- गजानंद प्रसाद देवांगन दिशाबोध कर्मवीरों को सदा ही संवारा है समय । आलसी को हरक्षण फटकारा है समय । कभी शुरू कभी मध्य कभी किनारा है समय । भ...
- गजानंद प्रसाद देवांगन दिशाबोध
कर्मवीरों को सदा ही
संवारा है समय ।
आलसी को हरक्षण
फटकारा है समय ।
कभी शुरू कभी मध्य
कभी किनारा है समय ।
भूत नहीं भविष्य नहीं
वर्तमान हमारा है समय ।
नदी की निर्बाध चंचल
धारा है समय ।
गजानंद को फिर से
पुकारा है समय ।
अबाधित चंचल निश्छल
सरित धारा है समय ।
कभी लहर कभी तूफान
कभी किनारा है समय ।
भूत भविष्य वर्तमान ये सभी नाम
तुम्हारा है समय ।
निरालस्य कर्मनिष्ठ को तुमने ही
संवारा है समय ।
दीर्घसूत्री निकम्मों को
सजग कर फटकारा है समय ।
गजानंद को नवसृजन के लिए
पुकारा है समय ।
---.
फूल के लिए , शूलों से
कई बार युद्ध लड़ा आदमी ।
शांति का आह्वान करता
बारूद पर खड़ा आदमी ।
नभस्पर्शी महत्वाकांक्षा लिये
आदमीयत से बड़ा आदमी ।
पवित्रता को निरर्थक कहता
नाली से अधिक सड़ा आदमी ।
शास्त्र का अर्थ , शस्त्रों से
युग को समझा रहे ।
दोस्ती को दुश्मनी के
फंदे में उलझा रहे ।
अमरता का स्वप्न देख रहा
शूली पर चढ़ा आदमी ।
शांति का आह्वान करता
बारूद पर खड़ा आदमी ।
विश्व बंधुत्व का नारा
यूं ही लगा रहा ।
राष्ट्रहित की बातें नहीं ,
कहता - मानवता जगा रहा ।
भाईचारा को झुठलाता
बेहद अड़ा आदमी ।
खोया पन्ना इतिहास का
कलम से ढूंढ रहा आदमी ।
---.
पहले अपने सिर को
हाथ धर आइये ।
माता के चरणों में
सादर चढ़ाइये ।
बलिदानी पथ में
कदम फिर मिलाइये ।
दमखम हों ऐसे
तब जयंतियां मनाइये ।
हर जख्म करबला काशी
श्रेष्ठ तीर्थ कर आइये ।
आंसुओं की गंगा में
डूबकर नहाइये ।
निर्मलता - नमाज
ध्यान - सचाई जानिये ।
ईमान को पूजकर
फिर जयंतियां मनाइये ।
शौर्य के सूर्य को
शीश नित झुकाइये ।
पसीने की अर्ध्य
निष्ठा से चढ़ाइये ।
साधना उपासना
आराधना दुहराइये ।
जय की न अंत हो
ऐसी जयंतियां मनाइये ।
000000000000
देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम'
स्वेद जल में नहाईं सुबह क्वांर की.
करने श्रम-पूजा आई सुबह क्वांर की.
एक भटके हुए अब्र से क्या मिली;
यक-ब-यक रिमझिमाई सुबह क्वांर की.
धान की बालियों की पहन झुमकियाँ;
खेत भर खिलखिलाई सुबह क्वांर की.
रू-ब-रू धूप के आईने के खड़ी;
सहमी,सकुची,लजाई सुबह क्वांर की.
भूख से जब मरा मेहनतकश कोई;
रास 'महरूम'न आई सुबह क्वांर की.
########## प्रेषक- देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम';
1315,साईं पुरम कालोनी, रोशननगर,खिरहनी;साइंस कालेज डाकघर,
कटनी.म.प्र.483501;17/09/2016;11.15 p.m.
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सूर्यकुमार पांडेय
हास्य कविता -"एकतरफ़ा प्यार"
इक चाँदनी-सी लड़की, स्मार्ट दिख रही है
वह दूर देश से ख़त 'इन्बॉक्स' लिख रही है।
उससे नहीं मिला मैं, मुझसे नहीं मिली वह
मैं जानता नहीं हूँ, किस बाग़ की लिली वह।
ख़ुशबू हरेक अक्षर में गीत भर रही है
पर एक ख़त वो कइयों को टैग कर रही है ।
जिस-जिस को ख़त मिला, वह उन सबको अपनी लगती
आकांक्षा मिलन की हर हृदय में सुलगती।
है शशिमुखी, सभी का तम दूर कर रही है
वह चाँदनी सभी के आँगन में भर रही है ।
यह मानता हूँ, चेहरा लाखों में एक उसका
यूँ भाव से है सच्ची, पर चित्र 'फेक'उसका ।
कुछ ग़लत लिख गया तो अब एंड कर ही देगी
यह भी पता है, मुझको 'अनफ़्रेन्ड' कर ही देगी।
इक चाँदनी-सी चाहत से, हाय! डर रहा हूँ
वह 'फेक' है या 'रीयल', मैं प्यार कर रहा हूँ।
oo
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प्रदीप कुमार साह
गुरुत्व - व्यंग्य कविता
जब निष्कपट निज कर्म करो तब बनो स्वभिमानी.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
दो शब्द कहूँ-कुछ भी न कहूँ, खुद हो उत्तम ज्ञानी.
यत्न करो-अपना गुरुत्व पुनः प्राप्त करो, आँख में भर लो पानी.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
ईश्वर ने तुम्हें दी कीर्ति, आशीष मिला कि तू बन ज्ञानी.
कबीर दोहे ने 'सदैव देव के आगे रहना' वह मान भी दिलाया ही.
अंकित किया गुरु-महत्व ग्रन्थों ने, अब छोड़ो नादानी.
पर उलझ गए इस रूप में क्यों, खुद ही को समझ पड़े अति दानी?
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
बच्चे माता से नवजीवन पाते औ पिता से सदैव सुरक्षा.
बहु विधि बहुत सुख बरसे, पर सब तज आते पाने कुछ शिक्षा.
भाई-बंधु का असीमित सहारा, पर क्यों मांगे वह भिक्षा?
कुछ शर्म करो, निष्कपट निज कर्म करो,दो उसको उसकी दीक्षा.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
देव साधक का संशय हरते औ महिमामंडित गुरु का करते,
प्रथम गुरु हैं माता-पिता ही, पर स्वयं ही वह क्यों समझाते-
कि जीवन में कुछ करना है तो, सदैव शिक्षक का सम्मान करो.
शीश झुका कर श्रद्धा से, प्यारे बच्चों नित्य उन्हें प्रणाम करो.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
वह बाल-राधा-गोविन्द है, पर दर तेरे आता है, फैलता है झोली,
कहता-'ज्ञान की कुछ भिक्षा पाकर, सत्य-पथ पर चलना सीखूँ,
ज्ञान दीप की ज्योति जलाकर, जीवन के संघर्षो से लड़ना सीखूँ.
मानवता निज जीवन में भर न्याय हेतु नयी-नवेली मंजिल बना दूँ.'
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
लेकिन तुमने दिये इस जगत को बहुत से प्रपंचों का घात-प्रतिघात.
करते रहे खिलवाड़, कर्तव्यचुत हो उंघते रहे तुम कुर्सी पर बैठकर.
अनजाने ही में तुम रुखसत हुए गुरु पद से शिक्षक मात्र के स्तर तक.
