिचय
नामः डॉ. विकास कुमार
जन्मः 12 दिसम्बर, 1986
शिक्षाः एम ए, एम फिल, नेट, जे आर एफ, एस आर एफ, पी एच डी
प्रथम प्रकाशनः ‘भ्रूण हत्या’ कहानी, 6 फरवरी 2004, दैनिक जागरण, रांची.
प्रकाशनः आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य, संवदिया, ककसाड़, अक्षरपर्व, परिकथा, आश्वस्त, आम-आदमी, दिल्ली प्रेस, पहचान यात्रा, दलित साहित्य, पृथ्वी और पर्यावरण, रांची एक्सप्रेस और दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित.
प्रसारणः आकाशवाणी, हजारीबाग से कहानियां निरंतर प्रसारित.
सम्प्रतिः अतिथि व्याख्याता, स्नातकोत्तर मनोविज्ञान विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग, झारखण्ड-825301
सम्पर्कः ग्राम- अमगावाँ, डाकघर- शिला, प्रखण्ड- सिमरिया, जिला- चतरा, झारखण्ड-825401
मो. नं. :- 8102596563, 9031194157
सरबतिया जब अपने मालिक व मालकिन के संग कोडरमा स्टेशन पहुंची तो वह खुशी से फूली न समायी. उसका मन-मयूर खुशी से झूम उठा था. वह भी उनके साथ दिल्ली जायेगी, पुरुषोत्तम एक्सप्रेस से.
इसके पहले न तो उसे स्टेशन आना नसीब हुआ था और ना ही कभी दिल्ली घूमने का सपना देखा था. यहां तक कि ट्रेन भी देखने का नसीब नहीं हुआ था. नसीब होता भी कहां से, गंवई-देहात, बल्कि जंगली इलाके में कहां स्टेशन और कहां रेलगाड़ी! सड़क भी उसके गांव से कोसों दूर थी. अगर उसके मां-बाप को सखुआ की दातुन, दोना, पत्तल बेचने कभी चतरा शहर जाना होता तो कम-से-कम चार मील पैदल कसरत करना पड़ता, तब कहीं कोलतार वाली सड़क नजर आया करती थी और जानवरों से भी बदतर या अनाज की बोरियों की तरह लोगों को लादकर ले जाने वाली एकमात्र सोना बस.और तब कहीं जाकर देख पाती थी रिक्शा, टेम्पू, स्कूटर, मोटर-साइकिल व अन्य तरह की गाड़ियां, लेकिन रेलगाड़ी नहीं.
आज पहली बार रेलगाड़ी पर चढ़ेगी वह, बल्कि पहली बार रेलगाड़ी देखेगी. पता नहीं, कैसी होती है रेलगाड़ी. गांव का एक लड़का लडडू तो कहता था कि रेलगाड़ी सांप की तरह होती है.और काफी लम्बी.और उसके अन्दर ही अंदर जाने का रास्ता भी होता है. करीब तीन-चार हजार से ऊपर आदमी एक साथ सफर करते हैं. यहां सोना बस की तरह सिर्फ चालीस-पचास आदमी नहीं..और तेजी से भी चलती है.
वह उन लोगों के साथ सीढ़ियों से होकर प्लेटफार्म पर आयी तो देख कर हैरान रह गयी. इतनी भीड़?.इतने सारे लोग? बाप रे! यहां क्या कर रहे हैं? क्या ये सभी दिल्ली ही जायेंगे..और ये कहीं-कहीं बैठने के लिए बने चौकोर चबूतरे और लम्बी-लम्बी लोहे की कुर्सियां.और फिर ट्रेन के आने-जाने की सूचना देने वाले बड़े-बड़े चोंगे. वह हतप्रभ थी. उसने भगवान का मन-ही-मन शुक्रिया अदा किया, ‘हे भगवान! धन्य है तू, जो मुझे इतने अच्छे घर में नौकरी के लिए भेजा. वहां अपने मां-बाप के साथ रहती तो भला यह दिन कब देख पाती.’
उसके मालिक और मालकिन अपना सामान लिये एक चबूतरे के नजदीक आये और खाली जगह पाकर जम गये. सरबतिया भी उसके नीचे जमीन पर चुकुमुकी बैठ गयी. बड़े लोग हैं न, मैं उनके साथ चबूतरे पर कैसे बैठ सकती हूं.
