सुशील शर्मा तांका-1 (5+7+5+7+7) अनुभूतियाँ प्रेम संवेदनाएं मन का सुख आंतरिक आनंद प्रेम में ही विश्वास। साहस शील जीवन गतिशील आत्म निर्माण ...
सुशील शर्मा
तांका-1
(5+7+5+7+7)
अनुभूतियाँ
प्रेम संवेदनाएं
मन का सुख
आंतरिक आनंद
प्रेम में ही विश्वास।
साहस शील
जीवन गतिशील
आत्म निर्माण
विवेक के सहारे
कर्तव्य निर्वहन।
कड़वे बोल
दुःखद स्मृतियाँ
अप्रिय बातें
सजग हो दुखातीं
अंतस को सतातीं।
ताँका-2
शुद्ध ह्रदय
भावना से संयुक्त
उर उन्मुक्त
भावना हो समग्र
व्यक्तित्व हो प्रबुद्ध।
हँसती लटें
चाँद जैसा लगता
तेरा चेहरा
मोंगरे का गजरा
खिलखिलाती धूप।
बूढ़े माँ बाप
जीने के हैं सामान
कबाड़ नहीं।
हमारे है अस्तित्व
सुरक्षित भविष्य।
ताँका-3
सूर्य पर्व
छट का पर्व
आध्यात्मिक उन्नति
सूर्य को अर्घ्य।
आज नहाय खाय
कल विशेष व्रत।
साक्षात देव
सूर्य की आराधना
प्राण में ऊर्जा।
शक्ति का संचार
जीवन का आधार।
सूर्य रश्मियाँ
बन गईं हैं रथ
धरा की यात्रा।
वसुधा से मिलने
अँधेरे को हरने।
मगसम-2613/2015
–
ताँका -4
असफलता
अक्सर नापती है
हमारी छाती
दर्द की नींव पर
सफलता की बांग।
तेरा निज़ाम
सना है सन्नाटे से
मरता सच
कराहता विश्वास
नहीं है कोई आस।
सच की मंडी
खूंटों पर लटका
बिकता सच
सच के मुखौटों में
झूंठ भरे चेहरे।
मुख़ौटा फेंक
असलियत दिखा
कुछ न छुपा
पीठ पर न मार
सीने पे कर वार।
–
ताँका -5
रंजिशें गर
सीने में रखते हो
प्यार भी रखो
दुश्मनी का दस्तूर
प्यार भी भरपूर।
लंबी गुप्तगू
करने का मन है
क्या करूँ पर
बहुत खींची पर
ये जिंदगी कम है।
तुम्हारा नाम
लिखा कागज पर
पूर्ण विराम
न ही शब्द उभरे
न ही लेखनी चली।
–
हाइकु-49
मीरा
पायो जी मैंने
राम रतन धन
वस्तु अमोल।
खर्च न खूंटे
बढ़त है सवायो
चोर न लूटे।
सत की नाव
गुरु है खेवटिया
भव हो पार।
मीरा के प्रभु
गिरधर नागर
कृपा सागर।
हाइकु-50
जहाँ तुम हो
लगो सबको प्यारे
प्रिय हमारे।
जबसे गए
आँगन से हमारे
यादें सहारे।
कब आओगे
इन्तजार में तेरे
नयन सारे।
गोधूलि बेला
पंछी घोंसला चले
गायों का रेला।
तटस्थ है जो
भाग नहीं सकते
काल न बख्शे ।
काल का वलय
समय की परिधि
घेरे में सब।
हाइकु-51
बाग़ बाटिका
मधुर कलरव
पुष्प स्पन्दन।
हिमाद्रि तुंग
उच्चतम सोपान
हिन्द मुकुट
गंगा पावनी
भारत का जीवन
शुभ्र तरल
हरित वन
देते है ऑक्सीजन
प्राण आधार।
ताज महल
अद्भुत संकल्पना
अमर प्रेम।
मेरा कश्मीर
धरती पर स्वर्ग
हिन्द की शान।
जलधि जल
उत्तुंग अविरल
नील हिलोर।
हाइकु-52
*राज गहरे*
जिंदगी धूप
तुम्हारी परछाईं
घना सा साया।
चीखती रातें
सूरज से सवाल
कौन पूछेगा।
तुम तनहा
तारों में क्यों बैठे हो
कब लौटोगे।
पेड़ की छाया
काया और ये माया
रूकती नहीं।
मन के कोने
गुमशुदा सी याद
आँसू की ओस।
रातों में नींद
पलकों पे जागती
खुशियां सोतीं।
मैं अकेला हूँ
हिचकियाँ क्यों आतीं।
तुम आओगे।
पीर पर्वत
दर्द का समंदर
झांक अंदर।
हर चेहरा
ओढ़े कई चेहरे
राज गहरे।
हाइकु-53
गए नोट बेचारे
भक्ति के नोट
भजन की संपदा
बाकी है खोट
मुद्रा बाजार
