वचन मत देना - कहानी - मधुरिमा प्रसाद

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वचन मत देना सरजू भइया खुद तो भगवान को प्यारे हो गए पर जाते-जाते जीवन सुरक्षित करने के नाम पर अपनी बेटी सरस्वती का जीवन नर्क बना गये साथ ह...

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वचन मत देना

सरजू भइया खुद तो भगवान को प्यारे हो गए पर जाते-जाते जीवन सुरक्षित करने के नाम पर अपनी बेटी सरस्वती का जीवन नर्क बना गये साथ ही अपने लँगोटिया यार के बेटे का भी। सरजू के लँगोटिया यार यानी रामबरन। रामबरन एकलौते बेटे लल्लन के एक सीधे-साधे पिता थे। उधर सरजू की भी एकलौती बेटी थी सरस्वती। सरजू और रामबरन की बचपन से ही बड़ी गहरी दोस्ती थी। दोनों मध्यम वर्गीय परिवारों से थे। इंटर तक की पढ़ाई दोनों ने साथ-साथ की थी पर आगे चल कर समय और परिस्थितियों ने दोनों को दूर कर दिया था। रास्ते की दूरियाँ तो हुईं पर दोनों के दिल सदा एक दूसरे के समीप ही रहे। जवानी की देहलीज पर खड़े, हँसते खेलते सरजू के परिवार पर अचानक गाज गिर पड़ी। सरस्वती पांच साल की भी पूरी नहीं हुई थी कि उसकी माता का स्वर्गवास हो गया। सरजू की आयु अभी मात्र तीस वर्ष ही थी। समाज के चलन, दुनियादारी और छोटी बच्ची के लालन-पालन का हवाला दे कर सरजू पर बहुतों ने दबाव बनाया पर सरजू ने किसी की नहीं सुनी। दूसरा विवाह करके सरस्वती को सौतेली माँ के आँचल में डालना किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया। सरजू ने बेटी को माँ-बाप दोनों का प्यार दे कर बड़े नाज़ों से पाला था। सरस्वती पच्चीस वर्ष की हुई तो सरजू ने उसके लिए वर की तलाश प्रारम्भ कर दी थी पर विधि का विधान कुछ ओर ही था। अनायास सरजू बीमार हो गये। बहुत दवा-इलाज, दुआ-तावीज़ सब कुछ किया गया पर बीमारी पकड़ में नहीं आयी और फिर जब पकड़ में आयी तो क्षय रोग में तब्दील हो चुकी थी। आख़िरी स्टेज पर थी। केस बहुत बिगड़ चुका था कोई इलाज नहीं था। अतः दिन गिनने के सिवाय कुछ बचा ही नहीं था।

रामबरन अपने परिवार में पूरी तरह सुखी थे। कपड़े का व्यवसाय बढ़िया चल रहा था। पिता व्यवसाय चलाते थे पुत्र लल्लन एक शुगर मिल में मैनेजर के पद पर कार्यरत था। तनख्वाह तगड़ी थी। मिल मालिक एक ऊँची हैसियत वाले व्यक्ति थे। उनके और भी कई तरह के कारोबार थे। दो सन्तानें थीं एक बेटा और एक बेटी। दुर्भाग्य से बेटा मानसिक रूप से अस्वस्थ्य था। बेटी ही उनके सारे कारोबार में देख-रेख करती व हाथ बंटाती थी। लल्लन एक मेहनती और ईमानदार व्यक्ति था। इसीलिए मालिक की उस पर विशेष कृपा रहती थी और......और उनकी बेटी अंजना की भी। वह दिन-पर-दिन लल्लन के क़रीब आती जा रही थी। उसका साथ पाने के लिए तरह-तरह के बहाने वह तलाशती रहती थी ; कभी हिसाब-किताब देखने-समझने के बहाने, कभी जाँच-पड़ताल करने के नाम पर किसी व्यापारी दौरे पर जाने के बहाने। बस उसकी निकटता पाना चाहती रहती थी वह। ऐसा नहीं कि लल्लन आकर्षित नहीं था लेकिन वह बहुत सोच-विचार और सूझ-बूझ वाला इंसान था वह नहीं चाहता था कि उसका आकर्षण उसके लिये एक दिन दर्द की गाँठ बन जाये। दोनों परिवारों में हैसियत के आधार पर ज़मीन आसमान का सा अन्तर था। सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा था कि एक दिन सरजू का फोन रामबरन के पास आया। उसने अपनी बीमारी का हवाला देते हुए बड़ी ही मायूसी से उसे अपने पास बुलाया था। रामबरन बेटे को साथ लिए जो पहली बस मिली उसी से गोरखपुर के लिए रवाना हो गए।