यद्यपि सरबतिया की उम्र बारह-तेरह साल से ज्यादा नहीं थी, लेकिन परिस्थिति ने उसे इतना तो समझदार जरूर बना दिया था; बल्कि मां ने भी उसे समझाकर कहा था, ‘तू बड़ी खुशनसीब है कि तुम्हें मालकिन अपने यहां बरतन बासन करने के लिए रखने को राजी हुए, लेकिन वहां जाकर बड़-छोट का लिहाज जरूर करना.’
..और बदले में एक हजार महीने के भी मिलने थे. बड़े लोगों के यहां खाने-पीने का तो कोई टेंशन ही नहीं होता है. उनका जूठन भी मिल जाय, तो सरबतिया उसी को खाकर आराम से पेट भर लेगी. कपड़ा-लत्ता तो खैर, इसकी कोई चिंता ही नहीं, रखेंगे तो देंगे ही. बल्कि मालकिन ने उसे पहले ही दिन हजारीबाग बाजार से दो फ्रॉक, एक जोड़ा चप्पल, बाल बांधने वाला रबर खरीद कर दिया था.उस दिन सरबतिया ने अपने आप को कम भाग्यशाली नहीं समझा था. अभी तक अपने घर में चप्पल भी नसीब नहीं हुआ था उसे. पड़ोस के चाचा की लड़की धनिया भी किसी मालकिन के यहां रहती है, लेकिन उसको ऐसा नसीब कहां
तभी पटरी पर एक मालगाड़ी बड़ी ही तेजी से मानो उड़ती हुई पार कर गयी. वह हड़बड़ा गयी और हसरत भरी निगाहों से देखती रह गयी. यही रेलगाड़ी है, लेकिन इसमें कोई चढ़ा नहीं,.लेकिन किसी ने रोका भी तो नहीं! वहां सोना बस को रोकने के लिए लम्बा हाथ देना होता है. भला यह तो ट्रेन है, इसे रोकने के लिए हाथ जोड़कर खड़ा होना पड़ता होगा, तभी तो रुकेगी. जितनी बड़ी गाड़ियां, उतनी बड़ी मिन्नत. किसी ने हाथ भी नहीं दिया तो गाड़ीवाला भला कैसे रोकेगा? उसका भी तो भाव है, इतनी लम्बी रेलगाड़ी जो चला रहा है.
हां, एक चीज का उसे आभास हो रहा था कि कुछ लोग रह-रहकर उसको देख रहे थे. पता नहीं, हो सकता है, मैं इस नये फ्रॉक और चप्पल में खूबसूरत लग रही हूं, शायद. लेकिन उन लोगों के जैसा मेरा कपड़ा भी तो नहीं है. नया तो जरूर है, मगर उन लोगों के जैसा अच्छा नहीं.चलो हटाओ, देख रहे हैं तो देखते रहें, हमें क्या.अभी तक जवान भी तो नहीं हुई हूं. मैया कहती थी कि चार साल के बाद तुम जवान हो जाओगी और फिर तुम्हारी शादी कर देंगे.चलो, इस मालिक-मालकिन के साथ रहूंगी तो दो ही साल में जवान हो जाऊंगी.
पास ही आने-जाने वाले हॉकरों पर गौर करती, उनके सामान बेचने के स्टाइल को एक दार्शनिक की भॉति देखती. चतरा में चाय दुकानवाला भी इसी तरह चिल्ला-चिल्लाकर चाय बेचता है, ‘चाय-चाय, राम प्यारी चाय.’
फिर अचानक भोंपू की आवाज से सभी खड़े हो गये और अपना-अपना सामान वगैरह संभालने लगे. सरबतिया के मालिक और मालकिन ने भी अपनी तैयारी शुरू कर दी. यह देख खुद उसने भी अपने थैले को कंधे में डाल लिया.शायद रेलगाड़ी के आने की सूचना मिली हो. कोई कह रहा था कि आज ट्रेन आधा घंटा लेट है. साफ जाहिर था, ट्रेन के आगमन का समय हो गया था, बल्कि आ भी गयी थी, लगभग. सरबतिया के दिमाग में एक नया शब्द समाहित हो गया.ओ! अच्छा!.रेलगाड़ी को ट्रेन भी कहा जाता है.
ट्रेन रुकी नहीं कि आपाधापी शुरू हो गयी. कुछ लोग उतरने के लिए परेशान थे, तो कुछ चढ़ने के लिए.और कुछ इधर-उधर दौड़ रहे थे. सरबतिया को यह सब कुछ समझ में नहीं आ रहा था. लेकिन वह मालिक और मालकिन के साथ ही एक डब्बे में सवार हो गयी.
