प्रतिरोध-संस्कृति में औपनिवेशिक कालीन दिनारा-क्षेत्र · लक्ष्मीकांत मुकुल दिनारा का इतिहास बहुत पुराना है। यह क्षेत्र अपनी गौरव गाथाओं औ...
प्रतिरोध-संस्कृति में औपनिवेशिक कालीन दिनारा-क्षेत्र
· लक्ष्मीकांत मुकुल
दिनारा का इतिहास बहुत पुराना है। यह क्षेत्र अपनी गौरव गाथाओं और जांगर के धनी पुरूषार्थियों के अपूर्व सिलसिले को अपने अंदर समेटे हुए है। लोक समाज के प्रतिरोध का स्वर अपने कामयाब हस्तक्षेप के साथ यहाँ उपस्थित मिलता है, तो लोक मन की आकांक्षा इतिहास के पन्नों से झाँकती हैं। गंगा के मैदानी इलाके का यह प्रमुख गॉव रोहतास (बिहार) के जिला मुख्यालय सासाराम से 30 कि0मी0 उत्तर की ओर राष्ट्रीय उच्च संख्या- 30 पर स्थित है।
नामकरण- दिनारा का नामकरण ‘दीनार' शब्द से माना जाता है।1 दीनार एक मुद्रा है, जिसका प्रचलन अभी कुवैत, इराक, बहरीन, जार्डन, ट्यूनिशिया, लीबिया, अल्जीरिया, सार्बिया आदि देशों में है। समान्यतः यह माना जाता है कि लम्बे समय तक भारत में रहे मुस्लिम शासन के समय में दिनारा का नामकरण उस कालावधि में हुआ होगा। इतिहास बताता है कि दीनार मुद्रा प्राचीन भारत में कुषाण काल में प्रचलित थी।2 मुस्लिम काल में दीनार मुद्रा का वर्णन नहीं मिलता है। परन्तु प्राचीन संस्कृत साहित्य यथा नारद स्मृति, बौद्ध ग्रंथों, मुंडेश्वरी शिला लेख एवं नासिक के लयण-लेख में इसका जिक्र आया है। दीनार शब्द की व्युत्पति उपाण सूत्र के दीड0 धातु से आरूढ़ प्रत्यय के विधान से होता है। यह शुद्ध संस्कृत का शब्द है, ‘शब्दकल्प द्रुप' में दीनारः पुलिंग मुद्रानिष्क परिमाण का उल्लेख है।3 यह एक भारी स्वर्ण मुद्रा था। मगध साम्राज्य के सम्राट पुष्प मित्र शुंग ने बौद्ध धर्म में पराभव और ब्राह्मण धर्म की पुर्नस्थापना करने के बाद यह ऐलान किया कि जो मुझे एक श्रमण मस्तक देगा उसे मैं सौ दीनार दूँगा।3(क) दीनार मुद्रा भारत में मौर्योत्तर काल से उत्तर गुप्त काल तक प्रचलित मुद्रा थी। मुद्रा के आधार पर इस स्थल के नामकरण से यह जाहिर होता है कि दिनारा का अस्तित्व उसी काल से रहा होगा। यहाँ के निवासियों की आर्थिक संपन्नता के कारण ‘दीनार' शब्द कालांतरित में अपभ्रंशित होकर दिनार, देवनार, दिनारा में परिवर्तित हुआ होगा।
मुस्लिम मतानुसार दिनारा का नामकरण दीन+आरा से हुआ है। यह शब्द अरबी शब्दों के युग्म से बना है, जिसका अर्थ मानवता से सुसज्जित होता है।5 सूफी चंद शहीद की दरगाह, काजी का निवास और मुस्लिम बहुलता को देखकर यह बात अस्वभाविक नहीं लगती है।
कहा जाता है कि इस जगह का नाम यहाँ की भौगोलिक स्थिति के कारण पड़ा होगा। यह गाँव पहले नोखा दह से निलकने वाला नारा (धर्मावती नदी) के बहाव के दाहिले बाजू में था। इसलिए इसका नाम दिनारा पड़ा। धर्मावती नदी की बहाव का विवरण जेम्स रेनेल के बंगाल एहलस, बुकानन की रिर्पोट और स्थानीय वृद्धों के कथनों से6 स्पष्ट होता है। बुकानन कहता है- This arises from the vicinity of small hill near Nokha and has a N.W. course of about 17 miles. 9t’s channel is narrow and no deep and even in the end of January contains a good deal of water,7 यह नदी अब अपने मूल रूप में नोखा से चिलहरूआँ तक तथा टोड़ा से बसही तक प्रवाहित है। बीच का भाग अब लुप्त हो गया है। दिनारा क्षेत्र के दर्जनों गाँवों के नाम वृक्षों और पशुओं पर रखे गये हैं।
औपनिवेशिक पृष्टभूमिः- आईने अकबरी के अनुसार दिनारा का परगना चौसा परगना के साथ ही शेरशाह के जमाने में टोडरमल का भूराजस्व व्यवस्था के तहत शाहाबाद का ही भाग था। परन्तु अकबर की नई मुगल प्रशासनिक व्यवस्था में दिनारा क्षेत्र से सटा चौसा परगना अवध राज्य के अधीन और शाहाबाद बंगाल सूबा में शामिल कर दिया गया। मेजर जेम्स रेनेल द्वारा सन् 1773 में तैयार किये गये रायल बंगाल एटलस8 में दर्शाये गये स्थितियों के आधार पर इस क्षेत्र का ऐतिहासिक रेखांकन किया जा सकता है। इस मानचित्र में चौसा परगना को मिर्जापुर जिला का अंग दिखाया गया है, जो गलत है। चौसा परगना तक गाजीपुर सरकार के अंतर्गत अवध राज्य का हिस्सा था। कोचानो और धर्मावती नदियाँ उस समय इन दो राज्यों की सीमा बनाती थी। वर्तमान धनसोईं थाना से सटा गाँव सिसौंधा, जो सरहदे अवध का विकृत शब्द है, यहीं अवध की सीमा चौकी थी। रेनेल के नक्शे में मैरा गाँव के समीप कोचानो नदी को विभाजित कर वर्तमान नदी की बहाव धारा के अलावे पश्चिम की ओर निकलती एक और धारा को दिखाया गया है, जो धनसोई से उत्तर-पश्चिम जाकर फिर नदी की मुख्य धारा में शामिल हो जाती है। कहा जाता है कि मैरा के पश्चिम में तब नदी को बांध कर पटवन के लिए लोगों ने नदी की धारा को परिवर्तित किया था, जिसका भौतिक स्वरूप आज भी दिखता है। रेनेल के मानचित्र के अनुसार धनसोई का करीब तीन कोस का इलाका उस समय चारो तरफ से एक ही नदी से घिरा था। लोकमत के अनुसार पटखौलिया, कर्मा, सेमरी, भानपुर आदि गाँव नदी के डूब क्षेत्र में पड़ने की वजह से भारी विरोध के कारण नदी के इस बाँध को तोड़ना पड़ा था।9 कोचानो नदी पर भानपुर के उपर बना बैरी बांध तथा धर्मावती नदी पर टोड़ा और बावन बाँध के बाँध कृषि कार्य के लिए उपयोगी होते थे। रेनेल के इस एटलस में दिनारा क्षेत्र के अनेक स्थलों को दिखाया गया है, जिसमें बीसी, चरपोखर, करंज, गोपालपुर, राजपुर, दावथ और कोआथ आदि है। इस नक्शे में काव नदी के तत्कालीन बहाव-मार्ग को भी सही तरीके से दिखाया गया है। काव शाहाबाद के आंतरिक भाग की अंतरप्रवाहित होने वाली सबसे बड़ी नदी थी। यह कैमूर पर्वत के कछुअर खोह से निकल कर राजपुर, सियांवक, विक्रमगंज, दावथ, नावानगर, केसठ, कोरानसरैया, डुमरॉव होती हुई गंगा में मुहाना बनाती थी, परन्तु इस नदी का बहाव वर्तमान में मलियाबाग से उत्तर धारा मोड़कर घुनसारी गॉव के पास ठोरा नदी में मिला दिया गया है। रूपसागर, नावानगर, जितवाडिहरी, अतिमी, भदार, बसुदेवा, पिलापुर और नखपुर आदि गाँवों की सीमा से काव की धारा गायब हो गई है।10 केसठ के पास काव के नाम से एक धारा बहती हुई डुमरॉव की ओर जाती है, फिर भी मुख्य धारा ‘नदी- अपहरण' की वस्तु होकर इतिहास का विषय बन चुकी है।11
शाहाबाद के मध्य में बसा दिनारा मुगलकाल में एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता था। दिनारा शाहाबाद सरकार का एक परगना था। यहाँ के मुख्य शासकीय अधिकारी चौधरी और काजी थे। चौधरी को राजस्व वसूलने की तथा काजी को न्यायिक शाक्तियॉ प्राप्त थी। भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना के बाद से यहाँ का लिखित रूप में इतिहास मिलना शुरू होता है। दिनारा परगना का क्षेत्रफल 55 वर्ग था और 1791 ई0 में इसका कुल लगान 13,025 रू0 था।12 राजस्व इकाई के रूप में परगना का अस्तित्व 1916 ई0 तक रहा, जिसके बाद राजस्व थाना बिक्रमगंज अपने प्रभाव में आया। अंगे्रजों के शासन के प्रारंभिक समय में दिनारा क्षेत्र लगान वसूली के मामले में अराजक माना जाता था, क्योंकि यहाँ के लोग जुझारू और दबंग प्रवृति के थे। जोतदार जमींदार के अनुशासन का प्रतिरोध और उसकी शक्ति की अवहेलना किया करते थे। सन् 1785 के बारिश के दिनों में दिनारा के चौधरी धवल सिंह ने अंग्रेजी सरकार के एजेंट एवं मालगुजार अहमद अली खान के कार्यालय पर हमला करके चार व्यक्तियों को मार डाला था तथा तेरह को घायल करके खजाने को लूटा ही नहीं था, बल्कि हाजत के बंदियों को भी मुक्त किया था। धवल सिंह बहुत ही हठीले और जिद्दी भूस्वामी थे। अंग्रेजी सल्तनत का सर्वप्रथम विरोध इसे माना जा सकता है, जिसका श्रेय दिनारा क्षेत्र की धरती को जाता है। शाहाबाद गजेटिपर कहता है- In the rainy season of 1785 chaudhari Dhawal singh of Dinara attacked Ahmad ali khan’s office and after killing four men and woundering thirteen others, he looted the treasury and released the defaulters, who were in confinement 13 कहा जाता है कि कालांतर में यह परिवार भागलपुर में जा बसा, जो खैरा इस्टेट के नाम से मशहूर हुआ, इसके वंशजों का निवास, वर्तमान बांका जिला के रजौन प्रखंड के खैरा गाँव में है।14 जनश्रुर्तियों के तहत दिनारा उच्च विद्यालय के पास का विशाल पोखरा और दक्षिण सीमा पर स्थित प्राचीन कुआँ का निर्माण चौधरी धवल सिंह ने ही कराया था। कहा जाता है कि दिनारा उस समय कुर्मी बहुल गाँव था और धवल सिंह कुर्मी थे।
दिनारा क्षेत्र की जमींदारी 1786-97 में कोआथ के नवाब को मिली थी, परन्तु लगान वसूली करने में वे विफल रहे, क्योंकि यह इलाका अशांत माना जाता था। नवाब ने अंग्रेजों को लगान देने के लिए जमींदारी की कुछ भू-संपदा को निलाम भी किया था। लार्ड कार्नवालिस के समय में (1793 ई0) लागू स्थायी बंदोबस्ती में शाहाबाद की जमींदारियों जहाँ राजपूत परिवारों को दी गई, वही दिनारा की जमींदारी दिनारा निवासी चौधरी धवल सिंह को उनकी पिछली गलतियों को माफ करके कंपनी सरकार द्वारा दी गई।15 सन् 1813 में ब्रिटिश संसद में पेश किया गया ‘पांचवी रिर्पोट' में ये तथ्य भी आये थे। सन् 1793-1800 में जमींदार किसानों से कुल उपज का 60 प्रतिशत भाग लगान के रूप में वसूल करते थे। तब मालगुजरी लगान वसूली भावली होती थी। औपनिवेशिक काल में नदियों की जलोढ़ मिट्टी से बना यह क्षेत्र ‘भरकी' कहा जाता था, क्योंकि हल जोतते हुए बैलों के पैर गहरे लम्बे दरारों फंस जाया करते थे।
घुमक्कड़ की रपट
सुदूर गाँवों और संसाधनों के विषय में सुव्यवस्थित अध्ययन करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के तत्कालिन शासकों द्वारा जिले में एक खोज यात्रा आयोजित की गई, जिसका नेतृत्व अंगे्रज सर्वेयर फ्रांसिस बुकानन ने सन् 1812-13 में पूरा किया। उसकी यात्रा के समय करंज थाना स्थापित हो चुका था। करंज थाना के क्षेत्राधिकार में दनवार और दिनारा परगनों का सारा भाग था। करंज थाना का फैलाव पश्चिम में कोचस के उतरी भाग से लेकर पूरब में सोन नदी तक था। इसके उत्तर में डुमरॉव थाना और दक्षिण में बरॉव थाना का भाग था। बुकानन के यात्रा विवरणों से औपनिवेशिक काल के दिनारा क्षेत्र के संबंध में काफी जानकारी मिलती है।16
अपने यात्रा-क्रम में वह इस इलाके के सूर्यपूरा, करंज, कोआथ, बड़हरी, बहुआरा, कोचस आदि जगहों पर पड़ाव डाला तथा भलुनी व घरकंधा का भी दौरा किया। करंज थाना क्षेत्र को लम्बा और सँकरा बताते हुए उसे टिप्पणी की कि यहाँ पदस्थापित दारोगा, काजी और पीरजादा हैं, जो अपना काफी कम समय करंज मुख्यालय में देते हैं।17 यहाँ के लोग प्रायः शिव और देवी की पूजा करते हैं और इस क्षेत्र में मुस्लिम का कोई उपासना स्थल नहीं है। बक्सर के ज्ञानी पंडित और भोजपुर राजा के पुरोहित रीतु राज मिश्र द्वारा स्थापित करंज में एक मठ भी है, जिसमें बीस साधु रहते हैं। यहाँ के कुछ हिन्दू नानक पंथी भी हैं, जिनकी बैठक दिनारा में होती है। जिसमें उपदेश देने के लिए एक अविवाहित युवक जगदीशपुर से हमेशा आता है।17(क) इस क्षेत्र के पश्चिमी भाग की भूमि करइल मिट्टी से बनी है, जो पैदावार के लिए उपयोगी है। परन्तु पूर्वी भाग की भूमि बालू से भरी है। इस क्षेत्र के बड़ा भाग जंगल से अटा है और सभी तरफ लम्बे घास ही दिखाई देते हैं। सूर्यपुरा के मकान पुराने कानूनगो के हैं, जिसमें काफी खिड़कियाँ लगती हैं और उसका फैलाव काफी विस्तृत है, परन्तु उस पर बाहर से प्लास्तर भी नहीं हुआ है। इस क्षेत्र के घरों के दीवाल मिट्टी के हैं, जो फूल से छाये हुए हैं, पर अधिकतर गाँवों में घरों के नाम पर झोपडि.याँ ही हैं। करंज, जहाँ पुलिस मुख्यालय है और बाजार भी लगता है, यह केवल 70 घरो का गाँव है। कोआथ इस क्षेत्र का बड़ा शहर है, जहाँ 500 घर हैं। सूर्यपुरा, दावथ, शिवगंज, बड़हरी और कोचस प्रायः 200 घरों के तथा धनगाई और धोसियाँ 150 घरों के गाँव हैं।
घुमक्कड़ अपने यात्रा विवरणों में इस क्षेत्र के भलुनी, घरकंधा और जारन-तारन के महत्व पर प्रकाश डालता है। कोचस में वह एक ऐसे मुस्लिम परिवार को पता है, जिसने उज्जैनियों की सेवा करके काफी धन अर्जित किया है। उसके यात्रा वृतांत से हमें ठीक दो सौ वर्ष पहले की सामाजिक - सांस्कृतिक - धार्मिक - आर्थिक स्थितियों एवं अपने स्वभाव में नये गुणों का समावेश करता एक संक्रमणशील समाज का पता चलता है। घरकंधा स्थित ज्ञानमार्गी संत दरिया का मठ, गंगाधर पंडित द्वारा भलुनी गाँव के समीप यक्षिणी भवानी के मंदिर का निर्माण तथा सूर्यपुरा स्थित दीवान के विशाल भवन की जानकारी उसके विवरणों में है। जंगल के समीप स्थित भलुनी के देवी के मंदिर को वह काफी महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल माना है। उसका मानना है कि देवी की मूर्ति चेरो जनजातियों द्वारा निर्मित है। इस देवी की मूर्ति की तुलना वो कलकत्ता की काली मूर्ति से करता है। उसके यात्रा के समय चैत्रमास में वहाँ भारी मेला लगता था, जिसमें दस हजार से ज्यादा तीर्थयात्री आते थे। वह अंधेरा होने की वजह से मंदिर में स्वयं मूर्ति को देख नहीं पाता और स्थानीय पुजारियों द्वारा अपने वंश के संबंध में प्रस्तुत कराये गये आँकड़ो पर संदेह व्यक्त करता है। वह पाता है कि यहाँ के शाकद्वीपीय पुजारी भ्रम पालने और ठगने का काम करते हैं। पुरातात्विक महत्व पर प्रकाश डालते हुए वह पाता है कि भैरव नाम से पूजित मूर्ति बुद्ध की ध्यानमग्न मूर्ति है और पश्चिमी पोखरे के किनारे प्राचीन मंदिर के अवशेष मुस्लिम काल में आक्रांतओं द्वारा ढ़ाहे गये हैं।