वह तुम्हें देखता रहा और तुम न कुछ ढूंढते रहे नींद में बेसुध होकर.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
नींद खुली तो उस हलधर, भूधर, भावी प्रतिपालक को समझा,
ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और किसी अबोध को तो माना कीड़ा.
यदि बात हो श्रुति-ग्रन्थ की, जब प्रभु रचे रुचिर सृष्टि की रचना,
तब प्रकृति हँसी देख निज नादानी, सुन उपहास उपजे तब ज्ञाना.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
पर उलझ गए इस रूप में क्यों, स्वयं ही क्यों विज्ञानी समझ?
यदि होती है शुरुआत और अंत भी ज्ञान का तुझसे ही अब.
इस धीर-गंभीर प्रकृति की एक अधीर अति कोमल पुष्प का,
ले संभाल न उपहार स्वरूप एक अति-तुच्छ व्यंग्य-बाण तब.
मत बनो इतना अभिमानी, शर्म करो कि-आँख में भर लो पानी.
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गीता वर्मा 'गीत'
मेरे मन का सब अँधेरा, दूर कर जाना प्रिये!
जगमगाते दीप से तुम, ख्वाब में आना प्रिये!
था नहीं संभव कि खिलतेफूल खुशियों के हृदय में!
कब विधाता मानता है,प्रार्थना अनुनय विनय में?
किन्तु सुधियाँ रोक लेंगी, मन का' मुरझाना प्रिये!
जगमगाते दीप से तुम, ख्वाब में आना प्रिये!
काश मन के वाद्य बजते,दोनों' के ही एक लय में!
जीत अपनी देख लेते,प्रीत की ही हर विजय में!
और समझ पाते कि जय है, "हार ही जाना" प्रिये!
जगमगाते दीप से तुम, ख्वाब में आना प्रिये!
स्वप्न की दुनिया में आओ,प्रीत का श्रृंगार कर लें!
और मन की भावना को,साधना साकार कर लें!
ईश औ साधक को एकाकार कर जाना प्रिये!
जगमगाते दीप से तुम ख्वाब में आना प्रिये!
मन के मंदिर में सदा ही,तुम प्रतिष्ठित हो! रहोगे!
और मेरी लेखनी से,तुम निरंतर ही बहोगे!
जब ये' मन अकुलाये' मधुरिम, गीत बन जाना प्रिये!
जगमगाते दीप से तुम, ख्वाब में आना प्रिये!
......गीता वर्मा 'गीत'19.9.16
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अरुण कुमार यादव*
* हिन्दी कविता *
""""""""""""""""""""""""""""""""
_ * एक शिक्षक हूँ * _
*********************
काश अगर मैं नेता होता
बातों से सबका मन भरता
वादों से झोली भरी होती
काम भले कुछ भी न करता ।
काश अगर होता अभिनेता
तरह तरह का अभिनय करता
कारनामे कोई भी करता
फिर भी नाम मेरा ही होता
काश अगर होता मैं डॉक्टर
जीवन में नव प्राण भर देता
मनमानी पैसा कमाकर
ऊँची इमारत खड़ा कर देता
काश अगर इंजीनियर होता
पुल और सड़क हर ओर ही बनता
ओवरब्रीज व बाँध बनाता
सरकारी सोफे पर रहता
काश अगर वैज्ञानिक होता
नई नई नित खोज मैं करता
ऐसे ऐसे कदम उठाता
देश पडोसी सोंच के डरता
काश अगर मैं एक जज होता
निष्पक्ष होकर न्याय दिखाता
पर अन्धा कानून है भैया
ऐसे भला मैं क्या कर सकता
लेकिन मैं एक शिक्षक हूँ
सबका पथ - प्रदर्शक हूँ
ना हिन्दू ना मुसलमान
मैं तो हूँ एक ऐसा इंसान
बढ़ता जिससे देश का मान
जिस पर है सबको अभिमान
जो गुरु है ,खुशियों का बसंत
जो शुरू है ,जो ही है अंत
मैं जीवन का एक प्रशिक्षक हूँ ।
मैं प्रहरी ,मैं ही रक्षक हूँ ।
अरुण, मैं एक शिक्षक हूँ
हाँ, मैं एक शिक्षक हूँ
*अरुण कुमार यादव*
(*शिक्षक*)
_बरसठी जौनपुर उ0प्र0_
Mob..9598444853
**********************
।। हिन्दी
""""""""""""""""""""""""""""""""
**ओ हिन्दी है,ओ हिन्दी है**
""""""""""""""""""""""""""""""""
आज के परिवेश में
हर देश में हर वेश में
हम सब की जो शान है
भारत की जो पहचान है
हिन्द के माथे की ऐसी जो बिन्दी है ।
ओ हिन्दी है ,ओ हिन्दी है
भारतीय हृदय में प्रवाहित जो
मन्दिर घंटो से झंकृत है जो
मस्जिद का समझो अजान
गुरुद्वारों की जो शबद बान
है मार्ग दर्शक भाषा यह
राहे बोली जो गन्दी है ।
ओ हिन्दी है ,ओ हिन्दी है
स्पंदन जन संचार का
है बंधन अपनों के प्यार का
हिंदी का और प्रसार करो
उन रंगो से आकार भरो
जो भाषाओं की सन्धि है ।
ओ हिन्दी है ,ओ हिन्दी है
गाँव की अमराई में हिन्दी
लोकगीतों व् सुरों शहनाई में हिन्दी
हर तान में बसती है हिन्दी
हर लय की अंगड़ाई रचती जो हिन्दी है ।
ओ हिन्दी है, ओ हिन्दी है
नव साक्षरों के लिए सहारा है ।
जिसने जीवन को संवारा है।
लगती सुबह बंदगी सी
संस्कारों की ऐसी जो जुगलबन्दी है ।
ओ हिन्दी है, ओ हिन्दी है
~~~~~~~~~~~~~
अरुण कुमार यादव
बरसठी ,जौनपुर ।
9598444853
~~~~~~~~~~~~~
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आशीष "इंडियन"
" गलतफहमियां "
जो गलतफहमियां,
हमारे मध्य,
उनको कोई और जनता है, क्या ?
नहीं, ना,
जो हुआ,
हमारे दरम्यां,
उसका किसी और को एहसास है, क्या ?
नहीं, ना,
कुछ, तुमको पता,
कुछ, मुझको,
आपस में एक दुसरे को पता, क्या ?
नहीँ, ना,
तुम दोगे नहीं,
मेरे जवाब, मैं तुम्हारे,
फिर कोई और मदद करेगा, क्या ?
नहीँ, ना,
तुम मेरे, मैं तुम्हारे,
संदेशों को नजरअंदाज करूँगा,
तो कोई और आगे आएगा, क्या ?
नहीं, ना,
दुश्मन तो बन ना पाये,
दोस्त भी नहीं ,
अजनबी बन पायेंगें, क्या ?
नहीं, ना,
जिन्दगी कुछ गुजर गयी,
कुछ बाकी,
जिन्दगी दुबारा मिलेगी, क्या ?
नहीं, ना,
जो शिकवा शिकायत,
हमारे बीच,
इस जन्म के बाद सुलझा पाएंगे क्या ?
नहीँ, ना,
..............................................................
