महेन्द्रभटनागर रांगेय राघव, अमृतराय और धर्मवीर भारती की पीढ़ी के लेखक हैं। उन्होंने प्रायः सभी प्रमुख विधाओं में अपनी अभिरुचि एवं रचनात्मक स...
महेन्द्रभटनागर रांगेय राघव, अमृतराय और धर्मवीर भारती की पीढ़ी के लेखक हैं। उन्होंने प्रायः सभी प्रमुख विधाओं में अपनी अभिरुचि एवं रचनात्मक सक्रियता का परिचय दिया है। लेकिन उनका मुख्य क्षेत्र काव्य और आलोचना ही रहा है। मुझे याद है, पचास के दशक में जब मैंने साहित्य और संस्कृति की दुनिया में आँखें खोलीं, महेन्द्रभटनागर की रचनाएँ उस दौर की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं - ‘हंस’, ‘जनवाणी’, ‘कल्पना’, ‘कहानी’ आदि में अपने समय के मूर्धन्यों के साथ प्रकाशित होती थीं। अक्टूबर सन् 1957 में, प्रेमचंद की पुण्यतिथि के अवसर पर बालकृष्ण राव और अमृतराय के संयुक्त संपादन में अर्द्धवार्षिक ‘हंस’ में उनकी कविताएँ मुक्तिबोध सहित अनेक प्रमुख कवियों के साथ छपी थीं। बड़ी-सी छतनार दाढ़ी वाला उनका चित्र आज भी स्मृति में बसा है। और आकर्षण का एक सहज कारण यह भी था कि वे तब युवा मार्क्स की तरह लगते थे।
थोड़ा आगे चलकर, उनकी पुस्तक ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ मेरे हाथ लगी। तब भी मेरी यह कोशिश रहती थी कि प्रेमचंद पर कुछ भी लिखा जाए मुझे पढ़ने को मिले। यह जानकर और भी सुखद आश्चर्य हुआ कि वह वस्तुतः उनके शोध-कार्य का ही प्रकाशित रूप था। उस दौर में जिन कुछेक शोध-प्रबंधों ने अपनी मौलिकता और उत्कृष्टता की छाप छोड़ी थी; वह भी उनमें से एक था।
प्रेमचंद के अपने मूल्यांकन में, महेन्द्रभटनागर उन आलोचकों से सहमत नहीं थे जो अपनी सौष्ठववादी एवं रीतिवादी कला-दृष्टि के कारण ही प्रेमचंद को दूसरी श्रेणी का लेखक मानकर उनका अवमूल्यन करते थे। बाद में तो प्रेमचंद के अवमूल्यन की इस मुहिम को बाक़ायदा एक आंदोलन की तरह चलाया गया। संपादक शिवदान सिंह चैहान के संपादन में सिर्फ़ छह अंक निकलने के बाद जब ‘आलोचना’ धर्मवीर भारती-मंडल के संपादन में आयी; प्रेमचंद-विरोधी इस अभियान के साक्ष्य आज भी इतिहास में दर्ज़ देखे जा सकते हैं। तब इस व्यापक अभियान के विरुद्ध लगभग अकेले खड्ग-हस्त होकर रामविलास शर्मा प्रेमचंद के पक्ष में खड़े होकर लड़ रहे थे।
प्रेमचंद पर उनकी दूसरी पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ वस्तुतः इसी युग का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। प्रेमचंद पर महेन्द्रभटनागर के काम को वस्तुतः इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। अभी पिछले दिनों उनका ग्रंथ ‘सामयिक परिदृश्य और कथा-स्रष्टा प्रेमचंद’ (‘प्रेमचंद-समग्र’) आया है। इसमें उनकी पहली पुस्तक भी समाहित है। स्पष्ट है कि इन पचास से भी अधिक बरसों में प्रेमचंद के प्रति महेन्द्रभटनागर की दिलचस्पी बनी रही है।