यह अंग्रेज यात्री सूर्यपुरा से नौ मील उत्तर जारन-तारन नामक एक ऐसे स्थान को पाता है, जो अतीत में चेरो राजा फुलीचंद्र का निवास स्थल था। वह यहाँ के प्राचीन घरों के खंडहरों और बसावटों पर काफी गौर करते हुए वर्णन करता है कि यहाँ पर बिखरी पड़ी मूर्तियाँ इतिहास की अनमोल धरोहर हैं। इतिहासकारों का मानना है कि बुकानन द्वारा यह निर्देशित स्थल खान की सिमरी के उत्तर पूर्व और नावानगर का तराँव गढ़ ही अवश्य है।
घुम्मकड़ को सूर्यपुरा से भलुनी आने में दो नदियों को पार करना पड़ा था। उसे रास्ते में 77 प्रतिशत भाग बंजर मिला और करीब दो मील जंगल से गुजरना पड़ा। उसने पाया कि 41 प्रतिशत लोग जीवनवृत्ति में लगे हैं। वह कंपनी सरकार को भेजे गोपनीय प्रतिवेदन में सूचना दिया कि इस देहात के बहुत से हिस्से की मिट्टी हल्की रंगीन है, जो धान की फसल के लिए उपयोगी है, परन्तु कुछ जगह की मिट्टी हल्की और बलुआही भी है। अन्य जगहों की अपेक्षा इस इलाके की खेती संतोषप्रद नहीं है। सबसे अधिक उपज धान की होती है उसके बाद गेहूँ की। बहुत से किसान पानी की सुविधा से वंचित रह गये हैं। कुछ क्षेत्रों में आहरों की मरम्मत नहीं हुई, तो कहीं उसका एकदम आभाव है। परती जमीन का 2․5 प्रतिशत गढ़ानुमा, बलुआही मिट्टी 3․5 प्रतिशत, हाल में छोड़ी गई परती 4․5प्रतिशत, लम्बे घासों का क्षेत्र 47․5 प्रतिशत तथा जंगल 19 प्रतिशत पाया गया, शेष भाग पर ही कुछ खेती थी। उसने पाया कि यहाँ लोग ज्यादा चौपाया जानवर को पालते हैं। इधर गाय और भैंसों की संख्या काफी हैं।18
फ्रांसिस बुकानन की सूर्यपुरा से भलुनी धाम, कोआथ से करंज व कोचस और कोनडिहरा से बहुआरा की यात्राओं का आँखों-देखा विवरण उसकी डायरी से प्राप्त होता है,19 जिसके आधार पर हम उन स्थलों की पूर्व स्थितियों से वर्त्त्ामान हालात की तुलना करके विकास के चिन्हों का मूल्यांकन कर सकते हैं।
मिथकों से विमर्श- दिनारा क्षेत्र के प्रमुख धार्मिक स्थलों में भलुनी का देवी मंदिर, धरकंधा का दरिया मठ, दिनारा खास का चंदन शहीद, देवढ़ी का शिवमंदिर, सिमरी का महावीरी झंडा, कड़सर का सोखा धाम और ठोरा नदी के संबंधित मिथकीय संदर्भो से अनेक दंतकथायें और कहानियाँ जनमानस से उद्धत होती हैं। इन कथानुमा तथ्यों से औपनिवेश कालीन समाज लबरेज था।
दिनारा से पूरब और एन0एच030 से दक्षिण में भलुनी ग्राम के समीप स्थित देवी मंदिर को स्थानीय मनीषियों द्वारा शक्तिपीठ की उपमा दी जाती है, हालाकि यह दक्ष यज्ञ में भस्म सती के अंग गिरने से बने शक्तिपीठों में चिन्हित नहीं है। भलुनी निवासी कन्हैया लाल पंडित का मानना है कि श्रीमद्देवी भागवत् में वर्णित तथा तंत्रशास्त्र और उपनिषद् में भलुनीधाम निवासिनी जगत् जननी माँ ‘यक्षिणी' भवानी को काली, उमा, यक्षिणी, दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती आदि नामों से संबोधित किया गया है।20
यक्षिणी सिंह पृष्टस्था कंकाली वृषवाहना।
हंस पृष्टे सुरज्येष्ठा सर्परातहिवाहना॥
(नवचंडी महोत्सवःखिल मार्कण्डेय)
धार्मिक विशेषज्ञ उपनिषद् और पुराण का हवाला देते हुए कहते हैं कि जिस समय देवासुर संग्राम हुआ और देवता असुरों पर विजय प्राप्त के उत्सव मनाने लगे, तो आदिमाता को लगा कि ये देवता लोग घमंड में आकर खुशी मना रहे है, जो कलांतर में कष्टदायक होगा। देवताओं के घमंड को तोड़ने के लिए देवी ‘यक्षिणी' रूप धारण करके देवताओं के समीप गई और एक तिनका थमाते हुए उसे तोड़ने को कहा, परन्तु देवता गण उसे न तोड़ पाये और न ही जल में डुबो ही सके। देवता चकित हो गये, तभी आकाशवाणी हुई कि जिसे तुम लोग यक्ष जाति की एक स्त्री समझ रहे हो, वह आदिशक्ति माँ जगदम्बा हैं। एक तिनके के प्रभाव से पराजित हुए देवताओं के राजा इंद्र जब यक्षिणी की पूजा के लिए आगे बढ़ते हैं, तथी वह अन्तर्ध्यान हो जाती है। इन्द्र देवी को खोजने के लिए दुनिया भर में भटकते हैं, अंततः उनका दर्शन देवीभागवत् के अनुसार एक लाख वर्ष तपस्या के बाद ‘श्री यक्षिणी' रूप में इसी जंगल में होता है।21 मान्यताओं के अनुसार दर्शन पश्चात् इंद्र ने ही इस मूर्ति की स्थापना की थी, जिसे फ्रांसिस बुकानन चेरो द्वारा स्थापित मानता है।
भलुनी के इस मंदिर के समीप में वर्तमान में मंदिर का समूह स्थापित हो गया है। साईं बाबा का मंदिर, कृष्ण मंदिर, कीनाराम बाबा का मंदिर, भैरव मंदिर, रविदास मंदिर, गणीनाथ मंदिर, हनुमान मंदिर, राहु मंदिर तथा पूर्वी भाग में संरक्षित जंगल क्षेत्र के मध्य में अवस्थित काली खोह आदि प्रमुख हैं। पूजा-पूर्व स्नान के लिए यहाँ तीन विशाल तालाब हैं जो छठ व्रत के उपयोग मे भी लाये जाते हैं।
औपनिवेशिक जमाने में और कलांतर में भी दशहरा और चैत के नवरात्रों में मेला लगता था। प्रति वर्ष मार्च-अप्रैल में एक माह तक लगने वाला मेला तब बिहार का नामी मेला माना जाता था, ग्रामीण लोग देश भर से आये व्यापारियों से अच्छी वस्तुएँ कम लागत में खरीदते थे। आगरा की दरी, मुंबई से साड़ी हाउस, बनारस और कलकता से श्रृंगार प्रसाधन, मथुरा और हाथरस से नाटक कम्पनियाँ आकर्षण का केन्द्र होती थी, परन्तु वर्तमान में यह मेला केवल पशु मेला बनकर रह गया है और अपना आकर्षण खो चुका है।
मुख्य मंदिर देवी यक्षिणी मंदिर के पुजारी भलुनी, खरीका और बड़ीहाँ गाँवो मे बसे हैं। परपंरानुसार पूजा और कीर्तन करते हुए दर्शनार्थियों का सहयोग करते हैं।
धरकंधा का दरियामठ ज्ञानमार्गी संत दरियादास की आाधार भूमि है, जिसका प्रादुर्भाव (सन् 1674-1780) में हुआ था। वे एक उच्च कोटि के संत, कवि और समाज सुधारक थे। इन काव्य-रचनाओं पर कबीर, नानक, दादू, तुलसी दास की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।22 दरिया दास से बंगाल का नवाब मीर कासिम काफी प्रभावित हुआ था और 101 बिगहा जमीन भी बेलगान दान में दिया था, परन्तु दरिया दास के महाप्राण के बाद उनके अनुयायी बुद्धिजीवियों और सामान्य जनों को दरिया साहब की कृतियों के पास नहीं जाने देते थे। यह शायद उनके अंतः संकोच का ही परिणाम था। पंथ के पास हस्तलिखित ग्रंथों और कुछेक मुद्रित पुस्तकें ही ज्ञान की पूँजी थी, जिस पर स्पष्ट आदेश लिखा होता था- ‘केवल दरिया पंथी साधु या भक्त ही इन ग्रंथ को पढ़े, समझे, बूझे या रखें। दरिया पंथी से इतर अनिधिकृत व्यक्ति इसे बांचे या रखे तो उसे सौंगध! इस आदेश को न मानने वाला, चाहे वह हिन्दू या मुसलमान, फिरंगी हो या वैरागी निस्संतान मरेगा अथवा विनाश को प्राप्त होगा। सत्तनाम!सत्तनाम!23 ऐसी विषय परिस्थिति में यह पंथ और दरिया दास की अमृतवाणी सार्वजनिक और सार्वजनिन न होकर एक खास तबके तक सिमट कर रह गई। सामाजिक दूराव बना रहा। बुकानन दरिया साहब की मृत्यु के 30 वर्षों के बाद आया और उस स्थल की स्थिति का वर्णन किया। दरिया दास मध्यकाल के भारतीय संत परंपरा की महत्वपूर्ण कड़ी हैं, जिन्हें साहित्य जगत में स्थापित करने का श्रेय डॉ0 धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री को जाता है। उनके द्वारा एक शोध ग्रंथ प्रस्तुत किया गया, जिसमें दरिया दास के जीवन, रचनाएँ, दर्शन, आध्यात्म, कवित्व शक्ति और भाषा विन्यास पर वृहद् प्रकाश डाला गया है। डॉ0 शास्त्री द्वारा ‘संत कवि दरियाः एक अनुशीलन' ‘दरिया ग्रंथावली' और ‘हस्तलिखित पाथियों का विवरण' पुस्तकों में अनेक तथ्य परिभाषित होते हैं। इन पुस्तकों का प्रकाशन बिहार राष्ट्रीभाषा परिषद्, पटना द्वारा किया गया था।
दरियादास द्वारा लिखित ग्रंथों में अग्रज्ञान, अमर-सार, काल चरित्र, गणेश-गोष्ठी, ज्ञान दीपक, ज्ञानमूल, ज्ञानरत्न, ज्ञान-स्वरोदय, दरिया सागर, निर्भय ज्ञान प्रेममूला, ब्रह्म-प्रकाश, ब्रह्मविवेक, भक्तिहेतु, मूर्ति उखाड़, विवेक सागर, शब्द, सहस्त्रानी हिन्दी में, ब्रह्म चैतन्य संस्कृत में और दरिया नामा फारसी में है। दरियादास अपने समय की विवेकहीनता और असंवेदनशीलता से चिन्तित होकर कहते है;
दरिया आगम गंभीर है, लाल रतन की खानि।
जो जन मीलें जौहरी, लेहि शब्द पहचानि॥24
हिन्दू और मुस्लिम धर्मों की मिथकीय विडंबनाओं की वे कबीर की तरह ही आलोचना करते हैं और एकेश्वरवाद की पैरवी भी करते हैं। मूर्ति पूजा का विरोध उनकी ‘मूर्ति उखाड़' पुस्तक में परिलक्षित होती है। वे अपने समय के अत्याचारियों यथा स्थानीय जमींदार निहाल सिंह का सामना करके समाज में न्याय का एक मजबूत स्तंभ स्थापित करते हैं। मानव मात्र का प्रेम, आत्मज्ञान और सत्पुरूष की आराधना दरिया के रचना-कर्म का मूलाधार है। उनका मानना है-
प्रेम कवंल जल भीतरे, प्रेम भवंर ले वास।
हों प्रात सुपट खुले, भान तेज प्रकाश॥ 25
दरियादास के धरकंधा गाँव में औपनिवेशिक काल में स्थापित दरियापीठ वर्तमान में एक मठ के रूप में विकसित है और निहाल सिंह का गढ़ अवशेष के रूप में बचा है, जिस पर आज भी गढ़ देवी का स्थान है। करीब तीन सौ बिगहे की परिसम्पति वाला यह मठ लम्बे समय से भ्रष्ट लोगो के कब्जे में रहा है और उसकी काफी संपतियों का नुकसान हुआ है। जमीनें काफी मात्रा में फर्जी तरीके से बेची गई है, परन्तु कुछ वर्षो से नये महंथ के गद्दीनसीन होने से व्यवस्था में सुधार आवश्य आया है, फिर भी दरियापंथियों द्वारा अब भी बृद्धिजीवियों से दूरी बनाये रखने की कोशिश जारी है।
इतिहास प्रेमियों के अनुसार26 दिनारा के उत्तर सरना गाँव के दक्षिण में तथा मलियाबाग में पश्चिम-दक्षिण कोण पर अवस्थित गाँव देवढ़ी के शिवमंदिरों का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक के भं्रष्टित लाटों के अवशेष पर हुआ है। अशोक स्तंभ एकाश्मक होते थे, जिसे एक ही पत्थर को तराश कर चिकना बनाया जाता था। जो बलुआ पत्थर की चुनार शैली में बने होते थे। सरना और देवढ़ी के इन गुमनाम स्तंभों पर शिवलिंगों की स्थापना जो की गई हैं, वह प्रत्यक्षतः दिखती हैं। बीच भाग छेनी से तोड़कर इस पर सींमेट से पत्थर को पुनः जमाया गया है, परन्तु इसमें फाँक बरकरार है। इन शिव मंदिरों के निर्माण और पूर्व में इन स्तंभों की प्राप्ति के बारे में स्थानीय तौर पर अनेक दंतकथाएँ एवं घटित कहानियाँ प्रचलित हैं।27 सरना गाँव के दक्षिण की ओर कमल-पुष्पों से भरा विशाल ऊँचे पीड़वाला पोखरा हमें बौद्ध ग्रंथों में वर्णित महाजनपद कालीन स्वच्छ तालाबों की स्मृति ताजा कर देता है।
ठोरा बाबा (ठोरा नदी) का मिथक भी दिनारा-क्षेत्र में काफी मशहुर रहा है। ठोरा नदी का उद्गम नोनहर गाँव का कुआँ माना जाता है, परन्तु नदी का नाला रूप इस गाँव से दो मील उत्तर में ही दिखाई देता है। ठोरा नदी के निर्माण, बहाव और मुहाना के बारे में दंतकथाएँ प्रचलित है।28 नोनहर गाँव में एक देवता के रूप में इनकी पूजा होती है और प्रतिवर्ष अक्टुबर माह में एक दिन का विशाल उत्सव मनाया जाता है।
मलियाबाग से पूरब-उत्तर के कोण पर अवस्थित तुरांव गढ़29 चेरो कालीन राजाओं की राजधानी थी। औपनिवेश काल के कुछ शतक पूर्व यह गढ़ भोजपुर राज की सता का केन्द्र था। तुरावं गढ़ काव नदी के पूर्वी छोर पर है, जिसके पूरब में विशाल पोखरा है। अंगे्रजों के द्वारा सोन नहर निर्माण के समय तुरांव गढ़ के बीच के भाग को काट कर केसठ नहर उपशाखा-3 का निर्माण किया गया था। तुरांव गढ़ जहाँ बुकानन भी गया था अपने मात्रा काल में, वह वर्तमान में तुरांव खास और गुंजाडीह के नाम से जाना जाता है। यहाँ अब भी पुराने सिक्के, लम्बे चौड़े पके इट्टे और जले हुए अन्न के अवशेष प्राप्त होते हैं। यहाँ के निवासियों में सोना धूप में पकाने, सोना लूटने और सोना मिलने के बारे में अनेक दंतकथायें और सच्ची घटनाएँ भी प्रचलित है। स्थानीय लोग मानते हैं कि चेरो राजा के वशंज आज भी कभी-कभार इस जगह पर आते हैं। गुंजाडीह में लोहथमिया वंश के राजपूत निवास करते हैं, जिसके पूर्वज चेरो और उज्जैनियों की भीषण लड़ाई में उज्जैनियों के साथ थे। तुरांव गढ़ को जारन-तारन, तिरावन आदि नामों से भी जाना जाता है। तुरांव गढ़ के चेरो राजाओं में सीताराम, सहसबल, कुमकुमचंद और फूलचंद आदि थे। फूलचंद ने ही सन् 1587-1607 के मध्य जगदीशपुर में मेला लगाना शुरू कराया था और देवमार्कण्डेय में विशाल मंदिर भी बनवाया था। उज्जैनियों और चेरों के बीच निर्णायक लड़ाई सन् 1611 में हुई, जिसमें उज्जैनवंशी शासक नारायण मल विजयी हुये और चेरो को सोनपार पलामू की ओर भागना पड़ा। तुरांव गढ़ इसी अंतिम लड़ाई में नेस्तनाबूद किया गया, जिसके पुरावशेष आज भी वहाँ मौजूद हैं।