आशीष "इंडियन"
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अनिल कुमार सोनी
जिंदगी
आलू प्याज जिमिकंद
कठहल जैसी
नाप तोल कर बनाओगे
तो बनेगी स्वाद जैसी
रसीली सूखी भुरता
तेल में तैरती लालमिर्ची
फर्क
पड़ेगा भोजन में
नहीं
डालें गर्म मसला
होगी तड़केदार
महकती
हुई तुम्हारी जिंदगी
बनाओ
सभी अपनी
अच्छी अच्छी जिंदगी
अनिल कुमार सोनी
anilsoni616561@gmail
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प्रिया देवांगन "प्रियू"
मिल गई है खुशियाँ सारे,
है संसार की रीति प्यारे ।
इस जिंदगी का क्या है ठिकाना
मनाओ मिलकर खुशियाँ सारे ।
तीज त्योहार में नाचो गाओ
मिलकर सब खुशियाँ मनाओ।
इस जिंदगी का क्या है ठिकाना
सब मिलकर मौज उड़ाओ ।।
---.
आओ खुशियाँ मनाये
*********************
आओ हम सब मिलकर खुशियाँ मनाये ,
अपने घर को महफिल से सजाये ।
आपस में बैठकर दो चार बातें करे,
और इस घर को खुशियों से भर दे।
जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है ,
कब कौन कहां जायगा पता नहीं है ।
इस पल को हम अच्छे से जी लें,
और अपनी जिंदगी खुशियों से भर ले।
वक्त बहुत कम है हमारे पास ,
जिंदगी तो यूँ ही गुजर जायेगी ।
सारे खुशियों को अपने झोली में भर लो,
गम को भुलाने में वापस गम नहीं आयेगी ।
खुशियों को देखकर गम छू भी नहीं पायेगी,
इस संसार में ऐसी खुशियाँ भर दो,
की चाहकर भी गम तुम्हारे पास नहीं आयेगी ।
********************
रचना
प्रिया देवांगन "प्रियू"
पंडरिया
जिला -- कबीरधाम ( छ ग )
Email -- priyadewangan1997@gmail.com
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
मेरा गाँव
************
शहरों की अब हवा लग गई
कहां खो गया मेरा गाँव ।
दौड़ धूप की जिंदगी हो गई
चैन कहां अब मेरा गाँव ।
पढ़ लिखकर होशियार हो गये
निरक्षर नहीं है मेरा गाँव ।
गली गली में नेता हो गए
पार्टी बन गया है मेरा गाँव ।
भूल रहे सब रिश्ते नाते
संस्कार खो रहे मेरा गाँव ।
अपने काम से काम लगे है
मतलबी हो गया है मेरा गाँव ।
हल बैल अब छूट गया है
ट्रेक्टर आ गया है मेरा गाँव ।
जहाँ जहाँ तक नजरें जाती
मशीन बन गया है मेरा गाँव ।
नहीं लगती चौपाल यहां अब
कट गया है पीपल मेरा गाँव ।
बूढ़े बरगद ठूंठ पड़ा है
कहानी बन गया है मेरा गाँव ।
बिक रहा है खेती हर रोज
महल बन गया है मेरा गाँव ।
झोपड़ी कही दिखाई न देगा
शहर बन गया है मेरा गाँव ।
*********************
रचना
महेन्द्र देवांगन "माटी" (शिक्षक)
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला -- कबीरधाम (छ ग )
पिन - 491559
मो नं -- 9993243141
Email - mahendradewanganmati@gmail.com
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कृष्ण ओझा
⊙⊙⊙ किस्मत और हुनर® ⊙⊙⊙
··········································
एक हुनर थी, एक थी किस्मत,
किस्मत बड़ी, हुनर छोटी थी,
हुनर सड़क पर करे तमाशा
किस्मत महलों में सोती थी॥
पेट और रोटी के खातिर
हुनर नये आयाम दिखाती,
सुख-शोहरत-सिँघासन पाकर,
किस्मत 'किस्मत' पर इठलाती॥
हार ना मानी कभी हुनर ने
गली-गली मशहूर हो गयी,
महल-अटारी-गाड़ी पाकर
किस्मत मद में चूर हो गयी,
फ़िर क्या ऐसी हवा चल गयी,
हुनर में ताक़त थी सम्भल गयी,
हुनर को अपनी राह मिल गयी,
किस्मत पल भर में बदल गयी॥
जैसे ही ये किस्मत बदली,
सारे भौतिक साधन खो गये,
अब तक जो सब किस्मत का था,
हुनर के वो सब साथी हो गये॥
..............................................
"कि मेरी बात समझ आये
ये सब के बस कि बात नहीं...
जो 'हुनर' से आगे बढ़ जाये
'किस्मत' में वो औकात नहीं"
- ©Krishna ojha
Name-Krishna ojha
Address-pratapgarh, Uttar Pradesh
Contact-8601513360
Website-www.krishnaojhablog.wordpress.com
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सीताराम साहू
मैं तुम्हारी राह में संग संग जीना चाहता हूँ ।
विष पियूं अमृत पियूं संग संग पीना चाहता हूं ।
जानता हूं जिन्दगी में साथ मिल पाना कठिन है,
भूल पर जाऊं तुम्हें यह भी तो हो पाना कठिन है,
पर मिलन की आस कैसे छोड दूं तुम ही बताओ ,
तेरे बिन जीवन रहेगा यह समझ पाना कठिन है ।
क्यों निरन्तर ही तुम्हीं से नेह आकर्षण बढ़ा है,
हर कदम पर सामने आ क्यों तेरा चेहरा खड़ा है,
फासला फिर भी है कितना मानता यह दिल न मेरा
तू निकट पल में मिलेगा ऐसी आशा में अड़ा है ।
जिन्दगी है सेज कांटों से भरी मैं जानता हूं
एक दिन मिल जायेगा तू मुझको ऐसा मानता हूं ,
मंजिले उनको मिली है राह पे अटके बढे जो
तू मेरा जन्मो का साथी है मैं ऐसा जानता हूं ।
आत्मा का आवरण भी साफ होना चाहिए,
चल रहे जिस रास्ते पर साफ होना चाहिए,
चाहता है शान्ति से जीना अगर इक मंत्र यह है,
अन्तर्मन से दुश्मनों को माफ होना चाहिए ।
सीताराम साहू 9755492466
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अमित कुमार
देश की राजनीति करने वालो, होश में आओ।
कोई इन साहब को शर्म का आईना दिखाओ।
हजारों सितम के बाद तो आज दहाड लगाया है
असहिष्णुता कहने वालों, हमें भी कुछ समझाओ।
ये कोई घोटाला और चुनावी मुद्दा नहीं है
धरती माँ ओ तिरंगे की शान, खाक में न मिलाओ।
हम बेहिचक तुम्हारे हर बात का जबाब देगे
हमपे हुए जुल्म का, दुश्मनों से करार करवाओ।
हो सके तुमसे तो तुम भी शेर सा गरज उठो
नहीं तो तमाशा देखों, दुश्मनी के बीच न आओ।
है ये प्रताप, शिवाजी, भगत, गांधी की वीर धरती
इनको समझो, केवल इनकी मूर्तियां न लगाओ।
हमसे हमारी वीरता का सबूत मांगने वालो
दुश्मनों की हलचल, झुकी आंख देखकर आओ।
Amit kumar
New jalpaiguri
WB
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डाक्टर चंद जैन "अंकुर "
मेरी माँ
मेरी चेतना है माँ तेरे गुरुत्व का दिया हुआ
गुरुत्व का दिया हुआ प्रभुत्व का दिया हुआ
विश्व देह भीड़ में था देहमान ढूढता
देहमान ढूढता विदेह मान ढूढता
मेरी चेतना है माँ तेरे गुरुत्व का दिया हुआ
गुरुत्व का दिया हुआ प्रभुत्व का दिया हुआ
देखता है कौन ? मै या तू मेरे लिये
ढूढ़ता है कौन? मै या तू मेरे लिये
सोचता है कौन? मै या तू मेरे लिये
मैय्या तू मेरे लिये मैय्या तू मेरे लिये
मेरी चेतना है माँ तेरे गुरुत्व का दिया हुआ
गुरुत्व का दिया हुआ प्रभुत्व का दिया हुआ
मेरे नन्हे नन्हे पैर क्या इतना विशाल हो गया
मेरे छोटे छोटे नैन क्या दृष्टिवान हो गया
मानव महान हो गया या बुद्धिमान हो गया
मै नहीं ये मानता चाहे कोई मान ले
मेरी चेतना है माँ तेरे गुरुत्व का दिया हुआ
गुरुत्व का दिया हुआ प्रभुत्व का दिया हुआ
माता पिता के कामना से देह एक पा गये
जो दिया है जिन्दगी ने दान है गुरुत्व का
जो भी मिला है जिन्दगी में मान है गुरुत्व का
देहवृक्ष चेतना शिवत्व का दिया हुआ
मेरी चेतना है माँ तेरे गुरुत्व का दिया हुआ
गुरुत्व का दिया हुआ प्रभुत्व का दिया हुआ
डाक्टर चंद जैन "अंकुर "
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सूर्यकुमार पांडेय
मैं बलूचिस्तान हूँ!!
