कहानी - किस्सा तोताबाई का / हरि भटनागर

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(स्टोरीमिरर.कॉम से साभार व लेखक की अनुमति से पुनर्प्रकाशित. मूल कहानी स्टोरीमिरर.कॉम में यहाँ प्रकाशित है.)   हमीदा बाई अपने गाँव में तो...

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(स्टोरीमिरर.कॉम से साभार व लेखक की अनुमति से पुनर्प्रकाशित. मूल कहानी स्टोरीमिरर.कॉम में यहाँ प्रकाशित है.)

 

हमीदा बाई अपने गाँव में तोता बाई नाम से जानी जाती थीं। उनके आगे-पीछे कोई न था। मुहावरे में कहें तो आगे नाथ, न पीछे पगहा।

लेकिन हमीदा बाई इस बात या मुहावरे को मंसूख़ करती थीं। उनके पास एक तोता था, जो उनका सब कुछ था। यानी नाथ और पगहा दोनों। दुःख यही था कि पच्चीस साल पहले उनके आदमी की मौत हो गई थी। आदमी यानी बशीर मियां बढ़ई थे। दरवाज़े और चौखट बनाने का काम करते थे। अपने चोखे और टंच काम की ख़ातिर गाँव में मशहूर थे। दुर्भाग्य था कि हैजे से उनकी मौत हो गई। गाँव का डॉक्टर जो उनका ख़ासा मुरीद था जिसका उन दिनों मकान बन रहा था, बशीर मियां ने ही दरवाज़े और चौखट लगाए थे - लाख कोशिश के उन्हें बचा न पाया था... ख़ैर, यह पुरानी बात हो गई। हमीदा बाई को बेटा पालना था, सो आदमी का ग़म भरमाकर बेटे हसन के साथ ज़िन्दगी के बचे दिन काटने लगी थीं। करतीं भी क्या! तक़दीर में जो लिखा था, हो गया था। हसन जो अभी तक खेल-कूद में लगा था, बाप की मौत पर यकायक संजीदा हो गया। बाप से जो हुनर उसने खेल-खेल में सीखा था, वह रंग लाने लगा। और वह बाप से भी अच्छे दरवाज़े और चौखट बनाने लगा। चेहरे पर बारीक दाढ़ी-मूँछ, गोरा, चमकता चेहरा, ऊँचा माथा, बड़ी-बड़ी सजीली आँखें। सिर पर कटोरे जैसा टोप। हंसमुख मिज़ाज। गूँजती आवाज़। पच्चीस का हुआ था। शादी की बातें चलने लगी थीं कि बस पैर में ज़ंग लगी कील कब चुभ गई कि कुछ पता न चला। कुछ ही रोज़ में वह चलता बना... हमीदा बाई का सब कुछ लुट गया। जिसके सहारे ज़िन्दगी की नैया खे रही थीं, वही डूब गया, तो बचा ही क्या था! बहुत ही तकलीफ़ का समय था वह! अपने को ख़त्म करने के अलावा कुछ सूझता न था! हमीदा बाई न कुछ खातीं न पीतीं। खाट पर हर वक़्त निढाल पड़ी रहतीं। उनके अलावा घर में अब कोई था तो वह तोता था जिसका उन्हें खयाल रखना था। यह तोता हसन लेकर आया था। उसी ने ही उसे पाला था। तब वह बोलता न था, लेकिन था बहुत ही चंचल और ख़ूबसूरत। बड़े से पिंजरे में जिसमें झूला था, सीढ़ियाँ और चाँदी जैसी चमकती छोटी-छोटी कटोरियाँ- हर वक्त वह नये-नये खेल करता रहता था- हसन उसे देख-देखकर भारी ख़ुश होता था- हसन की मौत पर पता नहीं क्या हुआ- हमीदा बाई की तरह वह भी टूट-सा गया। न बोले न चाले, खाये न पिये! पिंजरे में बेजान-सा पड़ा रहता। हमीदा बाई को यह बात साल गई। इंसान को ही नहीं, पंछी तक को अपने सगे के जाने का दुख होता है। उसकी हालत देख-देखकर उन्हें तरस आता। ऐसे में तो यह चल बसेगा- सोचते हुए उन्होंने एक दिन तोते को पिंजरे से निकालकर अपनी गोद में बैठाल दिया। जैसे वह हसन को बैठालती थीं। उसे दुलारने और पुचकारने लगीं। पूरे बदन पर हाथ फेरने लगीं। दुलारने और पुचकारने का सबब था कि तोता यकायक जैसे दुख से बाहर निकल आया हो, उसने पंख फड़फड़ाये और हमीदा बाई की उँगली अपनी चोंच में भर ली। हमीदा बाई जोरों से चीखीं - छोड़ उँगली! तोते ने उँगली न छोड़ी। हमीदा बाई को लगा, तोता उनके स्नेह का भूखा है। देखो, ज़रा-सा दुलराया कि उसमें जान-सी आ गई- गहरे मातृत्व भाव में डूबते हुए उन्होंने तोते से कहा - ठीक है, पकड़े रह!... बस यही क्षण था जिसने हमीदा बाई को दुख-तकलीफ से बाहर खींच लिया। वह हसन के शोक से ऊपर आ गई- और यह तोता ही उनका सब कुछ हो गया! नाथ और पगहा दोनों!