सरजू ठठरी सी देह लिए बिस्तर पर पड़े हुए थे। शरीर निर्जीव सा हो रहा था। उसकी कराह रामबरन के ह्रदय में तीर सी चुभी जा रही थी। हर खांसी में खून आ रहा था। उलटी भी खून भरी हो रही थी। रामबरन समझ गए कि ये इनकी आखिरी घड़ी है। लेकिन जाने से पहले सरजू क्या कर जायेगा इसका रामबरन को भला कहाँ पता था ! आधी रात के समय यकायक सरस्वती की चीख से बगल के कमरे में सोये रामबरन और लल्लन जाग पड़े और दौड़े हुए उनके कमरे में पहुँचे तो सरजू को खून की उल्टी हो रही थी। आँखों से बहती जलधारा को आँचल से पोछती हुई सरस्वती एक प्लास्टिक का टब उनके सामने लगाये हुए थी। रामबरन ने टब उसके हाथों से ले लिया। लल्लन सरजू की पीठ सहला रहा था। उलटी कर चुकने के बाद उन्हें कुल्ला करवा कर जब लिटाया गया तो वे कुछ बेहतर महसूस कर रहे थे। रामबरन सब जानते समझते हुए भी झूठा आश्वासन देते हुए बोले ----

          'घबराओ नहीं सरजू भइया ! अब तुम ठीक हो जाओगे। गन्दा खून निकल गया। थोड़े दिन की दवा में तुम चलने फिरने लायक तो हो ही जाओगे।'

सरजू खुद समझदार था मुस्कुरा कर बोला ----'भइया रामबरन ! हमारे दिन तो पूरे हो गए हैं। जाने का कोई दुःख भी नहीं है पर सरस्वती का कुछ नहीं हो पाया आत्मा में यही तड़प बनी रहेगी।'

रामबरन ने सरजू का सिर सहलाते हुए भरे गले से कहा ----'काहे भइया ! काहे आत्मा को कष्ट देते हो उसका चाचा तो है न !'

बस रामबरन का इतना कहना था कि सरजू ने उनका हाथ अपने दोनों हाथों में थाम लिया और लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोले ---'सच कह रहे हो भइया ! मेरे बाद तुम्हीं तो हो जो इसके सिर पर हाथ रक्खोगे।' पल भर ठहर कर पुनः बोले---'मुझे एक वचन दे सको तो मै आसानी से इस दुनियाँ से जा सकूँगा।'

रामबरन भला क्या जानते थे कि यही एक वचन उनके परिवार की पूरी रूपरेखा ही बदल डालेगा; उन्होंने सरजू के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े अपनत्व के साथ कहा ---'अरे कहो न भइया ! इतनी दुविधा में क्यों पड़े हो। क्या हमारा तुम्हारा कुछ बांटा है ?'

          'मेरी बेटी को किसी अच्छे घर की बहू बनवा देना।' कह कर अपने गमछे में मुंह छुपा कर सुबक पड़े थे सरजू।

उधर रामबरन बिना आगा-पीछा सोचे पूरी तरह भावना में बह गए ---'हाँ ! हाँ सरजू भैया ! उसकी चिंता आप न करो  उसे तो मैं अपने ही घर की बहू बना लूँगा।'

अपनी ही धुन में,  दोस्त के प्यार में डूबे हुए रामबरन इतनी बड़ी बात बात कह तो गए पर दूसरे ही पल उनकी नज़र पास खड़े बेटे पर पड़ी जिसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। पिता की दृष्टि अपने चेहरे पर पड़ते ही वह तुरन्त कमरे से बाहर निकल गया। पीछे ही रामबरन भी बाहर निकले पर अभी वे लल्लन से कुछ बात करते-कहते कि सरस्वती की आवाज़ से वापस सरजू के पलंग की ओर दौड़ आये; सरस्वती बार-बार ---'बाबू जी ! बाबू

जी !! कुछ बोलते क्यों नहीं, कुछ तो बोलिये।' बोले जा रही थी पर बाबू जी होते तब तो बोलते वह तो इस संसार को छोड़ कर कहीं बहुत दूर जा चुके थे।

