महाभारत में अल्पज्ञात प्रसंगः द्रौपदी का चीरहरण के उपरांत अपहरण डॉ .नरेन्द्रकुमार मेहता मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति यह घटना उस ...
महाभारत में अल्पज्ञात प्रसंगः
द्रौपदी का चीरहरण के उपरांत अपहरण
डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति
यह घटना उस समय की है जब सभी पांच पाण्डव तथा द्रौपदी काम्यकवन में रहते थें। पाँचो पाण्डव द्रौपदी को उनके आश्रम में अकेली छोड़कर पुरोहित घौम्य की आज्ञा से ब्राह्मणों के लिये भोजन की व्यवस्था करने वन में चले गये थे । उसी समय सिन्धुदेश का राजा जयद्रथ जो वृद्धक्षत्र का पुत्र था , विवाह की इच्छा से शाल्व देश की ओर जा रहा था । वह बहुमूल्य राजसी ठाठ-बाट के साथ अनेकों राजाओं के साथ था। काम्यकवन के निर्जन वन में आश्रम के द्वार पर द्रौपदी खड़ी थी । एकाएक जयद्रथ की दृष्टि उस पर पड़ी। द्रौपदी अनुपम अद्वितीय सुन्दरी थी । जयद्रथ के साथी राजाओं ने उस अनिन्द्य सुन्दरी को देखते ही हाथ जोड़कर मन ही मन में तर्क वितर्क करने लगे-यह अवश्य ही कोई अप्सरा है या देव कन्या है अथवा देवताओं की रची हुई माया है ।
सिन्धुराज नरेश जयद्रथ उस सुन्दरांगी पर मुग्ध हो गया उसने अपने साथी राजा कोटिकास्य से कहा-कोटिक!जाकर ज्ञात करो कि यह सर्वसुन्दरी किसकी स्त्री है ? वह कहाँ से आयी है ? इस निर्जन वन में किस कारण यहाँ आयी है ? क्या वह मेरी सेवा स्वीकार करेगी ? यदि यह मिल जाय तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगा एवं मुझे विवाह की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी ।
जयद्रथ के वचन सुनकर कोटिक रथ से नीचे उतरकर द्रौपदी से बोला-सुन्दरि! कदम्ब की डाली झुकाकर इसके सहारे इस आश्रम पर अकेली खड़ी हुई तू कौन है ? तुम्हें इस निर्जन भयानक वन में डर नहीं लगता। तुम क्या देव , यक्ष या दानव की पत्नी हो ? अथवा अप्सरा या नाग कन्या हो ? मैं राजा सुरथ का पुत्र हूँ मुझे लोग ''कोटिकास्य'' कहते हैं । सौवीर नरेश राजा जयद्रथ छःहजार रथी , हाथी, घोड़़े, पैदलों की सेना सहित उधर अनेक राजाओं सहित खड़े हैं । मैंने अपने तथा राजा जयद्रथ का परिचय दे दिया अब तूने अपना परिचय नहीं दिया कि तुम किसकी सुपुत्री और किसकी पत्नी हो ? कोटिकास्य के प्रश्न करने पर द्रौपदी ने कदम्ब की डाली का सहारा लेकर नीची दृष्टि करके कहा-राजकुमार! मैने समझ लिया कि मैं अपने पातिव्रताधर्म का पालन करने वाली स्त्री हूँ एवं इस समय अकेली हूँ । अतः इस समय अकेले तुम्हारे साथ वार्तालाप नहीं कर सकती हूँ । मैं तुम्हें तथा तुम्हारे पिता सुरथ को पहले से ही जानती हूँ । सुनो मैं भी तुम्हें अपने बन्धुओं और विख्यात वंश का परिचय दे रहीं हूँ मैं राजा द्रुपद की पुत्री हूँ , मेरा नाम कृष्णा है । पांच पाण्डवों के साथ मेरा विवाह हुआ है वे इन्द्रप्रस्थ के रहने वाले है इनका नाम भी तुमने अवश्य सुना ही होगा ।