हमीदा बाई ने तोते का नाम हसन रखा जिसे वह अच्छी से पहचानता था। पिंजरा होने के बाद भी उसे खुले में छोड़ दिया। हमीदा बाई का कहना था कि बेटे को कहीं पिंजरे में रखा जा सकता है! नहीं, कत्तई नहीं। हमीदा बाई का सिर, कंधा, पीठ, हाथ-गोद कहें सारा शरीर ही पिंजरा था जिस पर हसन उछल-कूद मचाता या आँखें मूँदे पड़ा रहता।

धीरे-धीरे वह खूब बोलने भी लगा था।

हमीदा बाई अक्सर उससे पूछतीं- तेरा नाम क्या है?

तोता गर्दन टेढ़ी करता, आगे की बात सुनने के लिए उन्हें एकटक देखता, जवाब देता- हसन।

हमीदा बाई निहाल हो जातीं। आगे पूछतीं- मैं कौन हूँ तेरी?

तोता बोलता- माई!

हमीदा बाई उसे छाती से लगा लेतीं। सिर पर आँचल डालकर अल्ला ताला से उसकी लंबी उमर की भीख माँगतीं। हमीदा बाई उसके लिए तरह-तरह के फल लातीं। फल खाता तोता बोलता- माई, आम दो! मिर्ची दो! हसन भूखे हैं!

हमीदा बाई उसे अपने हाथ से खिलातीं, बोलतीं- ले खा मेरे लाल! आम खा, अमरूद खा! अनार खा! गाजर खा! मूली खा! मिर्ची खा!

तोते को खिलाते हमीदा बाई को लगता कि वे नन्हें-से हसन को खिला रही हैं। और बशीर मियां अहाते में किसी खटर-पटर में लगे हैं।

*

हमीदा बाई का अहाते से घिरा छोटा-सा घर है जो कवेलुओं से जमा हुआ है। दो छोटी-छोटी कुठरियाँ हैं और उन्हीं के आगे टीन छाया बड़ा-सा बरामदा। बरामदे के एक कोने में मिट्टी का बड़ा-सा दोमुंहा चूल्हा है। चूल्हे के पास ही लोहे का झावा है जिसमें चमचमाते बर्तन रखे होते। दीवार पर तीन-चार पटरे जमे हैं जिन पर छोटे-छोटे डिब्‍बे-डिब्‍बियों के साथ अल्‍यूमीनियम के बड़े-बड़े डिब्‍बे रखे हैं। ज़ाहिर है जिनमें रसोई के सामान होंगे। घर को चहारदीवारी से घेरा गया है। सामने लोहे के चद्दरों से कसा बड़ा-सा फाटक है। फाटक खुलने-बंद होने पर भारी चीख-चिल्लाहट मचाता। हमीदा बाई फाटक को बुलंद दरवाज़ा कहतीं। चहारदीवारी के बाएँ बाजू पर लकड़ियों के छोटे-बड़े कुंदों का अबार लगा है। दाएँ बाजू पर पड़ोसी बलेसर साह ने मोरी खोल रखी है जहाँ से बदबूदार पानी बह-बहकर अहाते में चारों और फैल रहा है। बरामदे से बुलंद दरवाज़े तक आने के लिए बदबूदार पानी-कीच के बीच ईंट-पत्थर जमाए गए हैं। हसन की फ़ौत के बाद हमीदा बाई ने कुंदों के साथ कोई छेड़-छाड़ न की। जो जहाँ जैसे थे- वैसे ही पड़े हैं। हसन के बढ़ईगीरी के भी सारे औज़ार जैसा हसन अंतिम दिन छोड़ गया था- वैसी ही हालत में बरामदे में रखे हैं। हमीदा बाई झाड़ू-बुहारी के वक़्त भी उन्हें नहीं हटातीं। सोचतीं हटाने पर उसकी रूह को कहीं चोट न लगे। पता नहीं क्यों, उन्हें रह-रह लगता कि हसन आस-पास ही कहीं गया है; कभी भी आकर वह अपने काम में मशगूल हो सकता है।