रामबरन और लल्लन सरस्वती को साथ लिये जब अपने घर पहूँचे तो रामबरन की पत्नी सुलभा कुछ अचम्भित तो हुई पर बोली कुछ नहीं। थोड़ा सुस्ताने और पानी-वानी पी चुकने के बाद जब लल्लन अपनी ड्यटी पर चला गया तो पति-पत्नी की आपस में बातचीत हुई। सत्य से अवगत होने पर सुलभा आश्चर्यचकित रह गयी। उसे लगा उसके ऊपर कोई बड़ा पहाड़ गिर पड़ा है। सरस्वती एक बहुत ही साधारण रूपरंग की लड़की थी। जबकि सुलभा ने अपनी बहू के रूप में जिस रूपवती कन्या की कल्पना की थी वह बिलकुल ही अलग थी। सरस्वती उनके बनाये उस अनुमानित फ्रेम में कहीं से भी नहीं समां पा रही थी। लेकिन जो होना था वह तो हो ही चुका था। पत्नी और पुत्र की अनिच्छा के बावजूद रामबरन को सरजू को दिया हुआ वचन तो निभाना ही था। अपनी बात तो रखनी ही थी आख़िर ऊपर जा कर भी तो उन्हें कुछ जवाब देना था।

लल्लन अपनी छुट्टियों का काम निपटाने में लगा हुआ था कि चपरासी ने आ कर अंजना मैडम का बुलावा सुना दिया। अंजना ने बिना किसी भूमिका के कहा ----'ऐसा है मैनेजर साब ! काली पहाड़ी वाली मिल के मजदूरों ने हड़ताल कर दी है। हमें वहाँ चलना पड़ेगा।' फिर यकायक लल्लन के चेहरे को पढ़ती हुई सी बोली ---'क्या बात है मैनेजर साब ! आप कुछ परेशान से लग रहे हैं; सब ठीक तो है न ! कोई दिक्क़त हो तो बताइये।'

          'नहीं ! नहीं मैडम कोई बात नहीं, सब ठीक ही तो है।' लल्लन  नींद से जागा और निरर्थक सहज होने का प्रयास करते हुए बोला।

          'गुड ! तो चलिए; गाड़ी तैयार है।'  मुस्कुराते हुए अंजना अपना पर्स उठा कर दरवाज़े की ओर बढ़ गयी।

लल्लन मरे मन से अपनी नौकरी कर रहा था क्योंकि नौकरी तो करनी ही थी। इधर रामबरन जल्दी-से-जल्दी लल्लन और सरस्वती को पक्के बंधन में बांध देना चाह रहे थे। क्योंकि एक कुँवारी लड़की का इस तरह घर में रहना चर्चा का विषय बन सकता था अतः रामबरन ने कुछ ही दिनों में ठीक-ठाक घडी-मुहूर्त देख कर दस-पांच नज़दीकी लोगों के बीच लल्लन और सरस्वती का विवाह कर दिया। लल्लन के लिए ये बड़ी परीक्षा की घड़ी थी। लल्लन ने पहली रात ही सरस्वती को साफ-साफ कह  दिया कि 'उसने ये शादी पिता जी का मन रखने के लिए ही की है। तुम इस घर की बहू बन कर रह सकती हो लेकिन मैं तुम्हें पत्नी का स्थान कभी नहीं दे सकूंगा। क्योंकि ये रिश्ता बिना मेरी इच्छा जाने-पूछे मुझ पर थोपा गया है।' सरस्वती बहुत रोयी-कल्पी लेकिन कुछ भी बदला नहीं। वह बेचारी बिना गुनाह की सजा भुगतने के लिए तैयार हो चुकी थी। जो सामने था उसे ही अपनी नियति मान लेने के सिवाय और कोई उपाय ही नहीं था उसके पास। कुछ कहती भी तो किससे उसकी सुनने वाला था ही कौन। सासू माँ से तो कुछ कह ही नहीं सकती थी। वे अपने पति के सामने तो सरस्वती से बड़ा ही लाड़ दिखातीं पर उनके पीठ पीछे जो न कह दें वही कम था। और बेटे के सामने तो ऐसे-ऐसे ऐब निकालतीं कि कहीं भूले भटके भी लल्लन के दिल में उसके लिए प्रेम पैदा न हो जाये। उनका हर पल सरस्वती को घर से निकालने के लिए नये-नये बहाने खोजने में बीतता था। माँ-बेटे की नज़र तो बस अंजना और उसके धन पर ही लगी हुई थी। बेचारी सरस्वती ले-दे के रामबरन की बहू बन कर रह गयी थी। वे बेचारे उसको समझाते ---'बेटी थोड़ा धैर्य से काम लो, धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा दरअसल अचानक उस पर ये ज़िम्मेदारी आन पड़ी है न, इसी से वह नार्मल नहीं हो पा रहा है। अभी वह शादी के लिए तैयार नहीं था। लेकिन तुम मत घबराओ जल्दी ही वह अपनी ज़िम्मेदारियों को समंझने लगेगा।' 