॰ सूर्यकुमार पांडेय
चोट खाए हुए पक्षी की तरह हारा हुआ
तड़पता हूँ इन दिनों मैं वक़्त का मारा हुआ
अपना मेरा सगा ही अब मेरा हत्यारा हुआ
छोटी मछली-सा बड़ी मछली का मैं चारा हुआ
चाहता अब, मैं स्वयं के वास्ते सम्मान।
मैं बलूचिस्तान हूँ, हाँ, मैं बलूचिस्तान!
प्राकृतिक संसाधनों से पूर्ण है मेरी धरा
कल तलक जीता रहा मैं एक शुभ्र परंपरा
क्षेत्र मेरा गैस, ताम्बा, तेल, सोने से भरा
पर ग़रीबी का नज़ारा देख लो आकर ज़रा
बन गया हूँ आज मैं पीड़ा भरा उनवान।
मैं बलूचिस्तान हूँ, हाँ, मैं बलूचिस्तान!
ब्रिटिश शासन की रहीं पाँवों में ज़ंजीरें कभी
उसके हाथों में फँसीं थीं मेरी जागीरें कभी
दूर हो पाईं न मेरी चोट की पीरें कभी
धुँधलेपन से मुक्त हो पाईं न तस्वीरें कभी
लासबेला हूँ, वही खारन, वही मकरान।
मैं बलूचिस्तान हूँ, हाँ, मैं बलूचिस्तान!
पूर्ण हो पाईं भला कब मेरी अपनी ख़्वाहिशें
झेलता हूँ जिन्ना-वायसराय की वो साज़िशें
मुझपे अपनों ने कीं हरदम ज़ुल्म वाली बारिशें
अपने घर में ही कठिन हैं अपनी आज रिहाइशें
ज़ुल्म-उत्पीड़न भरी यह देह लहूलुहान।
मैं बलूचिस्तान हूँ, हाँ, मैं बलूचिस्तान!
अरब सागर के किनारे प्यास भर कर ओक में
पी रहा हूँ दर्द के आँसू, भरा हूँ शोक में
चाहता हूँ निकल आना तिमिर से आलोक में
मुक्त मन से जी सकूँ जिससे कि अपने लोक में
साथियों, बल दो मुझे अपनी मिले पहचान।
मैं बलूचिस्तान हूँ, हाँ, मैं बलूचिस्तान!
रक्तरंजित देह मेरी, हृदय में अवसाद अब
इंक़लाबी हो गया हूँ, कहता ज़िंदाबाद अब
छल-कपट को रहने दूँगा मैं नहीं आबाद अब
चाहता हूँ मुक्ति मैं, मुझको करो आज़ाद अब
मुक्ति का फ़रमान अब, स्वातंत्र्य ही अरमान।
मैं बलूचिस्तान हूँ, हाँ, मैं बलूचिस्तान!
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राम कृष्ण खुराना
प्रणाम
राम कृष्ण खुराना
प्रणाम उन माओं को,
जिन्होंने अपने बेटे दिए – देश की जान समझ कर !
प्रणाम उन बहनों को,
जिन्होंने अपने भाई दिए – देश की आन समझ कर !
प्रणाम उन सुहागनों को,
जिन्होंने अपने सुहाग दिए – देश की शान समझ कर !
प्रणाम उन वीरों को,
जिन्होंने शत्रुओं को चबाया – बनारसी पान समझ कर !
प्रणाम उन शहीदों को,
जिन्होंने अपने प्राण दिए- अपना कर्त्तव्य और सम्मान समझ कर !
राम कृष्ण खुराना
8066, 116 Street,
80 AVE, Delta, CANADA.
000000000000000
-रीझे यादव , छुरा
मेरी आवाज
बीते हुए अतीत की संतान हूं
आने वाले कल की पहचान हू
सुनहरे भविष्य के लिए संघर्ष करता
प्रयत्नशील वर्तमान हूं
मेरे अंदर जोश है
विश्वास है , जिज्ञासा है
एक सुंदर सलोने भविष्य की आशा है
मेरी भावनाओं और इच्छाओं को
एक नया आयाम दो
मेरा पथ प्रशस्त करो
मुझे नई पहचान दो
सर्वत्र विद्यमान भ्रस्टाचार के पंक मे
कहीं डूब न जाऊं मैं
आश्वस्त करो , मार्गदर्शन करो
उलझनों के भंवर जाल से निकाल के
मुझे नई आवाज दो ।
-रीझे यादव , छुरा
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सागर यादव 'जख्मी'
आज पर्व है दीवाली का
हम भी दीप जलायेंगे
अपने घर से अंधियारे को
पल में दूर भगायेंगे
इसी दिवस को श्रीराम जी
वन से घर को आए थे
सभी अयोध्यावासी मिलकर
घर-घर दीप जलाए थे
आज के दिन हम भोले बच्चे
पटाखे खूब छुड़ायेंगे
किसी रोते को हँसी देकर
अपनी खुशी जतायेंगे .
---.
सूरज दादा सूरज दादा
घर से निकलो बाहर आओ
घना कोहरा ऊपर से ये शीत
जल्दी आकर हमें बचाओ
बच्चे , बूढ़े, युवा सभी
देखो थर-थर काँप रहे हैं
तन पर डाले लम्बी चादर
अलाव जलाकर ताप रहे हैं
हम नन्हे-मुन्ने बच्चे भी
सुबह देर से उठते हैं
कभी - कभी पापा के हाँथों
बड़ी जोर से पिटते हैं
अगर तुम्हें बुखार हुआ है
जाकर कहीं इलाज कराओ
सूरज दादा सूरज दादा
घर से निकलो बाहर आओ
( सागर यादव 'जख्मी'
सम्पर्क - sagar15082001@gmail.com
Mo.9519473238
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ठाकुर दास 'सिद्ध'
-: चमन की सैर पर :-
चमन की सैर पर सरकार निकले हैं।
चमन के आज सारे ख़ार निकले हैं।
सलामी में सुनाए गीत बुलबुल ने,
सलामी में गुलों के हार निकले हैं।
लगे है रात जैसे दोपहर दिन की,
लगे है चाँद जैसे चार निकले हैं।
सुलगते जंगलों की बात जो छेड़ी,
सुलगते आँख से अंगार निकले हैं।
कभी छाती फुलाकर देखते हम को,
कभी देखो लगे लाचार निकले हैं।
चलाते गैर तो इतने नहीं चुभते,
चलाते तीर अपने यार निकले हैं।
सुना था 'सिद्ध' उनकी है हवा लेकिन,
सुना तूफ़ान के आसार निकले हैं।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
सिद्धालय, 672/41,सुभाष नगर,
दुर्ग-491001,(छत्तीसगढ़)
भारत
मो-919406375695
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तेजू जांगिड़
एक बार भ्रमण करते-करते एक विचार आया,
कि लिखें कैसे एक कविता ?
