त्रिलोचन की कुछ कवितायें चयन : श्याम सुशील ध्वनिग्राहक ध्वनिग्राहक हूं मैं. समाज में उठने वाली ध्वनियां पकड़ लिया करता हूं. इस पर कोई...
त्रिलोचन की कुछ कवितायें
चयन : श्याम सुशील
ध्वनिग्राहक
ध्वनिग्राहक हूं मैं. समाज में उठने वाली
ध्वनियां पकड़ लिया करता हूं. इस पर कोई
अगर चिढ़े तो उसकी बुद्धि कहीं है खोई
कहना यही पड़ेगा. अगर न हो हरियाली
कहां दिखा सकता हूं? फिर आंखों पर मेरी
चश्मा हरा नहीं है. यह नवीन ऐयारी
मुझे पसंद नहीं है. जो इसकी तैयारी
करते हों वे करें. अगर कोठरी अंधेरी
है तो उसे अंधेरी समझाने-कहने का
मुझको है अधिकार. सिफारिश से, सेवा से
गला सत्य का कभी न घोटूंगा. मेवा से
बरंब्रूहि न कहूंगा और न चुप रहने का.
लड़ता हुआ समाज, नई आशा अभिलाषा,
नए चित्र के साथ नई देता हूं भाषा.
(दिगंत से)
उस जनपद का कवि हूं
उस जनपद का कवि हूं जो भूखा-दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला-नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है. कब सूखा है
उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता सकता है. वह उदासीन बिल्कुल अपने से,
अपने समाज से है, दुनिया को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहां से कहां पहुंची, अब समाज में
वे विचार रह गए नहीं हैं जिनको ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आंसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में.
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन-पढ़कर, जपता है नारायण नारायण.
(‘उस जनपद का कवि हूं’ से)
अपराजेय
हिंदी की कविता, उनकी कविता है जिनकी
सांसों को आराम नहीं था, और जिन्होंने
सारा जीवन लगा दिया कल्मष को धोने
में समाज के, नहीं काम करने में घिन की
कभी किसी दिन. हिंदी में सतरंगी आभा
विभव भूति की नहीं मिलेगी, जन जीवन के
चित्र मिलेंगे, घर के वन के सबके मन के
भाव मिलेंगे, बोए हुए खेत में डाभा
जैसे एक साथ आता है, कुछ ऐसे ही
वातावरण एक से भावों से छा जाता
है, फिर प्राणों-प्राणों में एकत्व दिखाता.
नेह उमड़ आए तो दूर कहां है नेही.
भाव उन्हीं का सबका है जो थे अभावमय,
पर अभाव से दबे नहीं जागे स्वभावमय.
(दिगंत से)
हंसकर, गाकर और खेलकर
हंसकर, गाकर और खेलकर पथ जीवन का
अब तक मैंने पार किया है, लेकिन मेरी
बात और है, ढंग और है मेरे मन का,
उसी ओर चलता है जिधर निगाह न फेरी
दुनिया ने. दुखों ने कितनी आंख तरेरी,
लेकिन मेरा कदम किसी दिन कहीं न अटका-
घोर घटा हो, वर्षा हो, तूफान, अंधेरी
रात हो. अगर चलते-चलते भूला-भटका
लगा नहीं. जो गिरता-पड़ता आगे बढ़ता
है, करता कर्तव्य है, उसे किसका खटका,
पग-पग गिनकर पर्वत-श्रृंगों पर हूं चढ़ता.
आभारी हूं मैं, पथ के सब आघातों का,
मिट्टी जिनसे वज्र हुई उन उत्पातों का.
(‘अनकहनी भी कुछ कहनी’ से)
बिस्तरा है न चारपाई है
बिस्तरा है न चारपाई है.
जिंदगी खूब हमने पाई है.
कल अंधेरे में जिसने सर काटा,
नाम मत लो हमारा भाई है.
ठोकरें दर-ब-दर की थी हम थे,
कम नहीं हमने मुंह की खाई है.
कब तलक तीर वे नहीं छूते,
अब इसी बात पर लड़ाई है.
आदमी जी रहा है मरने को,
सबसे ऊपर यही सचाई है.
आदमी जी रहा है मरने को,
सबसे ऊपर यही सचाई है.
कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम,
धुन कहां वह संभल के आई है.
‘गुलाब और बुलबुल’ से
कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था
कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था
आज वीराना हुआ है, पहले दिन आबाद था.
अपनी चर्चा से शुरू करते हैं अब तो बात सब,
और पहले यह विषय आया तो सबके बाद था.
गुल गया, गुलशन गया, बुलबुल गया, फिर क्या रहा
पूछते हैं अब वे ठहरा किस जगह सैयाद था.
