3 . सड़कों के प्रकार भारत के योगियों और सड़कों के अन्तर्संबंधों पर शोध करनेवाले मेरे एक सड़कछाप शोधार्थी मित्र हैं। (मित्र असाधारण हैं, परन्...
3 . सड़कों के प्रकार
भारत के योगियों और सड़कों के अन्तर्संबंधों पर शोध करनेवाले मेरे एक सड़कछाप शोधार्थी मित्र हैं। (मित्र असाधारण हैं, परन्तु सड़कों पर शोधकार्य में जब से वे प्रवृत्त हुए हैं, उन्होंने अपना उपनाम सड़कछाप रख लिया है।) अपने शोधकार्य का महत्व समझाते हुए एक दिन मुझे उन्होंने ये बातें बतलाईं थी -
'एक अतिप्रभावशाली और सभ्रांत व्यक्ति था। वह आपने एक मातहत को बुरी तरह झिड़क रहा था। कह रहा था - ''सड़क निर्माण के पवित्र कार्य में लगे हो और राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण की बातें करते हो? इसी से सड़कें बनेगी? साले चूतिए। राष्ट्र और चरित्र जाये भांड़ में। (यहाँ 'भांड़ में' की जगह आप अपनी सुविधा अनुसार अन्य शब्द, जैसे - 'चूल्हे में' का भी प्रयोग कर सकते हैं।) हम सड़क निर्माता हैं। हमने केवल सड़क निर्माण का ठेका लिया है; राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण का नहीं। केवल सड़कें बनायेंगे, सड़कें ही बिछायेंगे, सड़कें ही ओढ़ेंगे और सड़कें ही खायेंगे। यह अलग बात है कि भविष्य में जब कभी भी राष्ट्रनिर्माण का टेण्डर निकलेगा तो वह हमारे ही खाते में आयेगा। चरित्र-निर्माण का टेण्डर निकला तो वह भी हमी को मिलेगा। तब हम वह भी कर लेंगे। अभी मुफत में इसे काहे बाँटते फिरते हो। सब्र नहीं कर सकते। अभी से राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण का काम करके हमें कितना नुकसान होगा, जानते हो? और फिर राष्ट्र और चरित्र बनाकर क्या उखाड़ लोगे। खूब बना लिये राष्ट्र। खूब बना लिये चरित्र। जाओ! अभी सड़कें बनाओ, राष्ट्र और चरित्र बनते रहेंगे।''
उस अतिप्रभावशाली और सभ्रांत व्यक्ति की इन बातों से मैं बड़ा प्रभावित हुआ। कारण साफ है - बातें बिलकुल मौलिक हैं। इसमें सत्य और ईमान की झलक है। विचारों में नवीनता है। ऐसी बातें मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी। कहीं पढ़ा भी नहीं था। जाहिर है, ऐसी बातें करनेवाला पहुँचा हुआ कोई योगी अथवा ज्ञानी ही होगा। इन्हीं चीजों ने मुझे सड़कों और सड़कों के बारे में चिंतन करनेवाले योगियों पर अनुसंधान करने के लिए प्रेरित किया। इसीलिए मेरे शोध में दी जा रही सामग्रियों का सीधा संबंध सड़कों के निर्माण से है, न राष्ट्र निर्माण से और न ही चरित्र निर्माण से। रही बात राष्ट्र निर्माण और चरित्र निर्माण की - ये विषय 'आऊट आफ फैशन' हैं। इन पर बातें करके मैं आपको और आपके अमूल्य समय को नष्ट करना नहीं चाहूँगा। किसी को भी बोर करना या कष्ट देना नहीं चाहूँगा।
राज की एक बात कहता हूँ - शोध कार्य जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, एक नया तथ्य सामने आ रहा है। सड़क निर्माण के साथ-साथ राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण का काम भी होता रहता है, एकदम आधुनिक शैली में। यह आम तरह के राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण से बिलकुल अलग तरह का होता है, एकदम विशिष्ट। अतः कहा जा सकता है कि सड़क निर्माण, राष्ट्रनिर्माण और चरित्र-निर्माण, तीनों, सहपोषी किस्म के कार्य हैं। इस नाते मेरी यह शोध-सामग्री भविष्य में सड़कों पर शोध करनेवाले शोधार्थियों, निबंध लिखनेवाले विद्यार्थियों या फिर कमर कसकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारियों में जुटे प्रतियोगियों के लिए अतिउपयोगी, सहयोगी सामग्री सिद्ध होगी।