सरस्वती का जीवन एक नौकरानी से भी बुरी स्थिति में बीत रहा था रामबरन और लल्लन सुबह के निकले शाम ढले घर वापस लौटते थे। सरस्वती दिन भर खटती रहती मैले कीचट कपड़ों में लिपटी हुई घर का सारा काम करती। साँझ ढले सासू माँ बड़े प्यार भरे शब्दों में कहतीं ----'अरे बहू ज़रा कपड़े-लत्ते का तो ध्यान रखा करो दिन भर का थका-हारा पति घर आएगा तो तुम्हारी ऐसी हालत देख कर क्या खुश होगा ! नया-नया ब्याह हुआ है थोड़ा बन-संवर कर रहा करो।' ऐसा ही वह अक्सर किसी न किसी रूप में किया करती थी। कभी-कभी सरस्वती को सासू माँ की बातें मायावी सी लगा करतीं लेकिन वह उसके शब्द जाल को भला क्या समझ पाती। नतीजा यह कि  वह उसमे ही फंसती चली गयी।

लल्लन जब घर आता तो सुलभा उसे सीधे अपने कमरे में बुला लेती और साथ ही बहू को चाय-जलपान आदि वहीँ पहुँचाने के लिए हुक्म भी दे देतीं। और फिर बेटे को अकेला पा कर अपने तेज़-तीखे तीर चलाने शुरू कर देतीं ----'अरे बेटा ! ना जाने तुम्हारे पिता जी को क्या हो गया था जो ऐसी लड़की उठा कर ले आये। न रूप न रंग, न गुण न ढंग। घर के काम-काज में तो इसका रत्ती भर भी दिल नहीं लगता है और जो कुछ करती भी है वह भी उल्टा-पुल्टा, बेढ़ंगेपन से। मैं तो मर ही जाती हूँ खटते-खटते। ये महारानी जी तो सुबह से नहा-धो कर सिगार-पटार करके, सजधज के इधर-से-उधर टहलती रहती है।' फिर पल भर रुक कर बेटे के और क़रीब सरक कर जैसे कोई गुप्त बात कहने जा रही हों ---'और हाँ ! यहाँ तो ये किसी को जानती-पहचानती भी नहीं है फिर पता नहीं क्यों बार-बार बाहर झांकती रहती है कभी दरवाज़े से, कभी खिड़की से। और फिर अगर कहीं छत पर चढ़ गयी तब तो उतरने का नाम ही नहीं लेती है जब तक कि बुलाओ नहीं। मैं खाना बना कर जब खाने के लिए बुलाती हूँ तब जा कर कहीं नीचे आती है और जब खाना खा कर सोती है तो तेरे आने से पहले ही उठती है।'  

लल्लन झल्ला उठता और कहता ---'माँ ! मुझे क्यों उसकी रामकहानी सुनाती रहती हो। तुम जानो तुम्हारा काम जाने।'

सुलभा फिर भी बाज़ न आती ---'अरे  बेटा ! मैं क्या करूँ ये तो तुम्हारे पिता जी की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी जो यह खोटा सिक्का उठा कर ले आये। अरे किसी का कल्याण ही करना था तो कोई और घर तलाश लेते अपना ही घर मिला था उन्हें तबाह करने के लिए !' और फिर लगभग गिड़गिड़ाते हुए बेटे की बांह पकड़ कर कहती ----'अब तो बेटा तुझे ही कुछ करना पड़ेगा इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिये।'           

इसी तरह सरस्वती से पिंड छुड़ाने के रास्ते तलाशने में लगी रहती थी सुलभा। समय बीतता गया। और फिर एक दिन मंदिर से लौटते वक़्त सुलभा ने लल्लन को अंजना के संग कार में देख लिया था। शाम ढले लल्लन घर आया तो सुलभा ने उसके बारे में पूछा तो लल्लन ने जो सच था माँ को बता दिया। पर सुलभा की आँखों में उन दोनों का कार में बैठने का तरीका गड़ा हुआ था। उसने तिरछी नज़रों से देखते हुए बेटे से प्रश्न किया ---'बस इतना ही ?' 