बरामदे में, कुठरिया के दरवाज़े के पास ही, हमीदा बाई की नेवार की खाट पड़ी रहती जिस पर वह घर के काम-काज से फ़ारिग़ होकर आ बैठतीं और आस-पास मँडराते हसन से बतियाने लगतीं।

*

उस दिन हमीदा बाई खाट पर बैठी ही थीं कि उन्हें रात के सपने का खयाल हो आया। सपने में उन्होंने देखा था कि हसन कहीं उड़ गया है। वह खोज-खोज कर परेशान हैं, मिल नहीं रहा है। हमीदा बाई हसन के ग़म में ज़ोर-ज़ोर से छाती पीटती हैं कि तभी उनकी नींद खुल जाती है। उठकर बैठती हैं तो हसन खाट के पावे पर बैठा था। उठकर उन्होंने हसन को पंजों में भर लिया। रोते हुए छाती से लगा लिया। रह-रह चूमती जाती और कहतीं- मेरे लाल! कितना ख़राब सपना था! मैं तो डर गई। रो रही थी। तू हमें छोड़ के कभी जाना मत।

उन्होंने हसन को पावे पर बैठाया और फ़र्श पर पसर कर बैठ गईं। गीली आवाज़ में उन्होंने हसन से सवाल किया - हसन, तू क्या सच्ची मुझ बुढ़िया को छोड़ के उड़ जाएगा?

हसन माँ को एकटक देखता रहा, फिर उसने गर्दन हिलाकर कहा- माई! तात्पर्य यह लगाया जा सकता है कि नहीं, कभी नहीं।

- मेरे लाल! तू उड़ा, तो समझ ले मैं अपनी जान दे दूँगी!

उस वक़्त हमीदा बाई ने, पता नहीं क्या सोचकर, शायद सपने के सच हो जाने के डर से पिंजरा साफ़ किया और हसन को उसके अंदर बैठाल दिया और पिंजरे का दरवाज़ा बंद कर दिया।

हसन को पिंजरे में बंद करने का यह पहला मौक़ा था। इसके पहले हमीदा बाई ने हसन को पिंजरे में कभी नहीं बंद किया। हसन दिन भर हमीदा बाई के इर्द-गिर्द मँडराता रहता था। हमीदा बाई कभी शौच या सौदा-सुलफ को जातीं तो हसन उड़ के कवेलू पर जा बैठता जहाँ से वह माई-माई की टेर लगाता रहता।

हमीदा बाई ने हसन को पिंजरे के अंदर बैठाल के पिंजरे का दरवाज़ा बंद तो कर दिया; लेकिन पता नहीं, उन्हें यकायक क्या सूझा, हसन को पिंजरे से बाहर निकाल लिया यह सोचकर कि पिछले दस साल से जब कहीं नहीं गया तो अब क्योंकर जाएगा। फिर हसन क्या सोचेगा कि बूढ़ी पगला गई है क्या जो उसे पिंजरे में क़ैद कर रही है! हसन को पिंजरे के ऊपर बैठाल कर हमीदा बाई खाट की पाटी पर बैठ गईं, फिर धीरे से पीछे सरक गईं। अभी-अभी खाना खाया था। उसका मीठा सुरूर था। आलस आने लगा। लेट गईं। थोड़ी देर में खर्राटे लेने लगीं।

यकायक किसी खटके से वह चौंककर उठ बैठीं और अनायास ही ‘हसन’ पुकार उठीं।

जब भी उन्होंने ‘हसन’ कहकर पुकारा, हसन ने तत्काल माई कहकर जवाब दिया। लेकिन इस वक़्त जब हमीदा बाई को अपनी पुकार पर हसन का जवाब न मिला तो वह हैरान-परेशान हो उठीं। हसन-हसन पुकारते हुए वह खाट के नीचे देखने लगीं। बरामदे में नज़र डाली। बाहर निकलकर उन्होंने कवेलुओं पर नज़र डाली। हसन न था।

