आज के समय में अनुवाद डॉ . रामवृक्ष सिंह पता नहीं , किस झख में अंग्रेज दरबारी , विदूषक और कवि सर डॉन डरहम (1615-1669) ने कह दिया कि "...
आज के समय में अनुवाद
डॉ. रामवृक्ष सिंह
पता नहीं, किस झख में अंग्रेज दरबारी, विदूषक और कवि सर डॉन डरहम (1615-1669) ने कह दिया कि "SUCH is our Pride, our Folly, or our Fate, That few, but such as cannot write, Translate. और इस मिथ्या कुधारणा को हिन्दी के रचनाधर्मिता-विरोधी अनुवाद-कर्मियों ने पूरे प्राण-पण से अपना लिया है। आज कार्यालयीन हिन्दी पर यह तुहमत लगाकर लानत भेजी जाती है कि वह बिलकुल अलग तरह की हिन्दी है, और उसका भी अनुवाद करने की ज़रूरत है। हिन्दी की यह लानत-मलानत केवल इसलिए कि अनुवादकों की एक बहुत बड़ी जमात ऐसी है जो स्वतंत्र लेखन में बिलकुल नाकारा और निकम्मी है। ऐसे लोग अनुवाद के बजाय कुछ और काम करते तो अच्छा रहा होता। इन लोगों ने हिन्दी का बेड़ा ग़र्क कर दिया।
आज के समय में अनुवाद की अपेक्षाएं बदल गई हैं। संकल्पनाओं और उनकी अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त भाषिक उपादानों ने तो अनुवाद के स्वरूप और उसकी अपेक्षाओं को बदला ही है, साथ ही, अनुवाद के लिए प्रयुक्त प्रौद्योगिकी ने भी उसे काफी हद तक प्रभावित और रुपान्तरित किया है।
कंप्यूटर के सभी अनुप्रयोगों का सम्यक् ज्ञान आज के अनुवादक की पहली पूर्वापेक्षा हो गई है। यहाँ केवल टंकण के अभ्यास से काम नहीं चलनेवाला। टंकण का अभ्यास कंप्यूटर संचालन की आत्मा है। यदि आपको टाइपिंग नहीं आती, और वह भी यूनीकोड-आधारित इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग, तो आप आज के ज़माने में अधिक मात्रा में अच्छा अनुवाद कर पाएँगे, इसमें संदेह का पर्याप्त कारण है। हाथ से लिखकर अनुवाद करने का ज़माना तो लगभग एक दशक पहले ही बीत गया, इसलिए उसकी बात करना ही व्यर्थ है।
कंप्यूटर के कई अनुप्रयोग हैं, किन्तु अनुवाद में सबसे अधिक प्रयोग में आनेवाला अनुप्रयोग वर्ड प्रोसेसिंग ही है। वर्ड प्रोसेसिंग अधिकतर एमएस-वर्ड में होता है, किन्तु वह उसी तक सीमित नहीं है। इस ज्ञान का उपयोग एक्सेल, पेंट, फोटोशॉप, आदि विविध विधाओं में होता है। एमएस वर्ड में भी चित्र बनाने, आकृतियाँ अंकित करने के विकल्प उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन में भी वर्ड प्रोसेसिंग का बुनियादी ज्ञान काम आता है।
कई बार हमें अनूद्य सामग्री इन विभिन्न अनुप्रयोगों में मिलती है। अच्छा और कुशल अनुवादक तो वही कहलाएगा जो मूल सामग्री का कथ्य ही नहीं, उसकी समूची विधा को लक्ष्य भाषा में उल्था कर सके। इसके लिए ज़रूरी है कि वह स्रोत सामग्री की पूरी फाइल को ही कॉपी या सेव ऐज करके लक्ष्य भाषा की एक नई फाइल खोले और उसमें जहाँ कहीं ज़रूरी हो, वहाँ अनुवाद करता जाए। यह काम सुनने में जितना सरल लगता है, वास्तव में उतना सरल है नहीं। अंग्रेजी-हिन्दी के मामले में तो ऐसा कतई नहीं है। अमूमन अंग्रेजी सामग्री कम जगह घेरती है, क्योंकि उसमें ऊपर-नीचे मात्राएं नहीं लगतीं, इसके बरक्स हिन्दी या देवनागरी में टंकित सामग्री के लिए अधिक स्थान की आवश्यकता होती है। जब हम कोई चित्र कॉपी-पेस्ट करते हैं तो स्थान की ही कमी सबसे ज्यादा अखरती है। इसलिए अनुवादक को पता होना चाहिए कि फॉण्ट छोटे करके, लाइनों के बीच स्पेस कम करते, कर्निंग करके और साथ ही, विभिन्न प्रोक्तियों में प्रयुक्त अनावश्यक शब्दों को हटाकर अपने कथ्य में कसावट लाकर स्थान की इस कमी की पूर्ति की जा सकती है।
कई बार अनुवाद के लिए ऐसी फाइलें मिलती हैं, जिनमें कॉपी-पेस्ट या सेव ऐज करने से कुछ भी काम नहीं चलता, जैसे पीडीएफ या जेपीजी फाइलें। यदि इन फाइलों का अनुवाद देना है तो अनुवादक को वैसे ही चित्र, आकृतियाँ, चार्ट आदि बनाने का शऊर होना चाहिए, जैसे उसे अनुवाद के लिए प्राप्त हुए हैं। ज़ाहिर है कि यह तभी संभव है जब अनुवादक इन सभी विधाओं में माहिर हो।