सेकेण्ड क्लास ए.सी. के डब्बे में घुसते ही वहां की व्यवस्था को देखकर दंग रह गयी. एकदम वातानुकूलित वातावरण था.और फिर वह अपने मालिक-मालकिन के पीछे-पीछे एक निश्चित स्थान पर गयी. सामान वगैरह को रखकर वह पुनः नीचे बैठ गयी. उसके मालिक-मालकिन के घर के जैसा ही यहां की भी व्यवस्था थी.
मालकिन ने उसे सीट पर बैठाया. पहले तो सकुचायी और फिर आराम से बैठ गयी, फिर खिड़की के बाहर झांकने लगी. उसने आहिस्ते से खिड़की को छुआ और ढकेलने का प्रयास करने लगी; फिर असफल होकर शांति से बैठ गयी. ट्रेन खुली तो भ्रम-सा होने लगा. ट्रेन आगे बढ़ रही है या प्लेटफार्म पीछे छूट रहा है.उसे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था.फिर कुछ देर बाद तो प्लेटफार्म ही समाप्त हो गया और फिर पेड़-पौधे, जंगल, बाग-बगीचे और फिर धान के खेत. सरबतिया का भ्रम अब टूटने लगा था, धत्, रेलगाड़ी चल रही है तो.
सबसे बड़ा आश्चर्य तो उसे इस बात से हो रहा था कि रेलगाड़ी चलती है या रुकती है, जरा-सा भी पता नहीं चलता है. लेकिन उसे धीरे-धीरे अनुभव होने लगा था कि जब बाहर के पेड़-पौधे या कुछ भी चीज पीछे भागने लगे तो समझो रेलगाड़ी चल रही है और नहीं भागेगी तो समझो ट्रेन रुकी हुई है.
वह एक बात और गौर कर रही थी कि यहां गर्मी नहीं लग रही है. बड़ा अच्छा ठण्डा-ठण्डा लग रहा है. सुनते हैं स्वर्ग में भी ऐसा ही लगता है. पता नहीं सरबतिया स्वर्ग जायेगी या नरक.लेकिन अच्छा काम करेगी तो स्वर्ग जरूर ही जायेगी.मगर नरक भी मिल जाय तो अब कोई गम नहीं है. उसे तो जीवित में ही स्वर्ग नसीब हो गया था. अब तक उसे इस तरह की आबोहवा कहां नसीब हो पायी थी.
फिर कुछ देर बाद एक आदमी आया.और तकिया व चादर दे गया. सरबतिया ने छूकर देखा. एकदम गुलगुल तकिया, फिर झट-से हाथ पीछे हटा ली. यह सोचकर कि मालिक-मालकिन बड़े आदमी हैं न, उन्हीं के लिए आया होगा.पर कुछ देर बाद मालिक ने उसकी ओर एक तकिया और एक चादर बढ़ाया तो उसने झट से ले लिया. आज वह चादर बिछाकर और गुल-गुल तकिया को सर में लेकर सोयेगी. बड़ी ही चैन की नींद आयेगी.
रेलगाड़ी में आराम से बैठने भर की देर थी कि खास तरह के ड्रेस पहने व्यक्ति तरह-तरह के भोजन प्लेट में सजा-सजाकर लाने लगे; हर एक-आधे घंटे के बाद. सरबतिया दम भर खाती रही, स्वाद ले लेकर. पता नहीं उसने कौन-सा पुण्य का काम किया था जो इतने अच्छे-अच्छे भोजन नसीब हो रहे थे. चतरा में सिंघाड़ा खाते-खाते ऊब गयी थी, ज्यादा खुश हुई तो मिठाई के नाम पर लेठो मिठाई, मैदा और गुड़वाली.बाकी और मिठाई खाने का तो नसीब ही नहीं हुआ था.अच्छी मिठाई खाने के लिए तो ज्यादा पैसे लगते हैं न, उतना पैसा कहां मिल पाता था उसे.
.फिर उसने गौर किया कि खिड़की के बाहर अब कुछ नजर नहीं आ रहा था, कहीं-कहीं टिमटिमाती हुई बत्ती. शायद रात हो चली थी, फिर भी ट्रेन चल ही रही थी.अब केबिन में और भी लोग सोने का उपक्रम कर रहे थे. सरबतिया ने देखा कि उसके मालिक और मालकिन भी आराम से ऊपर वाले बर्थ में चादर बिछाकर सो रहे हैं.अब उसे भी लगा कि सोना चाहिए.फिर वह तकिये को सर पर टिकाये और चादर ओढ़कर सोने का उपक्रम करने लगी, बल्कि सो भी गयी और फिर..सुन्दर-से सपने में खो गयी.