लल्लन ने यों तो माँ को और कुछ नहीं बताया पर तब से ही सुलभा ने लल्लन को पूरी तरह अंजना की बाँहों में ढकेलने की योजना बनानी शुरू कर दी थी। यों लल्लन इतना भी हृदयहीन नहीं था। वह समझता था कि सरस्वती बेक़सूर है पर दूसरी तरफ उसका भी तो कोई क़ुसूर नहीं था जो बिना उसकी राय जाने पिता जी ने उसके जीवन का इतना बड़ा फैसला कर डाला ! अपने को बहुत समझाता पर इस इतनी बड़ी काया में जो नन्हा सा मन है वह बार-बार हावी हो ही जाता था। अपने को बहुत समझाने के बावजूद लल्लन सरस्वती को अपना न सका बल्कि विवाह के बाद अपनी ओर बढ़ती अंजना की ओर स्वयं उसके भी क़दम कुछ तेज़ी से बढ़ने लग गये थे। अंजना ने खुश तो होना ही था उसकी इतने दिन की मेहनत रंग ला रही थी किन्तु उसे आश्चर्य भी कम नहीं था कि सदा कटा-कटा रहने वाला ये लल्लन इतना सहज कैसे हो गया ! अब लल्लन उसके साथ कहीं आने-जाने में कतराता या आना-कानी नहीं करता था। कार में चलते वक़्त सुनीति के लाख कहने पर भी उसके बगल की सीट पर न बैठ कर आगे ड्राइवर के बगल वाली सीट पर ही बैठता था। लेकिन अब ऐसा नहीं था। इधर जब कभी भी ऐसा मौका आया अंजना के एक बार कहने पर ही वह बड़ी सहजता से उसके साथ पीछे वाली सीट पर बैठ जाता था। बहुत सोचने के बाद भी अंजना किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रही थी। उसे लल्लन के विवाह का भी पता था लेकिन बातचीत के दौरान लल्लन ने विवाह से कभी कोई क्षुब्धता भी ज़ाहिर नहीं की थी। इसीलिए वह बड़े असमंजस में थी। लेकिन वह लल्लन से अपने आपको दूर भी नहीं रख पा रही थी। उधर सुलभा की हर हरकत लल्लन और अंजना की प्रेमाग्नि को हवा दे ही रही थी। वह समय-समय पर उस अग्नि में घी डालती ही रहती थी। कभी बेटे से अंजना को घर लिवा लाने को कहती। कभी वह स्वयं आ पहुँचती तो खूब जम कर चाय-नाश्ता कराती साथ-साथ उसके सम्मान मे, उसके गुणों के बखान में खूब बढ़ चढ़ के बोलती। सरस्वती को बुरा तो लगता पर वह शांत बनी रहती फिर जब उसका पति ही उसका नहीं था तो भला ऐतराज़ करती भी क्यों ! सुलभा अक्सर लल्लन को अंजना के साथ अधिक-से-अधिक समय बिताने का मौका दिया करती थी। आग और घी को जानबूझ कर एक जगह इकट्ठा करने का जुगाड़ किया करती थी। सरस्वती से कभी सीधे मुंह बात न करने वाली सुलभा अंजना की उपस्थिति में बड़े प्यार से कहती ----'चल बहू ! ज़रा मोड़ से कुछ सब्ज़ी ही ले आयें। अकेले तो मुझसे झोला उठा कर चला नहीं जायेगा।'   

इस तरह लल्लन और अंजना को एकान्त देने के लिए कभी डॉक्टर के यहाँ तो कभी मंदिर और कुछ नहीं तो पडोसी के घर चली जाती; साथ ही बहू को ले जाना कभी भूलती नहीं थी। उसके ये हथकण्डे बढ़ते ही जा रहे थे लेकिन अति हर चीज़ की बुरी कही गयी है। यहाँ भी कुछ वैसा ही घटित हो गया। माना कि लल्लन ने सरस्वती को अपनी पत्नी नहीं माना था पर ब्याह तो उसका उसके साथ हुआ ही था। माना कि उसकी सुहागरात नहीं मनी थी पर वह सुहागन तो थी ही। यही कारण था कि एक दिन उस पर सुहाग का भूत सवार हो ही गया। उसने लल्लन के घर लौटने पर बड़े दबे शब्दों में प्रश्न किया ----'मेरी क्या गलती है ?'

