विज्ञान-कथा - जुआ - डॉ. राजीव रंजन उपाध्‍याय

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विज्ञान-कथा जुआ डॉ. राजीव रंजन उपाध्‍याय श निवार को वह आफिस का काम निपटा कर क्‍लब पहुंच जाता और ब्रिज-खेलता। वह ब्रिज अच्‍छा खेलता था, इ...

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विज्ञान-कथा

जुआ

डॉ. राजीव रंजन उपाध्‍याय

श निवार को वह आफिस का काम निपटा कर क्‍लब पहुंच जाता और ब्रिज-खेलता। वह ब्रिज अच्‍छा खेलता था, इसमें शक नहीं। वह हंसमुख था, हारने पर भी वह कहता था कि भाई! यह खेल है, खेल में हार-जीत तो होती ही रहती है। पर उस दिन वह कुछ उल्‍टा सा खेल रहा था। उसके परिचित खेलने वाले मित्रगण समझ रहे थे कि वह आज अन्‍यमनस्‍क है, उसका दिमाग कहीं उड़ा हुआ है। तभी तो वह गलत खेल रहा है। थोड़ी देर में सभी झल्‍ला उठे और एक साथ कहने लगे तुम आज कुछ अजीब सा क्‍यों खेल रहे हो? क्‍या बात है? क्‍या तबियत कुछ खराब है? उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मित्रों के द्वारा बार-बार पूछे जाने पर उसने मात्र इतना ही कहा ‘‘एक बीती घटना आज भी मेरे अन्‍तःकरण में व्‍यथित कर देती है। तो बताओ हम सभी को? मित्रों का आग्रहपूर्वक अनुरोध था। ‘‘खैर सुनो’’ कह कह उसने हाथ में लिये ताश के पत्तोें को एक किनारे टेबिल पर रख दिया और कहने लगा

‘‘जनवरी, 2080 में, मैं पेरिस में था। हर शनिवार को मैं पेरिस के विख्‍यात रेस्‍टोराँ ‘डोम’ में शाम केा जाता था, बैठ कर काफी पीता तथा अपने फ्रेंच मित्रों से बातें करता। वहीं पर मेरा परिचय विश्‍वनाथन से हुआ था। वह उसी टेबिल के पास बैठा था जिसके समीप मेरी टेबिल थी। शायद मैं अपने मित्रों से भारत की राजनीति पर बातें कर रहा था, किसी बिन्‍दु पर चर्चा के आते ही, उसने बिना पूछे अपने कमेन्‍टस दिये थे। हम सभी चकित होकर उसकी समयोचित टिप्‍पणी पर रुके और अर्थपूर्ण स्‍वर में मैंने उसका परिचय जानना चाहा।

वह अपनी कुर्सी को खिसका कर हम लोगों की टेबिल के पास आ गया। काफी का दूसरा दौर प्रारम्‍भ हुआ। उसकी बातेां का ढंग अनोखा था। आया था वह पेरिस पाँच वर्ष पूर्व उच्‍च गणित का अध्‍ययन करने, और वह अध्‍ययन काल में कुछ आय बढ़ाने के लिए छोटे-मोटे काम भी कर लिया करता था। कभी पैसे अधिक हो गये तो रूलेट पर भाग्‍य भी अजमा लिया करता था।

 

