अनूप शुक्ल ने 2 नई फ़ोटो जोड़ीं — Udan Tashtari और 2 अन्य लोगों के साथ. बीते कल 07:42 पूर्वाह्न बजे · व्यंग्य की जुगलबंदी-7 --------...
अनूप शुक्ल ने 2 नई फ़ोटो जोड़ीं — Udan Tashtari और 2 अन्य लोगों के साथ.
व्यंग्य की जुगलबंदी-7
----------------------------और मजाक-मजाक में ये सातवी जुगलबंदी हो गयी व्यंग्य की।
इस बार की जुगलबंदी का विषय था - ’व्यंग्य का विषय क्या हो?’ विषय समीरलाल का सुझाया हुआ था।
1 निर्मल गुप्त
इस मसले पर पहली पोस्ट आई Nirmal Gupta की। उनको दिल्ली जाना था सो एक दिन पहले ही लिखकर निकल लिये। उन्होंने अपने अंदाज में बदलाव लाते हुये कुछ नये प्रयोग किये। उन्होंने अपने लेख का विषय रखा- "व्यंग्य का विषय और भुस्स के ढेर में खोयी सुईं"। मुल्ला बगदादी से लेकर मैना, उल्लू, गधे की गुफ़्तगू की दरियाफ़्त कर ली। इसी बहाने व्यंग्य को लेकर अपनी बात भी कह दी। उनका पूरा लेख इधर बांचिये (https://www.facebook.com/gupt.nirmal/posts/10210268026072705)उनके लेख के मुख्य अंश:
१. व्यंग्य करने के लिए उसे झेलने का सलीका होना जरूरी होता है।इससे भी आवश्यक है व्यंग्यवान बनना।व्यंग्य का 'मौसुल' तभी रहता है जब उसके पास बगदादी जैसे अदम्य साहस और धार्मिकता से भरे रणबांकुरे होते हैं।।सही मायनों में व्यंग्य तभी पनपता है जब उसके पास खुद्कुश हमलावरों की जमात होती है ।व्यंग्य के लिए उपयुक्त विषय को तलाशना वैसा ही है जैसे भुस्स के ढेर में से सुईं खोजना।
२. व्यंग्य लेखक व्यंग्योचित विषय का लेकर अकसर हलकान रहते हैं।हालाँकि व्यंग्य ही एकमात्र ऐसी विधा है जिसे बिना किसी विषय के भी रचा जा सकता है।वास्तव में व्यंग्य शाब्दिक मैजिक है।मुंह बिचकाने से लेकर आँखें तरेरने तक और रोने की मुद्रा में से परिहास को इजाद करने के कौशल से लेकर बेवजह बुक्का फाड़ कर हंस पड़ने तक को बाकायदा व्यंग्य समझ और मान लिया गया है।व्यंग्य का विषय विकार से अवमुक्त होता है।जब लगे कि व्यंग्य नहीं बन पा रहा तभी सबसे गहरा व्यंग्य बोध मौजूद रहता है।
३.व्यंग्य का विषय वही जोरदार होता है जो होने के बावजूद दिखता नहीं।मसलन उल्लू अपनी कोटर में बैठा एक गधे को रेंकता हुआ देखता है तो खिलखिला कर हंसता है।
2 समीर लाल
Udan Tashtari उर्फ़ समीरलाल ने कनाडा से अपनी बात रखी। अपने विषय खोजने की कवायद को बड़ी मासूम हसीनियत से बयान किया। पाठक को ज्ञानी बताते हुये अपना ज्ञान छितराया। समीरलाल का पूरा लेख बांचने के लिये इधर आइये (https://www.facebook.com/udantashtari/posts/10154439480846928)उनके लेख के मुख्य अंश:
१. यूँ तो जब भी कोई पाठक आपके लिखे से अभिभूत होकर या आपसे कोई कार्य सध जाने की गरज के चलते ये पूछता है कि- भाई साहब, आप ऐसे-ऐसे सटीक और गज़ब के ज्वलंत विषय कहाँ से लाते हैं? तो मन प्रफुल्लित हो कर मयूर सा नाचने लग जाता है. किन्तु मन मयूर का नृत्य पब्लिक के सामने दिखाना भी अपने आपको कम अंकवाने जैसा है. कौन भला अपनी पब्लिक स्टेटस गिरवाना चाहेगा...