सामाजिक और धार्मिक समरसता का एक अद्भूत उदाहरण गाँव खान की सिमरी में मिलता है, जहाँ दशहरा में महावीरी झंडा उठाने की प्रथा एक शिया मुस्लिम द्वारा सौ वर्ष पूर्व आरम्भ की गई थी, जो आज भी परंपरा में कायम है। मलियाबाग के पार्श्व में स्थित इस गाँव में कोआथ के नवाब नुरूल हसन खान के शाहबजादे तुफैल हसन का वंश अब भी अपनी उदारता, समर्पण, हिन्दु समाज से भाईचारा और विद्वानों, संतों और फकीरों को आदर देने वाला माना जाता है। सिमरी गाँव का काली स्थान, महावीरी अखाड़ा और जोगीवीर आदि हिन्दू धार्मिक स्थलों की पर्याप्त जमीन इसी बिलग्रामी परिवार द्वारा दान में दिया गया था। सिमरी के महावीरी झंडा की ऐतिहासिक पृष्टभूमि तथा सांस्कृतिक अवदान के विषय में ग्रामीण बताते हैं कि इख्तिखार हसन बिलग्रामी उर्फ रसूल भाई के पितामह, जो एक प्रसिद्ध जमींदार थे, उन्होंने ने ही सन् 1913 में इस झंडे की परंपरा शुरू कराई थी, जिनका नाम सर सैयद शाह हसन बिलग्रामी रहमतुल्लाहअलैह था। इस झंडे की विशेषता और इससे जुड़ी घटनाओं का विवरण स्थानीय लोगों की जुबान पर रहता है।30
सूर्यपुरा और कोआथ के जमींदारों के कार्यवृत और उनसे जुड़ी घटनायें औपनिवेशकालीन दिनारा क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। सूर्यपूरा का जमींदार परिवार कायस्थ जाति का एक प्रबुद्ध परिवार रहा है। यह परिवार मिर्जापुर से इस गाँव में उत्तर मुगलकाल में बसा था और परिवार का मुखिया कानुनगो पद पर कार्यरत थे। सन् 1973 की स्थायी बंदोबस्ती के बाद डुमराँव राज के मंत्री (दीवान) इसी परिवार के राजकुमार सिंह बने थे। अंग्रेजी सरकार द्वारा 19वीं सदी के अंत में राज राजेश्वरी सिंह ‘प्यारे' को ‘राजा' की उपाधि मिली थी। उनके मरणोपरान्त उनके पुत्र एवं प्रख्यात लेखक राजा राधिकारण प्रसाद सिंह हुए।31 राधिका रमण प्रसाद सिंह के राजस्व काल में पूर्व में बने विशाल राजभवन के अलावे विशाल पोखरा और उसके घाटों, मंदिरों, राजस्व कचहरी और प्रख्यात उच्च विद्यालय का निर्माण हुआ, जिसकी स्थापत्य कला किसी भी बाहरी व्यक्ति को आश्चर्य में डाल देती है।
दिनारा से ही पूरब में अवस्थित मुस्लिम बहुल गाँव कोआथ बिलग्रामी परिवार की विरासत और बहुलतावादी संस्कृति के परिचायक के रूप में जाना जाता है। अवध के बिलग्रामी नाम स्थान से आकर बसे इस परिवार के संस्थापक नवाब नुरूल हसन खान को अंग्रेजों और सुजाउद्दौला के साथ हुए शांति समझौते में एक बड़ी जमींदारी हाथ लगी थी। नुरूल हसन खान को अंग्रेजी सल्तनत के बिहार के दीवान राजा सिताब राय द्वारा सन् 1768 में शाहाबाद का कलक्टर नियुक्त किया गया था। इसके पहले वे अवध के सेनापति भी रह चुके थे। अपने कलक्टरी काल में उनके द्वारा भोजपुर के दो बड़े जमींदारों विक्रमादत सिंह और गजराज सिंह को भी जमींदारियों सौंपी गई थी। नुरूल हसन को 152 मौजे दरवार परगना में ही बेलगान प्राप्त हुए थे और कोआथ में उन्होंने अपना विशाल आवासीय कोठी बनाया था। उस बेलगान की भूमि को सन् 1832 में सर चार्ल्स हार्किंग्स ने ‘लखराज' घोषित किया था।32 उनकी जमींदारी की कुल आमदनी परिवर्तित काल में 2 लाख वार्षिक थी।33 कुवँर सिंह के महासंग्राम के समय इसी वंश के सैयद अजिमुद्दीन शाहाबाद के डिप्टी कलक्टर और जगदीशपुर रियासत के रेजिडेंट भी थे। अंग्रेजी सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर अजिमुद्दीन की वीर कुँवर सिंह से शांति-वार्त्त्ाा भी हुई थी, जो अंततः नाकाम रही।34
कोआथ के नवाब की जमींदारी 1857 के कुवँवर सिंह के विद्रोह के बाद जप्त कर ली गई थी। इस परिवार को कई उर्दू और फारसी लेखकों को जन्म देने का भी गौरव प्राप्त है। कहा जाता है कि मिर्जा गालिब दिल्ली से कलकत्ता यात्रा के दौरान कोआथ में भी ठहरे थे। मीर इमामी बिलग्रामी, सैयद गुलाम हुसैन बिलग्रामी, गुलाम हसन गुलाम बिलग्रामी, सफीर बिलग्रामी जैसे प्रमुख शायर यहाँ 19वीं सदी में हुए हैं। सैयद अउलाद हैदर बिलग्रामी ने इस्लाम के महान लोगों के संबंध में चौदह भागों में पुस्तकों का ऐतिहासिक लेखन किया था।35 बिलग्रामी परिवार के संबंध में कई तरह की दंतकथाएँ, मुहावरे और लोकोक्तियाँ प्रचलित हैं।36
अपनी सांस्कृतिक बहुलता और सामाजिक सद्भावना के बावजूद भी कोआथ कई बार संकटों से गुजरा। सन् 1893 का हिन्दू मुस्लिम दंगा स्थानीय विवादों के कारण भयंकर रूप धारण किया, तो 1917 ई0 में ‘जोल्लह लूट' की गिरफ्त में कोआथ साम्प्रदायिक दंगे का शिकार हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में गाँधीजी भी कोआथ के समीप बभनौल अड्डा से होकर गुजरे थे, परन्तु यहाँ मुस्लिम लीग का अच्छा प्रभाव था। सन् 1947 के समय देश विभाजन के बाद नवाब परिवार के कुछ लोग पाकिस्तान जा बसे और शेष लोग जमींदार उन्मूलन ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी भूमिका तलाशने में असफल रहे। इस परिवार के पास किसी जमाने में बहुमुल्य ऐतिहासिक दस्तावेज, प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ और मुगलिया चित्र मौजूद थे, जो अब अप्राप्त हो चुके हैं।36(क) विशाल भवन, बाग-बगीचे, कब्रिस्तान, कर्बला आदि अतिक्रमणकारियों द्वारा हाथिया लिये गये हैं, परन्तु उस परिवार की यादास्त में केवल बिलग्रामी मिठाई और मुहर्रम पर्व की मशहुर ताजियादारी अब शेष बची हैं। खुद स्वधार्मिकों द्वारा लूटा गया यह नवाब परिवार देश-विदेश के अन्य स्थलों पर रोटी-पानी की तलाश में भटक रहा है और पुराने जमाने को याद करने के लिए ताजिया के मातम के दिन ही कोआथ में मौजूद रहता है।
कोआथ गाँव से शहर के रूप में तब्दील हो चुका है। पहले चहाँ यूनियन कमिटि कार्य करती थी। अब नगर पंचायत का रूप है, जिसमें जोगनी, डिलियाँ, इटवाँ आदि निकटवर्ती गाँव सम्मिलित हैं।
उपनिवेश काल में दिनारा क्षेत्र के अधिकतर गाँवों में मिट्टी के ऊँचे टीले और खंडहर दूर तक नजर आते थे। ये टीले चेरो सामंतों के निवास स्थल थे। टीले के आस-पास पसरे डीह पर चेरो जनजातियों के घर हुआ करते थे। पूर्ववर्ती तुर्क अफगान काल से मध्य मुगल काल तक शाहाबाद में चेरो सरदारों का शासन था। शाहाबाद का मध्यवर्ती अधिकांश भाग जंगलों और परती भूमि से आच्छादित था। चेरो राज के पतन के बाद उनके अवशेष के रूप में बचे गये गढ़ और उनसे जुड़ी दंतकथाएँ विरासत के रूप में बची हैं, जिसका संरक्षण आवश्यक है। दिनारा से उत्तर नदी के किनारे सेमरीडीह का गढ़ इसका उदाहरण है और इसके पास का बजरिया का डीह, जहाँ चेरो खरवारों के जमाने में बाजार लगता था।37 बुकानन के यात्रा विवरण में इसकी बड़ी रूचिकर चर्चा हुई है।38
औपनिवेशिक युग शुरू होने से ठीक पहले सन् 1761-62 में दिनारा क्षेत्र सहित पूरे शाहाबाद में विपत्तियों के झंझावात आये। वह था बंगाल के नवाब मीर कासिम द्वारा इलाके में किया गया भीषण रक्तपात और लूट के करनामे। मीर कासीम और उसका दल रास्ते में गाँवों को जलाता निवासियों को तलवार के घाट उतारता गया था। उनके आने और लौटने के रास्ते खून के नालों और जलते हुए गाँव बताते थे। वे जहाँ-जहाँ गये, घरों, मूर्तियों, मंदिरों को नेस्तनाबूद करते गये थे। जनश्रुतियों के अनुसार भलुनीधाम में तोड़ा गया मंदिर, भुई, गंगाढ़ी और सुरतापुर गाँवों के पश्चिम किनारों पर भ्रंशित देव प्रतिमायें और सोखाधाम मंदिर का द्वार अपवित्र करने हेतु पश्चिमाभिमुख करने का काम ‘कसमइला' द्वारा ही किया गया था। पूर्व विधायक डॉ0 स्वामीनाथ तिवारी का मत है कि मीर कासिम का स्वार्थी, अदूरदर्शी एवं शाहाबाद के निवासियों के साथ की गई शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों के फलस्वरूप अंग्रेज बक्सर की लड़ाई को जीतने में सफल ही नहीं हुए, बल्कि दिल्ली की सत्ता को हथियाने का मजबूत आधार भी स्थापित कर लिये।39
उस जमाने में इस क्षेत्र के लोगों की आजीविका का मूल आधार कृषि और पशुधन था। शिक्षा का घोर अभाव था। अक्षर ज्ञान की प्राप्ति के लिए कुछ लोग वाराणसी और इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला में पढ़ने जाते थे40 या प्रारंभिक शिक्षा किसी संपन्न व्यक्ति के दरवाजे पर पंडित लोग देते थे। मुस्लिम वर्ग की आरंभिक शिक्षा मदरसों में दी जाती थी। अंग्रेजी सरकार द्वारा हंटर शिक्षा आयोग की रिर्पोट लागू होने के बाद 1883 ई0 के बाद दिनारा के कुछेक गाँवों राजकीय पाठशालायें खुलीं। यातायात की समस्या विकट थी, जंगलों के किनारे और उबड़-खाबड़ पगडंडियों के सहारे लोग यात्रायें करते थे। माल ढुलाई का साधन बैल, खच्चर, बैलगाडियाँ और एक्का ही सुलभ हो पाते थे।
खेती का काम बहुत सीमित स्थलों पर होता था, क्योंकि सिंचाई-व्यवस्था कुओं, आहरों, पइनों और छोटी नदियों पर बांधों के सहारे टिकी थी। नदियों के सीमावर्ती भागों में फसलों को सिंचित करने में इन जीवनदायिनी और निर्मल प्रवाह वाली नदियों का उस समय अनूठा योगदान था। कोचानो, मिरकिरी, काव और धर्मावती नदियों पर जगह-जगह मिट्टी-बांस-टहनियों के सहारे बांध बनाये जाते थे। डुमरॉव राज के जमाने में भानपुर के समीप बाँध गया ‘बैरी बांध' इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है। गेरूआ बांध, बावन बांध, सिंधा बाँध आदि गाँवों के नाम इसी आधार रखे गये हैं। यह इलाका उस युग में आहरों-पोखरों से पटा था। करमैनी, नटवार, कोनी, सुरवाढ़े के बराढ़ी, बसडीहाँ, भुआवल, सैसड़, चोरपोखर इंगलशपुर आदि गाँवों के पुराने आहरे इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं। सुरतापुर से अमरपुर कैलख और बेलहन से बिसी गैनी तक फैली आहरों की संयुक्त श्रृंख्लाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि उस समय के लोग परंपरागत सिंचाई प्रणाली को लेकर कितनी जागरूक थे।41
1857ई0 कि विद्रोह में बाबू कुवँर सिंह के शौर्य और संत बसुरिया बाबा के संदेश का प्रभाव दिनारा क्षेत्र पर भी रहा। छोड़वँछ और अमरोढ़ गाँव उनके छिपने के केन्द्र थे।42 गाईं और सुखार वंशों के राजपूतों ने उनकी काफी मदद की थी। उपनिवेशवाद का समूल खात्मा के लिए सशक्त होकर गाँव-गाँव, टोले-टोले के नौजवान जनजागृति फैलाने मे सहायक हुए थे। गदर के जमाने में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा इस इलाके में बड़े पैमाने पर तबाही मचाई गई थी। अंग्रेजों द्वारा दहशत और उत्पीड़न करके इस इलाके में भारी संख्या में हथियार जप्त कर लिये गये थे। दिनारा-दावथ से 1,093 और कोचस से 448 हथियार पकड़े गये।43 गाँव के लोगों को पकड़ना, सजा देना, कोड़े लगाना अंग्रेजी की फितरन थी। ऐसी हालत में दिनारा-क्षेत्र से लोगों का पलायन शुरू हुआ। भारी संख्या में लोग जान बचाकर भागलपुर और संथाल परगना के इलाकों में जा बसे तो अनेकों लोग अंग्रेजों और दलालों के चक्कर में पड़कर गिरमिटिया मजदूर बनकर महासागरीय द्वीपों में जा बसे। फिजी, ट्रिनीडाड, मारीशस, सूरीनाम आदि द्वीपीय देशों के कुली कालोनियों में इस इलाके के लोगों की काफी संख्या थी। कुवँर सिंह को विद्रोह के समय में आश्रय देने के कारण मलियाबाग के समीप सिमरी गाँव के मीर अब्दुल अली खान की सुरंग वाली कोठी को अंग्रेजों द्वारा तोपों से उड़ा दिया गया था, जिसका भग्नावशेष आज भी देखा जा सकता है जो ब्रितानी हुकूमत के क्रूरता की मौन कहानी वर्णित करता है।44
औपनिवेशिक काल में जनविद्रोहों को दमित बनाये रखने के लिए अंग्रेजी सरकार द्वारा नीतिगत निर्णय लिया गया कि शाहाबाद के जवानों को किसान बनाकर नियंत्रण में रखा जा सके। फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अभियंता डिकेन्स से सर्वेक्षण कराया गया और सोन-नहर परियोजना का सन् 1861 में निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। सन् 1885 तक नहर निर्माण का कार्य पूरा हुआ और किसानों की फसलें आबाद होने लगी। दिनारा क्षेत्र में बक्सर और चौसा नहर लाईनों और वितरणियों-उपवितरणियों तथा जमरोढ़, सैसड़, गुनसेज में बंगलों का निर्माण एवं नटवार व चौराटीं लखों का निर्माण उसी युग की देन है। सन् 1886 में नहर पटवन का रेट प्रति एकड़ एक रूपया निर्धारित हुआ था, जबकि औसत उपज 16 सर धान प्रति एकड़ थी।45
उस युग में खेती मुख्यतया धान और गेहूँ की होती थी, परन्तु कहीं-कहीं मकई, मडुआ, ईख, कादो, अरहर की खेती भी होती थी। अकाल के दिनों में लोग तेनी, सावां, साठा का चावल, बड़ का गोदा, मकोह और बनबेर खाकर ही जीवन-निर्वाह करते थे। खेती सीमित क्षेत्रों में होती थी, अधिकतर भाग झांडियों और जंगली घासों, लताओं और वन्य-संपदाओं से भरा था।