मेरे शोध-प्रबंध के पहले अध्याय का शीर्षक ही है - ''प्रतियोगी, उपयोगी, सहयोगी तथा योगी''। इस अध्याय में इन शब्दों की उत्पत्ति और इनके अन्तर्संबंधों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। मसलन - यह देश योगियों का देश रहा है। पहले यहाँ चार प्रकार के योगी पाये जाते थे - प्रतियोगी, सहयोगी, उपयोगी तथा योगी (शुद्धयोगी)। मनोविकार श्रेणी के सभी तत्व और वे सभी लोग जो योग और उसकी माया के प्रतिगामी होते थे, विरोधी और बाधक होते थे; प्रतियोगी कहलाते थे। योगी का बिलकुल विलोम। इसी तरह मनोविकार श्रेणी के सभी तत्व और वे सभी लोग जो योग और उसकी माया के अनुगामी होते थे, साधक होते थे; सहयोगी कहलाते थे। वे साधक जो योगसिद्धि के मार्ग में बीच मे ही अटक-भटक जाया करते थे और योगियों की पूँछ पकड़कर अपनी जीवन-नैया पार लगाया करते थे - उपयोगी कहलाया करते थे।'
योग और योगियों से संबंधित उनके शोधकार्य के प्रथम अध्याय के इस महत्वपूर्ण अंश का अमृतपान करते हुए मुझे योगनिद्रा आने लगी थी। वे तत्काल समझ गये थे। झकोरते हुए उन्होंने कहा था - 'अब जैसा कि आप जानते ही हैं, उत्तरआधुनिकता का दौर है। योगियों ने अपने आपको बदल लिया है। अपने अर्थ और सामर्थ्य को भी बदल लिया है। योगी लोग ही जब बदल गये हैं तो बेचारे ये शब्द क्या करते, मर तो नहीं जाते न? इन लोगों ने भी अपने-अपने अर्थ बदल लिये हैं।
पुराने समय में योगीगण अपने योगों को साधने के फिराक में जंगल, पहाड़, बीहड़, गाँव और शहर; चारों ओर मारा-मारा फिरा करते थे। इनके मार्ग बड़े दुर्गम और कठिन हुआ करते थे। कंटकों और कंकड़ों से भरे होते थे। छोटे-बड़े गड्ढे ही गड्ढे होते थे। जनलेवा खाइयाँ होती थी, दरारें होती थी। कहीं भयंकर धूल तो कहीं दलदल और कीचड़ ही कीचड़ होते थे। कहीं ये पगडंडियों में रूपान्तरित हो जात थे तो कहीं-कहीं निराकार ईश्वर की भाँति अदृश्य भी हो जाते थे। इसीलिए योगियों ने अपने योगमार्ग को कठिन मार्ग कहा है। परन्तु योगीगण कभी भी कठिन योगमार्ग से दुखी और विचलित नहीं होते थे। वे जानते थे - योगमार्ग जितना दुर्गम और कठिन होगा उतने ही ऊँचे भगवान के दर्शन होंगे, उतने ही ऊँचे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
योगी लोग इन मार्गों पर चलकर मोक्ष और स्वर्ग प्राप्त करते थे। यह परंपरा आज भी जारी है। उस जमाने के सारे योगमार्ग आज भी जीवित हैं। योगियों की कर्मनिष्ठ-तापोनिष्ठ संतानें - आज की जनता, इन मार्गों पर चलकर प्रतिदिन बड़ी संख्या में मरती है। मरकर स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करती है।
इन जीवित योगमार्गों को हमारी आज की नासमझ सरकारें राजमार्ग बनाने पर तुली हुई हैं। पर ये मार्ग भी बड़े हठीले और चमत्कारी होते हैं, अपना रूप बदलने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं। डामर चिपकानेवाली मशीनें जैसे ही लौटती हैं, ये फिर अपने असली रूप में आ जाते हैं। बेचारी सरकार क्या करे, इन हठमार्गों के हठ के सामने उनकी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं।
इन मार्गों पर डामर चिपकाने का काम देखकर हमारी जनता दुखी होकर कहती है - 'यह तो हमारे साथ सरासर धोखा है। हमारे स्वर्ग और मोक्ष के मार्गों को बंद किया जा रहा है।' परन्तु डामर चिपकानेवाली मशीनों के लौटते ही ये मार्ग जब अपने असली रूप में आ जाते हैं तो जनता को परम शांति मिलती है। उन्हें अपनी परंपरा और अपने मार्ग पर गर्व होता है। 'ये हठीले योगमार्ग कभी आधुनिक नहीं हो सकते।'
