जीवन-जगत की यथार्थ संवेदना के कवि महेंद्रभटनागर - डा॰ व्यास मणि त्रिपाठी अपनी रचनाधर्मिता से प्रगतिशील काव्य-क्षितिज को व्यापकता और विस्तार...
जीवन-जगत की यथार्थ संवेदना के कवि महेंद्रभटनागर
- डा॰ व्यास मणि त्रिपाठी
अपनी रचनाधर्मिता से प्रगतिशील काव्य-क्षितिज को व्यापकता और विस्तार प्रदान करने वाले महेंद्रभटनागर संवेदनात्मक चिंतन और चिंतनात्मक संवेदना के कवि हैं। इसी प्रवृत्ति ने उनकी कविता को विरोध और संघर्ष तथा जिजीविषा और जयबोध से अनुप्राणित कर एक ऐसे भव्य आलोक का निर्माण किया है जिसकी आभा काल-प्रवाह में भी धूमिल होने वाली नहीं है। ऐसा इसलिए कि महेंद्रभटनागर वायवीय पथगामिता के कवि नहीं हैं और न ही कल्पना के पंखों पर नभचारी होने में उनका कोई विश्वास है। ज़ाहिर है, ज़मीन के आधार के बिना रचना में कालजयता का अभाव रहता है। जीवन-जगत से निरपेक्ष रहकर कोई बड़ी रचना न संभव होती है और न ही उसका कोई भविष्य होता है। महेंद्रभटनागर की कविता के पैर ज़मीन पर हैं और दृष्टि जीवन-जगत के विविध आयामों पर टिकी है। इसीलिए उसमें पाठकों को सहजभाव से आकर्षित करने की क्षमता है। उसमें अनास्था, भय, आतंक और अनाचार के विरुद्ध खड़े होकर आस्था, उल्लास, आशा और विश्वास पैदा करने की सामर्थ्य है। उसका संसार पाठक-मन का संसार है जिसमें वह अपने समस्त सुख-दुख, जय-पराजय, आशा-निराशा, स्वप्न और यथार्थ को उपस्थित पाता है। इसी अर्थ में वह जनता के निकट की कविता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि महेंद्रभटनागर की कविता यथा-स्थिति बोध कराकर अपने कर्तव्य की पूर्णता नहीं मान लेती बल्कि साहस, संकल्प, संघर्ष और विरोध के जागरण-भाव से युग-परिवर्तन तथा नव-निर्माण का विधान भी रचती है। यही उनका काव्य-प्रयोजन भी है जिसका उद्घोष उन्होंने अपनी ’लेखनी से’ शीर्षक कविता में किया हैः
“लेखनी मेरी!/समय-पट पर चलो/ऐसी कि जिससे/त्रस्त जर्जर विश्व का/फिर से नया निर्माण हो/क्षत, अस्थि-पंजर पस्त-हिम्मत/मनुज की सूखी शिराओं में/रुधिर उत्साह का संचार हो।’’
उन्होंने लगभग इसी भाव-भूमि पर ’सार्थकता’ शीर्षक कविता का प्रणयन भी किया है जो प्रकारांतर से कविता की सार्थकता-सिद्धि का प्रयास हैः
“मुरझाये रोते चेहरों को/मुस्कानें बांटें/उनके जीवन-पथ पर छितराया/कुहरा छाँटें/ रँग दें घनघोर अँधेरे को/जगमग तीव्र उजालों से/त्रासों और अभावों से/निर्मम मारों से/हारों को, लाचारों को/ढक दें/लद-लद पीले-लाल गुलाबों की/जयमालों से।’’ (‘सृजन-यात्रा’ - पृष्ठ16)
कहना न होगा कि महेंद्रभटनागर की छह दशक की अनवरत सृजन-यात्रा का यही पाथेय है जो उन्हें जनधर्मी तथा जीवनधर्मी कवि के रूप में प्रतिष्ठित करता है। परिवर्तन की आकांक्षा को कवि घोषित करता है।
विभिन्न काव्यान्दोलनों के काल में सृजन-रत रहकर भी महेंद्रभटनागर की उन काव्य-प्रवृतियों से निरपेक्षता कविता में उनकी जनपक्षधरता और जीवन धर्मिता को ही पुष्ट करती है। उन्होंने जीवन-जगत को सदैव अपनी काव्य-संवेदना के केन्द्र में रखकर यह प्रमाणित कर दिया कि एक ही पथ पर चलकर भी शब्द-साधना को उत्कर्ष तक पहुँचाया जा सकता है। जीवन-जगत के गूढार्थ को जाना जा सकता हैः
