गली के नुक्कड़ पर मैंने अपनी बाइक मोड़ी ही थी कि एकदम से रामू चाचा सामने आ गए। वो तो मेरी खटारा गाड़ी का भला हो के एन टाइम पर अटक गई नहीं तो ब...
गली के नुक्कड़ पर मैंने अपनी बाइक मोड़ी ही थी कि एकदम से रामू चाचा सामने आ गए। वो तो मेरी खटारा गाड़ी का भला हो के एन टाइम पर अटक गई नहीं तो बैठे बिठाए साहित्य जगत को अपूरणीय क्षति हो जाती। मैंने तनिक झुकते हुए उनका अभिवादन क्या किया उनका सीना साढ़े छप्पन इंच का हो गया। उनसे विनम्र क्षमा याचना करते हुए मैंने ठेठ गोड़वाड़ी भाषा में कहा,” रामू चाचा। इत्ती हड़बड़ी में कित्थे ठेल रिया हो?”
“रामू चाचा मत कहो न।“
और एकदम से मुझे लगा जैसे पैंतालीस साल की स्वयं भू जवान लड़की कहे,”मुझे आंटी मत कहो न।“
ज़रा दिमाग पर जोर डालने से याद आया इनका नाम रामधारी सिंह निराला है। नाम सुना-सुना लग रहा होगा न। दरअसल इनका सही नाम तो रामलाल ही था किंतु साहित्यिक शौक में इन्होंने ये अलग नाम रख लिया था, ये बात और थी कि इस चक्कर में न तो वो रामधारी सिंह बन पाए, और न ही निराला। और ख़ास बात तो ये कि महाशय रामलालजी भी न रहे। रामू चाचा बोलते गए, “अरे वो अंतर्जाल वाले के वहां छोड़ आओ न मुझे।“
अब मुझ जैसे अनपढ़ आदमी को कहाँ से समझ आता कि इंटरनेट कैफ़े जाना है। मैं तो समझा कोई इंद्रजाल है, शायद सर्कस वाले आए हो। या मछली पकड़ने का जाल खरीदना हो। या मकड़ी के जाले हटाने का कोई स्पेशल झाड़ू खरीदना होगा। मुझे असमंजस में देख वे ही बोले, “बेटा एक ईमेल भिजवाना है।“
मैं मन ही मन बोला, “क्या यमराज को ईमेल करना है कि अभी मेल का वक़्त नहीं आया। कोई डेढ़ पेज का महाकाव्य लिखना होगा। या अंतिम कहानी बाकी होगी, यह सोचते हुए कि अब बस ये कहानी छप जाए तो ओ. हेनरी जैसे कथाकारों में नाम शुमार होने लग ही जाए।“
मुझे बुत की तरह खड़ा देख चाचा बोले, “अरे बेटा! क्या तुमने सुना नहीं इस साल के भी नोबेल पुरस्कार बँट गए और हमें ख़बर भी नहीं। किसी गीतकार को मिला है। अब बताओ। पिछले 20, 30 सालों से हम उन लोगों को ईमेल भिजवा रहे हैं। इस बार तो मुझे ही मिलना था। लेकिन पता नहीं कौन गीत वाला बीच में टपक पड़ा।
भारत में तो हम जैसे महान साहित्यकारों की कोई कदर नहीं थी। अब विदेश से भी हमें ठुकराया जाने लगा है। ओबामा को भी तो दिया ही था न। उसने बताओ कौन सी कोई अच्छी कविता लिखी है? यार भले उस गीत वाले को भले दिया। मुझे तो चिकित्सा का ही मिल जाता तो चलता अपने तो। मैंने भी तो रिसर्च करके दांतों की देखभाल पर कितने लेख लिखे है। दिन रात अंर्तजाल वाले के वहां बैठ-बैठ के गूगल पर दांतों के लेख पढ़ें। कितनी किताबें खरीद कर दांतों की तंदुरुस्ती के बारे में अध्ययन किया। क्या इन नोबेल वालों को मेरी मेहनत नहीं दिखती। या फिर शांति का ही नोबेल दे देते मुझे तो। क्या मुझसे शांत आदमी तुमने कहीं देखा है? कभी किसी से झगड़ा नहीं किया। वजन चालीस किलो था लेकिन कभी बीस किलो वाले पर भी हाथ नहीं उठाया। कुत्ते घर के बाहर भोंकते है तो भी मैंने कभी उन्हें गोली नहीं मारी। बस कभी-कभार लाठी से पीट देता। इतने झगड़े सुलझाए मैंने। वो अपने किशनजी ने अपनी पत्नी को दहेज़ के लिए ज़िंदा जलाया था तब किसने पुलिस को गाँव में आने से रुकवाया था। किसने विधायक साहिब को फोन करके मामला शांत करवाया, मैंने। किसकी वजह से गाँव की छोरियाँ जींस नहीं पहनती, मोबाइल नहीं रखती, मेरी वजह से। किसने सामूहिक बलात्कार जैसे कांड के बाद भी मामले को दबाकर गाँव में शांति बनाए रखी थी, मैंने। क्या मुझे एक नोबेल पुरस्कार नहीं मिलना चाहिए। साहित्य का कम पड़ जाए तो शांति या चिकित्सा में ही दे दो। या फिर गणित का नोबेल पुरस्कार ही दे दो। क्या मुझ जैसा गणितज्ञ पूरे गोड़वाड़ में कहीं है? मुझे आज भी ढाई का पहाड़ा मुख जुबानी याद है। क्या ढाई का पहाड़ा आता है?”