सड़कछाप मित्र की बातें अब मेरी समझ में आने लगी थी। उनके योगमार्ग-पुराण के प्रवचन का उद्यापन करते हुए मैंने कहा - 'ठीक कहते हो मित्र। हमारे जैसे चूतिये टाइप कुछ लोग चिल्लाते रहते हैं कि - भाइयों, सड़क बनाने के नाम पर सड़क बनानेवाले और डामर चिपकानेवाले लोग मनमानी करते हैं। भ्रष्टाचार करते हैं। आपके साथ छल करते हैं। स्वर्ग और नरक का इन मार्गों के साथ कोई संबंध नहीं है। स्वर्ग भी इसी धरती पर है और नरक भी। मोक्ष भी यहीं है।'
पर जनता कहती है - 'हमारी परंपरा का मजाक बनानेवाले इन साले खतरनाक पागलों और बीमारों को अस्पताल क्यों नहीं भेज दिया जाता। पगला जाने पर या सन्निपात हो जाने पर ही लोग इस तरह चिल्लाते हैं। अरे छोड़ो यार, सालों को चिल्लाने दो। इनकी बातों का क्या बुरा मानना।'
मेरी इस धृष्टता के कारण सड़कछाप मित्र नाराज होकर चले गये। परन्तु सड़कछाप मित्र की बाते सुनकर अब मेरी भी अंतर्दृष्टि काम करने लगी है। मैं साफ-साफ देख पा रहा हूँ कि यहाँ की कुछ सड़कें पवित्र सरस्वती नदी की तरह होती हर्ैं। पवित्र सरस्वती नदी की तरह ही पतित पावनी, मोक्ष दायिनी होती हैं। होती तो हैं पर दिखती नहीं हैं। ये सड़कें मरम्मत और सुधार के नाम पर हर साल अरबों रूपये की मांग करती हैं। इन रूपयों से वह सड़क बनानेवाले और डामर चिपकानेवाले अपने भक्तों की वर्तमान पीढ़ी और उसके आगे की सात पीढ़ियों के लिए स्वर्ग का सुख प्रदान करती हैं। उन्हें मोक्ष देती हैं। इस तरह की सड़कें केवल सड़क बनानेवाले और डामर चिपकानेवाले लोगों के रिकार्ड रूपी पवित्र पुराणों में दिखती हैं। इसे ढूँढ़ने का प्रयास न करें, धरातल पर ये होती नहीं हैं।
महान राजनेताओं, महापुरुषों और शहीदों के नाम पर अनेक मार्ग होते हैं। धर्म गुरुओं के नाम पर भी बड़े-बड़े मार्ग होते हैं। श्रद्धा और भक्ति के कारण कुछ लोग इन मार्गों के लिए पंथ शब्द का भी प्रयोग करते हैं। पर इन सबसे हटकर हमारे नगर में एक अनूठा मार्ग है। कुछ साल पहले इस मार्ग पर इसी मुहल्ले के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति को एक ट्रक ने अपनी चपेट में ले लिया था। दुष्ट निर्दयी ट्रक ने उस सज्जन को उनकी बाईक सहित आधे फर्लांग तक घसीटा था। बेचारे तुरन्त स्वर्ग गमन कर गये थे। लोगों की भावनाएँ बड़ी आहत हुई थी। मुहल्लेवालों ने चाहकर भी आजतक कभी चक्काजाम, हड़ताल, प्रदर्शन जैसा राष्ट्रीय कार्य किया नहीं था। उन्हें अच्छा अवसर मिल गया था। शव को बीच सड़क पर रखकर चक्का जाम कर दिया गया था। दुर्घटना और मृत्युकारित करनेवाली ट्रक तो बच निकली थी। परन्तु चक्काजाम में कई निर्दोष वाहनों के चक्के जाम हो गये थे। लोगों ने उन्हें अपने क्रोधाग्नि से भस्म कर डाला था। लोगों का कहना था - 'अकाल मृत्युकारित होनेवाला यह सज्जन इस मुहल्ले में जन-जन के वंदनीय थे। यहाँ स्पीडब्रेकर नहीं बल्कि उनकी स्मारक बननी चाहिए। स्मारक देश की परंपरा के अनुसार बननी चाहिए। सज्जन को जहाँ तक घसीटा गया है, उतने को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए। जहाँ-जहाँ उनके पवित्र रक्त गिरे हैं वहाँ-वहाँ स्मृतिचिह्न बनने चाहिए, एकदम शक्तिपीठ की तरह।'
सरकार ने कहा - 'आम रास्ता होने के कारण यहाँ स्मारक बनाना संभव नहीं है। स्पीड ब्रेकर जरूर बन जायेगा।'
लोगों ने कहा - 'स्पीड ब्रेकर बनें मगर सज्जन को जहाँ तक घसीटा गया है, वहाँ तक बनें।'
सरकार ने कहा - 'उन्हें लगभग सौ मीटर तक घसीटा गया है। इतना लंबा स्पीड ब्रेकर बनाना संभव नहीं है। कोई दूसरा तरीका सुझाइए।'
लोगों ने कहा - 'सज्जन साठ साल के थे इसलिए लगातार साठ ब्रेकर बनने चाहिए।'
सरकार ने कहा - 'यह तो दो सौ मीटर से भी अधिक लंबा होगा। कोई व्यावहारिक तरीका बताइए।'
एक चंदनधारी व्यक्ति ने सुझाव दिया - 'दुर्घटना पंद्रह तारीख को हुई है। संयोग से तिथि भी पूर्णिमा की है। अतः ब्रेकरों की संख्या भी पंद्रह होने चाहिए।'