‘‘एक बार की बात है’’ विश्‍वनाथन कह रहा था। मैंने अपने जन्‍मदिन के अवसर पर ‘पिगॉल’ के मशहूर कैसीनो ‘‘र्हैंाइट हार्स’’ में जाकर रूलेट के 25 नवम्‍बर पर सौ फ्राँक का नोट की रख दिया। रूलेट के किनारे भीड़ लगी थी, पहिया घूमा और गेंद 25 पर गिरी। चारों तरफ शोर हो गया ‘‘तुम जीत गये, तुम जीत गये।’’ मेरी हिम्‍मत मेरे सामने आये हुये नोटों को उठाने के लिए पड़ ही नहीं रही थी। काँपते हुए हाथों से मैंने गडडी उठायी और बिना गिने उसे पाकेट में रख लिया। अनजानेे में एक सौ फ्रैंक का नोट 25 नम्‍बर पर पड़ा ही रह गया।’’ पहिया फिर घूमा। मैं घबरा रहा था। मैंने आंखे बन्‍द कर ली और गदर्न झुका ली थी। शोर हुआ। तुम जीत गये। मैंने धड़कते दिल से आंखे खोली। 25 नम्‍बर पर नोटों की गडडी रखी थी। फिर संयत होकर मैंने दोनों गडिडयों को गिना। पूरे बीस हजार फ्रैंक। मैं प्रसन्‍नता से चीख पड़ा। मैंने देखा एक सुन्‍दर युवती मुझे देखकर मुस्‍कुरा रही थी। वह मुझको देख कर कह ने लगी ‘‘तुम बड़े भाग्‍यवान हो। ‘‘पहली बार खेले? ‘‘हाँ। पहली बार। ‘‘क्‍या तुम मुझको दो हजार फ्रैंक उधार दे सकते हो? उसने सहजता से कहा। ‘‘जानते हो आज मैं सब कुछ खो बैठी हूँ। मैं तुम्‍हें आधे घण्‍टे में यह वापस कर दूँगी’’ मेरी आंखों में झांकते हुये उसने कहा। न जाने क्‍यों मैंने उस पर विश्‍वास कर लिया। मैंने उसे दो हजार फ्रैंक दे दिये। ‘‘अब मैं तुम्‍हें सिर्फ दो हजार फ्रैंक ही नही दूँगी’’ कहकर तेज चलती हुयी वह हाल में गायब हो गई। मैं उलझन में खड़ा रहा। फिर सोचा किस्‍मत क्‍यों न अजमा लूँ, एक बार। मैंने 20 नम्‍बर पर सौ फ्रैंक लगाये। हार गया। फिर कोशिश की, 10 नम्‍बर पर सौ फ्रैंक लगा कर, पर फिर हारा।

 

झुझलाकर मैंने 30 नम्‍बर पर सौ फ्रैंक लगा दिये। इस बर जीता। वह भी पूरे 30 हजार फ्रैंक। अब मैंने चलने का निश्‍चय किया। इतने में वह युवती न जाने कहाँ से प्रकट हो गयी। ‘‘अरे! तुम वापस आ गई’’ मैंने आश्‍चर्य पूर्ण स्‍वर से कहा। ‘‘तुम क्‍या मुझे कुछ ऐसी-वैसी महिला समझते हो’’ किंचित रोषपूर्ण स्‍वर में उसका उत्तर था। मैं चुप रहा। उसने कहा ‘‘मैं यहाँ छुटिटयाँ बिताने आयी थी, इस कसीनो में आना तो एक चांस था। सोचा किस्‍मत आजमा लूँ रूलेट पर। पहली बार कामयाबी हाथ नहीं लगी थी...। ‘‘पर दूसरी बार मैं जीत गई।’’ ‘‘कितना?’’ ‘‘जितना मैं हारी थी वह पूरा हो गया। कुछ अधिक ही मिला है, इस बार।’’ ‘‘भाग्‍यशाली हो तुम।’’ ‘‘तुम से कम।’’ ‘‘यह लो अपने दो हजार फ्रैंक’’ उसने नोटों की गडडी बढ़ाते हुए कहा। ‘‘चलो कहीं चलकर डिनर लें’’ मैंने कहा। एक मोहक दृष्‍टि डालती हुई उसने उसने कहा ‘‘चलो’’। बगल के रेस्‍टांँ में हम दोनों ने डिंक्‍स लिये, डाँस किया और डिनर लिया। वह डाँस करते समय मुझे शक्‍ति से खींच लेती, उसका यह अंदाज मुझे अजीब सा लगा उस समय वह अन्‍य औरतों से अलग लगती थी। हम खूब नाचे, नशा उतर चुका था। मैंने चलने का संकेत किया। सीढ़ियों से उतरते हुए मैंने कहा ‘‘मैं आप को एपार्टमेन्‍ट तक छोड़ दूँ। उत्तर में वह मात्र मुस्‍कुराई, बोली एपार्टमेन्‍ट नहीं होटल में।’’ टैक्‍सी लेकर मैंने उसे उसके होटल में छोड़ने का निश्‍चय कर लिया। होटल पहुँच कर मैंने उसे उसके रूम तक पहुँचाने के लिए कहा। वह मेरी इच्‍छा को समझ थी। रूम का दरवाजा खोलकर उसने मुझे भीतर खींच लिया और मेरे होठों पर उसने