आज का अंग्रेजीदाँ हिन्दुस्तानी अंग्रेजी और दुनिया की दीगर भाषाओं से न जाने कौन-कौन से शब्द व अभिव्यक्तियाँ लाकर हमारे सामने पटक देता है। उनका अनुवाद करने के लिए हमारे पास यदि सही-सटीक शब्द हैं तब तो ठीक, और यदि नहीं हैं तो? तब हमें इतना सक्षम होना पड़ेगा कि हम नए शब्द बनाएँ। ये नये शब्द या तो सर्वथा नये होंगे या संस्कृत की धातुओं, उपसर्गों, प्रत्ययों के मेल से बने होंगे। ये शब्द हमारी खुद की मातृभाषाओं, भारतीय बोलियों से भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए बच्चों की नाक से या जुकाम होने पर वयस्कों की नाक से बहने वाले द्रव को आप हिन्दी में क्या कहेंगे? भोजपुरी में इसके लिए नेका या नेटा शब्द प्रयोग होता है, जो बहुत-ही व्यंजक है। हिन्दी में तो उसे रेंट कहते हैं, जो वर्तनी के मानकीकरणकर्ताओं की मेहरबानी से रेन्ट भी पढ़ा जा सकता है, जिसका अर्थ किराया होगा, मकान-किराया।
पता नहीं, किस झख में अंग्रेज दरबारी, विदूषक और कवि सर डॉन डरहम (1615-1669) ने कह दिया कि "SUCH is our Pride, our Folly, or our Fate, That few, but such as cannot write, Translate. और इस मिथ्या कुधारणा को हिन्दी के रचनाधर्मिता-विरोधी अनुवाद-कर्मियों ने पूरे प्राण-पण से अपना लिया है। आज कार्यालयीन हिन्दी पर यह तुहमत लगाकर लानत भेजी जाती है कि वह बिलकुल अलग तरह की हिन्दी है, और उसका भी अनुवाद करने की ज़रूरत है। हिन्दी की यह लानत-मलानत केवल इसलिए कि अनुवादकों की एक बहुत बड़ी जमात ऐसी है जो स्वतंत्र लेखन में बिलकुल नाकारा और निकम्मी है। ऐसे लोग अनुवाद के बजाय कुछ और काम करते तो अच्छा रहा होता। इन लोगों ने हिन्दी का बेड़ा ग़र्क कर दिया।
सच्चाई तो यह है कि जो व्यक्ति लिख नहीं सकता, वह चाहे दुनिया का कोई भी काम कर ले, किन्तु अनुवाद तो कतई नहीं कर सकता। यदि वह अनुवाद करे भी तो उसका किया हुआ काम अनुवाद नहीं होगा, उसकी विडंबना मात्र होगा। और दुर्भाग्य से कार्यालयीन हिन्दी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे ही अनुवाद के रास्ते प्रविष्ट हुआ है।
वैश्वीकरण के बाद दुनिया की बहुत-सी अवधारणाएं धरती के इस कोने से उस कोने पहुँची हैं। इनमें से अनेक अवधारणाओं से अनुवादक का दूर-दूर तक का कोई परिचय नहीं रहा है। किन्तु इन्टरनेट पर, विकिपीडिया आदि पर उन अवधारणाओं के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ मिल जाता है। इसलिए जब अनुवाद के लिए ऐसी अपरिचित सामग्री हमारे पास आए तो सबसे पहला काम यह नहीं होना चाहिए कि फादर बुल्के की लिखी हुई पचास साल पुरानी डिक्शनरी या वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग के कोश में उसका प्रतिशब्द खोजें। बल्कि सबसे पहले यह ज़रूरी होगा कि उस अवधारणा को गूगल सर्च में डालकर उसके बारे में यथासंभव अधिक से अधिक जानकारी हासिल की जाए। एक बार समझ लेने के बाद हम अपनी भाषा, उप-भाषा, बोलियों और संस्कृत से शब्द लेते हुए, और यदि वहाँ उपलब्धता न हो तो अपनी ओर से शब्द देकर अथवा मूल शब्द को ही उपसर्ग, प्रत्यय लगाकर या हिन्दी की क्रिया के साथ इस्तेमाल करके अनुवाद का काम आगे बढ़ा सकते हैं।
कबीर ने कहा था- ज्ञान क पंथ कृपान क धारा। अनुवाद का सारा कार्य-व्यापार ज्ञान पर आधारित है-कथ्य का ज्ञान, भाषा का ज्ञान, और साथ ही छठी इंद्रिय से अभिगमित वह ज्ञान, जो ईश्वर ने केवल रचयिता को दिया है। अनुवादक चाहे पदक्रम में किसी स्तर पर हो, वह अपने-आप में एक सर्जक है। वह अपनी महाभारत का वेदव्यास है। और इस नाते उसका काम बहुत महत्त्व का है। इस दायित्व-बोध के साथ यदि हम अनुवाद के पेशे में उतरें तो निश्चय ही हमारा काम उस उच्च श्रेणी का होगा, जिसकी ओर किसी दुष्ट अंग्रेजी-दाँ की बुरी दृष्टि कभी नहीं उठ पाएगी। इस दायित्व-बोध के निर्वहन से ही हिन्दी जगत के अनुवादक को वह सम्मान हासिल होगा, जो उसे मिलना चाहिए था, किन्तु सही दावा पेश न होने के कारण जो उसे अभी तक मिल नहीं पाया है।
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