मेरे बंधन प्यार प्यार से बाँधा मुझको पैर पैर से बांधा मुझको। हो सकते थे ये भी सबल नजाकत से नापा मुझको। यूँ बांधा की चल ना सकूँ चुग...
मेरे बंधन
प्यार प्यार से बाँधा मुझको
पैर पैर से बांधा मुझको।
हो सकते थे ये भी सबल
नजाकत से नापा मुझको।
यूँ बांधा की चल ना सकूँ
चुगली करें जो चल भी दूँ।
डोरी बाँधी रिश्तों की
बेडी पहना दी गहनों की।
मुझको भाये मेरे बंधन
कैद से अनजान रहा मन।
सदियाँ बीती इस बंधन में
नील पड गये अंतर्मन में।
खोल दो बंधन पग ये चले
अम्बर को कर लें कदमों तले।
पीड़ा से मुक्ति जो मिले
श्रृष्टि सदियों तक ये चले ।
विधवा विवाह
साथ जो छुटा प्रिय तुम्हारा
समय ने मुझको क्यों मारा
रूठा रूठा सा लगता है
अब तो मुझको जग ये सारा।
तुम बिन जीवन अब है जीना
दुःख ये मेरा क्या कम था ?
ले गये रंग तुम जीवन के
कोरा कोरा तनमन ये था।
जीवन अब भी सबका जीवित
जीवन मुझको पर वर्जित है
बह गया जीवन अश्रुधार में
नैनों में अश्रु बस संचित हैं।
श्वेत वस्त्र सौगात तुम्हारी
मैंने अब इसको पाया है
नारी हूँ मैं नर की जननी
जग ने हाँ इसे भुलाया है।
खुश होने को दिल है करता
सहम सहम ये फिर डरता है
चाह मेरी जो दिख जाए तो
जग मुझको थू थू करता है।
क्या ही तो अपराध है मेरा
क्या जो मुझसे पाप हुआ?
तुमको मिलता ब्याह दूजा
मेरे लिए अभिशाप हुआ।।
नन्ही सी जान
वो इक नन्ही सी जान ने
जनी है जान नन्ही सी।।
परेशां खुद से दोनों है
गुजारा हो तो कैसे हो।।
कि बिन बुलाये आई है
मुसीबत चारों कोनों से।।
जाने क्या क्या गुमाया है
जीवन ने जीवन पाया है।।
अच्छी उमर से गर होती
खुशियाँ हद बेहतर होती।।
था माँ का पल्लू हाथों में
कुदरत ने माँ बनाया है।।
वो इक नन्ही सी जान ने
जनी है जान नन्ही सी।।
नारी अंतर्मन
हर रोज कितनी ही दफा
झन्नाटेदार आवाज के साथ
टूटकर बिखरती हूँ।
फ़ैल जाती है अस्तित्व की किरचियॉ
यहां से वहाँ तक..
यही जीवन है।
समेट लेती हूँ खुद को
अपने ही जतन से..
और खड़ी हो जाती हूँ
एक बार फिर..
अपने ही पैरों पर..
टूटने बिखरने का सिलसिला
यूँ ही चलता रहता है।
जितनी बात भी समेटती हूँ
दरारें नही भरती....
उन दरारों में दर्द जमने लगा है।
मैल बनकर....
एक दिन मैल और
दरारें ही रह जायेंगे।
वुजूद तो शायद तब तक
धीरे धीरे दम तोड़ चूका होगा।
तुम स्त्री हो ।
तुम स्त्री हो ।
बंधक है तुम्हारी हर एक सांस
मोल चुकाओगी तुम हरपल
तुम्हारी हर एक सांस का..
तुम्हें सहना होगा हर विरोध को..
क्योंकि बंदिनी हो तुम समाज की
कभी पिता की आज्ञा की..
कभी भाई के बड़प्पन की..
और कभी पति के एकाधिकार की..
नही हो सकती तुम स्वतंत्र
क्योंकि अस्तित्व विहीन हो तुम ..
तुम्हारा जीवन सबके लिए
एक साधन मात्र है।
तुम्हारे खुद के लिए
नही मिला है तुम्हें ये जीवन..
तुम गाथा हो संघर्ष की..
तुम वस्तु हो दान की..
तुम्हारा एकमात्र दान
मुक्ति है माता पिता की..
ससुराल में तुम एक
सर्व साधन और क्षमतायुक्त
आधुनिक संयन्त्र हो।
स्त्री क्या तुम पाप हो ?