अपनी तप्‍त अधरों को रखकर, मुझे अपने में चिपका लिया। मैंने जाने क्‍यों रात में कभी भी गहरी नींद में नही सोता हूँ। उस रात भी ऐसा ही हुआ। एकाएक वह बेड से धीरे से उठी और उसने बाथरूम की लाइट को ऑन कर दिया। प्रकाश की हल्‍की आभा कमरे में फैल गई। वह बाथरूम से निकली और मेरी तरफ देखती हुई वोर्ड-रोब के दरवाजे को धीरे से खोलकर, मेरा कोट निकाला। उस कोट को उसने ऊपर अपने हाथों में उठा कर सूँघा और फिर भीतर की पाकेट में हाथ डालकर नोटों की गडडी को निकाल लिया। मेरी तरफ एक बार फिर देखकर उसने उन नोटों को अपने पर्स में रखकर, पर्स सहित मेरे बगल आकर लेट गई। थोड़ी ही देर में उसके मधुर निश्‍वासों में उसके गम्‍भीर निद्रा में चले जाने का संकेत दे दिया। मैं उसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था। कुछ पलों बाद मैं सावधानी से उठा। वह गम्‍भीर निद्रा में सो रही थी, यह देख मैं दबे पांव उसका पर्स उठाकर बाथरूम में गया। द्वार बन्‍दकर स्‍विच आन कर, मैंने उस पर्स से नोटों की गडिडयों को निकाला। पूरे पचास हजार फ्रैंक। ‘‘इसके माने उसने भी बीस हजार फ्रैंक जीते थे, रूलेट के जुए में’’ मैंने मन ही मन सोचा। कपड़े पहन जूतों को हाथ में लेकर, कोट की जेब में नोटों को भरने के बाद, मैंने उसका पर्स उसी जग बेड पर रख दिया जहाँ पर उसने रखा था, और धीरे से दरवाजा खोलकर बाहर आ गया। रूम का द्वार और धीरे से बन्‍द कर जूते पहन, तेज कदमों से सीढ़ियों से उतरता मैं सड़कर पर था। संतोष था किसी ने देखा नहीं। अपने कमरे में वापस आकर मैंने कपड़े बदले। द्वार को लॉक किया और सो गया। नींद में मुझे कई बार ऐसा लगा कि जैसे वह मुझे अपने शक्‍तिशाली हाथों से पूरी तरह से अपने शरीर में भर लेना चाहती हो। मैं उठ गया। वह एकाएक क्‍यों उठी....क्‍या कोई संकेत उसको मिला? अथवा यह उसका स्‍वभाव था...। उसके हाथों का स्‍पर्श अजीब सा क्‍यों था, उसके साथ सोने की अनुभूति क्‍यों अलग सी लग रही थी? आदि प्रश्‍न मेरे मन में आकाश में छाये बादल के टुकड़ों की भांति घूम रहे थे।

 

‘‘पर यह घटित तो विश्‍वनाथन के साथ हुआ था, फिर तुम क्‍यों चितिंत हो, तुम्‍हारे दुखी होने का क्‍या कारण है?’’ मित्रों ने उससे पूछा। ‘‘विश्‍वनाथन की जीत ने, रूलेट में जीत ने मुझे भी उस विख्‍यात कसीनों ‘‘र्हैंाइट-हार्स’’ में जाने को प्रेरित किया था। मैं भी जीता और वहां पर मुझे मेरी जीत की मुबारकबाद देने वाली एक सुन्‍दरी मिली थी।’’ उसने सोचते हुए बताया और फिर शायद वह तुम्‍हारे साथ सोयी होगी और तुम्‍हारेे भी रूपये भी निकाले होंगे। उसके साथ ब्रिज खेलने वाले एक मित्र ने बात पूरी की। कुछ पलों मौन रहने के बाद उसने स्‍वीकारोक्‍ति में सर हिलाया।

बात इतनी ही नहीं थी उसने रुकते हुए कहा। मैंने विश्‍वनाथन को फोन द्वारा अपनी कहानी बताई, तो उसने कहा ‘‘चलो अच्‍छा हुआ तुम्‍हें भी ‘‘आइको’’ मिल गयी। ‘‘यह आइको’’ कौन थी? मित्रों के पत्ते हाथ में रह गये। ‘‘वह फेमोवाट थी, सुन्‍दरी भी जो अपने बॉस के संकेत पर यह सारे कार्य करती थी......। ‘‘ओ यह बात है! तुम्‍हें रोबोटिका से संसर्ग का दुःख है जिसे तुम मानवी मान बैठे थे ‘‘मित्रों में एक ने कटाक्ष किया॥ ‘‘ पर यह भी एक जुआ था’’ दूसरे की टिप्‍पणी थी।

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rajeevranjan.fzd@gmail.com

 

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अनुमति से साभार प्रकाशित - विज्ञान कथा अक्‍टूबर-दिसम्‍बर’ 2016

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रचनाकार: विज्ञान-कथा - जुआ - डॉ. राजीव रंजन उपाध्‍याय
विज्ञान-कथा - जुआ - डॉ. राजीव रंजन उपाध्‍याय
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