दीपावली विशेष - योगेश अग्रवाल , राजनांदगांव छ० ग० शापित प्रगतिशील ... मैं हैरान था जबरदस्त। जड़वत निहार रहा था उन्हें। वे साक्षात् मेरे स...
दीपावली विशेष - योगेश अग्रवाल, राजनांदगांव छ० ग०
शापित प्रगतिशील ...
मैं हैरान था जबरदस्त। जड़वत निहार रहा था उन्हें। वे साक्षात् मेरे सामने थी। वैसा ही आभा मंडल, तेज़ प्रकाश पुंज और ग्लैमर से लबरेज़ जैसा कि भारतीय कलेण्डरों में प्रिंट होता हैं। माँ लक्ष्मी थी मेरे सामने। दीपावली की रात, ठीक पूजा निपटते ही वे दन्न से मेरे सामने थी और मैं भौचक्क था। वे मुझसे बहुत खुश थी। वे मुझसे वरदान मांगने कह रही थी। एक नहीं बल्कि तीन - तीन वरदान एक साथ। मैंने कहा भी उनसे - हे माता ! मैंने ऐसा क्या कर दिया है कि आप मुझसे इस कदर प्रसन्न हैं ? मैंने तो कोई तपस्या - वपस्या भी नहीं की है फिर भी आप... बीच में ही टोककर,कलेण्डरों वाली उसी रहस्यमयी मुस्कान के साथ, लगभग फुसफुसाते हुए मुझसे वे बोली - सोशल मीडिया में तुम्हारी देशभक्ति,समाजसेवा और रचनाशीलता के बयानों से मैं अति प्रसन्न हूँ।
फेसबुक, टुवीटर और ब्लॉग तीनों में बस तुम ही तुम हो, इसलिए तीन - तीन वरदान एक साथ। परन्तु मैं कन्फ्यूज़ था कि... पक्का था...पता नहीं। वरना घोर कलियुग में, कंदराओ - गुफाओ में बिना तप - तपस्या किये भी क्या कोई देवी या देवता ऐसे प्रकट हो जायेंगे ? पर कन्फ्यूज़ मैं कुछ ज्यादा था, यह सोंचकर कि जब ए ० सी ० में बैठकर, गद्दे और गोल - गोल तकियों में सफ़ेद कव्हर के साथ सफ़ेद चादर बिछाये ,केवल फोन पर बतियाते... आई मीन बिज़ीनेस ( दलाली ?) करने वालों के घर, इन पाईल्स और बदहजमी के शिकारों के घर, अरबों के सरकारी बैंक-लोन को डुबाने वालों के घर, ऐसे सरगनाओं को रातो-रात देश के बाहर भागने में सरकारी मदद पहुँचाने वालों के घर लक्ष्मी जब लबालब रहती हैं तो अपन जैसो के घर...आई मीन बुद्धिजीवी के घर क्यों नहीं ? वह कोई बहिरुपिया है कि वही पेंटिंग या कलेण्डरों वाली माता ही है का बहस मैं उनसे आरम्भ करता कि उससे पहले ही वे मेरे भीतर चल रहे विचारों को पढ़कर, मुझे सुनाई और ये समझायी कि ये कलियुग है, यहाँ हंस चुगेगा दाना - दुनका,कव्वा मोती खायेगा... यह सटीक तर्क सुनकर मेरा भ्रम दूर हो गया।
अब मैं कन्फर्म था कि वे सचमुच देवी ही हैं। वही देवी ! मेरी आँखें चमकी और सेकण्ड के अरबवें पल में मेरा चतुर-दिमाग सक्रिय हो गया। ठीक वैसे ही सक्रिय जैसे राज्य पुरुस्कार के बाद पद्म पुरूस्कार को हथियाने के लिए अपनी प्रोफाइल तैयार करते हुए हुआ था। ठीक वैसे ही जैसे एक आयोग का मेम्बर बनने के लिए,पेट्रोल पम्प का लायसेंस पाने के किये, सामूहिक बलात्कार की शिकार उस बच्ची को न्याय दिलाने के बहाने उसके साथ सेल्फी लेते समय सक्रिय हुआ था...और बस तिकड़मी हो उठा मेरा दिमाग...फिर परिणाम सामने था।