हमीदा बाई घबरा गईं। हाथ-पैर काँपने लगे। साँसें तेज़-तेज़ चलने लगीं। वह रसोई में भागी गईं। हसन न था। झावा हटाया- वहाँ भी नहीं। बाहर अहाते पर नज़रें दौड़ाईं- ख़ाली पड़ी जगह और कुंदों पर भी हसन न था। चहारदीवारी पर भी नहीं। बुलंद दरवाज़े पर भी नहीं।

हमीदा बाई छाती पीट-पीट कर रोने लगीं।

रोने की आवाज़ पर आस-पास के लोग भागे आए।

सभी हमीदा बाई के ग़म में ग़मगीन थे। सभी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा- हसन कहीं जाने वाला नहीं, इधर ही कहीं होगा, परेशान न हो, आ जाएगा। पंछी कभी-कभार बहक जाते हैं, फिर लौट आते हैं। फिर हसन तो घर का बेटा है, वह कहीं नहीं जाएगा।

*

हसन के उड़ जाने पर जहाँ आस-पास के लोग ग़मगीन थे और हमीदा बाई को सांत्वना देते हुए उन्हें सँभाल रहे थे, वहीं पड़ोसी बलेसर साह भारी ख़ुश हुआ। बलेसर साह आटा-चक्की चलाता था और तेल पिराई का काम करता था। लंबे समय से वह हमीदा बाई के चटकने का इंतज़ार कर रहा था ताकि वह उनका समूचा घर-अहाता अपने कज़े में ले। इस मामले में उसने सरपंच और पटवारी से साँठ-गाँठ कर रखी थी। लंबी रकम भी दे चुका था। वह माने बैठा था कि कोई न कोई बहाना होगा और हमीदा बाई चटक जाएँगी।

और वह बहाना तोता बनकर आया था तो उड़ गया था और इस चक्कर में हमीदा बाई के प्राण-पखेरू कभी भी उड़ जाएँगे। हालाँकि अपनी मंशा के मद्देनज़र बलेसर ने तोते को मार डालने की कई बार योजना बनाई लेकिन यह सोचकर वह हर बार रुक गया कि पंछी को मारने की क्या ज़रूरत है, हमीदा बाई तो किसी न किसी बहाने, ख़ुद निपट जाएगी।

बलेसर पाँच फिट का था और काफ़ी मोटा। बड़ी तोंद के बावजूद फुर्त था। हाथ की उँगलियाँ भालू के पंजों जैसी थीं। गर्दन उसकी दिखती न थी जिससे लगता कि धड़ पर सिर किसी तरह जमा दिया हो। आँखें छोटी-छोटी मिचमिची थीं जो मुश्किल से खुलती थीं। सिर पर बारीक काले बाल थे जो हमेशा कड़ू तेल से सने रहते। सिर खुजाते हुए वह यकायक जोरों से हँसा जिस पर उसकी घरवाली उसे हैरत से देखने लगी। उसने पूछा कि वह हँस क्यों रहा है। इस पर बलेसर का जवाब था कि तू जा, मलऊ के यहाँ से बूँदी के लड्डू ले आ और सबको बाँट दे। उसने मिठाई बाँटने की बात कह तो दी लेकिन तत्काल पलटा खा गया कि पत्नी कहीं उसे गंदे रूप में न ले, इसलिए सफ़ाई देता आगे बोला- तेल पिराई में भारी नफा हुआ है। इसकी मिठाई तो बनती है! वह इसी ख़ुशी की हँसी थी और कोई बात नहीं...

घरवाली बलेसर की नस-नस से वाकिफ़ थी। वह नेक औरत थी। बलेसर को गंदे काम करने से हमेशा रोका करती थी। बलेसर का सोचना था कि ज़िंदा रहने के लिए किसी भी तरह से पैसा कमाना ग़लत नहीं है। किसी को लूटना भी ग़लत नहीं क्योंकि दूसरे भी उसे लूट ही रहे हैं किसी न किसी तरह। वह घरवाली से हमेशा कहता था कि वह उसके काम में टाँग न अड़ाया करे। वह जो कर रहा है, घर-गृहस्थी चलाने के लिए कर रहा है- अगर वह चक्की और तेल पिराई में ईमानदारी बरतेगा तो पेट पालना मुश्किल हो जाएगा। ईमानदारी बरतने के बाद भी लोग उसे बेईमान मानते हैं तो ईमानदार क्यों रहे! दोनों में आए दिन टंटा होता। बलेसर किलकिल से बचने के लिए चुप हो जाता। औरत के आगे नत-मस्तक हो जाता लेकिन अपनी हरकतों से बाज न आता था। इस वक़्त औरत आदमी की कुटिलता समझ गई थी, इसलिए मलऊ की मिठाई दुकान पर न जाकर सीधे हमीदा बाई के पास गई।

हमीदा बाई उससे लिपट गईं और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं। वह भी रोने लगी।

बलेसर ने औरत को गंदी-गंदी गालियाँ दीं - छिनाल रो रही है, छाती से लगा रही है बुढ़िया को!