“ अर्थ/जीवन का - जगत का/गूढ़ था जो आज तक/अब हम/उसे अच्छी तरह से/हाँ, बहुत अच्छी तरह से/जानते हैं।’’ (सृजन-यात्रा, पृष्ठ 110)।
यह इसलिए संभव हुआ है कि कवि-मन में जीवन को बहुत नज़दीक से देखने की ललक है। उसे विभिन्न कोणों से परखने तथा व्याख्यायित करने की आकांक्षा है। इसी परिप्रेक्ष्य में उसे ज़िन्दगी कभी एक बेतरतीब सूने बंद कमरे की तरह लगती है तो कभी धूमकेतु सी अवांछित और जानकी सी त्रस्त-लांछित प्रतीत होती है। वह कभी धूल की परतें लपेटे बदरंग केनवस महसूस होती है तो कभी हरी पुष्पित वाटिका सदृश लगने लगती है। ‘निष्कर्ष’ कविता में महेंद्रभटनागर ने ज़िन्दगी के यथार्थ को अनेक रूपों में देखा हैः
ज़िन्दगी - वीरान मरघट-सी
ज़िन्दगी - अभिशप्त बोझिल और एकाकी महावट-सी
ज़िन्दगी - जन्मान्तरों के अशुभ पापों का दुखद परिणाम
ज़िन्दगी - दोपहर की चिलचिलाती धूप का अहसास
ज़िन्दगी - कंठ-चुभती सूचियों का बोध, तीखी प्यास
ज़िन्दगी - ठहराव, साधन हीन, रिसता घाव
ज़िन्दगी - अनचहा सन्यास, मात्र तनाव।’’
(‘सृजन-यात्रा’, पृष्ठ 109)
कवि को जीवन इतना त्रासद और विसंगतिपूर्ण क्यों लगता है ? इसका उतर जीवन-जगत के नाना व्यापारों, घात-प्रतिघातों, स्वार्थों-संकीर्णताओं, तुच्छता और न्यूनताओं में छिपा है। जीवन-मूल्यों का अधःपतन, नैतिकता का ह्रास, अर्थलोलुपता, कामान्धता, स्वच्छन्दता, समलैंगिकता, नग्नता, फूहड़ता, भ्रष्टाचार, कदाचार, अन्याय, अमानवीयता, साम्प्रदायिकता, बिखरन, भटकाव, आतंक, वैमनस्य, चरित्र-हीनता, पौरुष हीनता, नारी की वस्त्र विहीनता आदि का वर्तमान यथार्थ किसी भी संवेदनाशील हृदय को दुखी और विचलित करने के लिए पर्याप्त है। महेंद्रभटनागर का कवि स्वस्थ व्यक्ति और स्वस्थ समाज का आकांक्षी है; लेकिन उसे चारों ओर निराशा, हताशा, अमानवीयता, नृशंसता, क्रूरता, कृत्रिमता एवं अशुचिता दिखाई देती है। कटुता और वैमनस्य दिखाई देता है। स्नेह, सौख्य और सौहार्द्र का अभाव परिलक्षित होता है। आदमी के भीतर की आदमियत का विलोप; लेकिन अभिमान और अहंकार की मौजूदगी दिखाई देती हैः
किन्तु अचरज
आदमी है आदमी से आज सर्वाधिक अरक्षित,
आदमी के मनोविज्ञान से बिलकुल अपरिचित
भयभीत घातों से परस्पर।
रक्ताक्ष आहत
क्रुद्ध ज़हरी व्यंग्य बातों से।
टूट जाता आदमी-
आदमी के क्रूर मर्मान्तक प्रहारों से,
लूट लेता आदमी
आदमी को छल-भरे भावों-विचारों से,
आदमी-आदमी से आज कोसों दूर है
आत्मीयता से हीन
बजता खोखला हर क़दम सिर्फ़ गुरूर है।’’
(आदमी, ‘समग्र’ - खण्ड 3, पृष्ठ 204-205)
महेंद्रभटनागर की कई कविताएँ मनुष्य के पशु होते जाने की त्रासदी का आख्यान हैं। स्वार्थवृत्ति मनुष्य को पशु बनाती है - (पशु प्रवृत्ति है यही जो आप आप ही चरे/है वही मनुष्य जो मनुष्य के लिए मरे-मैथिलीशरण गुप्त)। भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के युग में मानव-जीवन शांतिमय नहीं है। आपाधापी और भागम-भाग में मनुष्य के पास संबंधों की उष्णता महसूस करने के लिए भी समय नहीं रह गया है। आत्मीयता, बन्धुता, स्नेह, मर्यादा, आदर्श और संबंधों की उष्णता पर गाज