मैंने न में सिर हिलाया किन्तु एक गलती कर दी। मैंने उन्हें बता दिया कि गणित में नोबेल पुरस्कार नहीं देते।
और वे तनिक झेंपते हुए गोड़वाड़ी में बोले,” एक ढियु ढियु। बे ढियो री पांच। तीन ढिये साढे़ सात, चार ढियो री दस।“
मैं ये ढाई का पहाड़ा उनके मुंह से शायद हजारों बार सुन चुका था। लेकिन ये रटने से मुझे बेहतर लगता कि ढाई को आगे से आगे जोड़ता जाऊँ।
रामधारी सिंह निराला अपने पूरे रंग में थे। उन्होंने मुझे साढ़े तीन का पहाड़ा सुनना शुरू किया, “एक हुटु, हुटु। बे हुटों री सात।“
अब मुझमें और हिम्मत नहीं थी कि मैं साढ़े तीन के बाद साढ़े पांच का भी पहाड़ा सुनूँ। मैंने उन्हें टोकना बेहतर समझा। लेकिन बीच में बोलने से उन्हें लगा शायद मैं उनकी बातों में रुचि लेने लगा हूँ। वो बोले,”
सरकार तो मुझे इस बार पद्म पुरस्कार देने वाली थी। लेकिन मैंने मना किया पहले ही। मैं भारत रत्न से छोटा कोई पुरस्कार नहीं ले सकता। अब तुम ही बताओ जिसने प्रेम पर कई महान हाइकु लिख डाले उसे पद्म पुरस्कार। मेरा वो हाइकु कॉलेज में कितना प्रसिद्ध था,
मैंने तो खाया
तुम भी खा लो जानु
खाना खाना
इस हाइकु ने धूम मचा रखी थी उन दिनों।“
मैंने पुनः गलती कर दी। मैंने उन्हें याद दिलाया कि अंतिम पंक्ति में एक वर्ण कम है शायद। और उन्होंने वो काम किया जो अकसर हमारे गणित के अध्यापक करते थे। यदि उत्तर गलत आता तो वे अपनी सुविधा अनुसार कोई भी संख्या जोड़ते, घटाते या गुना भाग करते। या अगर कहीं उनसे गलती हो जाती गणना में तो कहते, मैं तो चेक कर रहा था कि तुम लोगों का ध्यान कहाँ है?
ये बरसों पुरानी ट्रिक आजमाते हुए चाचा बोले,” शाबाश मेरे शेर। तुम भी सीख रहे हो। मैं ये ही देख रहा था कि तुम कितना सीख गए। मेरा हाइकु तो ये था,
मैंने तो खाया
तुम भी खा लो जानु
खाना खजाना
वैसे मेरी ये कविता भी बहुत प्रसिद्ध हुई......”
वे अपनी कविता सुनाते उस से पहले मैंने अपनी बाइक स्टार्ट की। वे कुछ असहज हुए और बोले, “ मुझे छोड़ दो वहां। शायद ईमेल का ठिकाना गलत होगा या फिर ईमेल बीच में ही गुम हो जाता होगा। ये भी हो सकता है के कुछ ईर्ष्यालु साहित्यकार मेरा ईमेल चुरा लेते हो बीच में। नहीं तो तुम ही बताओ। क्या मुझे नोबल पुरस्कार भी नहीं मिलता? भारत रत्न तो बाद में लेते रहेंगे। गुरुदेव को भी पहले नोबेल मिला था अपनी पुस्तक श्रद्धांजलि के लिए।“
मैंने अपना सिर पिट लिया मन ही मन। मैं उन्हें बता भी देता कि वो गीतांजलि थी, लेकिन यह मेरी साहित्य को श्रद्धांजलि थी कि मैंने उन्हें नहीं बताया वो गीतांजलि थी। मैं खामोश रहकर पूरे रास्ते उनकी व्यथा की कथा सुनता रहा। मुझे भी सच में लगने लगा था कि उन्हें नोबेल पुरस्कार ना मिलना साहित्य का अपमान था। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि उनका ईमेल सही जगह पहुँच जाए और उन्हें कोई न कोई पुरस्कार मिल जाए, चाहे नोबेल हो या कोई नुक्कड़ पुरस्कार हो।
परिचय -
साहित्य जगत में नव प्रवेश। पत्र पत्रिकाओं यथा, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, अहा! जिंदगी, कादम्बिनी , बाल भास्कर आदि में रचनाएं प्रकाशित।
अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत।
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विनोद कुमार दवे
206
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जिला= पाली
राजस्थान
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