इतिहासकार पी0सी0 राय चौधरी का मानना है कि कोई महत्वपूर्ण इतिहास दिनारा के बारे में उनके दिमाग में नहीं आता, परन्तु दिनारा स्थित ‘चंदन शहीद' की मजार शेरशाह के जमाने में ही स्थापित हुई थी और भलुनी भवानी का मंदिर बहुत पुराना है।46 चंदन शहीद की खानकाह को कुछ लोग सासाराम की चंदतन पहाड़ी की मजार की स्मृति में यहाँ स्थापित किया गया मानते हैं।47
बंगाल टेनेक्सी एक्ट,1884 के लागू होने के बाद यह नियम अस्तित्व में आया कि जो कास्तकार जिन जमीनों को लगातार 12 वर्षो से जोतते आ रहे है, उन्हें कृषि कार्य के लिए जमीन का स्थायी स्वामित्व मिलेगा। तदोपरांत जोत भूमि पर कृषकों को कायमी हक मिला। दिनारा क्षेत्र के उत्तर के गाँव डुमरॉव राज की जमींदारी में और दक्षिण के गाँव सूर्यपुरा इस्टेट की जमींदारी में थे। परन्तु दिनारा गाँव का खेवट औवल मालिकी इजमाल था। अलग-अलग तौजियों और महालों में बंटा हुआ। दिनारा गाँव तीन पटि्टयों में विभक्त था। राजा पट्टी-डुमरॉव राज का, दिवान पट्टी-सूर्यपुरा इस्टेट का और खरीद पट्टी स्थानी जमींदारों की वसूली में था।48 जमींदार और गुमाश्ते किसानों से मालगुजारी लगान के अलावे फरकाना, तहरीर, तौजी सलामी, बट्टा, बर्दाना, केआली, बियाहदाना, भैसन्डा, हराही, मांगना, नोचा, मनसेरी, हाथ उठाई के नाम पर भी नजायज वसूली करते थे। जलकर, फलकर, निमक साएर और चौकीदारी भी लगान के रूप में लिया जाता था।49
मुगलकाल में ही दिनारा आकर बसा काजी परिवार भी उस युग में एक जमींदार परिवार था, जिसकी जमींदारी पाँचो डिहरी, भेलारी और दिनारा गाँवों में थी। दिनारा के इस प्रतिष्ठित परिवार के बारे में अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। यहाँ का काजी बंगला, काजी बाहा और काजी मोहर आज भी लोगों की जुबान पर रहता है। काजी बंगला 36 कमरों का बना विशाल हवेली था। होली के समय होलिका दहन हिन्दुओं द्वारा काजी बंगला की ओर जाने वाली सड़क पर किया जाता था और होली का प्रथम गायन काजी बंगला के दरवाजे से शुरू होता था, जहाँ अबीर-गुलाल बड़े आकार के परातों में सजा कर रखे जाते थे। कैडस्ट्रड खतियान में काजी खानदान का अभिलेख उल्फतेखान के नाम से वर्णित हुआ है। हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव की मिशाल काजी परिवार द्वारा तब कायम हुई, जब देश विभाजन के समय 1947 ई0 में काजी बुजुर्गों ने पाकिस्तान जाने से मना कर दिया।50 स्थानीय थाना, प्रखंड-अंचल कार्यालय, ईदगाह, अस्पताल और उच्च विद्यालय के निर्माण के लिए भूमिदान काजी जियाउद्दीन अहमद एवं काजी बहाउद्दीन अहमद ने की थी। इस ऐतिहासिक परिवार के वारिस एनामुद्दीन अभी वर्तमान में है। काजी परिवार के मुखिया मुगलिया दौर में न्यायिक अधिकार का कार्य और प्रारंभिक अंग्रेजी शासन के दौर में परगनों से संबंधित कार्य करते थे। बाद के दौर में एक छोटा जमींदार होकर यह परिवार रह गया, जिसकी दिलेरी और दरियादिली की जनश्रृतियाँ आज भी प्राप्त होती हैं।51
जमींदार द्वारा सन् 1887 में प्रति एकड़ 25 सेर 4 छटाँक (80 तोला का सेर) धान लगान किसानों से लिया जाता था। उस समय लगान का फर्द रिवाज निसबत भावली दानाबंदी था। इस क्षेत्र में नमक बनाने, कोयला बनाने और रेड़ के बीजों से तेल निकालने की स्थानीय पद्धतियाँ भी विकसित थी।
अंग्रेजी सल्तनत को गंभीर चुनौती देने वाले दिनारा के स्थानीय जमींदार चौधरी धवल सिंह का विषय जिला गजेटियरों में प्राप्त होता है, जिन्हें अंततः अंग्रेज सैनिकों द्वारा चौसा में गिरफ्तार कर लिया गया था। सन् 1785 ई0 के विद्रोह के नायक धवल सिंह का अस्तित्व अब दिनारा में नहीं बचा है, परन्तु जनमानस में कुर्मी जाति के एक जमींदार की चर्चा आवश्य मिलती है, दिनारा डाकघर के पश्चिम में एक ऊँचाडीह और एक पुराना कुआँ ही स्मृति शेष है, जो अतिक्रमणकारियों द्वारा घर बनाने के बाद गायब हो रहा है।52
औपनिवेशिक काल के प्रारंभ में दिनारा एक छोटा-सा गाँव था, जिसके नाम पर परगना भी था। करंज थाना के अस्तित्व में आने के बाद यहाँ का महत्व घटा, क्योंकि सत्ता का केन्द्र बदल गया। कुर्मी बहुल इस गाँव का चेहरा, कुर्मी जाति के पलायन के बाद बदला। सोननहर के निर्माण के बाद अन्यत्र जगह से लोग आकर यहाँ बसने लगे और गाँव का विस्तार एक कस्बा में होता गया।53 आजादी के बाद यह पुनः सत्ता का केन्द्र बना और प्रखंड व अंचल कार्यालयों की संस्थापनाएँ हुई। स्वाधीनता आंदोलन के समय कुछ चेहरे अवश्य सामने आये, परन्तु चौधरी धवल सिंह जैसे नायक फिर से नहीं उभर पाया, जबकि दिनारा के इलाके में त्रिवेणी संघ का किसान आंदोलन, सामाजवादी आंदोलन और नक्सली आंदोलन भी जोरदार हुए। वस्तुतः दिनारा के सामाजिक फलक के निर्माण में संत पुरूष बलदेव पाण्डेय की बड़ी भूमिका रही।54 जिसके फलस्वरूप शैक्षणिक, धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं का निर्माण हुआ, जिसमें काजी परिवार की दानप्रियता का भी योगदान रहा।
उपनिवेश कालीन दिनारा क्षेत्र में प्रतिरोध-दर-प्रतिरोध की मिश्रित ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विवेचना को यहाँ के कमजोर वर्ग के निवासियों में प्रचलित लोक कथनों के आलोक में सार्थक हस्तक्षेप के गुणानुवाद के साथ रेखांकित किया जा सकता है। दिनारा खास व तुरावं गढ़ के संबंध में यहाँ के वृद्धों के मौखिक आख्यान एक दौर में हुए वीभत्स दमन को सूत्रात्मक कथा-संकेतों के माध्यम से परिभाषित करते हैं। विजित पक्षों द्वारा मौखिक रूप से गढ़ी गई कहानियाँ पराजितों के विषय में यहाँ जो प्रचलित है, वह विरोधियों को भयंकर रूप से लूटने, घरों, अन्न भंडारों और बेवस असहाय समूह को घेराबंदी करके आग की लपटों में झोंकने की बात को प्रमाणित करता है। भूस्वामी द्वारा कड़ाही का पहला पूआ खाने, कच्चा दूध से बगीया पटाने और खुद को रहस्यमय आभा के रूप में प्रचारित कराने की मौखिक चर्चायें यह स्पष्ट करती हैं कि साम्राज्यवाद व पूँजीवाद की संरक्षण में रहने वाला सामंतवाद किस तरह गरीब किसान-मजदूर-भूमिहीन जैसे श्रमजीवी वर्ग के श्रेष्ठ उत्पादनों को हथिया कर स्वयं को उच्च स्थापित करता है। परन्तु मिथक के रूप में स्थापित ठोरा बाबा की कहानी यह प्रमाणित करती है कि स्थानीय संघर्ष के बूते पर उभरा मानवीय बोध किस तरह व्यापकता को पाता है। उत्तर औपनिवेशिक काल में जहाँ इतिहास की बर्बरता चारो ओर प्रदर्शित होती है, वहीं दरियादास का न्यायपक्ष व श्रद्धा ग्रंथ, कोआथ की बहुलतावादी संस्कृति, सिमरी का सामाजिक सद्भाव और दिनारा की धार्मिक विश्वासों एवं आचरणों की गंगा जमुनी बनावट की ऐतिहासिक विरासतें एक संबल देती हैं।
संदर्भ-सूची एवं फुटकर नोट्स
1- ‘वाङमय रश्मिबोध' पत्रिका का प्रवेशांक, प्रकाशक- वाङमय परिषद्, दिनारा(रोहतास), प्रकाशन वर्ष 2002 में श्री भगवान तिवारी का आलेख ‘दिनाराः कल और आज,' पृष्ट- 5
2- पं0 भवनाथ झा का आलेख ‘मुण्डेश्वरी मंदिर परिसर की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परंपरा'। पुस्तक- मुंडेश्वरी मंदिर (देश का प्राचीनतम मंदिर), महावीर मंदिर प्रकाशन, पटना, वर्ष- 2011, पृष्ट- 152
‘‘दीनार'' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए उणादि सूत्र से दीड्0 धातु से आरूढ़ प्रत्यय का विधान किया गया है। इसे तीन सुवर्ण के बराबर परिमाण का सिक्का माना गया है। भारत में इसका प्रचलन कनिष्क के काल से ही हो गया था। उस समय यह ‘देनेरियस' के नाम से प्रचलित था, जिससे संस्कृत में ‘दीनार' शब्द आया। नहपान कालीन नासिक लयण-लेख (वर्ष 41,42,45) में 1000 कार्षापण के बदले 35 सुवर्ण देने का उल्लेख है तथा उस समय 20 कार्षापण से 20 भिक्षुओं के लिए चीवर की व्यवस्था एक वर्ष तक होती थी।''
3- दिवाकर पाठक का आलेख ‘श्री मुण्डेश्वरी मंदिर- अतीत और वर्तमान' उपर्रोक्त पुस्तक, पृष्ट- 168
(‘दीनार' शब्द के उल्लेख से सामान्यतः कुछ भ्रम-सा उत्पन्न हो जाता है। इसे पश्चिम एशिया के इस्लामिक देशों में प्रचलित मुद्रा के रूप में ही जाना जाता है। लेकिन दिनार शब्द शुद्ध संस्कृत का शब्द है। शब्दकल्पद्रुम के 1961 के संस्करण में ‘‘दीनारः पुलिंगःमुद्रा निष्क परिमाणम्'' उल्लिखित है। श्री सत्य प्रकाश के अनुसार क्वांयनेज इन ऐनसिमेण्ट इण्डिया में दीनार के बारे में कहा गया है कि कुषाणकालीन स्वर्ण दीनार रोम सुवर्ण और उसके वजन एवं प्रकार का था जिसे भीमकार्डफीश ने प्रचलित किया था। इसका वजन लगभग 8 ग्राम के बराबर था। इसे सन् 97 में प्रचलित किया गया था। इसका प्रथम बार उल्लेख केदार कुषाण काल की चौथी शताब्दी में हुआ था। ‘‘निधातिका ताडनादिना दीनारादिषु रूपम् यदुत्पद्यते तदाहत मित्युच्वते'' स्मृति चन्द्रिका व्यवहार खंड में कहा गया है कि कार्षापण, पण, माश का प्रचलन चंद्रगुप्त के समय तक था। कात्यायन के अनुसार पंतजलि के समय में भी दीनार एवं उसके लघुरूप का यथेष्ठ प्रचलन था। 4 कांकणी = 1 माश, 20 माशा = 1 कार्षापण, 4 कार्षापण = 1 धानक, 12 धानक = 1 स्वर्ण, 3 स्वर्ण = 1 दीनार।
पुण्योविजय जी के वृहत् कल्पभाष्य में जो 600 ई0 में लिखा गया था दीनार का उल्लेख निम्नरूप में मिलता है। ‘‘पीतं नाम सुवर्ण तन्वयं वा नाणकं भवति यथा पूर्वदेशे दीनारः''। कुमार गुप्त कालीन गाधव शिलालेख एवं दामोदरपुर प्लेट में भी ‘दीनार' का उल्लेख किया गया है। अतः दीनार भारत की अत्यंत प्राचीन मुद्रा सिद्ध होता है, जिसका गुप्त साम्राज्य तक किसी न किसी रूप में रहा। नारद स्मृति में भी दीनार का दो बार उल्लेख हुआ है। प्रथम शती में कुषाण राजाओं ने रोम देशीय डिनेरियस सिक्के के बराबर तौल की मुद्रायें भारत वर्ष में बनवाई। रोम में स्वर्ण दीनार 207 ईशा पूर्व में पहली बार बना। लेकिन भारत वर्ष में दीनार का प्रचलन ईशा पूर्व पाँचवी शती में था। अतः दीनार वस्तुतः प्राचीनतम देशों में मुद्रा के रूप में स्थापित हो गया। अतः पूर्वोक्त भ्रम भी स्वाभाविक ही है।)
3 (क)․ भागवत शरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, वाणी प्रकाशन, वर्ष- 2004, पृष्ट- 31
4- दिनारा मध्य विद्यालय के पूर्व प्रधानाध्यापक एवं कवि कमलनयन दूबे, उम्र- 65 वर्ष और पूर्व पोस्टमास्टर 80 वर्षीय दिनारा निवासी गोविन्द प्रसाद देनारवी आदि के मतानुसार।
5- मुस्लिम विद्वान 92 वर्षीय हाजी मुर्शरत हुसैन (अब दिवंगत), जो बलदेव उच्च विद्यालय दिनारा में किरानी थे। जनता दल (यू) नेता एवं 63 वर्षीय समाज सेवी मुहमद अली और प्रारंभिक विद्यालय के शिक्षक 45 वर्षीय प्रखर बुद्धिजीवी दिनारा निवासी मेंहदी हसन की भी यही राय है।
6- चिहरूआँ ग्राम पंचायत के पूर्व मुखिया इंदु देवी के पति शशिभूषण तिवारी अपने गाँव के पुरनियों द्वारा कही बातों की जानकारी देते हैं कि यह नदी उनके गाँव से बसडिहां, गोपालपुर, कुंड, दिनारा होती हुई बहती थीं। परन्तु सोननहर के चौसा ब्रांच के निर्माण के समय अंगे्रज इंजिनियरों द्वारा इसकी धारा ‘साईफन' के रूप में मोड़कर जमरोढ़ होते हुए भानपुर के सामने कोचानी नदी में मिला दिया गया था। दिनारा के 70 वर्षीय वृद्ध विधि गोड़ भी ऐसी ही बात बताते हैं।
7- An Account of the District of Shahabad in 1812-13 by Francis Buchanan, Published – Bihar and Orissa Research society, Year- 1934 page – 24
8- Wikipedia.org वेवसाईट पर Major James Rennell, FRS का रायल बंगाल एटलस उपलब्ध। शाहाबाद क्षेत्र का उसका मानचित्र एम․ मार्टिन की पुस्तक इस्टर्न इंडिया भाग- 1 में भी संग्रहित।
9- मैरा टोला के रहने वाले 80 वर्षीय ग्रामीण कमला चौधरी और कैलख ग्राम निवासी वकील नोनिया अपने पुरखों द्वारा सुनाई गई कहानियों को कहते हैं कि मैरा के पश्चिम छिछिलिहाँ घाट के पास नदी को बाँधकर पटवन किया जाता था, जिसका पानी नारा- करहा बनाकर सिंसौधा और खरवनियाँ, धनसोईं आदि गाँवों में खेतों को पटाने के लिए जाता था। जब बाढ़ आने से नदी के उपर के गाँव डूबने लगे तो एक डोम ने बाँध को तोड़ने का मन बना लिया। उस बाँध की रखवाली के लिए दिन-रात पहरा मुस्तैंदी से लगा रहता था। वह डोम चुपके से आधी रात को अपने सिर को धड़ा में डालकर पानी की धार में बहता हुआ बाँध तक आया और धीरे-धीरे उसे तोड़ने लगा। बाँध मिट्टी, पुआल और बांस- बल्लों से बना था। तोड़ने के क्रम में पानी की तेज धार के दबाव के कारण बाँध एकाएक टूट गया और मिट्टी-बांस और गाद के ढेरों के बीच वह डोम भी उसी में दब गया। उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई। जिसकी प्रतिछाया के भय से वहाँ बांध बांधने की परंपरा टूट गई।
10- भारतीय सर्वेक्षण विभाग, देरादून द्वारा प्रकाशित भूतल पत्रक संख्या 72 C/3 देखें। प्रकाशन वर्ष 1977
