माँ माँ शब्द नहीं महाकाव्य है , माँ ही मेरा आराध्य है। माँ बहती हुई सरिता है , माँ की वाणी गीता है। माँ धर्म की धार है , माँ बा...
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माँ
माँ शब्द नहीं महाकाव्य है,
माँ ही मेरा आराध्य है।
माँ बहती हुई सरिता है,
माँ की वाणी गीता है।
माँ धर्म की धार है,
माँ बाइबिल का सार है।
माँ कुरान की आयत है,
माँ गाथा रामायण है।
माँ ही सच्ची पूजा है,
ख़ुदा न कोई दूजा है।
माँ ही हर पल साथी है,
मैं दीपक, माँ बाती है।
प्रकृति का गायन है माँ,
माँ गीत सृजन का गाती है।
प्रेम पत्र सब झूठे है,
माँ ही प्रेम की पाती है।
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उड़ चला मेरा मन मतवाला
भावुकता का भार उठाकर,
आशाओं की किरण जगाकर,
पल को पलकों पर बिठाकर,
उड़ चला मेरा मन मतवाला।
पथ प्रदर्शक पीछे रहता,
मन आगे बढ़ जाता है।
मन जब आगे बढ़ता जाता,
छोर क्षितिज न पाता है।
इसको पता नहीं कहाँ जाना?
कहाँ ठौर ठिकाना है?
टूटी वीणा का तार बजाकर,
टूटे तारों में उलझाकर,
राह प्रदर्शक को बहकाकर,
उड़ चला मेरा मन मतवाला।
हँसता गाता चलता जाता,
दुःख दर्दों से न कोई नाता,
पूरे भव का भाग्य विधाता,
घावों को न सहलाता है,
बस उड़ता ही जाता है।
गमगीन घाव भुलाकर,
दर्दों को दिल में सुलाकर,
आहों को अरमान बनाकर,
उड़ चला मेरा मन मतवाला।
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फिर मिलेंगे
सुनसान खंडहरों की कौन सदा सुनता है
मैं बोलता तक नहीं ख़ुदा सुनता है।
दो क़दम के फासले पर ख़ुदा खड़ा था मेरा
मैं लबों को खोल नहीं पाया वो जुबां सुनता है।
हौले हौले वो शख़्स गैर होता जा रहा है
मेरे सामने है मगर खोता जा रहा है।
गुलाब के कांटे और है, नागफणी के और
मैं खूब जानता हूँ तू क्या चुभोता जा रहा है।
हम लाख बुरे है, जुबां कड़वी है
दिल खोल कर देखो।
तुझे शहद में डुबो देंगे मेरे यार
मुझसे बोल कर देखो।
इश्क़ उसे भी है इतना ही गहरा, पर जताने नहीं आएगा
हम उस से रूठे है, जो कभी मनाने नहीं आएगा।
उसे डर लगता है इश्क़ की नदी में डूब जाने से
इस खातिर वो डूबते को बचाने नहीं आएगा।
फिर मिलेंगे पूजा इबादतों के जलते चिराग़ लेकर
अगर दिलों में ज़िंदा बंदगी रही
अभी चलते हैं, ज़रूर मिलेंगे
अगर ज़रा सी भी ज़िन्दगी रही।
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अँधेरा
मेरी आशिकी को नाम शायरी न दीजिए
इसमें तुकबन्दी की बू आती है।
आशिकों को काफ़िर कहने वालो
क़यामत से भी इश्क़ करना सीखो
ज़लज़ला तो आता ही होगा
पहले इस आग में जलना सीखो।
तुम बैठना जन्नत में
हम जहन्नुम में सही
पर पलकें उठा इधर भी देखना
हम साज बजाते नजर आएंगे।
दुखी दिल नहीं दिमाग होता है
दिल के कानों से सुनना
हम गीत गाकर सुनाएंगे।
खोलो न खोलो आपकी मर्जी
हम आहिस्ता दरवाजा खटखटाएंगे।
बंद कर दो खिड़कियां कस कर
आफ़ताब तुम पर हंसेगा
रोको कितना भी मगर
सवेरा तुमको हम दिखायेंगे।
कितना रोकोगे इस चाँद को
सड़कर ये भी गल जाएगा
हम अगर आए बिना चिराग़ भी
अँधेरा अपने आप हट जाएगा।
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मास्टरजी
चोक घिसते घिसते अंगुलियां घिस गई
डस्टर और मास्साब
दोनों ही गंजे हो चुके है
शरारती बच्चे जो यहीं पढ़कर गए
उनके बच्चे अ, आ सीख रहे है
और मास्टरजी
इक विशाल तालाब में
बीचोबीच खड़ी खेजड़ी की माफिक
वहीं के वहीं है
हर मौसम में पहाड़ी से नया पानी आता है
और मास्टरजी
डंडा पकड़े, चश्मा संभाले
पानी पानी हो जाते है
ये पानी ज्ञान की अतल गहराइयों में उतर कर