२. सामने वाला साहित्य का ज्ञान भले न रखता हो पर प्रश्नकर्ता भारतीय है और हर पान की दुकान पर खड़े से रेल में बैठे आम भारतीय की तरह उसे राजनीत का ज्ञान तो जरुर ही होगा....हर भारतीय पर इस हेतु विशेष ईश कृपा है और इस ज्ञान का होना तो उसके डी एन ए में शामिल है अतः उसी आधार पर वो ’क्या समझे? समझे कि नहीं?’ का जबाब देता है. और कहता है कि.....
३. कभी जब कोई विषय नहीं सूझता है
तब ऐसे में खुद ही एक विषय बनकर..
खुद अपनी तलाश में निकल जाता हूँ मैं ..
मानो खुद को ही आईना दिखलाता हूँ मैं...
3 रवि रतलामी
Ravishankar Shrivastava उर्फ़ रविरतलामी ने अपनी शुरुआत काजल कुमार Kajal Kumar के बनाये कार्टून से की। कहानी सुनाते हुये बताया कि व्यंग्य कैसे शुरु हुआ होगा। उनका पूरा लेख यहां बांचिये (http://raviratlami.blogspot.in/2016/11/blog-post.html ) रवि जी के लेख के मुख्य अंश:
१. किसी ने कहा – व्यंग्य दिल से निकलता है. लगता है यहाँ दिल वाले नहीं रह गए हैं.
किसी ने कहा – व्यंग्य के लिए दुःख जरूरी है, वर्ग-संघर्ष जरूरी है, असमानता आवश्यक है. यहाँ, इस देश में तो चहुँओर खुशियाली है, कहीं कोई दुःख-तकलीफ़ नहीं है, फिर व्यंग्य कहाँ से आएगा?
एक ने कहा – व्यंग्य न रहने से साहित्य सूना हो गया है. हम सबको प्रयास कर कहीं न कहीं से व्यंग्य लाना ही होगा. किराए पर ही सही. नकली ही सही. बाई हुक आर क्रुक. व्यंग्य हमें चाहिए ही!
२. उनमें से एक साहित्यकार, जो अपनी उलटबांसी के लिए जाना जाता था, चुपचाप लोगों की बातें सुन रहा था. लोगों ने एक स्वर में उससे पूछा – तुम चुप क्यों हो? तुम भी तो कुछ कहो?
उसने प्रतिप्रश्न किया – क्या हमारे देश में चुनाव होते हैं? क्या हमारी इस साहित्यिक समिति में कभी चुनाव हुए हैं?
सबने आश्चर्य से मुंह बिचकाते हुए, उपहास से कहा – ये कैसा अजीब प्रश्न है? यहाँ तो राम-राज्य है. यहाँ चुनाव का क्या काम? चुनाव जैसी व्यवस्था का यहाँ क्या काम?
वही तो! इसीलिए व्यंग्य नहीं है – उसने एक व्यंग्यात्मक मुस्कान फेंकी - और कहा – तो, चलिए आज हम अपनी इस साहित्यिक समिति में एक चुनाव कर लेते हैं.
३. सुनते हैं कि जल्द ही उस देश में आम-चुनाव भी होने लगे. तब से उस देश में व्यंग्य के लिए विषयों की कोई कमी कभी नहीं रही. हर लेखक, हर साहित्यकार अंततः व्यंग्यकार हो गया था. लोग कहानी, कविता, संस्मरण यहाँ तक कि अपने इनकमटैक्स रिटर्न में भी व्यंग्य मार देते थे!