11- जितवाडिहरी से पिटसर में आकर बसे 92 वर्षीय रामराज सिंह (अब दिवंगत) और उनके भाई 88 वर्षीय नगीना सिंह जितवाडिहरी के उत्तर में आई काव नहीं की भीषण बाढ़ में बचपन मेंतैरते थे। वे लोग बताते हैं कि काव नदी के बाढ़ से अपने गाँव को बचाने में रूप सागर के लोग रात-रात भर बेचैन रहते थे। इनका कहना है कि नावानगर प्रखंड कार्यालय के दक्षिण में डुमराँव जाने वाली सड़क पर काव का पुल आज भी मौजूद है, जिसे अंग्रेजों ने बनवाया था। परन्तु काव नदी अब वहाँ नहीं बहती है।
12- Bihar District Gazetteer, SHAHABAD by p.c. Roy Chaudhary. 1966 [Page 565
13- वहीं, page -561
14- दिनारा के मूल निवासी 55 वर्षीय प्रदीप पाण्डेय, जिनका कहना है कि उस वंश का इनका परिवार खानदानी पुरोहित रहा है। उनके दादा तक पुराहित कर्म के लिए भागलपुर जाने का सिलसिला रहा था।
15- Shahabad Gazetteer, 1965 page 556
16- An Account of the District of Shahabad, Page 77-83
17- The History, Antiquities, Topography and statisties of EASTERN INDIA, by Montgomery martin, published in Lodon in February 1838 Vol-1, Page-559 में तत्कालीन सरका से बुकानन मांग करता है कि शाहाबाद के मध्य में करंज की अवस्थिति के कारण जिला मुख्यालय यहाँ ही बनाया जाये और आरा-सासाराम भाया करंज पथ का निर्माण किया जाये, ताकि सैनिक और व्यापारिक गतिविधियाँ सुचारू रूप से चल सके। करंज थाना में वह सूर्यपुरा को मुख्यालय बनाने पर जोर देता है।
17(क) ग्रामीणों के अनुसार नानक पंथ के गं्रथी दादरीदास की समाधि बच्चूदास की बावली परिसर में है।
18- Journal of Francis Buchanan kept during the survey of the District of Shahabad in 1812-13 published in 1926, page 160
19- बुकानन के Journal के पृष्ट 24 से 28 तक धरकंधा-भलुनी का, पृष्ट 134 से बड़हरी से बहुआरा तथा पृष्ट 135 से 136 पर कोआथ से कोचस तक की वर्णित यात्रा विवरणों का स्वयं लेखक द्वारा अंगे्रजी से हिन्दीनुवाद किया गया है, जो इस प्रकार हैः-
‘‘दिसंबर 3, 1812- मेरी एक यात्रा रिकनीदास के यहाँ हुई, जो दरियापंथ का पुजारी था। यह परंपरा एक मुसलमान दर्जी द्वारा स्थापित की गई है। उसने अपना नाम दरियादास रखा और अपनी मूल पैगंबरी परंपरा को छोड़कर और पंथ में हिन्दुओं को सम्मिलित करके सबको सर्वोत्तम मुक्ति दिलाने के लिए शुति सुक्रृत मार्ग को अपनाया। उनके पास कोई प्रतिमा नहीं है, परन्तु उनके अनुयायी फल, मिठाई, दुध आदि वस्तुएँ पृथ्वी पर रखकर सत्पुरूष का नाम जपते और चढ़ाते हैं। घरकंधा में दरियादास के कब्र को छोड़कर उनके पास कोई मंदिर नहीं है, जो सूर्यपुरा से पश्चिम-उत्तर की तरफ चार कोस की दूरी पर है। बहुत से लोग वहाँ अपनी भेंट समर्पित करने जाते हैं, फिर वे अपने आराध्य का गौरव गान भी करते हैं। सभी श्रेणी के हिन्दू और मुस्लिम साधु बन सकते हैं और साधु बनने के बाद सभी एक साथ भोजन करते हैं। वे किसी भी गृहस्थ के हाथ का भोजन खा सकते हैं यदि उसने इस पंथ को अपनाया हो। वे प्रायः ब्राह्मण आदि इतर धर्मियों के हाथ का भोजन नहीं करते। वे अपने पंथियों को ही उपदेश देते हैं। उनके उत्सवों में ब्राह्मण पुरोहित नहीं होते। वे ईश्वर की प्रार्थना न करके शुति सुक्रत की आराधना करते हैं, जिनके द्वारा सभी देवताओं का सृजन किया गया है। वे जानवरों की हत्या नहीं करते, नही दारू पीते हैं, लेकिन वे प्रायः तम्बाकू पीते हैं और इसके लिए रत्ननलित नामक एक विशिष्ट टंग का हुक्का रखते है। रत्ननलित और मिट्टी-पात्र का एक लोटा (भरूका) ये उनके विशिष्ट वेश के प्रतीक हैं। साधुजन स्त्री और सगे संबंधियों से अपना नाता तोड़ देते है। वे अपना सिर मुड़ाकर रखते हैं। पंथ के सामान्य हिन्दुओं के शव जलाये जाते हैं। उनके पुरोहित विधवाओं को जलाये जाने से भी नहीं रोकते हैं। धरकंधा में उस दर्जी का तख्त (सिंहासन) है, जिस पर मुख्य पुजारी, जिसको महंथ कहा जाता है। वही उस पर बैठता है। इस प्रकार दरियादास एक पंथ कहलाता है। उसकी गद्दी पर गुंडों द्वारा कब्जा कर लिया गया था, जिसके बाद टेकादास अभी गद्दीनसीन हैं। दो अन्य व्यक्ति भी महंथ की उपाधि से सुशोभित हैं लेकिन उनके रहने के स्थान को केवल मुकाम कहा जाता है। उनमें से एक बेतिया के निकट दंगसी में है और दूसरा छपरा के निकट तेलपा में है। इन तीन घरों में 70 पुजारी रहते हैं। वे प्रायः धर्मोपदेश और भिक्षाटन के लिए बराबर घूमते रहते हैं। धरकंधा में उनके पास 101 बिगहा जमीन कासिम अली के द्वारा दी हुई है। दरियादास ने हिन्दी भाषा में 18 पुस्तकों की रचना की है, जिसमें पंडित के नाम से 17 है, जबकि अन्य खो गया है। वे लोग पुराण और कुरान दोनों को अस्वीकार करते हैं और वेदों से अनभिज्ञ हैं। वे ऐसा मानते है कि सभी गं्रथों का सार इन्हीं पुस्तकों में निहित है। जबकि कुछ लोग बहाना बनातें हैं कि वे सब चीजों को समझते हैं। उनमें से तीन लोगों का मैंने परीक्षणकिया। जिसमें एक राजपूत, दूसरा कायस्थ और तीसरा कुर्मी था। उनको ही इन पुस्तकों को पढ़ने की अनुमति मिली थी। वे लोग ज्वलनशील वस्तुओं का पूजा में उपयोग नहीं करते। उनके पास विज्ञान, व्याकरण, पराभौतिकी, कानून, ज्योतिष की जानकारी नहीं है। वे लोग पशुओं की इसलिए हत्या नहीं करते, क्योंकि उनका मानना है कि वे ईश्वरीय अंश हैं। वे सती-प्रथा की भर्त्सना करते हैं, लेकिन उसे रोकने में कोई योगदान नहीं देते। वे लोग अपने अनुयायियों को सिपाही (देशभक्त)होने से मना भी नहीं करते। बहुत अच्छे लोग ईश्वर के पास जाते हैं और बुरे लोग दुबारा जन्म लेकर पशुओं की योनि में जाते हैं। दूसरी कोई सजा नहीं होती। पुजारी लोग इन पुस्तकों को दूसरों को नहीं देते, केवल अपने भक्तों को देते हैं। वह सेाचता है कि तीन महंथ अपने अनुयायियों के बीस हजार घरों में हो सकते हैं।
दादू पंथ भी एक दूसरा रास्ता है, जो स्वर्ग को ले जाता है जिसे एक और मुस्लिम दर्जी ने प्रतिपादित किया है। परन्तु मैं इसके विषय में विशेष नहीं जानता हूँ।
देवी नाम की प्रतिष्ठित और पूजित काली को देखने के लिए मैं उस पवित्र स्थान पर करीब साढे. तीन कोस की दूरी तय करके पश्चिम (सूर्यपुरा से) गया। यह स्थल वन क्षेत्र में है, जहॉ प्रमुखता से खैर के पेड़ मिलते हैं, जिन्हें काटने की अनुमति नहीं दी जाती-केवल तीर्थयात्रियों के जलावन के उपयोग को छोड़कर। यहाँ वृक्षों की ऊँचाई वह नहीं है, जिसे मैं आरा में देखा था। वैसे यहाँ की मिट्टी बहुत उपजाऊ है- कठोर गंगवार मिट्टी। सिर्फ मंदिर क निकट का जंगल घना है और ऐसा जान पड़ता है कि यह जंगल कभी दूर-दूर तक फैला होगा, जो छिट-फुट झाडि.यों से स्पष्ट होता है। इसके आस-पास काफी दूर तक ऐसी जमीन है, जो फसलें उगाने के लिए जोती-कोड़ी जाती है। परन्तु अब उस भूमि पर घोड़ा घास उग आये हैं, जिसको जला दिया गया है। मंदिर का भवन कोई उम्मदा नहीं है। मंदिर भी कोई बड़े क्षेत्र में फैला हुआ नहीं है और ईंट की दीवाल से घेराबंदी की गई है। छोटे-छोटे मंदिर बिना मेहराबों के निर्मित है और सामान्य तरीके से मरम्मत किये गये हैं। हर एक मंदिर एक मस्तूल के नीचे है, जो मुस्लिम गृह निर्माण-कला की शैली में बनाया गया है। जो सबसे बड़ा मंदिर है, उसमें काली की मूर्ति स्थापित है। मुझे बताया गया कि देवी की आठ बाहें हैं, लेकिन वह स्थान अत्यंत अधेंरे में था, जिस वजह से काली का रूप मैं ठीक-ठीक नहीं देख पाया। उस बड़े मंदिर के पास एक दूसरा मंदिर है, जिसमें लिंग स्थापित है और उसके दरवाजे के सभी ओर छोटे-छोटे टुकड़ों में मूत्तियाँ बिखरी पड़ी है। ये सब इतनी विकृत अवस्था में हैं कि अनुमान लगाना भी कठिन है कि ये सभी मूर्त्त्ाियाँ कितनी संख्या में हैं। जो सबसे छोटा मंदिर है, वह भैरव का मंदिर कहा जाता है वह तो बुद्ध की मूर्त्त्ाि है- साधारण मुद्रा में पालथी लगाये हुए। उस क्षेत्र के एक छोटे मंच के एक हिस्से में एक मूर्त्त्ाि है, जिसे सीता कहा जाता है। वह मुझे गता है कि बिहार में बासुदेव की सेविकाओं में से एक है। इसके नजदीक ही दीवाल में बनी एक पंक्ति में मूर्त्त्ाियाँ एक पत्थर पर खुदी हैं। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि ये उसी तरह की मूर्त्त्ाियाँ हैं, जिसे बिहार में अस्सी शक्ति (आदि शक्ति) कहते है, परन्तु ये काफी विकृत किस्म की है और ये दिव्य का संकेत करती हैं। दूसरा नाम शायद जिसे बिहार में दिया गया है, उनमें से एक भैरव है, जो पुरूष देवता का प्रतिनिधित्व करता है। मंदिर के निकट ही एक झोंपड़ी है, जिसमें प्रशासकीय पुजारी एक शाकद्वीपीय ब्राह्मण रहते हैं, परन्तु मेरा मानना है कि इनका कुल परिवार अब विस्तृत होकर एक गॉव बसा लिया है। दो तालाब खोदे गये हैं। एक मंदिर के सामने और दूसरा मंदिर के पीछे कुछ दूरी पर जो बहुत प्राचीन है। वहीं पर चार कुंड है, जहाँ पूजा-अर्चना की जाती है। ये बहुत छोटे तालाब है, लेकिन इनका विस्तार ज्यादा है और भरे हुए हैं। पुजारी, जो काली की पूजा कर रहा था। जब मैं पहुँचा, तो उसने बताया कि उसके पूर्वज इस कुंड पर आये, तब वहाँ केवल जंगल ही था। जिस स्थान पर देवी की पूजा की जाती है, वहाँ उन्होंने स्वयं उसे दर्शन दिया। एक पुजारी उस समय बताता है कि वह प्रकाट्य पूर्वज के 6वीं पीढ़ी का और दूसरा पुजारी 10वीं पीढ़ी का हुआ बताता है, परन्तु उस परिवार के अन्य शाखा के लोग 100वीं पीढ़ी का वंशज होने का दावा करते हैं। मंदिर के प्राकाट्य खोजकर्त्त्ाा द्वारा स्थापित प्रतिमा को बहुत आसानी से तीन युगों पहले का माना जा सकता है। पुजारी ने बताया कि चार कुंडों में से एक की खुदाई की गई है, जो झोपड़ी के निकट है और उसका जल घरेलू उपयोग के लिए होता है। दूसरी मूर्ति उसी में पायी गई थी। उसका मानना है कि वह इससे अधिक नहीं जानता। तालाब के पश्चिमी किनारे पर मैने कुछ पत्थरों को एक पंक्ति में , जो कि एक मकान की आधार की तरह लग रहे थे, को देखा। ऐसा लगता है कि यह मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा गिराये गये मंदिर के अवशेष हैं और मूत्तियों तालाब में फेंक दिया गया है। वह साधु, जिसे काली ने स्वयं दर्शन दिया, उसका फल उसको यह मिला कि वह यहीं का होकर बस गया और इस स्थान का पूरा देखभाल उसी के जिम्मे रहा। जिसका लाभ उसका परिवार आज भी ले रहा है।
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․․․․․․․․․․․ नदी का बहाव गहरा नहीं है। सभी बाँध और उससे जुड़ी पइनें ऊँचे स्थानों पर बनाये गये हैं।
जनवरी 28, 1813- मैं करीब 131/2 मील पर बहुआरा गया। बड़हरी से सासाराम और भोजपुर की सीमा 23/4 मील की दूरी पर है। इस देहात में लगातार 71/2 मील की यात्रा के बाद लग रहा है कि परती भूमि पर पेड़ लगाये गये हैं। यहाँ की मिट्टी बहुत उपजाऊ नहीं है और इलाका नीरस है। लम्बे-लम्बे घासों में छिपे बारहसिंघा के समूह किल्लौल कर रहे हैं। गाईड बताता है कि इनके नर को कुलसर और मादा को गुरिया कहा जाता है।
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फरवरी 4, 1813 ․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․․ यहाँ लम्बे घासों के बीच उगे पतले-पतले पेड़ हैं।
जंगल से दूर के गाँव ज्यादा आरामदेह हालत में हैं, उनकी अपेक्षा जो इनके और जगदीशपुर के बीच में बसे हैं। कोआथ में मिट्टी का एक बहुत बड़ा किला है।
फरवरी 05, 1813- मैं करीब 11 मील तय करके करंज पहुँचा। वहाँ बहुत अच्छे-अच्छे पेड़ थे। लेकिन कृषि बदतर थी। कुछ गाँव बिल्कुल बेचिरागी थे।
फरवरी 06, 1813- करंज एक निर्धन जगह है। दारोगा वहाँ नहीं है। वह प्रायः नहीं रहता होगा। मैं 11 मील से अधिक दूरी तय करके कोचस पहुँचा। पहले 10 मील थाना करंज से होकर गुरजा। उसके कुछ हिस्से पहले ही छोड़ दिये गये थे। इस क्षेत्र के बहुत से गाँव निर्जन थे। दनवार (परगना) की सीमा में पहुँचने से पहले लगता है कि इस भाग में निर्जनता कम थी। सभी गाँवों में मिट्टी के मकान थे। सासाराम परगना अच्छी हालत में है। सड़क नहीं है। कोचस एक बहुत बड़ा गाँव है। जहाँ एक मुस्लिम परिवार है, जिसने उज्जैनियों की सेवा करके काफी धन अर्जित किया है।''
20- रोहतास दर्पण, संपादक- डॉ0 गुरूचरण सिंह, प्रकाशक-सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, बिहार, जुलाई- 2007, पृष्ट सं0- 178
21- रोहतास जिला रजत जयन्ती समारोह की स्मारिका में प्रकाशित कन्हैया लाल पंडित का आलेख ‘रोहतास के शक्तिपीठ, प्रकाशन तिथि- 10 नवम्बर, 1997, पृष्ट- अस्पष्ट।
22- रोहतास दर्पण में प्रकाशित डॉ0 देवदास टेम्भरे का आलेख-‘रोहतास के प्रसिद्ध संत कविः दरियादास,' पृष्ट- 151
23- संत कवि दरियाः एक अनुशीलन, डॉ0 धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, वर्ष- 1954, प्रस्तावना- पृष्ट- 1