औरत जब लौटी, दरवाज़े पर सरपंच और पटवारी खड़े थे। आदमी उनके लिए बहुत ही तत्परता से खाट बिछा रहा था। औरत सीधे रसोई में गई और हमीदा बाई को कुछ खिलाने के लिए खट-पट करने लगी।

*

औरत थाली में खाना लेकर जब हमीदा बाई के पास पहुँची, हमीदा बाई पछाड़-सी खाई फ़र्श पर पड़ी थीं। छाती पीट रही थीं, रो रही थीं। सन जैसे सफ़ेद-सफ़ेद बाल बिखरे थे। छाती चौपट खुली थी। पैर भी घुटनों तक खुले थे जिनमें काले पड़ गए चाँदी के पतले-पतले लच्छे थे।

औरत को हसन की मौत का ख़याल हो आया। उस वक़्त हमीदा बाई इसी तरह पछाड़ खाकर पड़ी रो रही थीं।

रोते-रोते यकायक हमीदा बाई शान्त हो गईं। वह झपक गई थीं। हल्के खर्राटे लेने लगीं। यह अक्सर होता। हमीदा बाई बात करते-करते, रोटी बनाते-बनाते या यूँ ही बैठे-बैठे झपक जाती थीं। वह क्षण में झपकतीं और क्षण भर में ही झपक से बाहर आ जाती थीं।

इस वक़्त जब वह झपकीं, उन्हें लगा कि बलेसर की पत्नी, रत्ना आई है। हाथ में उसके थाली है जिसमें उसके लिए खाना है। कितनी नेक औरत है, पूरी मोहमद साहब की बेटी फ़ातिमा! जबकि इसका आदमी, बलेसर कितना गंदा है, हर वक़्त कुफार बोलता रहता है, ढंग से बात नहीं करता। हसन के अबा मरे तो पूरा गाँव ग़म में था, यह मुआ ख़ुश था। हसन ने आँखें मीची तो और भी ख़ुश हो गया- क्या चाहता है मुझसे? मेरा रहना मुश्किल किए रहता है, कचरा डालता है, अहाते में मोरी खोल दी है, गंदा पानी जमा होता है, मच्छर और बदबू इतनी है कि नाक फटी जाती है, चाहता है मैं कहीं भाग जाऊँ, लेकिन क्यों भागूँ मैं! यह मेरा घर है, मेरी आराज़ी है! पुरखों की निशानी!

सहसा हमीदा बाई जाग गईं। रत्ना सचमुच उसके लिए खाना लिए सामने खड़ी थी।

हमीदा बाई बिसूरने लगीं, बोली- तू तो हसन के अबा, हसन और तोता हसन से बढ़ के है मेरी रानी! सचमुच तू रतन है, रतन! क्षण भर को वह चुप हुईं फिर रोते हुए आगे बोलीं- पता नहीं कहाँ चला गया मेरा लाल! बाज़ तो नहीं उठा ले गया? बिल्ली तो नहीं दुश्मन हो गई, कहीं उस पाज़ी बलेसर ने कोई चाल तो नहीं चली! लेकिन आज तक जब उसने कोई गड़बड़ न की तो अब क्योंकर करेगा? मुझे यक़ीन है, पक्का भरोसा, हसन को कुछ नहीं होगा। जहाँ भी होगा- सही-सलामत होगा। वो यहीं कहीं पेड़ों पर चला गया है... अपनी माँ को नहीं छोड़ सकता है वह!

*

हमीदा बाई जब यह बात रत्ना से कह रही थीं- बलेसर सरपंच और पटवारी के लिए खाट बिछा चुका था। खाट पर नया लाल कालीन डाल दिया था। दोनों उस पर बिराज गए थे। बलेसर उनके सामने प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ छाती पर दोनों हाथ जोड़े हल्के-हल्के मुस्कुरा रहा था।

रत्ना ने तीनों को देखा तो सोचा, ये मिसकोट में लगे हैं लेकिन मैं इनकी मिसकोट सफल नहीं होने दूँगी- तार-तार कर दूँगी- वह माथा सिकोड़े, तीनों पर थुड़ी करती घर में घुसी कि पीछे से बलेसर आ गया। वह यकायक गुस्से में आ गया था। तीखे स्वर में बोला- कहाँ गई थी तू?