गिराने में इसने कोई क़सर नहीं छोड़ी है। पिता-पुत्र, भाई-बन्धु, पति-पत्नी के संबंधों में बढ़ती दरारें इसका प्रमाण है। स्चच्छन्द आचरण सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ा रहा है। नारी स्वतंत्रता के नाम पर नग्नता का फूहड़ प्रदर्शन हो रहा है। वृद्धाश्रमों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। सामूहिकता की जगह एकाकीपन ने ले लिया है। ऐसा सामाजिक परिवेश अगर महेंद्रभटनागर को जंगल सदृश लगता है तो कोई आश्चर्य नहीं हैः
“ मैं/एक वीरान बीहड़ जंगल में रहता हूँ। अहर्निश निपट एकाकीपन की/असह्य पीड़ा सहता हूँ।’’ (सृजन-यात्रा, पृष्ठ 113)
कवि को इस बात का कष्ट और अधिक है कि उसने स्वेच्छया जँगलेदार कठघरे का चुनाव नहीं किया है; बल्कि यह सामाजिक परिस्थितियों की उपज है जिससे जीवन अर्थ-हीन हो गया हैः
“ मैंने यह यंत्रणा-गृह/कोई स्वेच्छा से नहीं वरा/मैंने कभी नहीं चाहा/निर्लिप्त निस्संग/जीवन का यह/जँगलेदार कठघरा/जिसमें शंकाओं से भरा/सन्नाटा जगता है/जीना/अर्थ हीन अकारण सा लगता है।’’ (वही)।
पशुता अराजक होती है। उसे व्यवस्था से कुछ लेना-देना नहीं होता। वह शुद्ध जांगलिक संस्कृति की पोषिका है। उसमें सहिष्णुता और सह-अस्तित्व के लिए कोई स्थान नहीं रहता। वह मनुष्यता विरोधी संस्कृति है। इसी से यह प्रयत्न होना चाहिए कि मनुष्य पशु न होने पाये। महेंद्रभटनागर का आग्रह है -
“आदमी को
मत करो मजबूर
इतना कि
बेइन्साफियों को झेलते
वह जानवर बन जाय।’’ (सृजन-यात्रा, पृष्ठ 97)
वर्तमान समय में बढ़ती संवेदनहीनता से उपजी अनास्था ने मानव-जीवन के आपसी संबंधों के बीच गहरी खाई खोदने का कार्य किया है। परस्पर भय और आशंका की वृद्धि से आत्मीय संबंधों में गिरावट आ जाना असंभव नहीं है। कवि को लगता हैः
“हमारे पारस्परिक संबंधों को/बरसों के पनपते बढ़ते रिश्तों को/निकटता और आत्मीयता को/गलतफ़हमी/अक्सर पुरज़ोर झकझोर देती है। तोड़ देती है।’’ (गलतफ़हमियों का बोझ, ‘समग्र’ खण्ड-3, पृष्ठ 154)।
जहाँ कटुता हो, परस्पर संघर्ष हो, वैमनस्य हो, स्नेह-सौख्य तथा सौहार्द्र का अभाव हो वहाँ - ज़िन्दगी एक अभिशाप बन जाती है -
“ज़िन्दगी ललक थी, किन्तु भारी जुआ बन गई
ज़िन्दगी फलक थी, किन्तु अंधा कुआँ बन गई
कल्पनाओं रची, भावनाओं भरी, रूप-श्री
ज़िन्दगी ग़ज़ल थी, बिफ़र कर बद्दुआ बन गई।’’
महेंद्रभटनागर की कविताओं का एक प्रमुख स्वर आशावाद का है जो जीवन की विसंगतियों/विडम्बनाओं तथा कठिन क्षणों में प्राण वायु का संचार करता है। उनका मानना है कि जीवन में अगर असफलता और हार है तो सफलता और जीत की भी प्रबल संभावनाएँ हैं। कण्टका कीर्ण मार्गों की कठिनाइयाँ हैं तो पुष्प सुलभ मृद पथ की सुकुमारताएँ भी हैं। उनकी कविताएँ बार-बार जिस अँधेरे का त्रासद आख्यान रचती हैं वही परोसना कवि का उद्देश्य नहीं है। वह अँधेरे से प्रकाश की यात्रा का कवि है। उसका उद्देश्य प्रकाश-पर्व का सृजन है, आलोकवाह बनकर सभी को ज्योतित करना है; लेकिन प्रकाश अँधेरे के बाद ही अपनी जगमग दुनिया सजाता है। यही कारण है कि महेंद्रभटनागर की कविताओं में ग़रीबी है, जहालत है, बेबसी और लाचारी