पाण्डवों का आतिथ्य स्वीकार कर तुम अपने स्थान चले जाना। धर्मराज अतिथियों के बड़े भक्त हैं । द्रौपदी ऐसा कहकर पर्ण कुटी में चली गई। वह अतिथियों के सत्कार की तैयारी में जुट गई । कोटिकास्य ने जयद्रथ को सारी बात बता दी । उसकी बात सुनकर दुष्ट बुद्धि जयद्रथ ने कहा-मैं स्वयं जाकर द्रौपदी को देखता हूँ । वह अपने छः भाईयों सहित जैसे भेड़िया सिंह की गुफा में प्रवेश करता है उसी प्रकार पाण्डवों के आश्रम में धुस आया। द्रौपदी से कहा-सुन्दरी तुम कुशल से तो हो ? तुम्हारे स्वामी स्वस्थ्य तो हैं ? तथा जिन लोगों की तुम कुशल मंगल कामना रखती हो , वे सब भी तो कुशल है न ? जयद्रथ से द्रौपदी ने भी उनकी कुशलता की बात पूछकर कहा कि मेरे पति कुरूवंशी राजा युधिष्ठिर भी अपने बन्घुओं सहित सकुशल है । यह पैर धोने के लिये जल और आसन ग्रहण करो । तब तक मैं आप लोगों के लिये जलपान की व्यवस्था करती हूँ ।
जयद्रथ ने कहा कि वह जलपान कर चुका है। तुम्हें ज्ञात ही है कि पाण्डवों के पास अब धन नहीं है उन्हें राज्य से निकाल दिया है तुम व्यर्थ ही उनकी सेवा कर रही हो ,इन्हें त्याग दो । मेरी पत्नी बनकर सुख प्राप्त करो। मेरी पत्नी बनने पर तुम रानी कहलाओगी तथा सम्पूर्ण सिन्धु और सौवीर राज्य तुम्हें प्राप्त होगा। इस बात को सुनकर द्रौपदी की भौहें रोष से तन गई तथा जयद्रथ को कड़ीं बात सुनाकर कहा-खबरदार! पुनः ऐसी बात न करना तुम्हें लज्जा आना चाहिये।मेरे पति वीर है, यशस्वी है ,युद्ध में महारथी, यक्षों और राक्षसों का मुकाबला कर सकते हैं । अरे मूर्ख! जैसे बॉस, केला और नरकुल ये तीनों फल देकर अपना नाश कर लेते हैं । केंकडें की मादा अपनी मृत्यु के लिये गर्भ धारण करती है उसी प्रकार तू भी अपनी मृत्यु के लिये मेरा अपहरण करना चाहता है। जयद्रथ बोला कृष्णें ! मैं तुम्हारे पति राजपुत्र पाण्डव को जानता हूँ। मैं तुम्हारी क्रोधभरी बातों से न डरता हूँ और न तुम्हारी बातों को मानता हूँ तुम्हारे सामने अब दो ही विकल्प है सीधी तरह से हाथी पर या रथ पर चलकर बैठ जाओं या पाण्डवों के पराजित हो जाने पर सौवीराज जयद्रथ से दीनतापूर्वक गिड़गिड़ाते हुए कृपा की भीख माँगे ।
द्रौपदी ने जयद्रथ से कहा तुम मुझे दुर्बल न समझो । मैं जयद्रथ के समक्ष कभी भी दीन वचन नहीं बोल सकती। जब मेरी खोज में एक ही रथ पर श्रीकृष्ण एवं अर्जुन निकलेगें तब इन्द्र भी मुझे हरकर नहीं ले जा सकता तो तुम्हारी ताकत ही क्या है ? अर्जुन जब शत्रुपक्षों के वीरों का संहार करने लगते हैं उस समय शत्रुओं के दिल दहल जाते है । जिस समय तू गाण्डीव धनुष से छोड़े हुए बाणसमूहों को टिडड्यिों की तरह वेग से उडते देखेगा और पराक्रमी वीर अर्जुन पर तेरी दृष्टि पड़ेगी, उस समय तू अपने कुकर्म को स्मरण कर अपनी बुद्धि को धिक्कारेगा जब भीम हाथ में गदा लिये दौड़ेगे और नकुल सहदेव क्रोध जन्य विष उगलते हुए तेरी ओर टूट पड़ेगे तब तुझे बडा पश्चाताप होगा ।
मैनें कभी भी अपने पूजनीय पतियों का उल्लधंन नहीं किया तो देखना पाण्डव तुझे अपने वश में करके जमीन पर धसीटकर इसी काम्यकवन में मेरे समक्ष बलपूर्वक खींचकर ले आयेंगे ।
जयद्रथ के आदमी उसे पकड़ने दौड़े। द्रौपदी ने उसे डाँटकर कहा-खबरदार! मुझे कोई भी हाथ न लगावे । भयभीत होकर अपने पुरोहित धौम्यमुनि को पुकारा।जयद्रथ ने द्रौपदी के दुपटटे् का छोर पकड़ लिया। द्रौपदी ने उसे धक्का दे दिया। जयद्रथ लडखड़ा कर जमीन पर गिर पड़ा । पुनः उठकर द्रौपदी का दुपटट पकड़कर खींचने लगा। द्रौपदी विवश होकर धौम्यमुनि के चरणों में प्रणाम कर रथ पर चली गई।