मारे मारे फिरते हैं उस्ताद अब तो देख लो,
मर्म जो समझे कहे पहले वही उस्ताद था.
मन मिला तो मिल गये और मन हटा तो हट गये,
मन की इन मौजों से कोई भी नहीं मतवाद था.
रंग कुछ ऐसा रहा और मौज कुछ ऐसी रही,
आपबीती भी मेरी वह समझे कोई वाद था.
अन्न-जल की बात है, हमने त्रिलोचन को सुना,
आजकल काशी में है, कुछ दिन इलाहाबाद था.
‘गुलाब और बुलबुल’ से
चम्पा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती
चम्पा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूं वह आ जाती है
खड़ी-खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता हैः
इस काले चीन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं
चम्पा सुंदर की लड़की है
सुंदर ग्वाला है : गायें-भैंसें रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है
चम्पा अच्छी है
चंचल है
नटखट भी है
कभी-कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे-तैसे उसे ढूंढ़कर जब लाता हूं
पाता हूं- अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूं
चम्पा कहती है :
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन-भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
उस दिन चम्पा आयी, मैंने कहा कि
चम्पा तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है
सब जन पढ़ना-लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ूंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने-लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूंगी
मैंने कहा कि चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी
कुछ दिन बालम संग-साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे संदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिखकर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग-साथ रखूंगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी
कलकत्ते पर बजर गिरे!
दीवारें दीवारें
दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें
चारों ओर खड़ी है. तुम चुपचाप खड़े हो
हाथ धरे छाती पर, मानो वहीं गड़े हो.
मुक्ति चाहते हो तो आओ धक्के मारे
और ढहा दें. उद्यम करते कभी न हारें
ऐसे-वैसे आघातों से. स्तब्ध पड़े हो
किस दुविधा में? हिचक छोड़ दो जरा कड़े हो.
आओ अलगाने वाले अवरोध निवारें.
बाहर सारा विश्व खुला है, वह अगवानी
करने को तैयार खड़ा है पर यह कारा
तुमको रोक रही है क्या तुम रुक जाओगे?
नहीं करोगे ऊंची क्या गरदन अभिमानी?
बांधोगे गंगोत्री में गंगा की धारा
क्या इन दीवारों के आगे झुक जाओगे?
(उस जनपद का कवि हूं)
कविताएं हाथ हैं पांव हैं
कविताएं रहेंगी तो
सपने भी रहेंगे
जीने के लिए
सपने सभी को
आश्वासन देते हैं
भंवर में झकोरे
खाती नाव को
जैसे-तैसे
उबार लेते हैं.
कविताएं
सपनों के संग ही
जीवन के साथ हैं
कभी-कभी पांव हैं
कभी-कभी हाथ हैं.
‘मेरा घर’ से
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त्रिलोचन की एक अवधी कविता
कहेन किहेन जेस तुलसी तेस केसे अब होये
कहेन किहेन जैस तुलसी तैस कैसे अब होये.
कविता केतना जने किहेन हैं आगेउ करिहैं,
अपनी अपनी बिधि से ई भवसागर तरिहैं,
हमहूं तौ अब तक एनहीं ओनहीं कै ढोये,
नाइ सोक सरका तब फरके होइ के रोये.
जे अपनइ बूड़त आ ओसे भला उबरिहैं
कैसे बूड़इवाले संग.संग जरिहैं मरिहैं
जे, ओनहीं जौं हाथ लगावइं तउ सब होये.
तुलसी अपुनां उबरेन औ आन कं उबारेन.
जने.जने कइ नारी अपने हाथेन टोयेन,
सबकइ एक दवाई राम नाम मं राखेन,
काम क्रोध पन कइ तमाम खटराग नेवारेन,
जवन जहां कालिमा रही ओकां खुब धोयेन.
कुलि आगे उतिरान जहां तेतना ओइ भाखेन.
अगर चांद मर जाता
त्रिलोचन
अगर चांद मर जाता
झर जाते तारे सब
क्या करते कविगण तब?
खोजते सौन्दर्य नया?
देखते क्या दुनिया को?
रहते क्या, रहते हैं
जैसे मनु-य सब?
क्या करते कविगण तब?
प्रेमियों का नया मान
उनका तन-मन होता
अथवा टकराते रहते वे सदा
चांद से, तारों से, चातक से, चकोर से
कमल से, सागर से, सरिता से
सबसे
क्या करते कविगण तब?
आंसुओं में बूड़-बूड़
सांसों में उड़-उड़कर
मनमानी कर-धर के
क्या करते कविगण तब
अगर चांद मर जाता
झर जाते तारे सब
क्या करते कविगण तब?
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