है, हताशा और निराशा है, असफलता और हार है। कविता में इनकी बार-बार आवृत्ति सुन्दर और सुखद जीवन की कल्पना की साकारता की पृष्ठभूमि है। कवि को प्रकाश-पर्व की आकांक्षा में अँधेरे की भयावहता का उल्लेख ज़रूरी लगता है और यही कारण है कि उनके यहाँ दुःखों का पहाड़ है, अभावों का मरुस्थल है, द्वन्द्वों का सागर है तथा वीरानियों का जंगल है; लेकिन इनकी आवृत्ति ठीक उसी तरह है जैसे सूर्योदय के पहले की सघन अमावस-रात। दुःख है तो सुख होगा यह भारतीय चिंतन का एक महत्वपूर्ण आयाम है। महेंद्रभटनागर की कविता का यह विश्वास-भाव ‘ज़िन्दगी न टूटेगी न बिखरेगी’ उसी चिंतन की उपज है। अँधेरे को ललकारने तथा चुनौती देने का साहस और ऊर्जा कवि को उसी आशावाद से प्राप्त हैं। तभी तो वह कहता हैः
“मनुष्य के भविष्य-पंथ पर/अपार अंधकार है/प्रगाढ़ अंधकार है/न चाँद है, न सूर्य।’’
इसीलिए
“मनुष्य के भविष्य पंथ पर प्रकाश चाहिए/प्रकाश का प्रवाह चाहिए/हरेक भुरभुरे कगार पर सशक्त बाँध चाहिए/अटल खड़ा रहे मनुष्य/आँधियों के सामने अड़ा रहे मनुष्य/शक्तिवान, वीर्यवान, धैर्यवान/ज़िन्दगी तबाह हो नहीं/कराह और आह हो नहीं/हँसी, सफेद, दूधिया हँसी/हरेक आदमी के पास हो/सुखी भविष्य की नवीन आस हो।’’ (वही, पृष्ठ 50)।
प्रकाश-पर्व के आयोजन हेतु गिड़गिड़ाना अथवा दीन-हीन बनकर याचना करना कवि का स्वभाव नहीं है। वह ललकारना जानता है, सोये हुए को जगाना जानता है और भाग्य-बल का निर्माण करना जानता है। इसीलिए खण्डित पराजित मनोवृत्ति के लिए दीप्तिमान सूर्य बन जाना उसके व्यक्तित्व का वैशिष्टय हैः
“खण्डित पराजित/ज़िन्दगी ओ! सिर उठाओ/आ गया हूँ मैं/तुम्हारी जय सदृश/सार्थक सहज विश्वास का हिमवान/अनास्था से भरी/नैराश्य तम खोयी/थकी हत-भाग सूनी/ज़िन्दगी ओ! सिर उठाओ/और देखो/द्वार दस्तक दे रहा हूँ मैं/तुम्हारे भाग्य-बल का/जगमगाता सूर्य तेजोवान।’’ (वही, पृष्ठ 43)।
मानवीय संबंधों में उदात्तता की प्रतिष्ठा का प्रयास हर रचनाकार करता है। यह महेंद्रभटनागर की कविता का भी एक वैचारिक पक्ष है। किन्तु मानवीय संबंधों की डोर का निरंतर कमज़ोर होना उनके लिए चिंताजनक है। परस्पर संबंधों का आधार विश्वास है। वह मनुष्यता की वृद्धि का अंतरवर्ती सूत्र है। जब विश्वास खण्डित होता है, तब मनुष्यता कलंकित होती है। महेंद्रभटनागर का मानना है कि विश्वास का क़िला ढहना जीवन की निरर्थकता को आमंत्रण हैः
“ विश्वास का जब दुर्ग/ढहता है/आदमी लाचार हो/गहनतम वेदना..मूक सहता है।/ तैयार होता है/ निरर्थक ज़िन्दगी/जीने के लिए/प्रतिदिन/कड़वी घूँट पीने के लिए/जीवन-शेष दहता है/विश्वास का जब दुर्ग/ढहता है।’’
(वही, पृष्ठ 86)
विश्वास चाहे जिस कारण से भी खण्डित होता हो वह मनुष्यता को श्रीहत करता है। इसीलिए कवि आलोकवाह बनना चाहता है। प्रज्ज्वलित प्रकाशित दीप बनकर वह प्रत्येक आशंका को विनष्ट और निरस्त करना चाहता है। वह मानव-मन के सभी नकारात्मक सोचों का संहार चाहता है। वह अपनी प्रतिबद्धता इन शब्दों में प्रकट करता हैः
“प्रतिबद्ध हैं हम /व्यक्ति के मन में उगी-उपजी/निराशा का, हताशा का/कठिन संहार करने के लिए/हर हत हृदय में/प्राणप्रद उत्साह का संचार करने के लिए।’’ (वही, पृष्ठ 15)।