एक बार तो लगा यह नहीं हो पाएगा,
सोचा फिर कि प्रयास करके तो देखूं ।
सूना है किसी से कि प्रयासों से होते है सफल ।
फिर क्या था बस..
घर आने के बाद,
ली एक कलम और एक कोरा पन्ना ।
अब एक समस्या आन पड़ी,
कि इस मन में कुछ नहीं आ रहे थे,
कि लिखूँ कैसे एक कविता ?
गहन चिंतन से लिखी एक पंक्ति ।
फिर लगा जैसे कविता बैठी थी,
मेरे अपने मस्तिष्क में,
जो न जाने कब से,
एक कलम के माध्यम से,
कोरे पन्ने पर आना चाहती थी ।
धीरे-धीरे मेरे विचार शब्द बने,
और वे शब्द जुड़कर कविता बाहर आई ।
उस पन्ने पर मेरी पहली कविता लिखी गई।
और फिर लगा जैसे की यह तो,
जैसा यह लगता था उसके विपरीत निकला ।
---.
अचानक ही बादल आए ।
सब की प्रार्थना में यही शब्द थे,
आज तो बस बरसात आ जाए ।
फिर अचानक बिजली कड़की,
कड़ कड़ कड़ कड़ ।
फिर अचानक बादल गरजे,
घड़ घड़ घड़ घड़ ।
बाद में बरसात आई ।
चिड़िया भीगी ठंडे जल में,
गायें ठंडे जल में नहाई ।
फिर अचानक बरखा थम गयी ।
भीगी चिड़िया नभ में उड़ गई ।
प्यासी धरती की प्यास बुझ गई ।
बच्चे चले खेलने को ।
गायें घास चरने को ।
लेखक - तेजू जांगिड़
विद्यार्थी होने के अलावा लेखन और चित्रकारी में विशेष रुचि ।
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अमित भटोरे
"सच की राह पे चलते रहते नित सूरज का ताप लिए
खुद कांधों पर धरे हुए हम औरों का अभिशाप लिए
जीवन-मृत्यु के बंधन हम खुद ही कैसे खोल सकेंगे
सत्य न्याय के निर्णय को हम झूठा कैसे बोल सकेंगे
झूठे वादे झूठी आशा लेकर जीते है संताप लिए
सच की राह पे चलते रहते नित सूरज का ताप लिए
स्वप्न अधूरे पूरे होंगे धैर्य धरेंगे कब तक हम
मृग जैसे ही भटक रहे है कस्तूरी के लिए कदम
आशाओं के गीत गा रहे अब भी हम विलाप लिए
सच की राह पे चलते रहते नित सूरज का ताप लिए"
अमित भटोरे
खरगोन (मध्यप्रदेश)
मो. 90093-11211
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‘भरत त्रिवेदी’
गेंदे की महक
सर्दियाँ हैं...
मेरी पूरी छत पे धूप की एक चादर बिछी हुई है
मैं एक कोने में कुर्सी डाले बैठा हूँ
मेरी नातिन अभी आयी है नीचे से
गेंदे के दो फूल कहीं से तोड़ लाई है
ये गेंदे की महक;
लौटा लायी है मुझे अपने बचपन में
घर के आँगन में मुरब्बे सूखने को रखे हैं माँ ने
डाँट देती है मुझे वो
जब मैं मर्तबान में उंगलियाँ डाल कर मुरब्बों की चाश्नी चख लेता हूँ
एक प्याली में थोड़ी सी चाश्नी लाकर दी है मुझे मेरी माँ ने
मैं आँगन में लगी गेंदे की क्यारियों के पास बैठा खा रहा हूँ
मैं हूँ; माँ है और साथ है गेंदे की महक
बरसात का वो दिन जब मैं उसके साथ स्कूल से भीगते भीगते अपने घर आया
मुझे घर छोड़ कर वो आगे अपनी गली की ओर बढ़ गयी थी
आगे नुक्कड़ पे जाकर उसने पीछे मुड़कर मुझे देखा था
मैं भी उसकी फिरती नज़रों के इंतज़ार में था शायद
उस दिन जब उसे शहर बदलना था
उसी नुक्कड़ पे मैंने उसे गेंदे का एक फूल दिया था
अपनी क्यारियों से तोड़कर
लौटते हुए बस यही एक सवाल था ज़ेहन में
पापा लोगों का ट्रांसफर क्यूँ हो जाता है
यूनिवर्सिटी में एक फंक्शन था
मुझे एक नज़्म पढ़नी थी
पढ़ी मैंने
चलते वक्त वो आयी मिली मुझसे
मुझसे जूनियर थी वो
सुमन था नाम उसका
मिलते रहे हम फिर
वो टीचर बन गई थी और मैं बेरोजगार का तमगा लिए दर दर भटकता था
उस दिन वो मेरी एक किताब लौटाने आयी
उसने बताया कि उसकी शादी कहीं और तय कर दी गई है
मैं उसे भूल जाँऊ
उस रात आँखों में आँसू लिए उस किताब को खोला तो देखा उसमें एक सूखा सा गेंदे का फूल रखा था
महक अभी भी गई नहीं थी उसकी
फिर..
हम नहीं मिले
मेरी बैंक में नौकरी लगने के साल ही मेरी शादी हुई
घर गेंदों से ही सजा था मेरा
वो आयी तो ज़िदंगी से सारे शिकवे साल दर साल मिटते चले गए
मेरी बेटी ने छत पर एक गमले में गेंदे का पौधा लगाया था
उसकी शादी में भी घर गेंदों से ही सजा था
वो विदा होते वक्त बहुत रोयी थी
मैं मर्द था मुझे कम रोना था
मगर..
मैं भी बहुत रोया।
मेरी आँखों से ढलके आँसुओं को अपने नन्हें हाथों से पोंछकर
मेरी नातिन ने गेंदे के वो दो फूल मेरी हथेलियों पर सजा दिए हैं
मैं गेंदों के महक से फिर महक गया हूँ
- ‘भरत त्रिवेदी’
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सुशील शर्मा
आपस की बात
गिरहबान में आओ अपने हम झाँकें।
दोष दूसरों के देखो हम न ताकें।
छींटा कशी करें औरों पर क्यों।
अपने कामों को हम क्यों न खुद आंकें।
फेंके तेरे घर हम पत्थर क्यों ?