4 अरविंद तिवारी
अरविंद तिवारी Arvind Tiwari जी ने सबसे बाद में लिखा और शानदार लिखा। सहज अंदाज में खेलते हुये लिखते गये। व्यंग्य के भीतर व्यंग्य खोजते/बताते हुये उन्होंने व्यंग्यबंदी की। उनका पूरा लेख उनकी वाल पर दिनांक 06 नवंबर, 2016 की पोस्ट पर बांच सकते हैं। उनके लेख के मुख्य अंश।
१. व्यंग्य के विषयों पर व्यंग्य लिखना उस बैटिंग के समान है जिसमें बॉलर और विकेट कीपर के आलावा कोई फील्डर नहीं है।जिस दिशा में चाहो उस दिशा में गेंद को पीटो।इधर जब से व्यंग्यकारों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है व्यंग्य में विषयों का टोटा पड़ गया है।
२. हम एक ही विषय अनेक व्यंग्य लिख मारते हैं यानी व्यंग्य के भीतर व्यंग्य वाला मामला।जैसे सत्यंनारायण पटेल का उपन्यास गावँ के भीतर गावँ या फिर मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुड़िया भीतर गुड़िया।सूखा बाढ़ स्याही जूता आत्महत्या पाकिस्तान का तनाव आदि सनातन विषय हैं।इनपर हम हमेशा रेडीमेड व्यंग्य रखते हैं डिब्बे में पैक करके।दो चार शव्दों को घटा जोड़कर पेल देते हैं अख़बार में।थोडा संशोधन बहुत जरूरी होता है।आजादी के 50 साल बाद लिखे गए व्यंग्य में 50 की जगह 70 कर दो नया हो जायेगा।
३.सियासी दल जिस तरह मुद्दों की तलाश में रहते हैं उसी तरह व्यंग्यकार नए विषयों की तलाश में रहता है।मैं भी भटकते हुए एक कवि से टकरा गया।मैंने कहा यार व्यंग्य का नया विषय सुझाओ।उसने तीन बार विषय विषय विषय कहा फिर बोला आप विषय वासना पर लिख मारो।मैंने कहा कहानी उपन्यास आत्मकथाओं में इस पर पर्याप्त लिखा जा चुका है।व्यंग्य में साले ससुरे या माँ बहिन तो की जा सकती है पर कामसूत्र नहीं आ सकता।मुझे कवि ने विषय दे दिया।अब मैं कवि पर व्यंग्य लिख रहा हूँ।
और मौका था और दस्तूर भी तो अपन ने भी हाथ साफ़ किया व्यंग्य का विषय तलाशने के बहाने। ध्यान खींचने के लिये अटपटा शीर्षक रखा -’ व्यंग्य का विषय उर्फ़ बुलेट ट्रेन के युग में लबढब व्यंग्य लेखन’ पूरा लेख तो आप इधर बांचिये आकर (https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209581920238311) बकिया मुख्य अंश आपको पढा देते हैं:
5 अनूप शुक्ल
१. अपने देश में विसंगति का मतलब है बिना गढ्ढे की कोई सार्वजनिक सड़क होना। बिना लिये दिये आपना ड्राइविंग लाइसेंस बनना। बिना जाम का कोई शहर होना। बिना प्रदूषण की दिल्ली होना। बिना उकसावे के किसी देशभक्त का बयान होना। बिना राजनैतिक पहुंच वाले किसी शरीफ़ और विद्वान व्यक्ति का किसी विश्वविद्यालय का कुलपति होना।
२. हमसे एक पाठक ने पूछा – “भाईसाहब आप अपने हर अटपटे लेखन को व्यंग्य क्यों कहते हैं? अपने बेवकूफ़ी के लेखन को जिसे आप व्यंग्य लेखन कहते हैं को अगर परिभाषित करने को कहा जाये तो कैसे करेंगे?”