धौम्य ने जयद्रथ को क्षत्रियों के प्राचीन गौरव और धर्म का स्मरण करवाया। अंत में कहा कि जयद्रथ तुम्हे अपने इस नीच कार्य का फल पाण्डवों द्वारा मिलेगा । इसमें कोई संदेह नहीं हैं । ऐसा कहकर धौम्यमुनि भी हरकर ले जाती हुई द्रौपदी के पीछे पैदल ही सेना के बीच में होकर चलने लगे ।
जब पाण्डव वन से आश्रम की ओर लौट रहे थे। उस समय उन्हें अपशकुन होने लगे तब युधिष्ठिर ने भीम और अर्जुन से कहा कि लगता है कौरवोंने यहाँ आकर अवश्य कुछ न कुछ उपद्रव किया होगा। आश्रम में लौटने पर द्रौपदी की दासी धात्रोयिका रो रहीं थी । रोते रोते दासी ने बताया कि जयद्रथ द्रौपदी को हर के ले गया है । अभी जयद्रथ के रथ की लीकें तथा सैनिकों के पैरों के बने हुए चिन्ह नये बने हुए हैं जल्दी ही रथ का पीछा करो । कुछ ही दूर जाने पर पाण्डवों ने जयद्रथ की सेना के घोड़ो के टापों से उड़ती हुई धूल दीख पड़ी । पैदल सेना के बीच में धौम्यमुनि को देखा जो भीम को पुकार रहे थे । पाण्डवों ने मुनि को आश्वासन दिया था कि अब चिन्ता न करें सुखपूर्वक चलिये। उसके पश्चात् जब उन्होंने एक ही रथ में अपनी प्रियतमा द्रौपदी और जयद्रथ को देखा , उनकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो गई ।
भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव ने जयद्रथ को ललकारा। पाण्डवों को सामने देख शत्रुओं के होश उड़ गये तथा पैदल सेना भयभीत हो गई एवं हाथ जोड़ने पर पाण्डवों ने उसे छोड़ दिया । शेष सेना को सब दिशाओं में घेरकर उस पर बाणों की वर्षा कर दी जिससे वहाँ अंधकार छा गया ।
भीम ने अपनी गदा से जयद्रथ की सेना के अग्रभाग में स्थित महावत सहित एक हाथी और चौदह पैदल सैनिकों को मार डाला। अर्जुन ने भी पांच सौ महारथी वीरों का संहार कर दिया। युधिष्ठिर ने भी सौ यौद्धायों को मार गिराया। नकुल ने भी तलवार लेकर रथ के नीचे कूदकर शत्रु सेनाओं के सैकड़ो सिर काट दिये । सहदेव ने अपने रथ की टक्कर से हाथी एवं कई सवार सैनिक मार दिये। भीम ने राजा कोटिकास्य को सारथी सहित प्रास नामक शस्त्र से मार डाला । अर्जुन ने अपने तीक्ष्ण बाणों से सौंवीरदेश के बारह राजाओं के धुनुष और मस्तक काट फेंके।
यह देख जयद्रथ ने द्रौपदी को रथ से उतार दिया और स्वयं प्राण बचाने के लिये वन की ओर भाग गया । धौम्य को आगे कर द्रौपदी को आते देख युधिष्ठिर ने सहदेव के द्वारा उसे रथ पर चढ़वा लिया । युद्ध समाप्त होने पर भीम ने युधिष्ठिर से कहा- भैया ! शत्रुओं के प्रधान -प्रधान वीर मारे गये है। आप नकुल ,सहदेव धौम्यमुनि और द्रौपदी के साथ आश्रम जाइये। मैं उस मूर्ख जयद्रथ को जीवित नहीं छोड़ सकता। उसे पाताल से ढूँढ निकालूँगा। भीम से युधिष्ठिर ने कहा कि जयद्रथ दुष्ट है। किन्तु बहिन दुःशला और माता गन्धारी का विचार करके उसे जान से मत मारना। युधिष्ठिर ,द्रौपदी, तथा धौम्यमुनि के साथ आश्रम लौट गये ।
भीम और अर्जुन ने जयद्रथ का पीछा न छोड़ा। जयद्रथ के घोड़ो को अर्जुन ने मार डाला। जयद्रथ वन में पैदल ही भागने लगा। अर्जुन ने कहा इसी बल पर पराई स्त्री को जबरदस्ती ले जाना चाहते हो ? अरे अपने सेवकों को भी बीच में छोड़कर भाग रहे हो। इतना अर्जुन के कहने पर भी जयद्रथ रूका नहीं । भीम ने उसका पीछा किया और कहा-खड़ा रह खड़ा रह। अर्जुन को जयद्रथ पर दया आ गई उन्होंने भीम से कहा-इसे जान से मत मारना ।