भूल जाएगा इन मास्साब को
और एक दिन ये ही पानी
कई मोड़ो से गुजर कर
आएगा तेजी से बहता
और सड़ी हुई जर्जर खेजड़ी
जड़ समेत उखड़ जाएगी
तालाब से बहती किनारे आएगी
और उन ज्ञानियों को बरसों तक ख़बर न होगी
कि मास्साब चल बसे।
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आसमां मेरा मकान
वो दर्द था जो दिल का हर हाल कह गया
मैं सोचता रहा वो सारी बात कह गया।
छिपा दी थी हक़ीकत झूठ के नकाब में
सेहरा जो खुल गया वो सारे राज़ कह गया।
वो ज़िन्दगी थी ज़िन्दगी का गान गा गई
मौत का साया जो था दिन चार कह गया।
क़ातिल निगाहें पल में ही कमाल कर गई
तीर-ए-नज़र प्यार का पैगाम कह गया।
धर्म के संहार के दिन ही लद गए
कृष्ण की ही पूजा को मैं प्यार कह गया।
मज़हबों के नाम पर अब न बढ़ेंगे फासले
ये हवा थी जिसको मैं दीवार कह गया।
खिलखिलाकर हँस सके इस चमन का बागबान
पूरे आसमां को मैं अपना मकान कह गया।
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प्रेम
दुनिया में हम राह से भटक गए हैं,
कुछ और तो क्या प्रेम का अर्थ भूल गए हैं
प्रेम को खोजने वालो थोड़ा आगे बढ़ो
प्रेम देखना है तो मीरा की आँखों में
गिरधर के प्रति देखो
लक्ष्मण की आँखों में राम के प्रति देखो
भक्त की आँखों में भगवान के प्रति देखो
बेटा खो चुकी माँ की तरफ देखो
तुम्हें प्रेम मिल जाएगा
सत्य स्वरूप दिख जाएगा
फिर कभी ये मत भूलना
प्रेम आँखों में उस तेज का नाम है
चेहरे पर उस ख़ुशी का नाम है
जो सबरी को राम के मिलने पर हुई होगी
ये भगीरथ को गंगा लाने पर हुई होगी
प्रेम को ढूंढना मूर्खता है
समझदारी प्रेम को समझना है
जैसे जैसे प्रेम को समझते जाओगे
उसी के रंग में रंगते जाओगे।
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मैं या मेरा अहंकार
पापी पेट की प्यास में
या पर्वत पाने की आस में
टूटी बिखरी नाव में
या सुख से भरे जहाज में
कौन ढूंढता है कंकाल?
मैं या मेरा अहंकार?
मंदिर की मूर्ति में कौन?
मृत देह की साँसे मौन
कौन है? क्या है कारण इसका
जीवित रहने की चाह में जिसका
घूमता है जर्जर हो प्राण
मैं या मेरा अहंकार?
अडिग इरादे था रखता पर
अब न साहस रत्ती भर
आशा रखूँ पाने की मोक्ष
या मिटा दूँ पहले मन के दोष
न मिलता है कगार
मैं या मेरा अहंकार?
आगे आऊं या पीछे जाऊं
कल्पित क्षितिज ही हर और पाउं
हवेली सजाऊँ या महल बनाऊँ
कहाँ से करूँ मैं आगाज़
मैं या मेरा अहंकार?
आशा सपनों की अमानत है
स्वार्थी को पर सुख लगता भयानक है
कल से खेलता आज का काल है
पर वर्तमान भी तो विकराल है
मन में मचा है बवाल
मैं या मेरा अहंकार?
लक्ष्य है सामने पर भय तो डराता है
दूजो की थाली में घी अकारण ही जलाता है
खुद का दुःख तो नहीं रुलाता
सुख संसार लुभाता है
कहाँ पर करूँ मैं प्रहार
मैं या मेरा अहंकार?
कुछ मजा काँटों में है
थोड़ा दर्द व आहों में है
कभी ख़ुशी भी रुलाती है
दुनिया अश्कों में बह जाती है
किसने गूंथा है मायाजाल
मैं या मेरा अहंकार?
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परिचय -
साहित्य जगत में नव प्रवेश। पत्र पत्रिकाओं यथा, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, अहा! जिंदगी, कादम्बिनी , बाल भास्कर आदि में कुछ रचनाएं प्रकाशित।
अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत।
पता :
विनोद कुमार दवे
206
बड़ी ब्रह्मपुरी
मुकाम पोस्ट=भाटून्द
तहसील =बाली
जिला= पाली
राजस्थान
306707
मोबाइल=9166280718
ईमेल = davevinod14@gmail.com
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