काला धन बेजार
मोदी की मार।
हाय ये पैसा
मेरे पास हमेशा
अब क्या करूँ।
सब्जी के दाम
किराने का चुकारा
कैसे हो सारा।
कैश की कमी
लोग हैं परेशान
कैसे हो काम।
तांका-6
मुद्रा बाजार
काला धन बेज़ार
मोदी की मार
भागे काला बाज़ारी
गई कमाई सारी।
बेटी धर्म है
घर सबके जा के
ये समझाओ
बेटी बोझ नहीं है
ये अलख जगाओ।
शिव की जटा
पचमढ़ी की छटा
पांडव गुफा
सतपुड़ा की रानी
प्रकृति की कहानी।
आहें हैं सर्द
सहमे से अस्तित्व
उड़ती गर्द
अहंकार के मन्त्र
सीखता जनतंत्र।
–
तांका-8
मेरी कविता
डायरीयों के पृष्ठ
तुम्हारे अक्स
शब्दों के भीने रंग
भावनाओं की कूची।
तुम्हारे खत
रखे हैं किताबों में
सम्हाल कर
अनुत्तरित प्रश्न
कभी दोगे उत्तर।
चाँद की ओट
नयनों के नखरे
कांपते होंठ
मन की अभिलाषा
प्रेम की परिभाषा
ताँका-7
चीखती आरी
पेड़ पर कुल्हाड़ी
उजड़ा वन।
वन का महोत्सव
भाषण में रक्षण।
कटते वन
फैलती सभ्यताएं
घुटती सांसे।
सिमटता अस्तित्व
सदियों का सदमा।
मरते पक्षी
जहर होती हवा
धुंध का राज
धूल की गिरफ्त में
रौशनी का शहर।
पंक्ति में लगा
सोचता है आदमी
बाप न भैया
न बहिन न मैया
सब है रुपइया।
तांका-9
बाल दिवस
करोड़ों नन्हे हाथ
रोटी कमाते
सिसके बाल मन
अधूरा बचपन।
नन्ही उमर
चाय दुकान पर
धुलती प्लेटें
शिक्षा का अधिकार
कौन सुने पुकार।
ऊँची कूदनी
लुढ़का लुड़कायी
छिपा छिपायी।
छुक से चले रेल
बचपन के खेल।
बच्चों के स्वर
शरारत के खेल
बोलती आँखे
जीवन की सौगातें
बचपन की बातें।
मन का बच्चा
बाहर निकलता
आज के दिन
हँसता मुस्कुराता
गीत गुनगुनाता।
--
मेरा बचपन (बाल कविता)
बचपन रंग रंगीला है।
कितना लगे सुरीला है।
नन्हीं के संग दौड़ा दौड़ी
मुन्नी के संग कान मरोड़ी
तितली के पीछे दौड़ा मैं
मछली के पीछे तैरा मैं।
मेरा पाजामा ढीला है।
बचपन रंग रंगीला है।
नानी का में सबसे प्यारा
दादी का में राज दुलारा
जब भी पापा ने डांट लगाई।
दादा ने की उनकी खिंचाई।
मेरा चेहरा भोला है।
बचपन रंग रंगीला है।
चलो नदी में कूद लगाये
पेड़ो पर झट से चढ़ जाएँ
चलो आम पर पत्थर मारें।
करें जोर से चीख पुकारें।
खेत में सरसों पीला है
बचपन रंग रंगीला है।
चलो पानी में नाव चलाएं
कान पकड़ कर दौड़ लगाएं
कक्षा में हम धूम मचाएं
इसको पीटें उसे नचायें
देखो मिठ्ठू बोला है।
बचपन रंग रंगीला है।
कितना लगे सुरीला है।
मन की बात
मन के कोने पड़ा हुआ सच तड़फ रहा है
जीवन जीने को मन मेरा तरस रहा है।
पलकों पर आते आते नींद थकी सी सो जाती है।
क्यारी के फूलों के फुनगों पर धूप पकी सी खो जाती है।
आरक्षण का भस्मासुर अब निगल रहा है प्रतिभाएं।
राजनीति का अहिरावण मुह खोले लूट रहा है क्षमतायें।
जीवन सुख से जीना चाहो तो अपना मुँह बंद रखो।
आस पास के घड़ियालों से अपने को पाबंद रखो।
मानवाधिकार के पैरोकारी घूम रहे हैं राहों पर
अपराधों से रिश्तेदारी बैठ गई चौराहों पर।
वामपंथियों के पांखण्डों की शिला टूटते देखी है।
दक्षिणपंथी आवाज़ों की हवा निकलते देखी है।
कश्मीरी पंडित की चीत्कार कहो कौन सुने ?