यों तो हर रचनाकार अपनी रचना में वर्तमान को ओढ़ता-बिछाता है किन्तु महेंद्रभटनागर की रचनाओं में उनका वर्तमान कुछ अधिक ही मुखरित है। जीवन में प्रविष्ट कृत्रिमता और बनावट को लेकर उन्होंने कई कविताएँ लिखी हैं। उन्हें लगता है कि जीवन में सहजता और सरलता का अभाव हो गया है। मुखौटो में ज़िन्दगी कालुष्य पूर्ण हो गई है। मुस्कान भी कृत्रिम है। इसीलिए कहकहों और ठहाकों के लिए आज का आदमी तरस रहा है। महेंद्रभटनागर की कामना हैः
“कभी तो ऐसा हो / कि जी सकें हम/ज़िन्दगी सहज/कृत्रिम मुस्कान का/मुखौटा उतारकर ।’’ (वही, पृष्ठ 99)।
झूठ, दम्भ और प्रवंचना के इस भीषण युग में भी महेंद्रभटनागर ज़िन्दगी को गीत बनाने की इच्छा रखते हैं:
“गाओ कि जीवन गीत बन जाये!
हर क़दम पर आदमी मजबूर है
हर रुपहला प्यार-सपना चूर है
आँसुओं के सिन्धु में डूबा हुआ
आस-सूरज दूर, बेहद दूर है
गाओ कि कण-कण मीत बन जाये।’’ (वही, पृष्ठ 127)
भीड़-तंत्र का हिस्सा होकर भी आज मनुष्य नितान्त अकेला है। उसके दुखों पर नमक छिड़कने वाले तो हैं; लेकिन मरहम लगाने वाले बिल्कुल नहीं हैं। सहानुभूति और सदाशयता की वर्षा से तन-मन को आप्लावित करने वालों की कमी देखकर ही कवि को यह लिखना पड़ता हैः
“निपट सूनी अकेली ज़िन्दगी में/गहरे कूप में बरबस ढकेली ज़िन्दगी में/निष्ठुर घात-वार-प्रहार झेली ज़िन्दगी में/ कोई तो हमें चाहे, सराहे/ किसी की तो मिले। शुभकामना / सद्भावना।’’ (वही, पृष्ठ 73)।
महेंद्रभटनागर के यहाँ अकेलापन बहुत है। उससे उपजे दुःख और संघर्ष की कविताएँ भी काफ़ी संख्या में हैं। घोर उपेक्षा, अपमान और तिरस्कार के क्षणों में सहानुभूति की आकांक्षाओं की भी कमी नहीं:
“जीवनभर रहा अकेला/ अनदेखा / सतत उपेक्षित, घोर तिरस्कृत /जीवनभर / अपने बलबूते / झंझावातों का रेला झेला / जीवनभर / जस का तस/ठहरा रहा झमेला/जीवन-भर/असह्य दुख-दर्द सहा।’’
लेकिन कवि को दुःख इस बात का हैः
“रिसते घावों को/सहलाने वाला/कोई नहीं मिला।’’ (वही, पृष्ठ 74)।
‘अज्ञेय’ जी की एक कविता में कहा गया है कि दुनिया विवशता नहीं कौतूहल ख़रीदती है। इसमें बहुत सच्चाई है। अगर जीवन में कौतूहल उत्पन्न करने की क्षमता नहीं है तो वह किस तरह अभिशप्त हो जाता है - इसे महेंद्रभटनागर की कविताओं से समझा जा सकता है। वैसे तो इन्होंने सपाटबयानी में जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं की परतों को बख़ूबी उद्घाटित किया है किन्तु आलंकारिक शैली में भी जीवन की रिक्तताओं को प्रकट करने में इनकी सक्षमता देखी जा सकती हैः
“निरन्तर /जीवन की अभिधा में पलता रहा/लाक्षणिकता के/गूढ़ व्यंजना के/ आडम्बर नहीं फैलाये। शायद, इसीलिए समाज का मन-रंजन नहीं हुआ।/ वांछित आवर्जन नहीं हुआ.../अलंकार-सज्जित पात्र में /रीतिबद्ध ढंग से/जीवन का रस पीना नहीं आया/मैंने जीवन का व्याकरण नहीं पढ़ा / शायद, इसीलिए/निपुण विदग्धों के समकक्ष/जीना नहीं आया।’’
(प्रक्रिया, ‘समग्र’ खण्ड-3, पृष्ठ 158-159)।
यहाँ अभिव्यक्ति की नकारात्मक शैली में रचना और जीवन दोनों सन्दर्भों में बहुत ही सकारात्मक बातें कही गई हैं।