रत्ना ने पलटकर बलेसर को देखा, जैसे पूछना चाहती हो कि तू नहीं जानता कि मैं कहाँ गई थी! कोई जवाब न दिया।

-तू हद पार कर रही है!!! -बलेसर गुस्से में तमतमा उठा।

-किसी के दुख में खड़े होना हद पार करना होता है? -रत्ना ने जलती आँखों बलेसर से सवाल किया।

-यह मदद नहीं है! मेरे साथ गद्दारी है! -बलेसर बोला तो रत्ना ने तीखे स्वर में जवाब दिया- मैं मदद और गद्दारी का अरथ समझती हूँ। तु मुझे न समझा!

बलेसर ने गहरी साँस भरी! यह कमीन मेरी घरवाली है, हमेशा मेरे ख़िलाफ़ खड़ी हो जाती है, औरों को देखा- औरतें जैसा मर्द चाहते हैं, उन्हीं का अनुसरण करती हैं, यह कुत्ती पता नहीं कहाँ की ईमानदार की नानी बनी है! इसे ऐसा सबक सिखाऊँगा कि समझ में आ जाएगा।

रत्ना बोली- कौन-सा सबक सिखाएगा? -उसने उसे जलती आँखों से देखा- मैं तेरी याहता ज़रूर हूँ लेकिन तेरी तल्ली नहीं, समझा!

बलेसर ने कंधे ढीले छोड़ दिए। दाँव बदला। उसे बहकाना चाहा- अरे भाई तू बात समझती क्यों नहीं! चुनाव का चक्कर है, सरपंच और पटवारी इसी खातिर मिलने आए थे।

-मैं सब बात समझती हूँ, दूध पीती बच्ची नहीं, मैं तुझसे हमेशा यही चाहती हूँ कि ईमानदारी से जो मिले वो अच्छा, लूट-अंधेर मुझे पसंद नहीं...

-ठीक है- बलेसर ने विनीत स्वर में कहा- मैं किसी लूट-अंधेर में शामिल नहीं हूँ। कोई ग़लत काम न कर रहा हूँ, न करूँगा, ठीक! -उसने रत्ना की तरफ़ प्यार भरी नज़रों से देखा।

रत्ना ने गीली आँखों कहा- उस ग़रीब का सब कुछ लुट गया। आदमी चला गया, बेटा चला गया, बीड़ी बना-बना के तोते के सहारे थी, वह सहारा भी चला गया। ऐसे में उसकी मदद तो गई भाड़ में, तुम उसकी आराज़ी हड़पने में लग गए हो, वो दोनों लकड़सुंघे किसलिए आए थे, मुझे पता नहीं है क्या?

बलेसर चुपचाप सुन तो रहा था, लेकिन अंदर ही अंदर उसमें यह विचार करवट ले रहा था कि हमीदा बाई के साथ जो होना है, वो तो होकर रहेगा, लेकिन मैं तुझे भी पटरी पर ला दूँगा, समझ ले...

रत्ना बलेसर का भाव ताड़ गई थी, नाराज़गी में पैर पटकती रसोई की तरफ़ गई- यह सोचती कि तू गंदा आदमी है, कभी सुधरेगा नहीं। फिर यह सोचने लगी कि जल्दी में उसने हमीदा बाई के लिए खाना पकाया था, पता नहीं उन्होंने खाया या नहीं...

उधर हमीदा बाई हाथ में थाली लिए बैठी थीं। खाने की तरफ़ उनसे देखा न गया। पहला कौर वो हमेशा हसन को खिलाती थीं, फिर खुद खाती थीं- अब जब पहला कौर खानेवाला नहीं है तो वह क्यों खाएँ- सोचते हुए उन्होंने थाली खाट के नीचे रख दी और बुदबुदाने लगीं- खाट के इसी पावे पर हसन बैठा था, उसी वक़्त वह झपकी थीं और बस तभी वह फुर्र हो गया। इसी छाजन के नीचे कई सारे कबूतर-फा़ते आते थे और गौरैय्याँ। हसन उन्हीं के बीच चहकता हुआ दाना खाता था- कहीं किसी कबूतर-फा़ते ने उसे बहका तो नहीं दिया। और साथ उड़ा ले गए हों- अक्सर सुनने में आया कि परिंदे एक दूसरे परिंदे की नकल करते हुए उड़ते हैं- मुमकिन है, हसन किसी परिंदे के साथ उड़ गया- यह सोचते हुए हमीदा बाई उठीं और उस पावे को छूने लगीं जहाँ उन्होंने हसन को आख़िरी बार बैठे देखा था- पावे को छूते ही उनकी आँखों से झर-झर आँसू रिसने लगे और वह बुदबुदाने लगीं जैसे पावे से कह रही हों कि बता मेरा लाल कहाँ गया? बता? तुझे ज़रूर पता होगा!