मेरे केवल एक वरदान ने माता की खोपड़ी हिला दी। मुझे सुनकर माता सन्न थीं। तीन वरदानों की जगह मेरी केवल एक मांग को सुनकर मेरी तरह अब माता जड़ थीं। मैं जरूरत से ज्यादा चालाक बन चुका था,ठीक वैसे ही जैसे मैं अक्सर हो जाया करता हूँ... और हर बार की तरह इस बार भी परिणाम सामने था। माता को मेरे सामने पस्त देख सारा देवलोक दौड़ पड़ा मुझे मनाने। ठीक वैसे ही जैसे मेरा कोई टेण्डर या प्रोजेक्ट पास नहीं होने पर फिर मेरे द्वारा मीडिया से लेकर धरना प्रदर्शन करते हुए हड़कंप मचाने पर अधिकारी -कर्मचारी -जनप्रतिनिधिगण मुझे सेट करने दौड़ पड़ते हैं।
देवताओं के कायर-किंग इन्द्र सहित मंथन में निकले कलश के पूरे अमृत को हथियाने के लिए सुरा-सुंदरी का रूप धरने वाले और वामन के वेश में बलि को ठगने वाला दिमाग रखने वाले विष्णु जी भी खड़े थे हाँथ जोड़े मेरे सामने। वे मुझसे गिड़गिड़ा रहे थे -- इंद्रासन ले लो या मोदी जी का सिंहासन ले लो। अमेरिकी प्रशासन ले लो या फिर 'सुदर्शन' ही ले लो। कहीं का राष्ट्रपति बना दें या ठाकरे श्री का उत्तराधिकार बना दें। कहो तो 'ए.बी.सी.' तुम्हारे नाम करा दें। हे युग पुरुष! माता लक्ष्मी को इस धर्म संकट से मुक्त करो और अपने इस 'एक वरदान' को छोड़कर कोई भी दूसरा वरदान माँग लो प्लीज़ !
घंटों से चल रहा था यही सीन। मुझे मनाने का सीन । पर मैं तटस्थ था अपनी ज़िद्द पर। मेरे एक ही वरदान ने चकरा दिया था धनदेवी को। देवी-देवताओं का 'संयुक्त मोर्चा' बन गया मुझे मोहपाश में जकड़ने के लिए। अंततः नारद की सलाह से ज्ञानदायिनी को पुकारा गया। पर कुंभकर्ण और मंथरा की मति को फेर देने वाली देवी भी सोच में पड़ गई मेरी ज़िद देखकर। भयानक राक्षसों की भी कंपकपी छुड़ा देने वाली देवी दुर्गा सहित दिमाग की देवी माता सरस्वती का दिमाग भी शून्य हो चुका था। सब जबरदस्त परेशान थे मेरी मांगपूर्ति के बाद के भयंकर परिणामों को सोच-सोचकर। वे सब सोच रहे थे--कितना चालाक है ये बालक ? माँगा भी तो क्या ? उल्लू ?? उल्लू का वरदान ??? तीन-तीन वरदान के बदले केवल एक वरदान 'लक्ष्मी' के दिशा निर्देशक 'उल्लू' का वरदान !!!
इस एक वरदान के मिलते ही सारे आसन इसे यों ही मिल जाएँगे। प्रशासनों की दिशा-दशा यही तय करेगा भविष्य में। कितना गंभीर रहस्य है इसकी माँग के पीछे ? बवंडर की गति से उठ रहे थे ये विचार देव मस्तिष्कों में। सभी जड़वत थे। पर मैं... अडिग था। समय अधिक होते देखकर कुछ पल के लिए सोचा मैंने- -कि किसी प्रजातांत्रिक देश का 'महान तांत्रिक' हो जाने का वरदान माँगू ! कि निरीह गायों का टनों चारा हजम करने वाले 'सांड' हो जाने का वरदान माँगू ! वरदान माँगू कि 'खजुराहो' हो जाऊँ मैं भी। भोरमदेव या फिर 'अजंता-एलोरा' हो जाऊँ मैं भी ताकि हर एंगल से लोग झाँके मुझे। ताकि सभ्यता-संस्कृति की ज़िंदा मिसाल कहलाऊँ मैं, ताकि शोध का विषय बन जाऊँ मैं...और जब लोग बिसरने लगे मुझे तो किसी 'अंतर्राष्ट्रीय पेंटर' की 'प्रगतिशील कृति' बन जाऊँ मैं ! या 'उस' फॉरेनर की तरह समुद्र के किनारे बिना कपड़ों के दौड़कर, फिर अजगर लपेटकर जूतों का विज्ञापन करते हुए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार हो जाऊ मैं !या मोनालिसा की अबूझ मुस्कान बन जाऊँ मैं ? या तमिलियन दीदी सा भगवान् हो जाऊँ मैं ?