बम विस्फोटों से मरते लाचारों को कौन गिने?
भगवानों को हरदिन ये सड़कों पर लजाते हैं।
पैगम्बर मोहम्मद को ये हर दिन धूल चटाते हैं।
राम ,कृष्ण ,विवेकानंद गाँधी इनके प्रतिमान नहीं।
अशफाक ,हमीद कलाम ,रसखान का माने ये पैगाम नहीं।
मंदिर तोड़ो मस्जिद तोड़ो बस इनका ये नारा है।
कैसे भी सब वोट बटोरो ये सिंहासन हमारा है।
भाई भतीजों की भर्ती कर दल अपना बनाते हैं।
सत्ता पर काबिज होने हिन्दू मुस्लिम लड़वाते हैं।
साम्प्रदायिकता का डर दिखलाकर वोटों को लुटते देखा।
जिसने भी सच को बोला सरे आम पिटते देखा।
बेच रहें है फर्जी डिग्री शिक्षा के गलियारों में।
प्रतिभाओं को लूट हैं सरे आम बाज़ारों में।
अब तो कोई शंकर आये इस विष को पीने वाला।
विषधरों के फनों को कुचले कोई चौड़े सीने वाला।
मन के कोने पड़ा हुआ सच किस किस को बतलाऊँ मैं।
जीवन जीने की मंशा की कैसे अलख जगाऊँ मैं।
संपर्क - archanasharma891@gmail.com
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कुमार रवीन्द्र
**
बोलो कनू
बोलो कनू ।
कहाँ से लाये तुम यह सूरज
हमने बरसों इसको खोजा
नहीं मिला यह
हँसे ज़रा-सा तुम खुलकर
क्या तभी खिला यह
अलग किसिम की
कनू, नये दिन की है सजधज
आसमान के इस कोने को
ज़रा छुआ बस
लगा टपकने इसमें से
मीठा जीवन-रस
कैसे तुमने
रचा उँगलियों से यह अचरज
महक रहा जो लीलाकमल
तुम्हारा है क्या
मंत्र नेह का
तुने अभी उचारा है क्या
यह सूरज
क्या अपने सपनों का है वंशज
****
आओ शाश्वत
आओ शाश्वत । चलें जंगल में
वहाँ पगडंडी पुरानी
आज भी है
उसी पर हम-तुम चलेंगे
मित्र-वृक्षों ने
भरी जो साँस सदियों
वही हम-तुम भी भरेंगे
औ' नहायेंगे नदी के शांत जल में
वहीं है आदिम गुफा
जिससे निकलते
रात-होते परी-बौने
चकित फिरते हैं
वहीँ पर दोपहर भर
हिरण-छौने
अक्स देखेंगे उन्हीं के झील -तल में
चाँद-सूरज
वहाँ पर हमको मिलेंगे
साफ-सच्चे
और शाश्वत
वहीँ रहते हैं वनैले
भील-बच्चे
खोजते जो रात-भर भौंरे कँवल में
कहो एलिस
कहो एलिस ।
तुम कहाँ से आ रही हो
सामने मैदान से
क्या देखकर लौटीं कबूतर
वहीं तो है शांति का
सबसे अनोखा, हाँ, दुआघर
क्या वहाँ से
ढाई आखर की दुआ तुम ला रही हो
कहीं पीछे तो नहीं थीं
तुम पके अमरूद खातीं
या वहीं पर किसी चिड़िया संग
तुम थीं गुनगुनातीं
क्या वही मीठा
रसीला गीत तुम गा रही हो
तुम बुलातीं थीं सुबह को
क्या चढ़ीं चुपचाप छत पर
या किसी एकांत कोने में