अपने घर के सीसे को क्यों न हम ताकें।
एक ही है जब तेरा दर और मेरा दर
क्यों इक दूजे की दीवारों को हम नाकें।
तेरे दुःख और मेरे दुःख संग पलते हैं।
क्यों न इन दर्दों को मिल कर हम फांकें।
तेरे घर की मैं और तू मेरी जाने।
फिर क्यों हम आपस में लंबी हाँकें।
--
हाइकू-44
करवा चौथ
सुशील शर्मा
करवा चौथ
पिया की लंबी उम्र
कठिन व्रत।
चौथ का चाँद
पति पत्नी का रिश्ता
सुखी दाम्पत्य।
मन के मीत
सदा हमारे साथ
जीवन गीत
चंद्र कौमुदी
सुधा रस बरसे
कार्तिक चौथ
चन्द्र बदन
प्रियतम आँगन
फिरे मगन।
मन के कोने
छिपे हैं प्रियतम
चाँद की ओट।
चाँद की पूजा
प्रियतम का मुख
आत्मा का सुख।
चंदा ओ चंदा
पिया की लंबी उम्र
दूजी न आस।
चंद्रकिरण
सजन का वरण
पिया चरण।
--
हाइकू-43
रक्त दान
सुशील शर्मा
रक्त का दान
जीवन को बचाये
जन कल्याण।
खून की बूंदें
जैसे अमृत घट
जीवन दान।
दानों में दान
अकेला रक्तदान
स्वर्ग निशान।
अक्षुण्य दान
दे जीवन को प्राण
रक्त महान।
मानव सेवा
बीमारों को जीवन
रक्त दान से।
शुभ कीजिये
मानवता के हित
रक्त दीजिये।
फर्ज निबाहो
करो प्राण संचार
मुझे खून दो।
जीवन जोत
जले सिर्फ रक्त से
दीया समान।
रक्त का तेल
शरीर रूपी दीया
जगमगाया।
धन्य इंसान
करे जो रक्तदान
बने महान।
खून का रंग
सब धर्मों का एक
करो न फर्क।
मन का पुण्य
ईश्वर का संदेश
रक्त का दान।
यज्ञ है एक
रक्त की दे आहुति
बनो निष्पाप।
चीन से लड़ो लड़ाई
सुशील शर्मा
हिन्दी चीनी भाई भाई।
किसने यह बात चलाई।
धोखा दगा चीन की फितरत।
सीधे कभी लड़े न लड़ाई।
गुरु है चीन पाक है चेला।
दोनों की हो गई है सगाई।
जब देखो तब वीटो करता।
अज़हर मसूद है इसका भाई।
कर दो नेस्तनाबूत चीन को।
इसके सामानों की करो विदाई।
अगर न खरीदेंगे चीनी वस्तु
अर्थ व्यवस्था इसकी चरमराई।
रो रो कर ये पांव लगेगा।
फिर न करेगा पाक की अगुवाई।
कसम तुम्हें है भारतीय बंधू।
आओ लड़े अब चीन से लड़ाई।
दीवाली पर चीनी झालर।
जले न किसी भी घर मेरे भाई।
चीनी सामानों को न कह दो।
कर दो इसकी मूड़ पिटाई।
आओ अब स्वदेशी अपनायें।
हिन्दी चीनी नहीं हैं भाई भाई।
--
पत्नी
१.पत्नी की दृष्टि
अश्रेद्धय व हीन
मृत्यु के तुल्य।
२.त्याग की मूर्ति
मातृत्व का गौरव
पत्नी हमारी।
३.पति से प्रेम
पति परमेश्वर
सब अर्पण।
४.पत्नी का अस्त्र
झरझराते आंसू
पति पस्त।
५.मंत्री समान
कार्य में परामर्श
सही सलाह।
६.धर्म में साथ
अर्थ ,काम व मोक्ष
पति के संग।
७.पति की आज्ञा
रखती सर्वोपरि
परम धर्म।
८.पति कैसा भी
मानती है अपना
पत्नी है सती।
९.पत्नी है रत्न
साधना की है निधि
पूजा की विधि।
१०.पति सर्वस्य
प्रियतम अवश्य
शतं नमस्य।
११.मान सम्मान
पत्नी का अधिकार
सात वचन।
१२.सुयोग्य पत्नी
पति के सुख दुःख
सब अपने।
१३.बिगड़ा पति
बदल दे स्वभाव
गृह की लक्ष्मी।
१४.पति कारक
पत्नी के सुख दुःख
पूर्ण धारक।
१५.पति की छाया
अर्द्धांगी है नारी
सबसे प्यारी।
१६.साथ न छोड़े
हर सुख दुःख में
मुँह न मोड़े।
१७.पत्नी है पत्र
सब कुछ लिखा है
बाँच लो मित्र।
---
1.बहुत शोर है।
सुशील शर्मा
बहुत शोर है
तेरी रचना मेरी रचना
तेरा सम्मान मेरा पुरस्कार
तेरी किताबें मेरे लेख
तेरी गज़लें मेरी कवितायेँ
वाह वाह हाय हाय
फेसबुक व्हाट्स एप्प
इन्टरनेट ट्विटर ।
बहुत शोर है।
अन्तर्मन बहुत अशांत
कलह मची है।
आज मेरी रचना को
किसी ने नहीं सराहा।
आज किसी ने मेरी
रचना पर ध्यान नहीं दिया।
आज मुझे ग्रीन कार्ड नहीं मिले।
आज मुझे ये सम्मान मिला।
आज मुझे ये पुरस्कार मिला।
इधर रचना भेजी उधर किताब छपी।
हाय सम्मान हाय सम्मान
रचनाधर्मिता एक कोने में
पड़ी सिसक रही है।
जब भी वह खिड़की से झांकती है।
सम्मान पुरस्कार किताबें चीखती हैं।
2.रचना का बाजार
तेरी रचना मेरी रचना से सफ़ेद कैसे?
घडी,निरमा, सर्फ़ लगा कर
नहा धुला कर रचना खरीददारों
कद्रदानों के बाजार में खड़ी है।
रचना को बिकवाने के लिए
कुछ अपनेवाले रिश्तेदार टाइप के कद्रदान
जम कर वाह वाही करते है।
खरीददार कद्रदान शोर के हिसाब से रचना की बोली लगाते है।
और रचना बिक जाती है
सिसकती हुई।
फिर लाइन लगती है।
सम्मानों के लिए।
राजनेताओं के जूतों पर झुके सिर
पूरा जुगाड़, पैसे ,असर ,पावर सब झोंक दिया जाता है।
और फिर एक तमगा टंक जाता है।
सीने में और रचनाकार तैयार हो जाता है
अपनी रचना को बेचने के लिए।
3.मेरी रचना
अरे भाई देख लो मेरी रचना को
एक बार वाह वाह कर दो
क्या कहा नहीं आई पसंद
क्योंकि वो काली है कलूटी है।
या मेरे पास नहीं है सजावट का सामान क्रीम पाउडर ।
मेरी नजर में तो वह सुन्दर और सुरीली है।
मेरे अपने खून से निकली बून्द सी।
भले ही तुम पसंद न करो
लेकिन दुत्कारो मत उसे।
उसमें भले ही सजावट नहीं है।
पर दिखावट भी नहीं है।
उसमें शब्दों के अलंकार नहीं है।
पर उसमें मेरे ह्रदय के उद्गार हैं।
वह जैसी भी है मेरी अपनी कृति है।
मेरी आत्मा का एक टुकड़ा है।
---
माँ
सुशील शर्मा
माँ तो बस माँ होती है
तुम रोते हो तो रोती है
तुम हँसते हो तो हँसती है।
माँ तो बस माँ होती है।
संतान की वह रक्षक होती है।
बच्चों की पहली शिक्षक होती है।
अपने जीवन को खोकर भी वह
औलादों के आंसू पीती है।
माँ तो बस माँ होती है।
जब भी देर से लौटा घर को
तकती रहती है वो दर को।
प्यार भरी नजरों से तक कर
फिर वो थक कर सो जाती है।
माँ तो बस माँ होती है।
समझदार होकर भी कच्चा हूँ
मैं तो बस माँ का बच्चा हूँ।
जब भी दुखों ने मुझको घेरा
माँ ने सिर पर हाथ है फेरा।
माँ के क़दमों में जन्नत होती है
दुखता सिर मेरा और माँ रोती है।
माँ तो बस माँ होती है।
---.