24- प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण (पहला खंड), संपादक- डाँ धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री, बिहार राष्ट्रभाषा, परिषद्, पटना, वर्ष- 2000(तृतीय संस्करण), पृष्ट- 113
25- वहीं, पृष्ट- 113
25(क) ‘अठारहवीं सदी का बिहार',बाल्मीकि महतो, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष- 2011, पृष्ट- 109
26- धनसोई थाना (बक्सर) के कथराई ग्राम निवासी 65 वर्षीय रामाशीष सिंह कुशवाहा और जनता महाविद्यालय धनसोई के प्रो0 60 वर्षीय नंदलाल सिंह ने यह बातें मुझे बतायी थी।
27- देवढ़ी ग्राम के रहने वाले 59 वर्षीय लक्ष्मण सिंह का कहना हे कि उन्होंने अपने पूर्वजों से मौखिक कहानी सुनी है कि यहाँ का शिवलिंग जो काफी चौड़े आकार का गोला रूप में है। वह आपरूपी शिवजी हैं। किसी जमाने में एक गाय स्वयं यहाँ आकर अपने थनों से दूध गिराती थी। घर वाले बेचैन हो जाते थे कि उनकी गाय दूध क्यों नहीं दूहने नहीं देती? अंततः चरवाहे ने पता लगाया कि यह दूध कहाँ गिरा आती है, तो गाय का मालिक, जो जाति का अहिर था, उसने उस गाय का मरवा दिया। इसके बाद उसक खानदान ही यहाँ से उजड़ गया। तब से इस गाँव में यादव लोग नहीं बसते, ऐसा दैवीय कारणों से होता है। इस गाँव में ‘शैव' ब्राह्मण निवास करते हैं, जो सरयूपारीण, कानकुब्ज, शाकद्वीपीय और महापात्र ब्राह्मणों से सर्वथा भिन्न प्रवृतियों के होते है, जिनकी पंरपरा में स्वगोत्रीय विवाह व मांस-भक्षण मान्य होता है।
सरना गाँव के 64 वर्षीय सी․पी․आई․(एम․एल․) कार्यकर्त्त्ाा गोपाल राम का कहना है कि जैसा उन्होंने सुना है कि उनके गाँव का यह अनोखा शिवलिंग ऊँची जमीन को समतल बनाये जाने के क्रम में मिला था, जिसके चारों ओर की मिट्टी को 15 फीट की गहराई तक कोड़ कर हटाया गया फिर भी उसके अंत का पता नहीं चल सकता था। शिवलिंग के आकार की चौड़ाई नीचे की ओर बढ़ती हुई मालूम होती थी। यह घटना करीब 80 साल पहले की है। गा्रमीणों ने उसे मोटे सीकड़ में बाँधकर हाथी से भी खिंचवाया, परन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। तब स्थानीय लोगों ने इसे आपरूपी शिवलिंग मानकर पूजा करना शुरू किया। कालान्तर में जमरोढ़ गाँव के एक साहुकार ने मनौती के आधार पर वहाँ मंदिर भी बनवा दिया।
28- ‘जगरम' भोजपुरी पत्रिका, बक्सर, वर्ष- अगस्त, 1996, पृष्ट- 20, कृष्ण मधुमूर्ति का आलेख- ‘ठोरा बाबा (नदी) के मिथक- ‘‘नोनहर के एगो पुरनिया रामनारायण साहु (100 बरिस) तलन कि ई गाँव ठोरा बाबा के ममहर रहे। कवनो कारज-परोजन पर ठोरा एगो पेठवनिया सरूप दुसाध के संगे मामा किहाँ आइल रहले। उनुका सात गो मामा रहले। सभे इहें बझे जे ठोरा दोसरा किहें खात-पीयत होई हें। बाकिर ठोरा सात दिन तक उपासे रह गईले। ममहर के एह कुआदर से ऊ बड़ा मर्माहत भइले आ इनार में कूद गईले। ․․․․․․․․․․․․․․․ किवंदती बा कि ठोरा इनार फारि के गंगाजी में मिले खातिर चलले। जेने-जेने से ऊ गुजरले ऊहे सोता बन गइल, जवन बाद में ठोरा नदी कहाइल। बक्सर के पास ठोरा अपना ओही वेग से गंगाजी के धार चीर के पार होखल चहले। त गंगा जी प्रकट होके हाथ जोड़ी कइली कि हमरा महिमा के खेयाल कर। तहार उद्धार त हम करबे करब।''
29-(क) Journal of Francis Buchanan Kept During The servery of the District of Shahabad in 1812-13 में नावानगर से सूर्यपुरा जाने के क्रम में दिनांक- 30 नवम्बर 1812 ई0 का यात्रा विवरण।
(ख) Shahabad Gazetteer, 1966, page- 846
(ग) The antiquarian Remains in Bihar by Dr. D.R. Patil (patna), 1965 page- 183
(घ) हमारा रोहतास, लेखक- धर्मनाथ प्रसाद, मनोहर प्रेस, वाराणसी, प्रकाशन- 1972, पृष्ट- 23
(ड0) बिहार एक अवलोकन, संपादक- विनोद कुमार राय, पनोरमा प्रकाशन, दिल्ली, वर्ष- 2007, पृष्ट- 17
(च) An account of District of shahabad in 1812-13 page, 82-83
(छ) तुरावं . के 78 वर्षीय हरिनारायण राम, 80 वर्ष के रामायण राम, 42 वर्ष के युवा डॉ0 अशोक प्रसाद तथा गुंजाडीह के 50 वर्षीय मनोज कुमार राय, 63 वर्ष के मंगलेश्वर सिंह, 40 वर्ष के सुरेन्द्र राय और 80 वर्ष के वृद्ध जगदीश राय आदि ग्रामीणों का कहना है कि जैसा कि उन्होंने अपने पुरनियों से कहानी सुनी है कि यहाँ एक धनवान चेरों राजा रहता था, परन्तु वह कुछ पागल किस्म का इंसान था। उसके पास जमीन में लम्बे समय से छुपाया गया कई मन सोना का भंडार था। उसने सभी सोना को निकलवाया और कहा कि यह काफी समय से तहखाने में रखे रहने के कारण ओदा (नमी युक्त) हो गया है, इसलिए इसे सुखवाया जाय। मजदूर तेज धूप में गढ़ के अहाते में सुखवाने लगे। शाम के समय राजा ने सारे सोना को इकट्ठा करा कर तौलवाया, तो तौल के हिसाब से सोना पूरा मिला। उसे सोचा कि इसका सुखवन नहीं अभी तक नहीं गया। उसने फिर से सुखवाने के लिए कहा। यही क्रम कई दिनों तक चलता रहा। सुबह सोना के टुकड़े धूप में पसारे जाते और शाम को बटोर कर तौलवाया जाता। सोना का वजन हमेशा एक समान हीं मिलता। राजा अपने मजदूरों पर नाराज होकर उन्हें तरह-तरह से कष्ट देने लगा, क्योंकि उसकी समझ से सोना की नमी सूख नहीं रही थी। सभी जानते हैं कि सोना में नमी होती नहीं है। तब अंत में चतुर दीवान ने एक तरकीब निकाली। उसने मजदूरों से कहा कि वे सब अपने पैरों में अलकतरा या चिपकने वाल द्रव लगाकर जायें, ताकि सोना के टुकड़े पैरों में सटकर उस जगह से हट जायें। इस उपक्रम से काफी सोना वहाँ से गायब होने लगा। कुछ दिनों के बाद वजन काफी कम हो गया, तो राजा ने कहा कि अब सोना सूख गया है अब सूखाना बंद करो। सोना सूख जाने की खुशी में उसने मजदूरों को सोना के कई टुकड़े उपहार में दिये।
यहाँ कभी-कभी अब भी सोना के टुकड़े मकान-निर्माण की नींव खोदते समय या राह चलते समय मिल जाने की बात कही जाती है। अब से 50 वर्ष पहले हरिजन जाति के वृजयानंद राम के घर की दीवाल बनाने के लिए नींव काटी जा रही थी, तो मिट्टी हटाने के क्रम में एक छोटा- सा मिट्टी का घड़ा मिला, जिसमें प्राचीन काल की स्वर्ण मुद्रायें भरी थीं। घर वालों ने उसे देखकर रख लिया और मजदूर भी कुछ उसमें से चुपके से चुरा लिये। दोपहर में सोना मिलने की चर्चा आग की तरह तेजी से गाँव-जवार में फैल गई और उसी रात उनके घर में और काम में लगे मजदूरों के घरों में भी भीषण डकैतियाँ पड़ी, जिसमें डकैतों ने लोगों को पीट-पीटकर सारे सोना लूट कर ले गये।
करीब 35 साल पहले यहाँ एक साहु के लड़के को सोना का एक टुकड़ा मिला। वह उसे पत्थर समझकर दुकान में बटखरा के रूप में इस्तेमाल करने लगा। कुछ दिन के बाद वहाँ मूंगफली बेचने वाला कोआथ का एक सुनार आया। वह पहचान गया कि वह बटखरा तो सोना है। उसने बच्चे को फुसलाया और मूंगफली का पूरा डिब्बा उस बच्चे को थमाकर और बदले में सोना पाकर चला गया। उसी सोना के टुकड़ा के बल पर वह सुनार धनवान हो गया और कोआथ चौक के पास विशाल घर भी अपना बनवाया।
ग्रामीण मंगलेश्वर सिंह का कहना है कि यहाँ सोना तो कई बार लोगों को मिला, परन्तु किसी के पास वह टिक नहीं पाया। किसी-न-किसी कारण से वह यहाँ से चला गया। उनका कहना है कि इस गाँव को शाप मिला है कि यहाँ ब्राह्मण, नाई और धोबी नहीं बसेंगे और इस गाँव का कोई धनवान नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि उनके पुरखे बताये हैं कि चेरो राजा से लोहथमिया राजपूत वंश ही वास्तव में लड़ा था, परन्तु विजयोपरांत चतुराई से सारा लाभ उज्जैनियों ने उठा लिया।
तुरांव गढ़ में बड़े-बड़े आकार के ईट्टे, चापाकल गलाने में बाहर आते अद्ररख के अंश, जले हुए अन्नों से भरे कोठार, मिट्टी के बर्तन, लहठी आदि अनेक पुरावशेष प्राप्त होते रहते हैं। डॉ0 अशोक प्रसाद का मानना है कि चेरो राजा के वशंज अब भी कभी-कभार यहाँ आते हैं, जिनके लिवास भिन्न तरह के राजशाही सलीके के होते हैं। जूता का नख उल्टा हुआ, राजस्थानी पहनावा, साड़ी को धोती की तरह पहनी औरतें और घोड़े की सवारी उनकी विशेषताएँ होती हैं।
इस गढ़ से पूरब विशाल पोखरा भी प्राचीन है, परन्तु अब वह उथला हो गया है और चारागाह बन गया है। जहाँ गाँव भर के पशु चरते हैं। विगत वर्षों में पोखरे के एक आंशिक भाग को मरम्मत किया गया है, जो अपर्याप्त है। गूॅजाडीह का रहने वाला कक्षा- 12वीं का छात्र लोकेश कुमार बताता है कि उसने अपने पूर्वजों से मौखिक आख्यान सुना है कि इस पोखरे में दो धार बहते थे, परन्तु वे अब भूमिगत हो गये हैं। गढ़ पर पोखरे के पास स्थापित सती स्थान के बारें में 55 वर्षीय ग्रामीण मनोज कुमार राय बताते हैं कि उन्होंने अपने दादा स्व0 केश्वर राय को कहते हुए सुना है कि सती के विवाह का डोला कहार उठाकर इसी गढ़ के पास के रास्ते से ले जा रहे थे, तो यही बीच रास्ते में दुष्ट चेरो राजा ने डोला रूकवाकर उनके सतीत्व को भंग करना चाहा। उस नव विवाहिता ने सत् का सुमिरन किया और तेज आग की लपटों में भष्म हो गई। उसी के शाप से चेरो राजा का विनाश हो गया। सती के परिवार के वंशज जो सूर्यपुरा के पास के खरोज के निवासी भूमिहार बिरादरी के हैं, वे देव दीपावली के समय प्रतिवर्ष सती स्थान की पूजा करने के लिए आते हैं।
दीवान के बड़का गाँव के निवासी 88 वर्षीय दुखी राम, जिनकी बहन की ससुराल तुरावं में है, वे बताते हैं कि उनके गाँव का एक पागल व्यक्ति हमेशा यह कहता है कि उनके गाँव के कुर्मी लोग तुरांव गढ़ से सोना लूट कर धनी बने हैं।
30-(क) ‘धर्मायण' पत्रिका, महावीर मंदिर प्रकाशन, पटना, अप्रैल-सितम्बर- 2014 के अंक में लक्ष्मीकांत मुकुल का आलेख- ‘सामाजिक सद्भाव का दृष्टान्तः- सिमरी का महावीरी झंडा', पृष्ट- 44-48
(ख) इस महावीरी झंडा की ऐतिहासिक पृष्टभूमि तथा सामाजिक सांस्कृतिक अवदान के विषय में जानकारी देते हुए सिमरी मध्य विद्यालय के अवकाश प्राप्त शिक्षक 76 वर्षीय हनुमान सिंह ने बताया कि जैसा उन्होंने बड़े-बूढ़ों से सुना है कि बिलग्रामी परिवार के लोग उस समय नवाब थे। नवाब साहब अपने सिपहसलारों के साथ कोठी पर बैठे थे, तभी उन्होनें देखा कि गाँव के लोग काफी अच्छे परिधानों में सजधज कर झुंड-के-झुंड कहीं जा रहे हैं। इस बाबत पास बैठे लोगों से उन्होंने पूछा कि ये लोग कहाँ जा रहे हैं? तो उत्तर मिला कि पास के बभनौल में दशहरे के दिन झंडा उठता है, उसी झंडा-जुलूस में शामिल होने और वहाँ के अखाड़े का दंगल-करतब देखने ये लोग जा रहे हैं। नवाब को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने अगले दिन पूरे गाँव की मिटिंग अपनी कोठी पर करवाई और ऐलान किया कि अब अगले साल से यहाँ के लोग बभनौल में महावीरी झंडा उठाने का काम बंद करंगे और झंडा प्रतिवर्ष यहाँ से ही उठेगा और यहीं के अखाड़े तक जायेगा, जहाँ दंगल-खेल-तमाशा होगा। कहते हैं कि अगले दशहरा से एक माह पहले ही उन्होंने गाँव के कुछ जागरूक लोगों को वर्ष- 1913 में चार सौ रूपया चांॅदी का विक्टोरियन सिक्कों को देकर बनारस में झंडा बनवाने के लिए भेजा। लाल रंग के मखमल के कपड़े का एकरंगा झंडा बनारस स्थित दालमंडी के समीप नारियल बाजार में मशहूर दर्जी की दुकान नारायण के0 दास के यहाँ बनवायी गई। जिस पर सोना के तार से महावीर जी की आकृति उभारी गयी। कहा जाता है कि उसमें एक किलोग्राम सोना का इस्तेमाल हुआ था। बनारस से झंडा जब तैयार होकर गाँव सिमरी में आया, तो महावीर जी की आँखों को बनाने के लिए नवाब साहब ने अपनी तिजोरी से दो बेशकीमती मनके भी दिये।
इस महावीरी झंडा से जुड़ी एक धरना के विषय में ग्रामीण युवा 38 वर्षीय सत्येन्द्र सिंह रोचक बातें बतायीं। उन्होंने कहा कि काफी पुराना होने के कारण वह कुछ फट-सा गया है, परन्तु हनुमान जी की प्रतिमा के उकेरे गये सोने के सभी तार यथावत् हैं। दो मनकों से बने आँख में से एक मनका गायब हो गया है। उनका कहना है कि यह झंडा पहले अनगराहित चौधरी के यहाँ रखा जाता था, परन्तु 25 वर्ष पहले उनके यहाँ पड़ी डकैती में वह झंडा भी चोरी चला गया। चोरों ने उसे अनुपयोगी समझकर उसे ईख के खेत में मेड़ पर छोड़ दिया। इस प्रकार वह झंडा बच गया। अब वह धरोहर के रूप में रहता है।
मुस्मिल अखाड़ा के खलीफा 55 वर्षीय मजहर आलम बताते है कि उनके गाँव सिमरी में महावीरी झंडे के अखाड़ा पर सलामी उन्हीं की बिरादरी द्वारा दी जाती है। सारे हिन्दू समाज के लोग मुहर्रम के ताजिये में उसी जोश के साथ सम्मिलित होते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता का यह सिलिसला बड़ा ही रोमांचकारी होता है।
31-रोहतास दर्पण, पृष्ट- 170 एवं Shahabad Gazetteer, 1966 , page- 899
32-Extract of village History from the village note of MAUZA KOATH prepared in servey prouceedings of 1911 and 1912
33-Shahabad Gazetteer, 1906, page- 145 और Census Report, 1891(D.C.R., 96/6 Dated 8th April, 1892) of Shahabad.