लुकीं थीं कहीं भीतर
क्या हमें तुम
नई कुछ बातें बताने जा रही हो
--- कुमार रवीन्द्र
क्षितिज ४१० अर्बन एस्टेट-२ हिसार-१२५००५
मो ० - ०९४१६९९३२६४
ई-मेल - kumarravindra310@gmail.com
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रवि शाही
मेरा घर
बरकागांव( हजारीबाग) में कल विस्थापन रोकने के लिए गांव वालों की सभा है। वहां के एक साथी जो रांची आएंगे उन्होंने मेरे घर का पता पूछा। मेरे दिल से यह उत्तर निकला जो संकोच बस उन्हें कह नहीं पाया। शायद आप समझ सकें ,
मेरा घर खोजना अब आसान नहीं है ,
मैंने तो नेम प्लेट कभी नहीं लगाया ,
मेरे शहर में मकान और गलियों के नंबर भी नहीं हैं ,
सफेदधारियों ने कब्ज़ा कर रखा है शहर पर ,
दरबारी भी भेड़िये जैसे झुण्ड में दिखते हैं,
दांते निपोरे कुछ सफ़ेद लकड़बग्गे भी होंगें ,
गिद्धों और कुत्तों के रक्तरंजित पौने दांत भी दिखेंगें ,
कहीं अगर सवाल पूछता कोई नज़र आये ,
लाठियों और बंदूकों के साये में कोई चमकती आँख दिख जाये ,
सहमी हुई भीड़ में बेफिक्र सा कोई फक्कड़ नज़र आ जाये ,
बंद हो रही खिडकियों में से कोई खुलती खिड़की दिखे ,
घरों, चौराहों पर बुझते रोशनी के अँधेरे में कहीं टिमटिमाती रोशनी दिखे ,
समझ लेना , मेरा घर इसी के आस पास है।
आतातायियों ने ढँक रखा होगा मेरा घर ,
लेकिन तुम्हें एक फड़फड़ाता हाथ दिख तो ही जायेगा ,
अंधियारे में रोशनी दिखाने को व्याकुल ,
सत्ता को आईना दिखाने को आतुर ,
समझ लेना ,मेरा घर इसी के आस पास होगा।
रवि शाही
रांची
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स्वराज सेनानी
बेशकीमती
ये जो चुनाव के पहले
आपके घर के चक्कर लगाता है
तरह-तरह के वादों से आप को भरमाता है
आपके वोट को बेशकीमती बताता है
दारू या पैसे से वोट खरीद जाता है
चुनाव आते आते आदमी से चूहा बन जाता है
इस की भोली सूरत
और केंचुआ सीरत पर तरस मत खाना
चुनाव जीतने के बाद ये नज़र नहीं आयेगा .....
ये तुम्हारे या देश के किसी काम का नहीं है
ये तो बस नाम का नेता है
इसका विकास और जन कल्याण से
नहीं है कोई सरोकार
इस की तो बस इतनी है दरकार
किसी तरह अपना, अपने परिवार
और फिर अपने कुनबे का हो उद्धार
इसे गरीब और गरीबी से
नहीं है कोई मतलब
चुनाव से पहले जो चूहा बन कर आया था
जीतने के बाद शेर हो जाएगा ......
आपकी सूरत, समस्या से वह मुंह चुराएगा
अप के वोट से ही
ये आम से खास हो जायेगा ...