यकायक उन्होंने पूरे घर-अहाते को फिर से छानना शुरू किया- मुमकिन है उनकी आँखों से चूक हो गई हो और हसन कहीं चुपचाप बैठा हो! उन्होंने खाट के नीचे झाँका, छाजन के उस सिरे पर गईं जहाँ चूल्हा था, खाना बनता था और रसोई के सामान रखे थे। पटरों को ग़ौर से देखते हुए उस खूँटी पर नज़र गई जिस पर क़ाबा शरीफ की फोटो लटकी थी। आले को देखा जिसमें अचार की बर्नियाँ रखी थीं। चूल्हे के पीछे, हसन के औज़ारों को देखते हुए वह छाजन के बाहर आ गईं। अब लकड़ियों के कुंदों के बीच उन्हें खोजना था- एक-एक कुंदे को ग़ौर से देखते हुए वह बुलंद दरवाज़े तक आ गईं- गंदे पानी में आधी डूबी ईंटों पर डगमग पैर रखतीं- यकायक उन्होंने बुलंद दरवाज़ा खोला और दूर के दऱतों के पास गईं- हो सकता है, हसन उन दऱतों में कहीं जा बैठा हो।

काफ़ी देर तक वह दऱतों की एक-एक डगाल के बीच हसन को ढूँढ़ती रहीं। कई सारे पंछी थे, हसन न था। हमीदा बाई दुखी हो गईं। भारी क़दमों से घर लौट आईं।

खाट पर वह बैठी ही थीं कि पानी डूबी ईंटों पर पैर जमाती रत्ना आती दिखी।

रत्ना ने फिर उनकी दिलजोई की कि हसन इधर-उधर कहीं हो गया है लेकिन वह लौटकर ज़रूरी आएगा- ऐसी बहुत सारी बातें रत्ना कहे जा रही थी।

मगर हमीदा बाई कुछ और सोच रही थीं। उन्होंने तै कर लिया था कि वह हसन को खोजने के लिए घर से निकलेंगी और उसे ढूँढ़कर ही रहेंगी- इसी इरादे से उन्होंने पिंजरा उठाया, हसन को उसमें क़ैद करने के लिए नहीं, वरन् पहचान के लिए ताकि हसन उन तक आसानी से आ जाए और बुलंद दरवाज़े की ओर बढ़ीं।

पीछे-पीछे रत्ना थी।

जब वह बुलंद दरवाज़ा खोल रही थीं, सामने बलेसर दिख गया जो उनके दरवाज़े पर कचरा डाल रहा था। हमीदा बाई ने उसे हिकारत भरी नज़रों से देखा, जैसे कह रही हो कि मेरे ग़म में खुशियाँ मनाने वाले ज़ालिम तेरा सोचा कभी न होगा, हसन लौटेगा, ज़रूर लौटेगा, मैं लेकर आऊँगी उसे...

बलेसर ने उनका भाव ताड़ते हुए गुस्से में ज़मीन पर थूका।

हमीदा बाई ने परवाह न की। उन्होंने बुलंद दरवाज़ा बंद किया। यकायक उससे चिपट गईं मानों छाती से लगा रही हों। चूमने लगीं उसे, जैसे कह रही हों कि फिकर न करना, मैं जल्द लौटूँगी।

यकायक वह पलटीं और उन्होंने आसमान की ओर देखा। एक कबूतर उड़ता दिखा तो उन्होंने हसन समझकर उसे जोरों से पुकारा। पिंजरा सिर के ऊपर उठाया।

कबूतर नज़रों से ओझल हो गया था, लेकिन हमीदा बाई को लग रहा था, कि हसन उनकी आवाज़ सुन नहीं पाया है, उन्हें और ज़ोर से पुकारना चाहिए। उन्होंने जोरों की आवाज़ बुलंद की।

हसन ने जब कोई जवाब न दिया तो हमीदा बाई पिंजरा लिए आगे बढ़ीं।

*

हमीदा बाई पिंजरा लिए पूरे गाँव में घूमती फिरीं। जब भी कोई पंछी उन्हें दीखता पिंजरा ऊपर उठाकर वह जोरों की आवाज़ लगातीं- आ जा मेरे लाल! आ जा! देख, मैं यहाँ खड़ी हूँ पिंजरा लिए! आ जा मेरे हसन!