जीवन राजनीति, अर्थनीति, समाज और धर्म आदि से अप्रभावित नहीं रह सकता और इसीलिए जीवन का यथार्थ प्रकारान्तर से इनका ही यथार्थ है। महेंद्रभटनागर की कविताओं में स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात की राजनीति, समाज, अर्थतंत्र आदि का यथार्थ चित्रण उनके युगबोध का परिचायक है। स्वतंत्रता-संघर्ष में गांधी-नेहरू की भूमिका, आज़ादी के बाद मोह-भंग की स्थिति, प्रजातंत्र की विसंगतियां, नेताओं का छद्मवेश, अन्याय, अत्याचार और शोषण आदि के प्रति कवि की सजगता उसकी रचनात्मक दृष्टि का खुलासा करती है। पूँजीवाद का शोषणतंत्र बंद हो, इस पर कविताएँ लिखने वालों की कमी नहीं है; लेकिन महेंद्रभटनागर की कविताओं में जो तल्ख़ी और ललकार है वह अन्यत्र दुर्लभ है। सफ़ेदपोश नेताओं ने गांधी जी के नाम का दुरुपयोग कर जनता को कितना ठगा है उसकी एक बानगी यहाँ प्रस्तुत हैः
“मोटे-मोटे खादीपोश/बदकिरदार व्यापारियों-पूँजीपतियों/मकान-मालिकों, कॉलोनी-धारियों, वकील नेताओं के मुँह में/यथापूर्व/ विराजमान हैं गांधी/ बँगलों और कोठियों में/दीवारों पर टँगे हैं गांधी/(या सलीब पर लटके हैं गांधी)/ तिकड़मी मस्तिष्क के बद-मिज़ाज/नये भारत के भाग्य विधाता/ ’एम्बेसडर’ में/धूल उडाते /मज़लूमों पर थूकते/मानवता को रौंदते/ अलमस्त घूमते हैं। किंचित सुविधाओं के इच्छुक/उनके चरण चूमते हैं। मेरी पूरी पीढ़ी हैरान है/नेतृत्व कितना बेईमान है।’’
(हमारे इर्द-गिर्द, ‘समग्र’ खण्ड-3, पृष्ठ 143-144)।
महेंद्रभटनागर का एक काव्य-संग्रह ही है ’आहत युग’ । इसमें युगीन विसंगतियों को आसानी से देखा जा सकता है। बाहुबलियों ने प्रजातंत्र का गला घोंट दिया है। उनके हस्तक्षेप से प्रजातंत्र प्रजातंत्र नहीं लगता। महेंद्रभटनागर कविता लिखते हैं: जिसका उपद्रव-मूल्य है
वह पूज्य है!.....
जो जितना मुखर और लट्ठ है
जो जितना कडुआ मुखर
और जितना निपट लट्ठ है
उसके पीछे-आगे / दाएँ –बाएँ ठट्ठ हैं !
उतने ही भारी भड़कीले ठट्ठ हैं!
उसका गौरव/अनिर्वचनीय है
उसके बारे में और क्या कथनीय है !
(प्रजातंत्र, ‘समग्र’ खण्ड-3, पृष्ठ 223-24)
मात्र विसंगति, विडम्बना, कुरूपता भयावहता, व्यंग्य-विरोध ने महेंद्रभटनागर को रचना-प्रेरित किया हो, ऐसी बात नहीं है। उनकी कविताओं में इनकी उपस्थिति इसलिए अधिक है ताकि उन्हें माँज-धोकर, झाड़-पोंछकर (ज़रूरत पड़े तो हटाकर) स्वस्थ समाज का निर्माण किया जा सके। मानवीय मूल्यों को पुर्नप्रतिष्ठित किया जा सके।
जहाँ कवि इन विद्रूपताओं से तटस्थ हुआ है वहाँ उसकी सौन्दर्यग्राही दृष्टि प्राकृतिक सौन्दर्य को निरखने-परखने में व्यस्त रही है। जाड़े की धूप, फागुन की मस्ती, सावन की रिमझिम, खेतों-खलिहानों की सुषमा का वर्णन इसीलिए सजीव हो उठा है कि कवि उसमें सराबोर है, आप्लावित है। ‘बरखा की रात’ शीर्षक कविता उसकी कल्पना विधायिनी शक्ति का मनोहर प्रदेय हैः
“दिशाएँ खो गयीं तम में
धरा का व्योम से चुपचाप आलिंगन।
धरा ऐसी कि जिसने नव-
सितारों से जड़ित साड़ी उतारी है,
सिहरकर गौर-वर्णी स्वस्थ
बाहें गोद में आने पसारी है,
समायी जा रही बनकर
सुहागिन, मुग्ध मन है और बेसुध तन!