और उस के बाद तो
आप के पैसे से
फाइव स्टार लक्ज़री के मजे उडाएगा
आप का मुंह बिचकायेगा
बिजिनेस के नाम पर देश विदेश
के चक्कर लगाएगा
देश में कम और विदेश के
पर्यटक स्थलों में अधिक नज़र आयेगा
साऊना , स्पा और मसाज कराएगा
इलाज के लिए भी विदेश जाएगा
आपके बच्चे चुंगी स्कूल में पढेंगे
अपने बच्चों को ये विदेश में पढ़ायेगा
आप दो जून की रोटी को खटेंगे
बच्चे पढ़ लिख गए तो छोटी मोटी नौकरी करेंगे
आप की आमदनी हर साल बमुश्किल
दस फीसदी की दर से बढ़ेगी
ये हर पांच साल में अपनी सम्पत्ति
को दोगुना करता जाएगा
ये जिन्दगी भर मोटी पेंशन पायेगा
मौक़ा मिलते ही पूरे खान दान को
राजनीति में ले आयेगा
आप मुश्किल से तन ढकने के वस्त्र खरीद पायेंगे
ये डिज़ाईनर कपडे और एक्सेसरीज़ पहन कर आयेगा
पहले जो चूहा बन के आया था
आपके वोट से शेर हो जाएगा
जानिये क्या है आप के वोट की कीमत
है न ये बेशकीमती ।
00000000000000
डॉ मधु त्रिवेदी
अफसोस
देख
आज के हालात
सिर पकड बैठ
जाता हूँ
सब ओर
लाचार बेचारी
दीनता हीनता है
गरीबी और बेबसी है
फिर अफसोस
क्यों ना हो
बचपन जब
हो भूखा प्यासा
ना हो खाने को दाना
क्यों ना हो अफसोस
कल की बात
शहर का मुख्य
चौराहा
वाहनों की लम्बी
लम्बी सी कतारों
के बीच
जीर्णशीर्ण बसन
छिद्रों से भरी
में माँगती बस
गोद में लिए बच्चे
की खातिर
दस बीस रूपये
यह मेरे भारत
की तस्वीर
बस अफसोस
वो पालिटीशियन
खींचते खाका देश का
उस महिला का कोई
अस्तित्व नहीं
इस मेप मे
काश
उसकी दीनता गरीबी
ख्वाहिश अभिलाषा
स्तर के लिए
काश
निर्धारित कोई
स्थान होता
बस देख अफसोस
होता है
अफसोस होता है
देखकर वह वृद्धा
जो सड़क के फुटपाथ
साइड से सूखे भूसे
टाट पट्टी का
जो उसकी अवस्था
की तरह जीर्णशीर्ण
तार तार है
बस बना आशियाना
भावी जीवन का
दिनों को काटती है
बस देख अफसोस
होता है अफसोस
क्योंकि
मर्द कहलाने वाला
जन्तु
जो उसकी कोख से
पैदा हो बडा हुआ
नहीं रख सकता
पर क्यूँ
शायद प्यार बँट
गया पत्नी में
बच्चों में
आफिस मे दोस्तों में
कितने ही टुकड़ों में
बाँट डाला उसने
माँ का वो प्यार
मिला जो जन्म से
जवान होने तक
देख होता बस अफसोस
चली पनघट
✍✍✍✍✍
झनन - झनन झनन - झनन चलत
बजावत है पायलियाँ के घुघरूँन को
खनन - खनन कर करत है मधु ध्वनि
रंग- बिरंगे पहन परिधान रक्तवर्णी
झाँकत है नैनन की कोरन से ऐसे
बाल सूर्य निकला ऊषा की गोद से
पनघट को चलत रख सिर पर गागर
लजाती शरमाती इतराती इठलाती
मृदु मुस्कान बिखेरे है होठन पर ऐसे
कपोलन पर नाच रही दीप की लड़िया
देख बालाओं की यह मतवाली चाल
हिय गैल चलत लड़कन को डोलत है
टुकुर - टुकुर घूरत घूघट के पट से
रिझावत है खिझावत है छोरन को
कटि लागत है जैसे हो कोई नटी
चाल -ढाल देख होश उड़त योगिन
हँसत है हँसी तो लागत है ऐसी
दन्त छवि लगे ज्यों बगुलों की पंक्ति
जब लोटत है मटका धरत सिर
छलकत जावत है टप -टप जल
सिर रखत मटके से ज्यों गिरत जल
धक - धक ध्वनि पैदा करत दिल
चोट बड़ी देवत है यह टप की ध्वनि
मन पे मुकुर टूटत सी चोट करत है
साँवरि सी सूरत पर अंजन की शोभा
देखत लागे ज्यों बाल मेघ झाकत हो
निकल कर श्वेतवर्णी घनों के बीच से
रूप लावण्य उरवशी की प्रतिमा जैसों
देख चाल इन चतुर गोरियन की
अंग -प्रत्यंग छोरन का डोलत जाये
संक्षिप्त परिचय
---------------------------
: डॉ मधु त्रिवेदी
शान्ति निकेतन कालेज आॅफ बिजनेस मैनेजमेंट एण्ड कम्प्यूटर साइंस आगरा
प्राचार्या,पोस्ट ग्रेडुएट कालेज
आगरा
स्वर्गविभा आन लाइन पत्रिका
अटूट बन्धन आफ लाइन पत्रिका
झकास डॉट काम
जय विजय