34-वीर कुवँर सिंह और अजायब महतो- अनुद्धाहित पक्ष, लेखक- अवधबिहारी ‘कवि' प्रकाशक- नील निकेतन, उनुवास, जिला- बक्सर, प्रकाशन-वर्ष 2000 ई0, पृष्ट- 193
35-Shahabad Gazetter, 1966 Page- 847-848
36․ (क) वहीं पृष्ट- 132
36- कोआथ के नवाब और उनके परिवार के संबंध में मौखिक कहानियाँ, जो अजीबोगरीब हैं। उसे वहाँ के निवासी 56 वर्षीय इंदुभुषण चौधरी, गिद्धा निवासी शिक्षक सुदर्शन चौधरी और बिजली खान बताते है कि जैसा नवाब परिवार के वंशज अपनी कहानी सुनाते थे कि जब अंग्रेज देश छोड़ने लगे, तो सीमा पर जहाँ ये लोग बम विस्फोटक सामान बना रहे थे, तो अंग्रेजों ने इनको राज देकर विस्फोटक सामग्रियों पर पानी डालवा दिया, ताकि ये लोग उन पर पलटवार न सके, इसलिए इनका राज ध्वस्त होने लगा।
खान-पान के शौकिन कोआथ नवाब साहब एक टिन शुद्ध घी की कड़ाही में तला गया पहला पुआ ही खाते थे, बाकि घी को फेंक दिया जाता था, या रेयानों में बाँट दिया जाता था। इस बात को परखने के लिए नवाब को एक बार डुमरॉव महाराजा ने न्यौता दिया और ढेर सारे पुवों को छनवाकर पहला पुआ बीच में घुसा दिया और कहा कि आप मनपसंद पुआ चुनकर खा लीजिए। तब नवाब साहब ने पारखी नजर से पहला पुआ खोज लिया। डुमराँव महाराज यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये। एक किंमबदंती और है कि नवाब साहब ने शुद्ध घी में खिचड़ी बनवाई, जिसमें दुलर्भ सामग्रियों का इस्तेमाल हुआ था। नवाब साहब कुछ खिचड़ी खाये और बची खिचड़ी को खानसामा ने एक ढूंठे सूखे नमी के पेड़ पर फेंक दिया, कुछ दिनों बाद वह नीम हरा होकर कोंपल फेंकने लगा।
स्थानीय निवासियों का कहना है कि नवाब साहब का गढ़ पहले काफी ऊँचा था, जैसा इन्होंने सुना है कि उपर चढ़ने पर सासाराम निकट नजर आता था। ध्वस्त हो चुकी कोठी अब भी दो तल्ला ऊँची है, जो लाहौरी इट्टों से बनी थी। परिसर सहित उसका विस्तार करीब 50 बिगहे में था। ग्रामीण बताते है कि नवाब परिवार दबंग, अभिमानी, चाटुकार पसंद, फिजूलखर्ची और निकम्मा था। वे लोग अपने चाटुकारों को शौच करने, दाढ़ी बनाने और पैर दबवाने के एवज में जमीन दान देते थे। परन्तु उन्होंने कोई सावर्जनिक कार्यों में अपनी संपत्ति को नहीं लगाया। ग्रामीणों के अनुसार जोगिनी गाँव के निवासी स्व0 जगनारायण दूबे, जो निःसंतान थे और गाँव के जमींदारी में चवन्नी के हिस्सेदार थे, उन्होंने वहाँ हाईस्कूल खुलवाकर अपनी 60 बिगहा जमीन दान में दिया, जिसमें 10 बिगहा जमीन नटवार गाँव में है। ग्रामीण कहते है कि आजादी के बाद नवाब की संपत्ति को कोआथ वासी हलफू खान और धनु खान ने नवाब के यहाँ से सोना से लिखी गई किताब को चुराया और नवाब के नाम का आलू का मुहर बनवाकर फर्जी कागजात के आधार पर 40 बिगहा जमीन अपने नाम कायम करा लिया।
पिछले मुहर्रम में कोआथ आये बिलग्रामी परिवार के दिल्ली पुलिस में कार्यरत 45 वर्षीय सैयद अहमद अली बिलग्रामी, कलकत्ता में बिजनेश करने वाले 62 वर्षीय रजा अली बिलग्रामी, पटना रहने वाले एस․एम․ रजा बिलग्रामी, अलीगढ़ में जाकर बसे रियाज हैदर बिलग्रामी और बनारस के बाशिंदा बन चुके आलम भाई बिलग्रामी और युवा बादशाह अली बिलग्रामी ने बताया किया कि उनके पूर्वज नवाब नुरूल हसन खान इरानी मूल के शिया मुस्लिम थे, जो अवध के बिलग्राम नामक स्थान से कोआथ में आकर बसे। उस समय कोआथ घने जंगल के बीच सुरक्षित स्थान था और पेयजल भी सहज उपलब्ध था। पहले यहाँ चेरो-खरवार का गढ़ था, फिर उज्जैनियों ने बसेरा डाला। तदोपरान्त नवाब सैयद वंश यहाँ व्यवस्थित हुआ। नवाब नुरूल हसन खान बिलग्राम से कोआथ आते समय 36 पेशेवर जातियों के समूह को भी अपने साथ लाये थे, जो अलग-अलग जाति समूहों में टोलावार बसाये गये। जैसे, तुरहा टोला, कुम्हार टोला, हज्जाम टोला, कुर्मी टोला, मेस्तर टोला, धोबी टोला आदि। हलवाई भी वहीं से आये, जिसने ‘बिलग्रामी' नाम की शाही मिठाई का प्रचलन किया, जो शुद्ध घी की बनी होती थी, जिसमें खस्तापन ज्यादा होता था। उनका कहना है कि डिलिया गाँव के दक्षिण में नवाब साहब के बगीचे के पेड़ों को कच्चे दूध से रोज सिंचित किया जाता था।
नवाब नुरूल हसन खान के रहस्यमय व्यक्तित्व के बारे में उनके वंशज बताते है कि वे जवाहरात खुंसी टोपी, बहुमूल्य शेरवानी व पाजामा और स्वर्णजडि.त जूते पहनते थे। जब वे सो जाते थे, तब उनके जूतों की रखवाली करने के लिए दो सर्प आते थे। बिलग्रामियों ने बताया कि सैयद नुरूल हसन खान की कब्र जो टूट-फूट गई थी, उसे मरम्मत कराया गया है, जिस पर 18वीं सदी का फारसी में अंकित शिला लेख अब भी मौजूद है, जो संगमरमर का है।
नवाब के वंशजों के कथनानुसार नवाब नुरूल हसन के बाद उसी वंश के वहाँ नवाब हुए, उसमें आले हुसैन और मुहम्मद अकबर प्रमुख थे। जमींदारी उन्मूलन के समय अबु अहमद नवाब थे, जिन्होंने सरकार को रिटर्न दाखिल किया। अबू तालिम, जिनका पूरा साल मुहर्रम के ताजिये की तैयारियों में बितता था और उनकी ख्वाहिश की थी कि उनके मरने के बाद उनके कब्र की छाती के भाग के भाग इमाम हुसैन का ताजिया रखा जाय। उनके पुत्रों ने यह इच्छा उनकी पूरी की। अबू तालिम का कब्र मस्जिद और कचहरी के बीच के चबूतरे पर है, उसी पर सलाना ताजिया को रखा जाता है। आरा के गोपाली चौक के पास इस बिलग्रामी परिवार के एक शाखा की कोठी थी, हादी मार्केट के पास। उस कुनबे को ‘बीच आँगन के लोग' कहा जाता था, जो काल-क्रम में हैदराबाद जा कर बस गये।
कोआथ का तजिया शुरू से ही मशहूर रहा है, जो नवाब कोठी के चौक से शुरू होकर तीन किलोमीटर दूर जोगिनी गाँव के पश्चिम कर्वला तक जाता है। सुन्नी मुस्लिम के युवक ताजिया जुलुस में जहाँ खूब हो-हल्ला मचाते है, वहीं शिया मुस्लिम नवाब के वंशज शांत स्वरों में मर्सिया गाते और मातम करते आगे बढ़ते हैं। हिन्दूओं द्वारा जोगिनी गाँव की गलियों को साफकर और स्वच्छ पानी फेंककर ताजिया-मार्ग को पवित्र किया जाता है और जगह-जगह पूजा की जाती है, मनौतियाँ मांगी जाती है।
37- खखडही ग्राम के निवासी 65 वर्षीय अवकाश प्राप्त शिक्षक रघुवंश राय ने यह बात बतायी।
38- बुकानन का Journal, Page- 32
“ Every Village almost in Rohtas circus so far we have come, seems to have had mud fort, similar to that called hataniya, althought I have not seen any regular so well defined.”
39- शाहाबाद ग्राम गौरव गाथा, डा0 स्वामीनाथ तिवारी, पूर्व विधायक, प्रकाशन- 2005, पृष्ट- 9
40- गंगाढ़ी निवासी 93 वर्षीय वृद्ध भोला लाल ने बताया कि उनके दादा इलाहाबाद कायस्थ पाठशाला में पढ़ने जाते थे। उनका सरोसामान घोड़ा पर लाद कर जाता था।
41- घरकंधा के पूर्व शिक्षक 67 वर्षीय विश्वनाथ सिंह, सुरतापुर गॉव के निवासी 60 वर्षीय ललन गोड़ और वहीं के 65 वर्षीय हरवंश सिंह यादव के कथनानुसार।
42- भानपुर के एक बुजुर्ग ने बताया कि अंग्रेजों से लड़ाई के समय में कुवंर सिंह घोड़वँछ गाँव में एक संपन्न राजपूत के यहाँ शाम को आये और खाना बनवाने के लिए कहे। कुछ देर के बाद सूचना मिली कि अंगे्रज सैनिक इधर ही आ रहे है। खाना भी पूरी तरह तब तक नहीं पक पाया था कि वे अपने साथियों के साथ बिना खाये चले गये।
65 वर्षीय दिनारा निवासी अब्दुल, हन्नान अंसारी ने बताया कि जैसा उन्होंने बुर्जुगों से सुना है कि कुवँर सिंह लड़ाई के समय में जमरोढ़ आये थे, तो दिनारा के काजी साहब ने सोना के पतरों लगी पालकी पर उन्हें अपने बंगला पर बुलवाया था।
43-फ्रीडम मुवमेंट इन बिहार, प्रथम खंड, लेखक-प्रो0के0के0 दत्त, पृष्ट- 194
44-शाहाबाद महोत्सव स्मारिका, बक्सर- वर्ष- 2013, पृष्ट- 194
45-शाहाबाद ग्राम गौरव गाथा, पृष्ट- 27
46-Shahabad District Gazetteer, 1966, page- 931
47- ‘रोहतास दर्पण' के पृष्ट- 188 के अनुसार चंदतन शहीद इस्लाम धर्म प्रचार के लिए 582 हिजरी में भारत के वाराणसी में आये थे। चंदतन शहीद का मूल नाम हजरत मीर हुसैन था और अरब के मदीना के निवासी थे। वे विरोधियों द्वारा बनारस में शहीद हुए, जिनका सर बनारस में और शेष शरीर का भाग सासाराम की चंद शहीद पहाड़ी पर कब्र में दफन है। ये सूफी संत थे। ‘शाहाबाद ग्राम गौरव गाथा' के पृष्ट- 105 में कहा गया है कि फकीर का सर बनारस में चंदन नामक व्यक्ति द्वारा काट दिया गया। कटे सर की स्थिति में भी फकीर दौड़ता हुआ यहाँ आया और महिला से पान खाने के लिए मांगा। महिला ने कहा कि तुम्हारा सर कट गया है और तुम पान माँग रहा है। इस पर फकीर का सर गिरा और मर गया।
दिनारा स्थित चंदन शहीद पीर की दरगाह के बारे में दिनारा निवासी 60 वर्षीय दुकानदार मुहम्मद इसराइल अंसारी, 92 वर्षीय वृद्ध हसन जान इद्रीसी का कहना है कि चौसा से राजपुर होते हुए चंदशहीद पीर दिनारा पहुँचे, जहाँ उन पर जानलेखा हमला हुआ। जिस जगह पर शहीद वे हुए, उस स्थान को चंद शहीद की खानकाह और जहाँ उनका खून गिरा, उसे लाल शहीद पीर बाबा कहा जाता है। चंद शहीद पीर का स्थान दिनारा बाजार की मुख्य सड़क पर कांजी हाउस और डाकघर के बीच एक प्राचीन नीम के वृक्ष के नीचे है और लाल शहीद पीर बाबा की मजार हरिजन टोली और पासी टोला के बीच में अवस्थित है। ग्रामीणों का कहना है कि पीर बाबा अब भी कभी-कभी दिख जाते हैं। स्थानीय निवासी विक्रमा सेठ उम्र- 70 वर्ष का कहना है कि अब से 50 वर्ष पहले वे रात में गर्मी के समय में सड़क के बीचों-बीच खाट बिछा कर सोये थे, आधी रात को तेज आवाज के कारण अचानक उनकी नींद खुली तो देखा कि एक वृद्ध दाढ़ी, सफेद मुरेठा, उजला फकीराना झूल में उजला घोड़ा पर सवार होकर बीच रास्ते में आकर इन्हें डाँटा कि तुम सड़क के बीच में क्यों सोते हो? सुबह इन्होंने वृद्धों से यह बात बतायी तो सबने कहा कि ये यही पीर बाबा हैं।
ग्रामीण मुहम्मद रसीद खान ने बताया कि पहले जैसा वृद्धों के मुॅहजबानी उन्होंने सुनी है कि पीर की दरगाह पहले मिट्टी और लाहौरी इट्टों की बनी थी। उसकी मरम्मत दिनारा थाना के एक दारोगा (जाति- ब्राह्मण) ने 80 साल पहले करवाई थी। वे निःसंतान थे, मनौती के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। परन्तु इस दरगाह को पक्का बनवाया, नहर पुल के निर्माण के समय करीब 40 वर्ष पहले पुरना नोखा के गया सिंह के वंशज ने उसने मनौती के आधार पर दरगाह को पक्का करने का धन स्थानीय निवासी रियाज खलीफा और आश मुहम्मद हजाम को दिया। 40 वर्षीय दर्जी सलाउद्दीन का कहना है कि चंद शहीद के दोनों दरगाहों की देखभाल एक कमिटि करती है और साल में एक बार उर्स अवश्य लगता है। लोग चादर चढ़ाते हैं।
48- बलदेव इंटर उच्च विद्यालय, दिनारा के पूर्व प्रधानाचार्य श्री धरीक्षण सिंह (उम्र- 67वर्ष), रंगनाथ सिंह (80 वर्ष), शिवजी सिंह, रामनाथ सिंह, राजनाथ सिंह, हीरामन सिंह (सभी दिनारा निवासी) ने मुझे यह बाते बतायीं।
49- सर्वे सेटेलमेंट गाइड, लेखक- नीलमनी डे, डिप्टी कलक्टर, भागलपुर, प्रकाशन- 1908, पृष्ट- 47
50- दिनारा के 56 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्त्त्ाा शेख ललन खान (वर्त्त्ामान मुखिया पति) नें यह बातें बतायी।
51- दिनारा निवासी अति वृद्ध हाजी मुसरत हुसैन का कहना है कि काजी बुजुर्ग लोग ईमानदार और गरीब परवर थे। जिन मजदूरों को वे लोग काम पर रखते थे, उसे अपने बैलों को उसका खेत जोतने के लिए बिना किसी लाभ के दे देते थे। प्रौढ़ व्यक्ति बिक्रमा सेठ ने कहा कि उनके परदादा के जमाने में काजी परिवार में एक बच्चे के जन्म पर कानछेदाई में इनाम स्वरूप इनके परिवार को दस कट्ठा जमीन बगीचे वाला मिला था। काजी फरीद मियां एक अच्छे इंसान थे, जो झाड़-फूँक द्वारा गलफुली रोग का इलाज करते थे। मरने के पहले उन्होंने कहा था कि मेरे बाद अगर किसी को यह रोग हो जायेगा, तो वह सिल्टी मिट्टी और एक हथ्था पानी मेरे कब्र के सिरहाने रख देगा, तो वह ठीक हो जायेगा। यह चलन अब भी जारी है। फरीद मियां को मस्जिद के अहाते की कब्र में दफनाया गया था। काजी परिवार के रहन-सहन एवं बुजुर्गो के व्यवहारों के बारे में युवा ग्रामीण मुन्ना कुमार गुप्ता ने बताया कि जैसा उन्होंने बुर्जुगों से सुना है कि काजी परिवार के लोग शराब और शबाब के शौकिन और हद के पार तक रंडीबाज थे। दिलदारनगर में काजी किफैतुल्ला मियां, दिनारा के नाम से कोठी है, जहाँ वे गुजरा सुनने जाते थे।
काजी घराना के बारे में विशेष जानकारी मुझे उसी परिवार के इनामुद्दीन मियां से मिली। उनका कहना है कि काजी परिवार मुस्लिम समाज के अशराफ शेख-वंश का है। उनके दादा काजी फरिदुद्दीन शेख एक नामी जमींदार थे। यहाँ उनका विशाल बंगला था, जहाँ आने के लिए अंग्रेजों को भी घोड़े से दूर से ही उतर कर और अनुमति लेकर ही प्रवेश करना होता था। गाँव-जवार के सारे झगड़े यहीं सुलझाये जाते थे। जैसा उन्होंने सुना है।
ग्रामीण बताते हैं कि काजी फरिदुद्दीन शेख के दो पुत्र हुए, जियाउद्दीन अहमद और बहाउद्दीन अहमद। आजादी के बाद के दिनों में दिनों में जियाउद्दीन अहमद के दो पुत्र थे, अली इमाम और हसन इमाम, जो शाहनुमा मुहल्ला, सासाराम में जा बसे। बहाउद्दीन अहमद के पहली पत्नी से मुन्ना शेख हुए, जो गया में जाकर बस गये और दूसरी पत्नी से इनामुद्दीन हुए जो 64 वर्ष के हैं। खानदान की वंशावली के बारे में पूछे जाने पर इनामुद्दीन मियां ने बताया कि वह उनके बड़े भाई के पास गया में है, जिनका इंतकाल हो गया है। जमींदारी उन्मूलन के बाद यह परिवार रोजगार और बेहतर जीवन की तलाश में दिनारा से पलायन कर गया। ये लोग दानप्रियता और फिजूलखर्ची के कारण अपनी अधिकतर जमीनें बेच दिये। उन्होंने बताया कि उनके पास मुगल व अंग्रेज कालीन अनेक पुस्तकें, दस्तावेज्.ा, पोथियाँ, पांडुलिपियाँ और फर्नीचर थे। एक बड़े साइज की कुरान की पुस्तक थी, जो बक्से की रेहल से जुड़ी थी। उनका कहना है कि उन्होंने आज से 40 वर्ष पहले पटना की ओर से आया पुरानी रियासती वस्तुओं के एक खरीददार को अल्प मूल्य में ही बेच दी थी, जिसका उनको अब अफसोस हो रहा है। अंत में उन्होंने कहा कि उन्होंने आभाव से बचने के लिए सरकारी नौकरी की और इस समय उनके पुत्र विभिन्न रोजगारों से धन अर्जित करके अपने कुल परंपरा को बचाने की कोशिश में लगे हैं।
52-(क) शाहाबाद गजेटियर, 1906, पृष्ट- 104 में, “The Zamindar of Dinara, after ootting his Kacheri and killing his men, sat the sepoys who were to arrest his at defiance and collected a large force at chausa. The small force of sepoys at the disposal of the companys officers were powerless to capture his, and ultimately it requied the despatch of a small military expedition to secure his arrest”
(ख)शाहाबाद गजेटियर, 1966, पृष्ट- 562 में, “more than half of the area of the old Shahabad was settled with the heads of the three great branches of the Rajput family, which had for so long been predominant in this part of the district, Raja Bikramajit Singh of Dumraon, and his kinsmen, Bhupnarain Singh and Bhagwat Singh of Jagdishpure and Buxar respectively. There would have been Justification for excluding chaudhari Dhawal singh for settlement, but his part violence was condoned, and most of the Dinara area was settled with him.”