हमीदा बाई को इस तरह देख, गाँव के बहुत सारे बच्चे कौतुक भाव से उनके साथ हो लिए और सभी हसन-हसन की ज़ोरदार आवाज़ गुँजाने लगे।

हमीदा बाई के लिए न समय का बंधन था और न गाँव की सीमा का डर, लेकिन बच्चे इसे समझते थे, इसलिए जब हमीदा बाई गाँव की सीमा पार कर दूसरे गाँव में जाने लगीं, बच्चे वहीं रुक गए और निराश हो अपने-अपने घरों की ओर लौट पड़े।

*

हमीदा बाई इस गाँव से उस गाँव और उस गाँव से दूसरे गाँव की ओर बढ़ती रहीं। किसी भी पंछी ने उनकी पुकार का जवाब न दिया।

दिन, सप्ताह और महीने गुज़रे। हमीदा बाई का हौसला बुलंद था। वो थक कर कहीं भी पड़ जातीं, जो भी दयार्द्र हो उन्हें खाने को देता, वह खा लेतीं, लेकिन दिमाग़ में हर वक़्त हसन बना रहता।

ऐसे ही एक दिन जब वह हसन को खोजते हुए किसी पेड़ के नीचे सो गई थीं, यकायक झटके से नींद खुली तो उन्हें अपने कानों में हसन की पुकार सुनाई पड़ी। अगल-बग़ल देखने लगीं। उठ खड़ी हुईं और हसन-हसन पुकार उठीं- लेकिन हसन उन्हें कहीं नज़र न आया।

वह सोचने लगीं कि हसन ने उसे पुकारा था- कानों में आवाज़ आई थी उसकी- अभी भी वह मीठी आवाज़ उनके कानों में बज रही है। झूठी नहीं हो सकती वह आवाज़! कहीं ऐसा तो नहीं हसन घर पर उनका इंतज़ार कर रहा हो और वह उसको वीरानी जगह ढूँढ़ रही हैं- अक्सर ऐसा होता है, पंछी घर लौट आते हैं- मुमकिन है, हसन घर पर आ गया हो।

हुलास में भरी हमीदा बाई घर की ओर लौट पड़ीं। रास्ते भर वह हसन-हसन पुकारती रहीं।

लेकिन जब वे घर के सामने पहुँचीं, तो सन्न रह गईं। वहाँ तो उनका घर ही न था! न चहारदीवारी, न बुलंद दरवाज़ा, न लकड़ियों के कुंदे, न टीन छाया बरामदा और न कवेलू जमीं कुठरियाँ!

किसी दूसरे ठौर पर तो नहीं आ पहुँचीं वे! उन्हें यकायक रत्ना का ध्यान हो आया। वह भी नहीं दिख रही है, नहीं उसी से पूछती! उन्हें अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था, लेकिन जो सामने था उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता था : उनके घर को नेस्तनाबूद कर उस आराज़ी को टीन की बड़ी-बड़ी चद्दरों से चहारदीवारी की शक्ल में घेर दिया गया था जो गहरे लाल रंग की थीं। चहारदीवारों के बीच में बड़ा-सा बुलड्रोजर था जो अपना विशालकाय पंजा आसमान की ओर उठाए था। बड़ा-सा फाटक था और उसके ऊपर चमकता साइन-बोर्ड।

-या अल्लाह हमारा घर कहाँ गया? यह सोचते हुए उन्हें किसी अनर्थ के घटित हो जाने का इलहाम-सा हुआ जिसकी स्याह छाया में सब कुछ उजड़ गया था- कोई बचाने वाला न था!

हमीदा बाई की आँखों में अँधेरा छाने लगा। वह पछाड़ खाकर गिर पड़ीं। मुँह से उनके एक दर्द भरी कराह निकली जिसमें ‘हसन! हसन!’ की पुकार थी।

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रचनाकार: कहानी - किस्सा तोताबाई का / हरि भटनागर
कहानी - किस्सा तोताबाई का / हरि भटनागर
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