साहित्य पीडिया
होप्स आन लाइन पत्रिका
हिलव्यू (जयपुर )सान्ध्य दैनिक (भोपाल )
अच का हौसला अखबार
लोकजंग एवं ट्र टाइम्स दिल्ली आदि अखबारों
में रचनायें
विभिन्न साइट्स पर परमानेन्ट लेखिका
इसके अतिरिक्त विभिन्न शोध पत्रिकाओं में लेख एवं शोध पत्र
आगरा मंच से जुड़ी, कवितायें ,गजल , हाइकू लेख
50 से अधिक प्रकाशित
email -madhuparashar2551974@gmail.com
00000000000
राधेश्याम कुशवाहा "विजय "
उनकी नजर ऐसी कि मुझे शराब लगे..।
हुस्न ऐसा कि खिला गुलाब लगे ।।
है अन्धेरा कि कुछ नजर न आये ।
उन्हे देखा तो मुझे वो आफताव लगे ।।
जिस्म ऐसा है क्या तराशा रब ने।
मेरी चाहत का मुझे वो जबाब लगे ।।
न शिकवा न शिकायत बस हँसना जाना।
मुझे तो कोई खुली किताब लगे ।।
श्याम"मुहब्बत मे उनकी गिरफ्तार हुआ ।
इकरार कब करेंगे अभी तो बस एक ख्वाब लगे।।
00000000
गिरधारी राम
फूल
रास्ते से गुजरते हुए मैंने,
उस गमले के फूल को देखा,
चार-पाँच फूल खिले हुए थे,
ये कल की ही बात थी।
आज फूलों की पंखुड़ी,
नीचे गिरी हुईं थीं,
कुछ मुरझाए हुए फूल,
अपनी ड़ालियों पर लटके हुए थे,
ये फूल शायद कल गिर जायेंगे।
नई कलियाँ मुस्कुरा रही हैं,
एक किरण सूरज की पाने को,
आज सुबह हँसने लगी है,
सुबह दस बजने को है,
ये सर्दी का मौसम,
चारों तरफ धुआँ-धुआँ कुँहासा,
ये नन्हा पपी ठिठुर रहा है,
अपनी माँ के आलिंगन में,
आखिर कब तक सर्दी रहेगी,
एक दिन तो बसंत आयेगी,
तब जीवन की उमंगें होंगी,
ये वन-उपवन अँगड़ाई लेगा,
कोंपलें फूट पड़ेगी,
फिर गमले के फूल खिल उठेंगे,
एक नई ताजगी के साथ,
प्रकृति का नियम यही है,
जीवन तो चलता ही रहेगा,
इस नए सूरज के साथ।
000000000
मनीष कुमार सिंह
• बंटवारे के बाद
बंटवारे से टूटे हुए घर में ।
और आंधी से टूटे हुए पेड़ में ।
कोई खास अंतर नहीं होता है ।
मैं तो कहता हूँ अंतर होता ही नहीं है ।।
जैसे आंधी में ज़मीन से उखड़ कर जब कोई पेड़ गिरता है ।
तो लोग काट-काट कर बाँट लेते है ।
तना , जड़ और टहनियां ।
मतलब बंट जाता है पेड़ का हरेक हिस्सा ।।
ठीक उसी तरह घर टूटने पर ।
आँगन में उठ जाती है एक दीवार ।
बंट जाते है स्नेह , आंसू , अपनापन ।
प्यार और गुस्सा ।।
बंट जाता है बच्चों के खेलने का दायरा ।
रिश्तेदारों के बैठने की जगह , और भिखारी को मिलने वाली भीख ।
सिर्फ यही नहीं बूढ़ी दादी माँ की दवाओं का खर्चा भी ।
और ‘टामी’ को मिलने वाली रोटी का हिस्सा भी ।।
ऑफिस से लौटते ही नहीं करती है नन्ही ‘बिटिया-रानी’ अपने ताऊ से शिकायत ।
कि ‘बड़े-पा’-‘बड़े-पा’ , मम्मी ने मुझे आज मारा है ।
ताऊ भी नहीं जाते एक प्यारा सा उलहना लेकर बहू के पास यह कहने की ।
देखो भाई । मेरी ‘बिटिया-रानी’ को अब मारा तो ठीक नहीं होगा ।
मेरी एक ही तो ‘बिटिया-रानी’ है ।
और इसके बाद उसे गोद में उछालकर नहीं चूमते है प्यार से उसका माथा ।।
बंट जाता है दीदी और बुआ के आने और रुकने का टाइम ।
वें दो दिन बड़के के यहाँ और दो ही दिन छोटे के यहाँ खाती है खाना ।
और जाते वक़्त दो जगह पूजी जाने लगती है “कोक्ष”(आंचल –पूजा ) ।
और मिलने लगती है दो फीकी सी साड़ियाँ ।।
बंटवारे के बाद छोटी बहन और भाभी मिलकर ।
नहीं करती है ठिठोली देवर से किसी ‘छायाचित्र’ का नाम लेकर ।
रखा जाने लगता है उस पर हुए खर्चे का हिसाब ।
और बेटियां नहीं कहती है चाचा से की ला दो मुझे किताब ।।
पर , कुछ लोग आकर मुझसे कहते हैं ।
कि बंटवारे के बाद बढ़ जाती है ।
परिवारों में विकास की रफ़्तार ।।
पर आप बताइए ।
क्या होता है पेड़ का विकास ?