          'ग़लती ? कैसी ग़लती ?' प्रश्न के बदले में लल्लन ने एक रूखा सा प्रश्न उछाल दिया उसकी तरफ।

         'यही कि मैं खुद तो आपके घर चली नहीं आयी हूँ। जो हुआ जब सब आपकी जानकारी में हुआ तो आप मना भी तो कर सकते थे।' सरस्वती उस दिन पूरे रौद्र रूप में आ चुकी थी----'बाबू जी की नज़रों में अच्छा बनने के चक्कर में मेरी क्यों ज़िन्दगी दाँव पर लगायी आपने। इससे तो अच्छा था आप लोग मुझे वहीँ छोड़ आये होते। किसी-न-किसी तरह जीवन काट लेती। एक ही दुःख होता कि मेरा कोई नहीं है पर सब के होते हुए अकेली होने की पीड़ा तो न झेलनी पड़ती।' और सरस्वती का इतने दिनों का बंधा हुआ बाँध टूट ही गया, वह वहीँ धरती पर बैठ कर फूट-फूट कर रो पड़ी।           लल्लन जो अभी तक सब कुछ सुन रहा था बिना कुछ बोले बस पैर पटकता हुआ बाहर चला गया। सुलभा जो अभी तक मूक दर्शक बनी सब देख-सुन रही थी बेटे के जाते ही घायल शेरनी की तरह पंजे झाड़ कर बिफर पड़ी -----'अरे तो अब क्या बिगड़ गया है। अब  चली जा न ! तेरा बाप जाते समय घर थोड़ी साथ ले गया है। लल्लन के बाबू जी को अभी तक कोई ग्राहक भी तो नहीं मिला है।' पल भर ठहर कर फिर  आँखें मटका कर बोली ----'और मिलेगा भी क्यों जिस घर में टी.बी. जैसी बीमारी से किसी आदमी की मौत हुई हो उसे कोई खरीदेगा ही क्यों ! क्या उसे अपना परिवार प्यारा नहीं होगा।'

          'चोप्प रहो लल्लन की माँ ! बहुत बोल चुकीं।' रामबरन जो अभी तक दरवाज़े के पीछे से सब सुन रहे थे चौखट में दाखिल होते हुए बोले।

रामबरन आगे कुछ बोलते उससे पहले ही ----'बाबू जी ! मुझे पापा के घर पहुँचा दीजिये।' कहते हुए सरस्वती उनके पैरों पर गिर पड़ी।

रामबरन भावुक हो उठे। उन्होंने सजल नेत्रों से सरस्वती को उठाया और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले -----'बस ! बस बेटी शांत हो जा; मैं अभी जिन्दा हूँ। मेरे जीते जी तुझे कुछ भी चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।'

          'है ! है बाबू जी ! चिंता करने की ज़रूरत तो है ही। मैं आपकी बेटी बन कर भी तो आपके घर में रह सकती थी। आपके घर का रख रखाव करती आपकी और अम्मा जी की सेवा करती; अभी भी तो वही कर रही हूँ। क्या इसके लिए बहू का रूप धारण करना ज़रूरी था बाबू जी ?'

सरस्वती की समूची आंतरिक पीड़ा उस दिन मुखर हो उठी थी। ऐसे वक़्त में रामबरन ही उसके एकमात्र आधार थे। उस दिन उसने वह सब कुछ कह डाला जो इतने दिनों से उसके ह्रदय में कांटे की तरह चुभ रहा था। रामबरन अवाक् से सब सुन रहे थे। उन्हें आश्चर्य था कि सरस्वती इतना कुछ अपने अन्तर में दबा कर कैसे रख पायी। इससे भी बड़ा आश्चर्य इस बात का था उन्हें कि एक ही घर में रहते हुए वे इन सभी बातों से अनभिज्ञ कैसे