कि लहरों के उठे शीतल
उरोजों पर अजाना मन मचलता है,
चतुर्दिक घुल रहा उन्माद
छवि पर छा रही निश्छल सरलता है,
खिंचे जाते हृदय के तार
अगणित स्वर्ग-सम अविराम आकर्षण।’’
(‘सृजन-यात्रा’, पृष्ठ 199)
महेंद्रभटनागर की सौन्दर्यग्राही दृष्टि नारी और प्रकृति दोनों पर केंद्रित रही है। सौन्दर्य प्रेम का आधार है। कवि का प्रेम नारी और प्रकृति दोनों पर उमड़ा है। वह मानव-मन की सहज वासना को प्रकृति पर आरोपित कर सुन्दर प्रेम कविता रचने में अत्यंत निपुण है। ’चाँद’ के व्याज से प्रेम की विविध मनःस्थितियों को उजागर करने में उसकी कलात्मक प्रौढ़ता दर्शनीय है। ऋतु सन्दर्भित कविताओं में रोमांस और आकर्षण की प्रबलता अत्यंत मनोहारी है। ‘शिशिर की रात’ कविता में आकाश-धरती का आलिंगन-बद्ध हो प्रणय-तार को झंकृत करना मांसल-प्रेम का अनूठा वर्णन हैः
धरा-आकाश एकाकार आलिंगन/प्रणय के तार पर यौवन भरा गायन/फिसलता नीलवर्णी शून्य में आँचल/शिशिर-ऋतु-राज, राका-रश्मियाँ चंचल।’’ (‘समग्र’ खण्ड-2, पृष्ठ 214)।
हेमन्ती धूप को कवि प्रिया मान उसकी गोद में सोने की आकांक्षा प्रकट करता हैः
“प्रिया-सम/गोद में इसकी/चलो, सो जायँ/दिन भर के लिए खो जायँ/कितनी काम्य/कितनी मोहिनी है। धूप हेमन्ती!/कितनी सुखद है/ धूप हेमन्ती!’’ (‘सृजन-यात्रा’, पृष्ठ 205)।
केदारनाथ अग्रवाल की ‘बसन्ती हवा’ की तर्ज़ पर महेंद्रभटनागर ने भी बसंती हवा को केन्द में रखकर ’अनुभूत-अस्पर्शित’ शीर्षक कविता का प्रणयन किया है; किन्तु केदार की कविता में बसन्त का उल्लास है, उमंग है और धरती से आकाश तक सभी को आह्लादित करने की कामना है; जबकि महेंद्रभटनागर की कविता में बसन्ती हवाओं के प्रदेयों का उल्लेख करते हुए यह आग्रह है कि वे कवि के सुनसान वीरान मन को मत छुए। यहाँ कवि बसन्त के मादक-उन्मादक तथा उल्लास-उमंग भरे वातावरण में फिर अपने अकेलेपन की व्यथा-कथा कहने से मुक्त नहीं हो सका हैः
“भटकती बहकती बसन्ती हवाओ!/मुझे ना डुबाओ/उफ़नते-उमड़ते/भरे पूर रस के कुओं में, सरों में/मधुर रास-रज के कुओं में, सरों में/छुओ मत मुझे/इस तरह मत छुओ/ओ बसन्ती हवाओ!/दहकती चहकती बसन्ती हवाओ!/अभिशप्त यह क्षेत्र वर्जित सदा से/न आओ इधर/यह विवश/एक सुनसान वीरान मन को/समर्पित सदा से।’’ (वही, पृष्ठ 207)
प्रकृति के सुन्दर, रमणीय और मोहक प्रसंगों में कवि का निजत्व अखरता नहीं; बल्कि वृहत सन्दर्भों में मानव-मन को प्रतिबिम्बित करता है। व्यष्टि, समष्टि से जुड़कर ही कविता को विशिष्ट अर्थ देता है, व्यापकता प्रदान करता है।
जीवन-राग के बिना मानव का अस्तित्व अधूरा है, अपूर्ण है। इसीलिए वह आदिम युग से ही कविता का प्रिय विषय रहा है। महेंद्रभटनागर की काव्य-चेतना में जीवन-राग के लिए विशेष स्थान है। वह पुनरावृत्ति के रूप में नहीं; बल्कि नवीनता के साथ उपस्थित है। जीवन-यात्रा में प्रतिक्षण कुछ न कुछ घटित होता रहता है; लेकिन कवि का मानना हैः