(ग) दिनारा खास के इतिहास में प्रतिरोध के स्वर का अनोखा उदाहरण ‘चौधरी परिवार' का है, जो अपनी अनेकार्थकता, द्विधार्थकता, अस्पष्टता, लोकवात्ताओं और दिनचर्चा में लोक प्रचलित अनुभवों से वंचित होता है, जिसे कमजोरों की संस्कृति, परिताप की संस्कृति और चुप की संस्कृत का अंग माना जा सकता है। बुकानन की शाहाबाद रिर्पोट भी इस विषय में मौन है, परन्तु दिनारा निवासी बुजुगोंर् द्वारा सुनाई ग्राम्य पुरा कथाओं में यह पुरजोर अभिव्यंजित होता है। दिनारा के 80 वर्षीय फजल हक अंसारी, 43 वर्ष के दर्जी अलाउद्दीन इद्रीसी, 70 वर्ष के विधि गोड़, 65 वर्षीय विश्वनाथ केसरी, 85 वर्षी के रसीद ठकुराई ने बताया कि यहाँ डाकघर से पश्चिम-उत्तर की ऊँची भूमि पर चौधरी जमींदार का बहुत बड़ा गढ़ एवं वर्तमान मध्य विद्यालय की जमीन पर छावनी थी। गढ़ के अंदर से बच्चूदास की बावली तक सुरंग थी, जिससे स्नान करने के लिए गढ़ से उस परिवार की औरतें आती थी। वे काफी धनवान व प्रभवशाली थे, इलाके में उनकी तूती बोलती थी। उनके सौ हल चलते थे। उनके बेटे की बारात काफी धूमधाम से डुमरॉव के पास गई थी। बारात कई दिनों तक मरजाद रही। बारात लौटकर समीप के गाँव में आई तो पता चला कि उनके घर में भीषण डकैती पड़ गई है। घर की औरतें इज्जत बचाने के लिए सात-आठ की संख्या में गढ़ के आंगन के कुएँ में कूदकर जान दे दी है। डकैत सारा धन लूटकर ले गये हैं। यह खबर पाने के बाद बारात लौट फिर वापस चली गई, वे लोग दिनारा फिर कभी नहीं लौटे और भागलपुर में जाकर बस गये। रसीद ठकुराई ने बताया कि गढ़ के उस घर के खंडहरों को वे अपने बचपन में देखे थे और कहा जाता है कि वे लोग दिनारा कभी न लौटने की कसम खाये थे। कुछ वृद्धों के अनुसार वे लोग अपनी सारी सम्पति अपने द्वारा खुदवाये गये पोखरा के भीतर निर्मित कुआँ में फेंककर चले गये थे। समीप के कुसहीं गाँव के रामाशीष सिंह (उम्र- 65वर्ष) के अनुसार आंगन के कुएँ में कूदकर मरी औरतें सात सतियों के रूप में रंगनाथ खरवार के घर के कुएँ पर पूजित हैं और एक सती स्थान पोखरे के उत्तर में है, जो अविवाहित मरी थी। ग्रामीणों द्वारा इन सती स्थानो की वार्षिक पूजा होती है। कुसहीं ग्राम के युवा राजू सिंह ने बताया कि उस चौधरी परिवार के सात कुएँ निशानी के तौर पर हैं- पहला बाजार में राधाकृष्ण मंदिर के पास, दूसरा उच्च विद्यालय के पश्चिम, दो पोखरा के गर्भ में, पोखरा के उत्तर सती स्थान के पास, ककड सिंह के घर के उत्तर और एक रंगनाथ खरवार के घर के अंदर है। रंगनाथ खरवार, उम्र- 67 वर्ष ने बताया कि उनकी नानी कहती थी कि उनका घर एक चौधरी जमींदार के गढ़ की भूमि पर है। कहीं से आया एक साधु ने नानी को बताया था कि उनके घर में अमुक स्थान पर एक जलश्रोत है। जब उस जगह की मिट्टी हटाई गई, तो एक कुआँ का जगत दिखाई दिया, जो लाहौरी इट्टों का बना था। उस समय कुआँ की सफाई गई थी, परन्तु अब वह भरा जा चुका है। ग्रामीणों ने बताया कि चौधरी जमींदार का गढ़ उत्तर में ककड़ सिंह के घर के पास कुआँ तक और दक्षिण में डाकघर के पश्चिम तक पाँच एकड़ में फैला था।
चौधरी परिवार द्वारा खुदवाया गया दिनारा के पश्चिम का विशाल पोखरा ग्रामीणों के अनुसार अब अपने आयताकार आकृति में कम हो गया है। पहले पोखरा का उत्तरी भीट दिनारा कोचस पथ तक था, परन्तु नेशनल हाईवे के निर्माण के बाद इसका एक तिहाई भाग उत्तरी शीर्ष का पथ निर्माण में चला गया और शेष अतिक्रमणकारियों द्वारा घर बनाने के लिए हथिया लिया गया। दिनारा प्रखंड के बीस सूत्री निगरानी समिति के पूर्व अध्यक्ष नथुनी सिंह ने बताया कि जमींदारी काल में डुमरॉव महाराज द्वारा यह विशाल पोखरा और उसके पश्चिम की कई एकड़ वाली ‘बारहो' नामक जमीन स्थानीय निवासी महावीर सिंह को पट्टा पर बंदोबस्त की गई थी, परन्तु ग्रामीणों के विरोध के कारण उनका दखल-कब्जा न हो सका। यह भूमि अब बिहार सरकार सर्वसाधारण के रूप में सरकारी दस्तावेज्.ाो में दर्ज है। स्थानीय वृद्ध ककड़ सिंह का कहना है कि पहले इस गाँव के बारे में एक कहावत प्रचलित थी- ‘52 बिगहा में पोखरा, 52 बिगहा में गाँव'।
वीर बहादुर सिंह रिटायर्ड (हेड मास्टर, हाई स्कूल, बसडीहांॅ), दिनारा के किनवार राजपूत वंश के ठाकुर सिंह (उम्र-72वर्ष), सकरवार राजपूत वंश के ललन सिंह, उम्र- 65वर्ष, कामता प्रसाद सिंह, उम्र- 83 का कहना है कि जैसा उन्होंने सुना है कि इस गाँव में पहले हिन्दुओं मे मुख्यतः चौधरी, ब्राह्मण और राजपूत (बिसेन गाईं वंश) रहते थे। चौधरी और राजपूत परिवारों में आपसी विवाद था। राजपूत परिवार के लोग चौधरी परिवार के मुखिया जंग बहादुर की हत्या की योजना बना रहे थे, जिसकी भनक दोनो पक्ष के खानदानी पुरोहित बिरसा पाण्डेय को मिली। वे अपने यजमान की जान बचाने के लिए रात के समय उन्हें घर भेजकर खुद उनके दालान में सो गये। आधी रात को राजपूत परिवार के लोगों ने जंग बहादुर के भ्रम में बिरसा पाण्डेय की हत्या कर दी। प्रकारान्तर में बढ़ते तनाव के कारण चौधरी परिवार विस्थापित होकर भागलपुर में बस गया और विसेन वंश के गाई राजपूत ब्रह्म हत्या का दोषी बनकर वहाँ से पलायन कर दूसरे गाँवों में जा बसे। बिरसा बाबा ब्रह्म का पक्का स्थान बाजार में राधाकृष्ण मंदिर से उत्तर जाने वाली गली में बलदेव बाबा की कुटिया के पास है। ग्रामीणों के अनुसार गाई राजपूत वंश के पूर्वज देवरिया जिला के मझौली इस्टेट से उज्जैनियों के प्रोत्साहन पर इस इलाके में बहुतायत में बसे थे।
फ्रांसिस बुकानन के शाहाबाद रिर्पोट के पृष्ट- 376 में दिनारा के सुरवार वंश के एक राजपूत सुभान सिंह का वर्णन आया है, जिनकी जमींदारी में नोखा परिवार के साथ सासाराम परगना के उत्तरी भाग में हिस्सेदार थे, परन्तु सुरवारे के बराढ़ी गाँव के निवासी युवा शिक्षक मिथिलेश कुमार सिंह ने बताया कि जैसा उन्होंने अपने बुजुर्गो से सुना है कि दिनारा खास में उनके वंश सूरवार राजपूतों के निवास का विवरण कहीं नहीं मिलता, उनके वंश के लोग 17वीं सदी में पलामू के उदयगढ़ से घौडाड़ (सासाराम के समीप) होते हुए दिनारा से दस कि0मी0 पूरब एक मात्र बराढ़ी गाँव में बसे थे।
करंज से आकर दिनारा बसे पूर्व मुखिया श्री भगवान चौधरी के सुपुत्र राजेन्द्र प्रसाद सिंह, उम्र 60 ने चौधरी परिवार का अपने को वंशज होने का दावा करते हुए बताया कि जैसा उन्होंने अपने पुरनियों से सुना है कि जमींदारी के वर्चस्व को लेकर राजपूत बिरादरी से विवाद चल रहा था। एक माह तक मुकाबला होता रहा। काफी मार-काट हुआ। इस बीच बारात डुमरॉव की ओर गई थी। मर्दो की अनुपस्थिती में डकैती पड़ी। तब बुजुर्गो ने विचारा कि किसी राजा के घर चोरी या डकैती हो जाये, तो वह प्रजा की क्या देखभाल करेगा? यही सोचकर चौधरी परिवार दिनारा से पलायन कर गया। उनके एक पुरखे करंज में बस गये। ज्यादातर लोग भागलपुर में बसने चले गये। उनके कथनुसार चौधरी परिवार की फुलवारी मध्य विद्यालय के दक्षिण में और घुड़दौल का स्थान पोखरा के दक्षिण भीट के पास था। दिनारा के पश्चिम में स्थित राधाकृष्ण मंदिर और शिव मंदिर की स्थापना चौधरी परिवार ने ही की थी, जिसे बाद के लोगों ने जिर्णोधार कराया।
चौधरी परिवार के भागलपुर पलायन के इतिहास की वास्तविकता पता लगाने के लिए वहाँ के संबंधित लोगों से संपर्क किया गया। बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष एवं वर्तमान में कहलगांव से कांग्रेस विधायक सदानंद सिंह ने मुझे फोन वार्ता पर बताया कि उनके पुरखे इसी क्षेत्र से आकर वर्तमान भागलपुर जिले के संधौला प्रखंड के धुवाबे गाँव में बसे थे। उनके ननिहाल खैरा इस्टेट के पुरखे दिनारा से आये थे। खैरा इस्टेट पुराना भागलपुर जिला में ही पहले था, परन्तु जिला विभाजन के बाद वह वर्तमान में बांका जिला के रजौन प्रखंड में स्थित एक बड़ा गाँव है। उनके अनुसार खैरा इस्टेट काफी सम्पन्नता वाला था, जमींदारी काल में उन लोगों की अपनी 42 सौ बिगहे की जमीन थी। पुरखों के यहाँ आने के विषय में बुर्जुगों से उन्होंने ऐसा सुना है।
चौधरी परिवार के मूल वंश के वारिश 80 वर्षीय ज्ञानानंद सिंह (पूर्व मुखिया, खैरा ग्राम पंचायत, प्रखंड- रजौन, जिला- बांका, बिहार) ने बताया कि दिनारा से यहाँ पुरूखों के पलायन का मूल कारण डकैती की घटना ही रहा था। खैरा निवासी और डी․एन․ सिंह महाविद्यालय, भुसिया, रजौन (बांका) के प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ0 प्रताप नारायण सिंह ने ‘बांका जिला स्मारिका, 2014' में प्रकाशित एक आलेख के आधार पर बताया कि जमींदारी काल में खैरा इस्टेट (रजौन) के जमींदार लक्खी प्रसाद मंडल थे, जिनकी जमींदारी गोंड्डा जिले के साथ-साथ गंगा उत्तरी इलाकों में भी थी।
क्या चौधरी परिवार का दिनारा से विस्थापन शाहाबाद के राजपूत जमींदारों और एक गैर राजपूत जमींदार के बीच जमींदारी के सत्ता-संघर्ष का परिणाम था? यह प्रश्न अहम है।
सर्व विदित है कि अंग्रेज कुटिल चालों से अपने विरोधी सामंतों को मात देते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रिटिश अधिकारी दिनारा के जमींदार चौधरी धवल सिंह और उनके वंशजों को एक रणनीति के तहत जिला बदरकर भागलपुर में विस्थापित करने और अल्पज्ञात जगह करंज में थाना स्थापित करने का कार्य किये होंगे। उनकी इस योजना में शाहाबाद के अन्य जमींदारों की भी सहभागिता रही होगी, जैसा कि अंग्रेजों ने आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद एक शांति-संधि के तहत पेश्ावा को पूरी बिरादरी के साथ पूणे से कानुपर के बिठुर में पेंशन देकर उसी काल खंड मे विस्थापित किया था।
सूत्रात्मक निष्कर्ष यह है कि अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में दिनारा परगना एक चौधरी जमींदार द्वारा शासित था, जिसे शाहाबाद के अन्य भूस्वामियों और अंग्रेजों की कुटिलता से वीमत्स तरीके से विस्थापित कर दिया गया और दिनारा में प्रतिरोध संस्कृति का इतिहास सदा के लिए विस्मृत हो गया।
53- दिनारा डाकघर के पूर्व पोस्टमास्टर वयोवृद्ध जन कवि गोविन्द प्रसाद देनारवी की एक मौखिक भोजपुरी कविता में दिनारा का बदलता स्वरूप परिभाषित होता है, जिसका अंश निम्नलिखित हैः-
लागता कि गउवाँ आपन इहे देनार बा,
हाई नेशनल रोड के ई दूनो किनार बा।
विक्रम अनुमंडल बाटे, फूटल कमंडल बाटे,
रोहतास मंडल बाटे, धोबी के बंडल बाटे,
दिनारा के हकिम लोगवा सभे जिलेदार बा।
एहीजे ब्लौक बाटे, बिगड़ल क्लौक बाटे,
मुखियन के चौक बाटे, नेतवन के दौंक बाटे,
केहू के ना केहू प एहीजा कवनो एतबार बा।
सरकारी अस्पताल बाटे, दवा के मोहाल बाटे,
चारो ओर ले खाल बाटे, गरू के गोहाल बाटे,
केकरा से कहीं कुछुओ बहिर सरकार बा।
एहीजा बा थाना, बहुते पुराना,
गंगा के धोवल थाना, कामकाज मनमाना,
दूइये दरोगा लोगवा हरिचंद्र के अवतार बा।
लागता कि गउवाँ आपन इहे दिनार बा,
लगता कि कस्बा आपन इहे दिनार बा।
54-काजी इनामुद्दीन ने बताया कि दिनारा के ही निवासी समाज सेवी बलदेव पाण्डेय एक साधु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, जिन्हें ‘दिनारा का महामना' कहा जाता है। उन्होंने अपनी भूमिदान करके अथक प्रयासों के बल पर सन् 1947 में दिनारा में हाई स्कूल बनवाया, जिसे कालांतर में ‘बलदेव उच्च विद्यालय दिनारा' कहा गया।
संपर्कः-
ग्राम- मैरा, पो0- सैसड़,
भाया- धनसोई, जिला- रोहतास
(बिहार), पिन- 802117
मो0- 09162393009
ईमेल- kvimukul12111@gmail.com
खेरास्टेट जो रजौन के बांका जिला में है वह चंदेल क्षत्रिय जमींदारी राज परिवार के लोग हैं वे लोग अपने आप को कुर्मी नहीं मानते हैं मैं भी उसी गांव का हूं और आपको भी पता है कि चंदेल क्षत्रिय एक राजपूत/ठाकुर जाति के होते है | खेड़ा के चंदेलों के द्वार स्थापीत लाडली मोहन चंदेल क्षत्रिय उच्च विद्यालय खेरा- तथा खेरा डेहरी ट्रस्ट दवारा संचलित खेरा ठाकुर बाड़ी से इनका समाज गौरवान्वित है | और सबसे पहले चंदेल क्षत्रिय राजा वीर विक्रम सिंह 1266 ई.जमुई जिले के गिद्धौर में आये थे जो बांका के बगल में है इन्हीं चंदेलो के बांसज 800 सालो me पुरे बिहार में फेल गय | और जितने भी चंदेल राजा थे इनहोन काई सारे मंदिरो का निर्माण करवाया जिनमे से सबसे अधिक शिव मंदिर लक्ष्मण मंदिर दुर्गा मंदिर आदी है
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