जयद्रथ को आखिरकार भीम ने पकड़ लिया तथा चोटी पकड़ जमीन पर पटक-पटक कर कचूमर निकाल दिया। भीम का क्रोध शान्त न होते देखकर अर्जुन ने उसे रोका और कहा-दुःशाला के वैधव्य का विचार करके महाराज युधिष्ठिर ने जो आज्ञा दी उसका विचार कर पालन करो। भीम ने विचार किया कि युधिष्ठिर सदा दयालु रहते हैं अब मैं क्या कर सकता हूँ । भीम ने जयद्रथ के लम्बे लम्बे केशों को अर्धचन्द्राकार बाण से मूँड़कर पाँच चोटियाँ रख दी और कटुवचनों से तिरस्कार कर कहा-अरे मूर्ख तू जीवित रहना चाहता है तो मेरी बात ध्यान से सुन-तू राजाओं की सभा में सदा अपने को दास बताया कर। यह शर्त तुझे स्वीकार हो तो तुझे मैं जीवनदान दे सकता हूँ ।
जयद्रथ ने भीम की शर्त स्वीकार की । भीम और अर्जुन ने धूल मे लथपथ जयद्रथ को बाँधकर रथ में बैठाकर आश्रम में युधिष्ठिर के पास ले आये। जयद्रथ की इस दशा को देखकर हँसते हुए युधिष्ठिर ने कहा-अब इसे छोड़ दो भीम ने कहा- द्रौपदी से यह बात कह देनी चाहिये, अब यह पापी पाण्डवों का दास हो चुका है। उस समय द्रौपदी ने युधिष्ठिर की ओर देखकर भीमसेन से कहा आपने इसका सिर मूँडकर पाँच चोटिया रख दी है तथा यह महाराज की दासता भी स्वीकार कर चुका है । अतः अब इसे छोड़ देना चाहिये । जयद्रथ को बंधन से मुक्त कर दिया गया । उसने दुःखी होकर राजा युधिष्ठिर को तथा वहा बैठे हुए सभी मुनियों को प्रणाम किया ।
दयालु युधिष्ठिर ने जयद्रथ की ओर देखकर कहा जा तुझे दासभाव से भी मुक्त किया, फिर कभी ऐसा मत करना धिक्कार है तुझे ! भला तेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य इतना अधम नीच होगा जो ऐसा खोटा कर्म करे । जयद्रथ जा , अब कभी पाप में मन मत लगाना । अपने रथ घोड़ो और पैदल साथ लिये जा । युधिष्टिर की यह बात सुनकर लज्जा से सिर नीचा कर वह चला गया ।
नीच प्रवृत्ति के मनुष्य को क्षमा करने पर भी वह नीचता नहीं छोड़ता है । युधिष्ठिर ने सोचा कि जयद्रथ को मृत्युदण्ड देने से कौरवों की एक बहिन दुःशाला विधवा हो जावेगी किन्तु जयद्रथ राक्षस वृत्ति से आवेष्टित था । उसने पुनः चक्रव्यूह में अभिमन्यु को मारा । इस प्रकार अर्जुन ने एक बार क्षमा उपरांत दूसरी बार उसका वध कर दिया । राक्षस वृति का सही अंत यही होता है ।
यही बात श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने रावण के वध के उपरांत मंदोदरी के द्वारा बतायी गई है ।
अवश्यमेव लभते फल पापस्य कर्मणः ।
भर्त पर्यागते काले कर्ता नास्त्यत्र संशयः ।।
शुभ कृच्छुभमान्पोति पापकृत् पापमश्रुते ।
विभीषणः सुखं प्राप्तस्त्वं प्राप्तः पापमीदृशम्
श्री वा0 रा0युद्ध काण्ड ।।। -25-26
प्राणवल्लभ ! इसमें कोई संदेह नहीं कि समय आने पर कर्ता को पाप कर्म का फल अवश्य मिलता है। शुभ कार्य करने वाले को उत्तम फल की प्राप्ति होती है और अपने शुभ कर्मों के कारण ही सुख प्राप्त हुआ है पापी को पाप के फलस्वरूप दुःख भोगना पड़ता है ।
द्रौपदी का हरण चाहे जयद्रथ ने द्वापर में किया तथा त्रैतायुग में सीताजी का हरण रावण ने किया किन्तु हर युग में किसी की पत्नी के हरण का यहीं मृत्युदण्ड ही पापी को शिक्षा के रूप में प्रचलित रहा है।
- डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति Sr. MIG-103,
व्यास नगर, ऋषिनगर विस्तार उज्जैन (म.प्र.)पिनकोड- 456010
Ph.:0734-2510708, Mob:9424560115
Email: drnarendrakmehta@gmail.com
।
COMMENTS