“सब भूल जाते हैं...../केवल/याद रहते हैं/आत्मीयता से सिक्त/कुछ क्षण राग के/संवेदना अनुभूति/रिश्तों की दहकती आग के/’’ (वही, पृष्ठ 134)।
इसीलिए कवि की अभिलाषा हैः
“उम्र यों ढलती रहे/उर में/धड़कती साँस यह चलती रहे/दोनों हृदय में/स्नेह की बाती लहर बलती रहे/ जीवन्त प्राणों में परस्पर/भावना-संवेदना पलती रहे।’’
आज ’प्रेम’ शब्द का बहुत अपकर्ष हुआ है। कवि केदारनाथ सिंह को यहाँ तक लिखना पड़ा हैः “जहाँ लिखा है प्यार/वहाँ लिख दो सड़क/कोई फ़र्क नहीं पड़ता।’’ इसके विपरीत महेंद्रभटनागर की दृष्टि में:
“प्यार है तो ज़िन्दगी महका/हुआ एक फूल है/अन्यथा हर क्षण हृदय में/तीव्र चुभता शूल है।’’ (वही, पृष्ठ 137)।
प्रेम के बारे में कहा जाता है कि वह आग का दरिया है जिसमें डूबकर जाना पड़ता है, तलवार की धार पर दौड़ना पड़ता है, वह खाला का घर भी नहीं है। अभिप्राय यह है कि प्रेम का मार्ग सरल नहीं है। लगभग इसी ज़मीन पर खड़े होकर महेंद्रभटनागर कहते हैं:
“कह रही है हूक भर यह चातकी
प्रेम का यह पंथ है कितना कठिन
विश्व बाधक देख पाता है नहीं
शेष रहती भूल जाने की जलन।’’
(तुम्हारी याद, ‘समग्र’ खण्ड -1, पृष्ठ 147-148)
तत्वचिंतकों, दार्शनिकों तथा मध्यकालीन भक्त कवियों की भाँति महेंद्रभटनागर भी मृत्यु के यथार्थ को सबके सामने लाना चाहते हैं। इसीलिए उनके यहाँ मृत्यु-बोध की कविताओं की संख्या काफ़ी है। कवि का मानना हैः
“मुत्यु नहीं होती/तो ईश्वर का भी अस्तित्व नहीं होता/कभी नहीं करता/मानव/प्रारब्धवाद से समझौता।’’ (सृजन-यात्रा, पृष्ठ 224)।
महेंद्रभटनागर मुत्यु-भय से भयभीत नहीं करते; बल्कि निडरता का भाव पैदा करना चाहते हैं। वे मृत्यु को ललकारते नहीं बल्कि प्यार से आमंत्रित करते दिखाई देते हैं। उसे अपना मित्र बनाने के इच्छुक दीखते हैं। निराला की तरह वे भी मृत्यु को मधुर मानते हैं। यह जानते हुए कि मृत्यु-कर से कोई छूटेगा नहीं वे मृत्यु पर जीवन-जगत की जीत का गीत गाते हैं:
’’गाता हूँ/विजय के गीत गाता हूँ/मृत्यु पर/जीवन-जगत की जीत गाता हूँ।’’
जीवन-जगत के यथार्थ को साहस और निष्पक्षता के साथ लिखने वाले विरल हैं। महेंद्रभटनागर प्रत्यक्ष-बोध के कवि हैं। जीवन-जगत की यथार्थ संवेदना के कवि हैं; जिसे वे स्पष्ट रूप से स्वीकारते भी हैं -
जीवन और जगत जैसा हमको प्रत्यक्ष दिखा
वैसा, हाँ केवल वैसा, हमने निष्पक्ष लिखा।
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पता-
डा॰ व्यास मणि त्रिपाठी,
जे.जी. 167, टाइप-4, जंगलीघाट,
पोर्ट ब्लेयर - 744103
(अण्डमान)
मोबाइल सं. 9434286189
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