रहे ! उनकी क्रोध से भरी दृष्टि जब सुलभा की और उठी तो वह यकायक कांप उठी। बहू पर बरसती ससुर की ममता ने उसे कोई बड़ा षड्यंत्र करने की योजना बनाने पर मजबूर कर दिया था। रामबरन ने उस समय सरस्वती को तो किसी तरह शान्त कर दिया लेकिन उनके स्वयं के अन्तर में अशान्ति का एक बहुत बड़ा बवंडर उठ खड़ा हुआ था। उन्हें सरस्वती की चिन्ता सताने लगी थी। उसका भविष्य सुरक्षित करना अब उन्हें आवश्यक लगने लगा था। बेटे से कुछ भी कहना उन्होंने उचित नहीं समझा लेकिन मन-ही-मन उन्होंने एक योजना बना ली थी। उन्होंने सरजू का मकान बेचने के प्रयास तेज़ कर दिये। उनका विचार था कि सरजू का मकान चालीस से पचास लाख के बीच बिक जायेगा और वे उस पूरी रक़म को सरस्वती के नाम से बैंक में जमा कर देंगे तो लल्लन और सुलभा की भावना उसके प्रति अवश्य ही बदल जायेगी। लेकिन वैसा कुछ भी होता इससे पहले सुलभा अपनी योजना में सफल हो गयी। उसे तो बस अंजना और उसकी दौलत ही दिखाई पड़ रही थी। अभी तक तो वह सरस्वती को तंग कर के घर से भगा देने की योजना ही बनाया करती थी पर ससुर की बहू के प्रति इतनी प्रगाढ़ प्रीति देख कर उसे लगा हल्की योजना से काम नहीं चलेगा इस काम में सफलता के लिए कोई ठोस क़दम उठाना पड़ेगा। और फिर जैसा कि युगों होता आ रहा है कि 'औरत ही औरत की दुश्मन होती है' वही यहाँ भी हो गया सुलभा ने अपने मस्तिष्क में एक ब्रह्मास्त्र योजना बना डाली। बहुत सोच-विचार के बाद उसे एक सूत्र मिल ही गया। सरस्वती के विवाह के कुछ दिनों बाद सरजू का कोई दूर के रिश्ते का भतीजा अर्जुन कहीं से अता-पता खोज-खाज के रामबरन के घर आ पहुँचा था। बस, सुलभा को बैठे-बिठाये एक सूत्र मिल गया।

          'अरे बहू ! तुम्हारा भाई जो एक बार आया था.. .' थोड़ा रुक कर कुछ सोचती सी.. .'क्या तो नाम था उसका ?   हाँ ! हाँ अर्जुन।  फिर कभी नहीं आया। कोई खबर-वबर है उसकी ? कहाँ है ?' बड़े प्यार भरे लहजे में सुलभा ने

सरस्वती से पूछा।

सरस्वती को आश्चर्य तो हुआ। पर प्यार और अपनेपन की प्यास में डूबी वह बेचारी उनकी कुटिलता की सीमा किस हद तक जा सकती है इसका तनिक भी अनुमान नहीं लगा पायी और उनके प्रेमपगे शब्दों के जाल में फंसती हुई बोली ----'नहीं अम्मा जी ! मुझे तो कोई ख़बर नहीं है।' साधारण सा उत्तर था उसका।

          'लल्लन को फोन नंबर तो दे गया था शायद, तुम्हीं फोन कर लेतीं।' दुखी सा चेहरा बनाते हुए आगे बोलीं ----'बेचारा ! बे माँ का बच्चा ! अपनों से हाल-ख़बर होती रहे तो इंसान को ढाढ़स रहता है। '

और सरस्वती फंस गयी सासू माँ के बिछाये हुए जाल में। उसे क्या पता था कि मीठी छुरी की तेज़ धार पर उसने अपना पाँव रख दिया है। अर्जुन से फोन पर हाल-चाल हुआ तो सासू माँ ने कहा कि 'उसे कहो न कभी इधर भी घूम जाया करे।'

फतेहपुर से कानपुर भला दूर ही कितना था ! अर्जुन का आना-जाना चालू हुआ तो सुलभा के मीठे बोलों और सरस्वती के बनाये स्वादिष्ट भोजन व अपनेपन ने उसे ऐसा बाँधा कि उसका आना-जाना बढ़ता ही चला गया। बहन का घर उसे अपना ही घर लगने लगा था। सरस्वती को भी अच्छा लागता कि उसके जीवन के मनहूस दायरे में कोई अपना तो मिला जो निश्छल निष्कपट भाव से दो बातें करता है। सासू माँ के अतिशय प्रेमजाल में फंसी भला वह क्या जनती थी कि पूरी बिसात उसे ही बरबाद करने के लिए बिछाई गयी है। अर्जुन अक्सर शनिवार-रविवार को ही आता था। होनी भी अपना काम कैसे कर डालती है भला कब कोई जान पाया है। पहले तो वह ग़लत व्यक्ति का साथ देती ही देखी गयी है भले ही बाद में उसे करनी का फल भोगना ही पड़े। एक शनिवार को कुछ ऐसा ही घटित हो गया। सुलभा लगभग हर शनिवार को किसी न किसी बहाने से घर से टल जाने का प्रयास करती थी ताकि कोई छोटा सा भी मौका हाथ लग जाये तो उसका काम बन जाये। उस दिन वह सुबह-सुबह कहीं प्रवचन सुनने का कह कर घर से निकल गयी।  सरस्वती को पिछले दो दिन से हल्का-हल्का बुखार रह रहा था। सुलभा के जाने के बाद उसने किसी तरह घर के काम-काज निपटा कर अपनी दवा खायी और जा कर अपने बिस्तर पर लेट गयी। थकावट और बुखार के कारण टूटा हुआ शरीर, लेटते ही उसकी आँख लग गयी। नींद अभी गहरायी भी नहीं थी कि कालबेल बज उठी कमज़ोर         शरीर, कच्ची नींद, उठते ही उसे चक्कर आ गया और दरवाज़े के पास पहुँचते-पहुँचते वह गिर गयी, सिर दीवार से जा लगा और उसकी चीख निकल गयी। दरवाज़े पर खड़े अर्जुन के कानों में उसकी चीख पड़ी तो वह भी घबड़ा गया और बोला ----'क्या हुआ दीदी ?' 