क्यों नही कभी कोई
तुमसे ये पूछता
की तुम क्या चाहती हो ?
हर बार वो ही क्यों
जो सब चाहते है ?
आखिर तुम्हारा अपराध क्या है ?
क्या तुम सच में एक पाप हो ???
स्त्री स्वर
नही बन सकती
हर किसी के लिए अच्छी....
नहीं रख सकती मैं,
हर किसी को खुश....
थक गयी हूँ मैं
सबकी उम्मीदों पर
खरा उतरते उतरते...
मेरा भी दिल करता है
मैं भी गलतियां करूँ..
हर सांस का जवाब
नही दे सकती मैं..
आती है तो क्यों आती है..
जाती है तो क्यों जाती है..
थक गयी हूँ मैं..
सबके अनुसार खुद को
ढालते ढालते..
जरुरी नही मेरी हर बात
अच्छी ही हो..
जरुरी नही मैं जो करूँ
वो सही ही हो..
मुझे भी अपनी गलतियों से
सीखने का हक़ है..
भूल गया है ये दिल भी धड़कना..
धड़कने से पहले
इजाजत लेनी होती है इसे भी..
शायद थक गया है..
इसलिए अब धड़कना भी नही चाहता.
सिगरेट का टुकड़ा
महँगी सस्ती कोई भी
हो सकती हूँ।
सजी सजाई, चुस्त दुरुस्त
सलीके से पैक की हुई।
कहीं कोई कमी नही,
कोई शिकायत का मौका भी नही।
निकाला जाता है मुझे
नयी नवेली दुल्हन की तरह
बड़ी अदायगी के साथ,
फिर जलाया जाता है।
बड़े प्यार से होंठों से
चूमा जाता है।
हर एक कश में मैं
पीनेवाले में समाती
चली जाती हूँ।
दोनों के एक होने का
संकेत देता है
नाक से निकलता धुँआ।
जो ये बताता है कि हाँ,
मैं पीनेवाले में समा चुकी हूँ।
हर कश के साथ
मैं मिटती चली जाती हूँ।
और अंत में एक
ठूंठ बनकर रह जाती हूँ।
अब मुझमें ना वो स्वाद है।
ना रूप है और ना ही नशा।
बड़ी बेदर्दी से जूते के नीचे
फेंककर मसल दी जाती हूँ।
क्योंकि अब मुझमें
कुछ नही बचा.....
मैं एक सिगरेट का टुकड़ा...
आम स्त्री
घर से परायी हुई
तो नये लोगों में आयी।
जैसे धान को क्यारियों से निकालकर
ले जाया जाता है खेतों में।
फिर उन्हें दिया जाता है बहुत सारा पानी
जड़ें जमाने के लिये।
पर नई जगह में हमें वो पानी मिले
ऐसी आशा बहुत कम ही होती है।
सम्हलना होता है अपने ही बलबूते पर
और चलना होता है
जीवन का एक एक कदम।
वहाँ कोई खुद को नहीं बदलता
हमें ही बदलना होता है खुद को।
कोई इन्तजार नहीं करेगा
हमारे धीरे धीरे सीख जाने का।
हम ढाल लेते है खुद को
सबकी जरूरतों के हिसाब से।
और चल पड़ती है गाड़ी
हिस्सा बनते जाते है हम सबकी जरूरतों का।
हमारे बिना पत्ता भी नही हिल पाता।
सुना था जिंदगी प्यार से चलती है
पर यहां तो जिंदगी सिर्फ
जरुरत के मुताबिक चलती है।
प्यार कहाँ है इस जिंदगी में ?
मैं आज भी उस प्यार की खोज में हूँ ।
अस्तित्व
सजाया गया लाल रंग का जोड़ा
रंगाया था उसे मेरे अरमानो के खून से।।
चूड़ियाँ भरी गयी हाथो में
मांग में सिंदूर किसी के नाम का ।।
पायल, बिछुवे, झुमके, नथनी
कितनी करनी कितनी कथनी ।।
मिटा दिए गये मुझ से
मेरे ही होने के सारे प्रमाण।।
मैं एक पूरी की पूरी देह
और उसमे बसती मेरी आत्मा।।
मुझमे मेरा नही रहा कुछ भी बांकी
मेरे अस्तित्व को जला दिया गया उस अग्नि में।।
जिसे माना ईश्वर का साक्षी
हाँ, साक्षी ही तो थे ईश्वर।।
देख ही तो रहे थे सब कुछ भस्म होते हुए
और ख़त्म हो गया एक जीवन वही ।।
ख़त्म हो गया ।।
बलि प्रथा
बलि की आती बात
देवी का लेते नाम
क्यूँ कर दिया समाज ने
स्त्री को यूँ बदनाम।
संस्कृति हमारी सर्वश्रेष्ठ
कलंक बन गयी है बलि
कोई बताये हमको
प्रथा कब,कहाँ से चली ?