पर इन सबसे अलग-थलग मैंने देवी से माँगा था उनके प्रिय वाहन उल्लू को !!! एकाएक बिजली-सी तड़की मेरे दिमाग में और लगा कहीं मैं टँगिया अपनी ही डाली पर तो नहीं चला रहा हूँ ? 'देव उल्लू' को हैंडल करना क्या इतना आसान है ? उल्लू माँगने से अच्छा क्यों न अपने ही भीतर के 'उल्लू' को जगाऊँ मैं। वैसे भी विराने गुलिस्ताँ की ख़ातिर बस एक ही उल्लू काफी है।
अपने अस्तित्व की सुरक्षा के डर से हड़बड़ाकर मैंने देरी का बहाना बताकर तत्काल एक दूसरा वरदान माँग लिया-"हे माते ! मैं भीड़ से अलग हो जाऊँ!" और इसके पहले कि मैं दो वरदान और माँगता, पिछले कई घंटों से पस्त माता सहित समस्त देवलोक तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गए, शायद ये सोचकर कि मैं पलट न जाऊँ अपनी जुबान से और उस तथास्तु का हश्र ये हुआ... कि हम लेखक हो गए। हम हो गए एक प्रगतिशील विचारक! इसलिए अब दलित साहित्य के नाम पर अपने भीतर का सारा दलित परोस देता हूँ, सरेआम !! इतना दलित कि अपने ही लिखे को अपनी बेटी को पढ़ाने से डरता हूँ। प्रगतिशील हो जाने के बाद सर्वाधिक अच्छी मुझे अब 'नंगी तस्वीरें' लगती हैं। कला-संस्कृति की जीवतंता 'निहारने' आए दिन बस्तर का दौरा किया करता हूँ।
वरदान पा लेने के बाद लगता है, सर्वाधिक प्रगतिशील मैं ही हूँ। सीधी सपाट सामाजिक आवश्यकताओं को नकारकर, ग़ैरज़रूरी तथ्यों को ज़बरदस्त ज़रूरी सिद्ध करने में बड़ा मज़ा आता है। हादसों पर बंद कमरे में कलम चलाने और कुत्तों की छींक पर गंभीर नाटक खेलने में मज़ा आता है। गोष्ठियों में, बुद्धिजीवियों-गणमान्यों के बीच अपना माल्यार्पण करवाने में मज़ा आता है। प्रगतिशीलता ही ओढ़ता हूँ, प्रगतिशीलता ही बिछाता हूँ। उसी का खाता हूँ, उसी का पीता हूँ। कुल्ला भी...प्रगतिशीलता का ही करता हूँ।
आए दिन सुर्खियों में रहता हूँ। भीड़ चलती है मेरे पीछे। बहुत खुश हूँ मैं वरदान पा लेने के बाद। बावजूद इनके...क्यों बहुत बेचैन रहता हूँ दिन-रात मैं ?आखिर किस बात की छटपटाहट रहती है हर पल मेरे भीतर ? पुरुस्कारों, सम्मानों और अपने नाम पर बजती तालियों के शोर से भी ज्यादा मेरे भीतर के शोर का सन्नाटा मुझे खाये जा रहा है रोज़ !
कदाचित ज्ञानदायिनी को भी नकारने का दुष्परिणाम भुगत रहा हूँ, मैं 'प्रगतिशील' होकर !!!
---योगेश अग्रवाल, सृष्टि कॉलोनी राजनांदगांव mitrindia@gmail.com
योगेश जी, बिलकुल सही कहा आपने! प्रगतिशिल शापित ही होते है। बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।
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