प्रेमचंद के प्रसंग में महेन्द्रभटनागर इस बहस से मुँह छिपाने की कोशिश नहीं करते कि प्रेमचंद गाँधीवादी थे, मार्क्सवादी थे या फिर हिंदूवादी थे। उनका मानना है कि प्रेमचंद वस्तुतः तुलसीदास की तरह ही लोकहितवादी लेखक थे। अपने इस गुण के कारण ही उन्होंने उत्तर-प्रदेश की जनता के बीच तुलसी की तरह ही अपनी गहरी पैठ बनायी। अपनी कुछ स्थापनाओं और ख़ास तौर से वर्णाश्रमवादी व्यवस्था के उत्कट समर्थन के कारण जहाँ तुलसीदास जब-तब विरोध और आक्रोश के शिकार हुए, प्रेमचंद अपने आलोचकों और विरोधियों को वैसी छूट नहीं देते। महेन्द्रभटनागर प्रेमचंद को एक मानवतावादी लेखक के रूप में प्रतिष्ठित और स्थापित करते हैं। प्रेमचंद के प्रसंग में वे किसी चयनवादी दृष्टि का विरोध करके उनकी व्यापक स्वीकार्यता के लिए संघर्ष करते हैं। न गाँधीवाद मानव-विरोधी दर्शन है, न ही मार्क्सवाद। अपने समय और सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों एवं गतिविधियों के दौर में प्रेमचंद जैसा सजग लेखक उन हलचलों की अनदेखी नहीं कर सकता था। जाति, सम्प्रदाय और वर्ण से ऊपर उठकर प्रेमचंद सब कहीं शोषण और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। वे सब कहीं मनुष्य के आधारभूत सद्भाव के पक्ष में खड़े लेखक हैं।
प्रेमचंद को हिंदूवादी लेखक सिद्ध करने के उत्साही आलोचक कमल किशोर गोयनका जब महेन्द्रभटनागर से प्रश्न करते हैं कि क्या वे प्रेमचंद की ‘कफ़न’ को सर्वश्रेष्ठ कहानी मानकर उनकी 299 कहानियों को छोड़कर सिर्फ़ ‘कफ़न’ को ही आधार बनाकर प्रेमचंद का मूल्यांकन करना चाहेंगे, महेन्द्रभटनागर प्रेमचंद के प्रति किसी चयनवादी दृष्टि का स्पष्ट विरोध करते हैं।
वे प्रेमचंद के समग्र मूल्यांकन को ही उनका वास्तविक मूल्यांकन मानते हैं। वे मानते हैं कि किसी चयनवादी दृष्टि से किसी लेखक का सम्यक् मूल्यांकन असंभव है। अन्य बड़े लेखकों की तरह ही प्रेमचंद का भी वास्तविक मूल्यांकन उन्हें समग्रता में देखकर ही संभव है, जिसमें लेखक के सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य की एक विशिष्ट भूमिका होती है। प्रेमचंद को जब एक मानवतावादी लेखक के रूप में स्थापित किया जाता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रेमचंद अव्यावहारिक आदर्शवादी, जड़ नैतिकतावादी या थोथी जीवन-दृष्टि से सरोकार रखने वाले लेखक थे। ‘कफ़न’ के प्रसंग में गोयनका को उत्तर देते हुए महेन्द्रभटनागर ठीक ही कहते हैं कि मार्क्सवादी चेतना से ‘कफ़न’ को जोड़कर देखे जाने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। और दूसरे बड़े लेखकों की तरह प्रेमचंद ने विधिवत् मार्क्सवाद पढ़कर अपना लेखन नहीं किया। उनका मार्क्सवाद वस्तुतः मानवतावाद की ही फलश्रुति है। जितना वह सहजरूप से उस परिधि में आ जाता है, वे उसे स्वीकार करते हैं। रचना का सामूहिक एवं समग्र प्रभाव ही उसके विश्लेषण और मूल्यांकन का आधार हो सकता है और होना चाहिए। इतना सुनिश्चित है कि प्रेमचंद गोयनका की तरह मार्क्सवाद के विरोधी लेखक नहीं थे।
-मधुरेश, बरेली
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