देवी तो है नारी
नारी मन निष्पाप
देते बलि निरीह की
खुद के बढाते पाप।
नही पढ़े है मैंने
पोथी और पुराण,
जननी रूप है देवी
कैसे ले सकती जान ?
बलि चढाओं स्वार्थ को
बलि करो अहंकार,
छल द्वेष को पालते
निरीह को रहते मार।
अंधा हो रहा समाज
अपने ही सुख के आगे
पाप हत्या का लेता
देवी से रक्षा मांगे।
सर चढ़कर बोलेगा
हत्या का ये पाप
छोड़ दे देवी आसन अपना
उससे पहले जाओ जाग ।।
हाँ में किन्नर हूँ ।।
हँसते हो तुम सब मुझको देख
नाम रखते हो मेरे अनेक।।
सुन्दर सुन्दर उसकी रचना
मेरी ना किसी ने की कल्पना।।
ईश्वर ने किया एक नया प्रयोग
स्त्री पुरुष का किया दुरूपयोग।।
जाने क्या उसके जी में आया
मुझ जैसा एक पात्र बनाया।।
तुम क्या जानो मेरी व्यथा
कैसे में ये जीवन जीता।।
घूंट जहर का हर पल पीता
क्या जानो मुझपे क्या बीता ।।
नारी मन श्रृंगार जो करता
पुरुष रूप उपहास बनाता ।।
तन दे दिया पुरुष का
और मन रख डाला नारी का।।
गलती उसने कर डाली
तो में क्यों होता शर्मिंदा।।
भोग रहा हूँ में ये जीवन
रह सकता हूँ में जिन्दा।।
तुमको तो दीखता है तन
मुझको तो जीना है मन।।
हँस देते सब देख मुझे
हाय मेरी ना कभी लगे तुझे।।
नारी
चार दिवारी में रहे
दुःख हजार सहे
दिल का दर्द
कभी ना किसी से कहे।।
निरीह है निरर्थक है
निष्प्रयोजन निष्काम है
उसकी ही कृति में
होता ना उसका नाम है।।
दया ममता संवेदना
सब उसकी ही खोज है
जीवन उसका समर्पित
दुनिया पर वो बोझ है।।
जो छोड़कर लाचारी
लांघ देती चार दिवारी
पलकों पर बैठाने को
तैयार रहती दुनिया सारी।।
रूप उसका मोहिनी
बातें उसकी मधुरस
काया देख यूँ लगता
ज्ञान रहा हो बरस।।
उससे ही दिन है
उस से ही रात है
हर महफ़िल की शान
उसकी ही बात है।।
वाह रे नारी
अजब तेरी लाचारी
जब जब तू जाती वारी
दुनिया से तब तू हारी
छोड़ दे जब तू लाचारी
क़दमों में होती दुनिया सारी।।
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सरिता पन्थी
महेंद्रनगर नेपाल
जिला कंचनपुर
Email Id:- saritapanthi1234@gmail.com
व्यक्तित्व परिचय
बचपन से ही हिंदी साहित्य में विशेष रूचि रही है लगभग एक वर्ष पहले ही मन के भावों को शब्दों में उकेरना प्रारम्भ किया है सामाजिक कुरीतियाँ और अवांछनीय परम्परायें ही लेखन का मुख्य विषय रहे है लेखन में सदा ही समाज को परिवर्तन का सार्थक सन्देश जाता रहा है | समाज के अनछुए और ज्वलंत विषयों पर लेखनी ने सदा ही प्रहार किया है |
शैक्षिक योग्यता
बी. ए. साहित्यिक हिंदी
एम. ए. राजनीति शास्त्र, एच.एन.बी.गढ़वाल विश्वविद्यालय, उत्तराखण्ड
जो छोड़कर लाचारी
जवाब देंहटाएंलांघ देती चार दिवारी
पलकों पर बैठाने को
तैयार रहती दुनिया सारी।।
बेहतरीन... आभार!
waah sir aapne mera dil jit liya bahut bahut dhnaywad
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