ज़मीन से अलग होने के बाद ।।
2-प्रमाण
न जाने कितनी पीड़ा ।
न जाने कितना अंतर ।
न जाने कितना अकेलापन ।
और ख़त्म हो रहा है वजूद ।
पैर रास्ते से ।
अलग जाने की जिद में अड़े हैं ।
अपने ही साये ।
अब खंजर लिए खड़े हैं ।
खो रहे है मेरे शब्द ।
बौने हो चुके है इनके अर्थ ।
एक खाई सी बनती जा रही है ।
मेरे अंदर ।
सबको चाहिए प्रमाण ।
प्रेम का, अपनत्व का ।
घर के अन्दर भी ।
और बाहर की दुनिया को भी ।
तुम्हारे जरा सी खरोंच पर भी ।
मेरी ऑंखें डबडबा जाती हैं ।
पर शायद यह ।
तुम्हारे लिए प्रमाण नहीं है ।
ऐसी ही न जाने कितनी मुठभेड़ है ।
जो ख़ुद से हो जाती है ।
हर रोज ।
न जाने कितना अन्धकार भर गया है ।
मुझमें ।
सच में ।
अब मेरे पास ।
मेरे वजूद का ही प्रमाण उपलब्ध नहीं है ।
3-कतार के बाहर
जंगलों , खेतों और घरों में ।
अक्सर उग आते है कुछ पौधे ।
कतार के बाहर ।
इनकी रंगत , ढंग और बढ़ने की गति ।
कतार में उगे पौधों को अखरने लगती है ।
कुछ दिनों बाद ।
कोई निर्मोही आकर ख़त्म कर देता है ।
कतार के बाहर उगे इन पौधों को ।
बिना यह सोचे कि कतार के बाहर उगना ।
उनका शौक़ है या मजबूरी (?) ।
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भरत त्रिवेदी
गेंदे की महक
सर्दियाँ हैं...
मेरी पूरी छत पे धूप की एक चादर बिछी हुई है
मैं एक कोने में कुर्सी डाले बैठा हूँ
मेरी नातिन अभी आयी है नीचे से
गेंदे के दो फूल कहीं से तोड़ लाई है
ये गेंदे की महक;
लौटा लायी है मुझे अपने बचपन में
घर के आँगन में मुरब्बे सूखने को रखे हैं माँ ने
डाँट देती है मुझे वो
जब मैं मर्तबान में उंगलियाँ डाल कर मुरब्बों की चाश्नी चख लेता हूँ
एक प्याली में थोड़ी सी चाश्नी लाकर दी है मुझे मेरी माँ ने
मैं आँगन में लगी गेंदे की क्यारियों के पास बैठा खा रहा हूँ
मैं हूँ; माँ है और साथ है गेंदे की महक
बरसात का वो दिन जब मैं उसके साथ स्कूल से भीगते भीगते अपने घर आया
मुझे घर छोड़ कर वो आगे अपनी गली की ओर बढ़ गयी थी
आगे नुक्कड़ पे जाकर उसने पीछे मुड़कर मुझे देखा था
मैं भी उसकी फिरती नज़रों के इंतज़ार में था शायद
उस दिन जब उसे शहर बदलना था
उसी नुक्कड़ पे मैंने उसे गेंदे का एक फूल दिया था
अपनी क्यारियों से तोड़कर
लौटते हुए बस यही एक सवाल था ज़ेहन में
पापा लोगो का ट्रांसफर क्यूँ हो जाता है
यूनिवर्सिटी में एक फंक्शन था
मुझे एक नज़्म पढ़नी थी
पढ़ी मैंने
चलते वक्त वो आयी मिली मुझसे
मुझसे जूनियर थी वो
सुमन था नाम उसका
मिलते रहे हम फिर
वो टीचर बन गई थी और मैं बेरोजगार का तमगा लिए दर दर भटकता था
उस दिन वो मेरी एक किताब लौटाने आयी
उसने बताया कि उसकी शादी कहीं और तय कर दी गई है
मैं उसे भूल जाँऊ
उस रात आँखों में आँसू लिए उस किताब को खोला तो देखा उसमें एक सूखा सा गेंदे का फूल रखा था
महक अभी भी गई नहीं थी उसकी
फिर..