मन तो किया कि पाठक को जबाब देते हुये रोने लगें। अपनी व्यंग्य साधना का इतना मार्मिक वर्णन करें कि वह दहल जाये। इत्ता रोयें कि देखकर उसके मन में मेरे प्रति करुणा पैदा हो जाये जिसको इकट्ठा करके दो-चार व्यंग्य लेख निकाल लें हम। बाकी चलते समय उसी को ’सप्रेम भेंट’ कर दें।
३. कभी-कभी मन में विसंगतियों पर इत्ता गुस्सा आता है कि मन करता है एकदम सर्जिकल स्ट्राइक कर दें उनके खिलाफ़। ऐसे में जित्ती भी विसंगतियां सामने दिखती हैं उन सबको एक सिरे से गरिया देते हैं। कुछ इस तरह जैसे हर बड़ा लेखक अपने अलावा बाकी सारे लेखन को ’लगभग कूड़ा’ बताते हुये अपना बड़प्पन सुरक्षित रखता है। कभी-कभी तो इत्ता जोर से हड़काते हैं विसंगतियों को कि बेचारी सहमकर रोने लगती हैं। कभी-कभी मन करता है कि व्यंग्य में सपाटबयानी व्यंग्य सम्प्रदाय, सरोकारी व्यंग्य सम्प्रदाय, गाली युक्त व्यंग्य सम्प्रदाय के साथ एक ’वीरगाथा व्यंग्य सम्प्रदाय’ का चलन भी होना चाहिये।
तो ये तो हुई व्यंग्य की सातवीं जुगलबंदी की रिपोर्टिंग। बताइये कैसी लगी? आठवीं जुगलबंदी के लिये कीजिये इत्तवार का इंतजार, तब तक के लिये नमस्कार।
टिप्पणियाँ -
Ravishankar Shrivastava मजाक जारी रखिए, सत्तरवीं भी हो, और सात-सौवीं भी. :)
Arvind Tiwari Majak karna aur shalinta se karna hansi tatha nhin hai.bhrhal jo jis tarh pribhashit kare uske perception par nirbhar hai.
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संतोष त्रिवेदी व्यंग्य के लिए विषय खोजना दिहाड़ी लेखन कर्म है।व्यंग्य हम तभी लिख पाते हैं जब किसी बात या विसंगति से आघात,क्षोभ,करुणा उपजती हो।टॉर्च लेकर ढूँढ़े गए विषय पर हम रेसिपी तैयार कर सकते हैं,स्वाभाविक भोजन नहीं।
अनूप शुक्ल बहुत ऊँची बात कह दी सिरीमान जी ने। इसको स्टेटस बनाया जाए।
यह साप्ताहिक लेखन कर्म नुमा बात ही है।क्या पता रेसिपी तैयार करते-करते ही स्वाभाविक भोजन बनाना भी सीख जाएँ। :)
Kajal Kumar न न. रचनाकर्म एक सनक है.
Nirmal Gupta रचनात्मकता की अपनी हनक होती है Kajal Kumar
Udan Tashtari बढ़िया रिपोर्ट :)
अनूप शुक्ल बहुत बढ़िया लिखना चाहिए। :)
समझ गए न ?क्या समझे?
शिव कुमार शर्मा बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण ।बिषय " व्यंग " को परिभाषिति करने अर्थ को व्याख्याति करने के लिये प्रसिद्ध वर्तमान ब्यंग लेखको का सउदाहरण बिषय
को अर्थ देने का सुन्दर प्रयास ।यह सब व्यंग को गहराई से समझने में बहुत ती सहायक होगा ।आप को सबको इकट्ठा कर एक जगह प्रस्तुतीकरण हेतु धन्यवाद ।प्रयास हेतु साधु...और देखें
Vimlesh Chandra आप लोगों ने कहा है कि यह सब व्यंग्य है तो व्यंग्य ही होगा।
Arvind Tiwari Agar akhbar mein chpne vala Vyngy schmuch Vyngy hota hai to shayad yh nhin hai.
Kiran Mishra बहुत बढिया रिपोर्ट
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