हाइकू -35
लालबहादुर शास्त्री
सुशील शर्मा
एक थे लाल
बहादुर कमाल
लौह पुरुष।
लालों में लाल
कांतिमय कुंदन
तन निर्धन।
छोटा लड़का
गंगा का चौड़ा पाट
बेख़ौफ तैरा।
देश का लाल
तन दुबला पाया
मन विशाल।
जय जवान
शास्त्री जी हैं महान
जय किसान।
ताशकंद में
रहस्यमय मृत्यु
शांति का दूत।
भारत रत्न
सत्यनिष्ठ साहसी
निडर शास्त्री।
सत्य शिखर
गाँधी के अनुयायी
बेदाग छवि।
पुष्प सौरव
भारत के गौरव
कोटि नमन।
हाइकू-33
दुर्गा वंदना
सुशील शर्मा
हे शैल सुता
महिषासुर घाती
तुम्हे प्रणाम।
विश्व धारणी
माता ब्रम्हचारिणी
नमस्करोमि।
गिरिनंदिनि
भवानी चंद्रघंटा
श्रितरजनी।
कोमल कांति
शुम्भासुर घातनी
जय कुष्मांडा।
हे आद्यशक्ति
सर्व योग सम्भुते
स्कंधमाते।
महाकालिकां
सिंहस्कन्धाधिरूढं
हे कात्यायनी।
ॐ कालाभ्राभां
मौलीबंद्देन्धु रेखां
माँ कालरात्रि।
मधुमर्दिनी
शशिशकलधरां
हे महागौरी।
माँ सिद्धिदात्री
विद्युतसमप्रभां
सृष्टि रूपाय।
सुशील शर्मा
--.
हाइकू -32
(अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर विशेष )
सुशील कुमार शर्मा
बोझिल मन
अकेला खालीपन
बढ़ती उम्र।
सारा जीवन
तुम पर अर्पण
अब संघर्ष।
बृद्ध जनक
तिल तिल मरते
क्या न करते ?
बुजुर्ग बोझ
घर में उपेक्षित
अंग शिथिल।
वृद्ध आश्रम
मरती संवेदनाएं
ढहते रिश्ते।
प्रिय दादाजी
अनुभवों की नदी
उन्मुक्त हंसी।
दादी की बातें
रातों की कहानियां
चुपड़ी रोटी।
पिता का होना
बरगद की छाँव।
निश्चिन्त जीवन।
अक्षय पात्र
बुजुर्गों का आशीष
अमृत ध्वनि।
घर में तीर्थ
बुजुर्गों का सम्मान
ईश्वर कृपा।
उचित सेवा
सुधरे परलोक
ढेरों आशीष।
मार्गदर्शक
समाज का विकास
सेवा विश्वास।
वरिष्ठ जन
प्रसन्नता से कटे
बाकी जीवन।
---.
हाइकू -24
गौरैया
सुशील शर्मा
चोंच में दाना
उठा उड़ी गोरैया
चुगाती चूजे।
कब आओगी
गौरैया मेरे द्वार
दाना चुगने।
पेड़ पर है
तिनकों का घोंसला
गौरैया नहीं।
नन्ही गौरैया
फुदक फुदक कर
दाना चुगती।
मुन्ने के सिर
फुदक रहा चूजा
प्रेम बंधन।
अंजुरी भर
प्रेममयी गोरैया
स्नेहिल स्पर्श।
हाइकू -25
राधे -राधे
सुशील शर्मा
राधिका नित्य
अनंत अगोचर
दिव्य चिन्मय।
लीला आनंद
अमल अनामय
नित्य अनादि।
जय श्री राधे
कृष्ण मन हरणी
भव हरणी।
राधिका प्यारी
बृष भानु दुलारी
कृष्ण मोहनी।
ब्रज वंदनी
वृंदावन वासनी
जग जननी।
रास रसाल
मधुर चंद्र मुख
बृष की लली।
गोपिका श्रेष्ठ
परम आल्हादनी
राधिका वंदे।
श्री राधा पद
श्याम चरण रत
कृपा कटाक्ष।
राधा की आत्मा
श्री कृष्ण आराधना
नित्य गोपाल।
राधा के बिन
केवल कोरा कृष्ण
साथ श्री रूप।
बृषभानुजा
आल्हादनी ज्योत्सना
कृष्ण वामांगी।
प्रेम अवनि
माधुर्य रसमयी
कृष्ण कामनी।
राधिका पद/
कृष्ण मन मुदित
हृदय बसी।
मुकुट मणि
माधव प्रियतमा
श्री हरी प्रिया।
ब्रह्मा का तप
साठ हज़ार वर्ष
श्री राधा नख।
श्री कृष्ण प्रिया
राधा रसिकेश्वरी
श्री प्राणाधिका।
चन्द्रावलीका
शरचंद्ररूपणी
वृंदा स्वामिनी।
धैर्यशालनी
ब्रह्माण्डधारणी
कृष्ण विनया।
बृज किशोरी
कृष्णमयी अभिन्ना
युगलप्रिया।
राधा ह्रदय
विराजे कृष्णपद
श्री कृपा दॄष्टि।
नित्य किशोरी
नित्यनिकुंजेश्वरी
श्री प्राणेश्वरी।
कृष्ण आधार
राजराजाकर्षनी
रस की धार।
मधु अधर
ज्योत्सना स्मित मुख
कृष्ण लावण्य।
हाइकू -26
धन
सुशील शर्मा
धन में धर्म
दया में उदारता
गर्व शामिल।
धन में भोग
द्वेष और अन्याय
मटियामेट।
धन सम्पति
ईश्वर का प्रकोप
करे अहित।
मान मर्यादा
धन है निरर्थक
गुण प्रमुख।
धन की भूख
लोभ मोह व तृष्णा
बुद्धि का नाश।
धन संग्रह
बुरे दिनों का साथी
रिश्तों का जोड़।
धन की गति
दान भोग व नाश
मन की तृप्ति।
हाथ में पैसा
अलादीन का जिन्न
काम न रुके।
धन के पंख
इधर से उधर
पल में फुर्र।
धन सम्पति
नारी जैसी चंचल
सबकी चाह।
संतोष धन
सब धन से श्रेष्ठ
चाहे कुबेर।
धन है दास
तिजोड़ी में संग्रह
बना मालिक।
विद्द्या और बुद्धि
सर्वोत्तम दौलत
कभी न रूठें।
हाइकू -27
बेटियां
सुशील शर्मा
मेरी बिटिया
पापा के काँधे पर
बाँहों का झूला।
सोच में डूबी
पापा कब आएंगे
नन्ही सी परी।
सुनो तो परी
तुम बिन बिटिया
सूना जीवन।
बेटी की आँखें
चंचल चितवन
मन की पाँखें।
माँ की दुलारी
पग पग चलती
बिट्टो हमारी।
मन मुदित
घर में नन्ही परी
किलकारियां।
पापा की गोद
गालों पर ली पप्पी
प्यार की झप्पी।
पापा का सुख
खिलखिलाती बेटी
आनंद मग्न।
पलक बंद
नन्ही परी सो गई
आओ सपने।
तोतली बोली
बीणा सी बजती है
मन झंकृत।
कोख में बेटी