वह स्वप्न देख रही थी कि वह अपने मालिक और मालकिन के साथ स्वर्ग की सैर कर रही है, जहां एक-से-एक सुंदर परियां थीं.फिर कुछ देर बाद वह खुद परी जैसी ही बन गयी और सबके साथ नाचने लगी, गाने लगी. यह सब करने में उसे मजा ही मजा आ रहा था.
सुबह हुई. सरबतिया की नींद अचानक टूटी. ट्रेन रुकी हुई थी. झट उठी और मालिक-मालकिन के साथ रेलगाड़ी से उतर गयी. हां, वह दिल्ली पहुंच चुकी थी, क्योंकि कुछ बच्चे शोरगुल मचा रहे थे, दिल्ली आ गयी, दिल्ली आ गयी.
मालिक-मालकिन उसे अपने साथ मैट्रो स्टेशन ले आये. हां, आगे का सफर वे मैट्रो ट्रेन से ही करेंगे. वहां भी सरबतिया को आश्चर्य हुआ. इतना साफ-सुथरा. सब कुछ चमक रहा था. कोडरमा स्टेशन में इतनी साफ-सफाई कहां थी. यह तो सच में स्वर्ग ही था. ट्रेन का गेट अपने आप खुलता है, लोग घुसते हैं, फिर बंद हो जाता है. एकदम जादू की तरह.फिर मैट्रो अपने आप ‘सुई-ई-ई’ करके चल देती है. वह अपने मालिक-मालकिन को देवतुल्य समझकर मन ही मन पूजा कर रही थी कि धन्य हैं, मेरे भाग्य जो इतने अच्छे मालिक-मालकिन मिले.
मैट्रो ट्रेन में सफर करके अब वह ऐसी जगह पहुंच गयी, जहां देखकर वह दंग ही रह गयी. बड़ा ही सुखद दृश्य था उसके लिए. सरबतिया की तरह ही कई लड़कियां फैशनेबल ड्रेस पहने, लिपस्टिक लगाये रेलिंग पर खड़ी थीं. उसका मन मयूर खुशी से नाच उठा था. वह भी ऐसे ही फैशनेबल कपड़े पहनेगी और होठों में लिपस्टिक लगायेगी. एकदम से ऐश्वर्या राय लगेगी. कहीं ऐसा न हो कि लड़कियां जलने लगें.जलेंगी तो जला करें. वह तो अपने रूप का जलवा दिखाकर ही रहेगी.पर मालिक-मालकिन उसे घर के काम से छुट्टी देंगे तब न..बरतन-बासन, झाड़ू-पोंछा से तो उसे फुरसत ही नहीं मिलेगी. उसके मन में उधेड़बुन चल ही रही थी कि वह सीढ़ियों से होते हुए एक महलनुमा घर में प्रवेश की. क्या चमक-दमक था वहां का. यह देखकर रात के स्वप्न साकार होने लगे. कुछ ऐसा ही माहौल यहां भी था. कुछ लड़कियां सरबतिया का हाथ पकड़कर अंदर ले गयी.
.फिर वह तैयार होकर बाहर निकली तो सभी ‘माशा-अल्लाह’ कह कर मुंह फाड़े रह गये. वाकई में वह काफी सुंदर लग रही थी. किसी के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा, ‘इसके तो सबसे ज्यादा दाम मिलेंगे. माल एकदम नया है.’
सरबतिया सहम-सी गयी. उसे याद आया, जब अच्छे दातुन लेकर चतरा ृाहर जाती थी अपने मां-बापू के साथ तो मोलभाव करके ज्यादा दाम ले लेती थी.और यहां भी कुछ ऐसी ही बात हो रही थी. वह इस संशय में पड़ी थी कि वह तो घर का बरतन-बासन धोने, झाड़ू-पोंछा का काम करने आयी थी, अपने मालिक-मालकिन के संग, फिर यहां दाम की बात..एक ही हजार महीना तो उसे मिलना था..बड़ा अजीब लग रहा था, उसे.उसके सपने अब शीशे की भांति चूर-चूर होकर बिखर रहे थे.उसे मालिक और मालकिन के चेहरे पर अब देवता के बिम्ब नहीं, दानव के बिम्ब नजर आ रहे थे.शायद उसे आभास हो गया था कि जिस तरह वह दातुन का मोल-भाव कर ज्यादा दाम ले लेती थी, अब उसका भी मोल-भाव कर अच्छा दाम वसूला जायेगा.
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