यह नेक सलाह सबको भा गई। जनमानस के मापदण्डों के अनुसार आनन-फानन में लगातार पंद्रह भव्य स्पीड ब्रेकर बनाये गये।
आगे चलकर इस मार्ग में इस स्मारक के प्रभाव से और भी स्मारकों का प्रणयन हुआ और अब यह मार्ग स्मारक मार्ग नाम से विख्यात हो गया है। मुहल्लेवाले अब हमेशा अकड़े रहते हैं कि देखो, सरकार को हमने झुका दिया। यहाँ के श्रद्धालुगण इस मार्ग को स्मारक मार्ग कहते हुए अपार श्रद्धाभाव से भर जाते हैं।
अन्य शहरों में भी स्मारक मार्ग होते होंगे, पर इस तरह के नहीं ही होते होंगे। इस मार्ग पर हर दस कदम पर बड़े-बड़े स्पीड ब्रेकर बने हुए है। अकाल मृत्युकारित होनेवाले उस सज्जन की रूष्ट और असंतुष्ट आत्मा आये दिन अपनी अकाल मृत्यु का बदला लेती रहती है। इनके ऊपर से गुजरनेवाले अनेक लोगों की टांगों, पैरों और माथे की हड्डियाँ टूट चुकी हैं। अनेकों के बैकबोन ढीले पड़ चुके हैं। अनेक लोग कमर दर्द के स्थायी मरीज बन चुके हैं। अब तो इस मार्ग पर जनमानकों के अनुरूप बने इन खतरनाक स्पीड ब्रेकरों को समझदार लोग बोन ब्रेकर कहने लगे हैं।
अन्य शहरों में इस तरह के स्मारक मार्ग चाहे नहीं होते होंगे, परन्तु इस मार्ग का लघु संस्करण - मारक मार्ग, तो देशभर में कहीं भी देखे जा सकते हैं। इन मार्गों से गुजरना और सुरक्षित पार हो जाना वैतरणी पार करने जैसा होता है।
यहाँ बहुतायत में पशुसंरक्षण मार्ग भी पाये जाते हैं। इन मार्गों पर पशुओं का आधिपत्य होता है। ये मार्ग पशुवंश की आहार, विहार, निद्रा, क्रीड़ा और विष्ठा के लिए संरक्षित होते हैं। इन पशुओं की सामान्य दिनचर्या में बाधा पहुँचाने का दुस्साहस करनेवाले अनेक लोग अपनी हड्डियाँ तुड़वा बैठते हैं। कामक्रीड़ा के दिनों में इन्हीं मार्गों पर पशुगण अपनी-अपनी काम-कलाओं का उन्मुक्त प्रदर्शन कर लोगों का मुफ्त मनोरंजन करते हैं और उनकी वाहवाही बटोरते हैं।
इतने सारे विलक्षण मार्गों वाले इस देश के प्रति जिनका सिर श्रद्धा से न झुके, उन सब देशद्रोहियों के सिर कलम कर देने चाहिए।
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कुबेर
जन्मतिथि - 16 जून 1956
प्रकाशित कृतियाँ
1 - भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह) 2003
2 - उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) 2009
3 - भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010
4 - कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011
5 - छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्तीसगढ़ी लोककथात्मक प्रलंब कहानी संग्रह) 2013
6 - माइक्रोकविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह) 2015
7 - ढाई आखर प्रेम के (अंग्रेजी कहानियों का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद) 2015
प्रकाशन की प्रतिक्षा में
1 - और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह)
2 - ये भी कहानियाँ हैं (कहानी संग्रह)
3 - कुत्तों के भूत (व्यंग्य संग्रह)
सम्मान
गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012, जिला प्रशासन राजनांदगाँव
(मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा)
पता
ग्राम - भोड़िया, पो. - सिंघोला, जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.),
पिन - 491441
संप्रति
व्याख्याता,
शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, वार्ड 28, राजनांदगाँव (छ.ग.)
पिन - 491441
मो. - 9407685557
E mail : kubersinghsahu@gmail.com
Blog : storybykuber.blogspot.com
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