माँ मुझे जन्म दे दो
गोद चाहिए।
माँ तेरी बेटी
दुनिया देखना है
मुझे आने दो।
पिता के घर
जब आती है बेटी
भरी सी आँखें।
पिया के घर
जब जाती है बेटी
भरी सी आँखें।
कन्या का दान
बेटी हुई पराई
बाबुल रोये।
माँ की लाड़ली
गोद से चली गई
आँख का मोती।
साक्षी से सिंधु
सानिया से सायना
बेटी महान।
मान सम्मान
मेरी प्यारी बेटियां
मेरा घमंड।
हाइकू -28
विविध -नृत्य एवम कहावतें
सुशील शर्मा
जीवन नृत्य
कोई है पारंगत
कोई है चित्त।
जीवन धुन
नाचे मन मयूर
अपनी सुन।
गिद्धा का नृत्य
गोल गोल घूमती
पंजाबी कुड़ी।
असमी बीहू
बाजें ढोल मृदंग
थिरके पीहू।
बुन्देली राही
थिरकी बेड़नियां
विवाह साही।
मुहावरे
मन है चंगा
तो कठौती में गंगा
आत्म विश्वास।
नौ दिन चले
सिर्फ अढ़ाई कोस
समय ढले।
मन को भावे
खूब मूड़ हिलावे
मन पसंद।
नौ मन तेल
राधा कैसे नाचेगी
आँगन टेढ़ा।
हाइकू -29
विविध
सुशील शर्मा
जलता दीया
अंधकार से लड़ा
बुझता हुआ।
तेरी जुस्तजू
उदास में अकेला
बेक़रार तू।
लिख के नाम
तेरा फिर मिटाया
सुबह शाम।
रूह बोझिल
जिस्म टूटा टूटा सा
यादें शामिल।
जागते नैन
नींद थकी सो गई
मन बेचैन।
प्यार तुमसे
कह नहीं सकता
दोस्ती गम से।
तुम न आये
अनंत सी प्रतीक्षा
यादों के साये।
आंसू गिरते
पल पल अपलक
मोती झरते।
मेरे मन की
व्याकुलता ही बस
मेरी अपनी।
हाइकू -30
आत्मा अंतःकरण
सुशील शर्मा
हमारी आत्मा
ब्रह्म ज्योति स्वरुप
शुद्ध जीवात्मा।
आत्मा ही सब
शस्त्र से नहीं कटी
जली भी कब।
चैतन्य रूप
नित्य शास्वत पुष्ट
ब्रह्म स्वरुप।
आत्मा का सत्य
स्वयं से परिचय
नित्य स्वरुप।
आत्मा का धर्म
चिरंतन आनंद
स्फूर्त कर्म।
अक्षय धन
आनंद सनातन
आत्म दोहन।
आत्मा अमर
उद्गम अनादि
स्थिर अचर।
सोई आत्मा
दुर्गुण दुराचार
सत्य का खात्मा।
ब्रह्म ही आत्मा
सत्य का साक्षात्कार
बनो पुण्यात्मा।
आत्मा भामिनी
समग्र प्रकाशित
प्रभाशालनी।
जीव रहित
शरीर होता मृत
आत्मा शास्वत।
आत्मा असंग
किसी से लिप्त नहीं
प्रभु के संग।
आत्मा अलिंग
न स्त्री न नपुंसक
न ही पुंलिङ्ग।
आत्मा की साक्षी
दिव्य शक्ति का केंद्र
अमृत घट।
अंतःकरण
ईश्वर का संलाप
प्रभु शरण।
हाइकू-31
गांधी बापू
सुशील शर्मा
पोरबंदर
कबा और पुतली
गांधी का जन्म।
दो अक्टूबर
संत अवतरित
हँसा अम्बर।
मोहनदास
चश्मा लाठी लंगोटी
एक विचार।
गांधी की देन
अहिंसा और प्रेम
मन का चैन।
वैष्णव जन
पीर पराई जाने
निर्मल मन।
अंग्रेज भागे
सविनय अवज्ञा
जागा भारत।
भारी विरोध
काला कमीशन
वापिस जाओ।
भारत टूटा
पाकिस्तान निर्माण
गांधी उदास।
ब्रिटिश नीति
फुट डाल के राज
देश गुलाम।
गांधी जीवन
सत्य अनुसन्धान
मन की शांति।
नमक कर
नमक सत्याग्रह
दांडी की यात्रा।
बाल विवाह
कस्तूरबा के साथ
शादी के फेरे।
बाहर फेंका
प्रथम श्रेणी कोच
जन संघर्ष।
ब्रिटिश राज
जलियां वाला बाग
नरसंहार।
स्वदेशी नीति
विदेशी बहिष्कार
खादी पहनों।
हरि के जन
अछूतों का उद्धार
दलित हित।
तूफां में किश्ती
साबरमती संत
किया कमाल।
कातिल गोली
नाथूराम गोडसे
मृत सिद्धांत।
अपनी कथा
सत्य के प्रयोग में
जीवन व्यथा।
अपराजेय
अहिंसा के पुजारी
सत्य धारक।
अटूट आस्था
इंद्रिय ब्रह्मचर्य
वैराग्यवाद।
चरखा चला
स्वदेशी का प्रयोग
खादी के वस्त्र।
बापू महान
अहिंसा का संधान
सत्य का पान।
अहिंसा गान
अहं का अवसान
गांधी का ज्ञान।
आम आदमी
हथियारों के बिना
लड़ी लड़ाई।
एक फ़क़ीर
युग का चमत्कार
खींची लकीर।
प्यारे बापू थे।
उजियारे बापू थे
न्यारे बापू थे।
मुक्ति समर
सदियों की गुलामी
सात्विक क्रांति।
आंधी में जली
गांधी तेरी मशाल
आज़ादी मिली।
तीन गोलियां
आदर्शों पर चलीं
आस्था आहत।
बापू सबके
हिन्दू मुसलमान
माला मनके।
हाथ में लाठी
कमर पर धोती
आँखों में चश्मा।
राष्ट्र के पिता
कोटि कोटि नमन
श्रद्धा के सुमन।
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हिंदी मेरी बिंदी
सुशील कुमार शर्मा
हो रहा है हिंदी स्मरण धीरे धीरे।
चल रहा है हिंदी मनन धीरे धीरे।
हिंदी है देश की गौरव भाषा।
मधु मुकुल नव चिर अभिलाषा।
विमल वाणी की मधुर ध्वनि है।
सिंधु सी विस्तृत और घनी है।
चढ़ रही है हिंदी नयन धीरे धीरे।
चल रहा है हिंदी मनन धीरे धीरे।
हिंदी है गंगा ज्योतिर्ज़ल कण।
हिंदी मधु सी प्रतिपल प्रतिक्षण।
हिंदी है शीतल कोमल नूतन।
हिंदी है भू पर सुंगंधित सुमन।
आ रही है हिंदी पवन धीरे धीरे
चल रहा है हिंदी मनन धीरे धीरे।
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