हम नहीं मिले
मेरी बैंक में नौकरी लगने के साल ही मेरी शादी हुई
घर गेंदों से ही सजा था मेरा
वो आयी तो ज़िंदगी से सारे शिकवे साल दर साल मिटते चले गए
मेरी बेटी ने छत पर एक गमले में गेंदे का पौधा लगाया था
उसकी शादी में भी घर गेंदों से ही सजा था
वो विदा होते वक्त बहुत रोयी थी
मैं मर्द था मुझे कम रोना था
मगर..
मैं भी बहुत रोया।
मेरी आँखों से ढलके आँसुओं को अपने नन्हें हाथों से पोंछकर
मेरी नातिन ने गेंदे के वो दो फूल मेरी हथेलियों पर सजा दिए हैं
मैं गेंदों के महक से फिर महक गया हूँ
•
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रुचि प जैन
मेहनत
घड़ी का काँटा जो टिक - टिक चलता है,
मेहनत करो यही प्रेरित करता है।
हम जीवन में जो सुख की चाह करते है,
बिना परिश्रम वो सपने कहाँ पूरे होते है।
देख लो तुम इतिहास उठा कर,
बने वे महान परिश्रम कर।
आलसी बस जीवन जीता है,
और यो ही मृत्यु वरण करता है।
इसलिए बच्चों मेहनत ही हो नारा तुम्हारा,
जिससे जीवन हो साकार तुम्हारा।
–
काट रहे
काट रहे पेड़ों को,
काट रहे वन।
देखो चारों ओर अपने,
कितने कम हो गये उपवन।
ये न होगे तो,
कैसे जियेंगे हम।
एक पौधा लगाकर,
महका दो अपना आँगन।
नन्हें हाथों का कमाल दिखाओ,
यह है तुम्हारा चमन।
–
मानव ये क्या करता है
मानव ये क्या करता है,
जो हमें देता है उसे ही नष्ट करता है।
सूरज हमें रोशनी देता,
पेड़ देते फल और छाया।
पर्वत से मिले औषधि भंडार,
और बहती नदियों की धारा।
मानव ये क्या करता है,
जो हमें देता है उसे ही नष्ट करता है।
काट पेड़ तुने धरती को बंजर बना दिया,
इसे तुने कंकरीट का जंगल बना दिया।
हर जगह प्रदूषण फैलाता है,
पर्वत, नदियों को दूषित कर जाता है।
सम्भल जा अभी भी वक़्त है,
तेरा जीवन इन्हीं पर निर्भर है।
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प्रिया देवांगन "प्रियू"
कुछ करके देखो
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जीवन में कुछ कर के देखो,सपना को सच कर के देखो
अपनी जिंदगी जी कर देखो,मन मे हौसला रख के देखो
बुराइयों से लड़ कर देखो,अच्छाइयों का सामना कर के देखो
अंधविश्वास से दूर हटो,अपनों पर विश्वास कर के देखो
अपना रास्ता स्वयं बनाओ, कंटक मार्ग पर चलकर देखो
मंजिल अपनी स्वयं बनाओ,दूसरों को खुश रख कर देखो
दुआ मिलेगी बहुत सारी,मेहनत स्वयं कर के देखो
गरीबों की मदद करके,जीवन मे मुस्कान ला कर देखो
इस जीवन का क्या है ठिकाना, सब कुछ अभी कर के देखो।।
जीवन में कुछ करके देखो, सपना को सच करके देखो।
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गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला -- कबीरधाम ( छ ग )
Email -- priyadewangan1997@gmail.com
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