सरस्वती ने किसी तरह खड़े हो कर दरवाज़ा तो खोल दिया पर खड़े होते ही उसे पुनः ज़ोरदार चक्कर आया और वह बेहोश हो गयी। फिर उसकी आँख खुली तो वह अस्पताल में थी। अर्जुन, रामबरन और सुलभा भी वहीँ मौजूद थे। रामबरन उसके सिरहाने बैठे उसका सिर सहला रहे थे, उसे होश में आया देख कर बोले ----'अब कैसी हो बेटी ?'               सुलभा एक किनारे कुर्सी पर बैठी हुई थी चेहरा तमतमाया हुआ सा था, तभी पास खड़े अर्जुन पर उसकी नज़र पड़ी और उसे याद आया कि दरवाज़ा खोलने से पहले उसने अर्जुन की आवाज़ सुनी थी। अर्जुन ने ज्यों ही पास जाकर पूछा ----'अब कैसी हो दीदी ?'

बस, फूस में लगी आग की तरह उबल ही तो पड़ी सुलभा ----'चलो बस करो ये दीदी दीदा का नाटक। बहुत धूल झोंक चुके हम सब की आँखों में भाई-बहन का नाटक कर के। बेचारा लल्लन जाने कैसे इतने दिन से बर्दाश्त कर रहा है ये सब। और आज तो हद ही हो गयी; घर पर हम सब अड़चन थे न, इसीलिये चोट का बहाना बना कर अस्पताल ही उठा लाया कि यहाँ तो एकान्त मिलेगा ही।' 

रामबरन भौंचक्के थे। पत्नी के इस रूप की तो उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। उधर अर्जुन बेचारा पानी-पानी हुआ जा रहा था। जिस सरस्वती को वह बचपन से बड़ी बहन की तरह मानता चला आया था उसी को ले कर इतना घृणित आरोप ! अब अपनी सफाई में वह बोले भी तो क्या ! चुपचाप रामबरन के सामने सिर झुकाये खड़ा हुआ था। तभी रामबरन की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, उसके सिर पर हाथ रख कर उन्होंने कहा था ----'तुम्हें दुःखी होने की ज़रूरत नहीं है बेटा।' फिर पत्नी को लाल आँखों से घूरते हुए बोले ----'मैं इस सब के पीछे की पूरी कहानी को अच्छी तरह जनता हूँ।'

तड़प कर सुलभा वार्ड के बाहर निकल गयी और सीधे घर चली आयी। घर आ कर देखा तो लल्लन आ चुका था। यों तो उसे सरस्वती से उसे कोई लगाव नहीं था पर उसे घर में न देखकर पूछना तो बनता ही था। बस, फिर क्या था सुलभा की तो पाँचों उँगलियाँ घी में थीं। बेटे को भरपूर समझाया लेकिन बिना किसी पक्के सबूत को हाथ में लिए कोई बात दमदार तो हो न पाती इसलिए सुलभा ने अपने आपको और भी नीचे गिराने में कमी नहीं की। सरस्वती को सभी रिपोर्टस् आने तक अस्पताल में रुकना था। यहीं सुलभा ने अपनी गुट्टी फिट कर ली। सरस्वती की रिपोर्ट्स के साथ सुलभा सरस्वती को भी अस्पताल से ले आई थीं। रिपोर्ट के अनुसार वह गर्भवती थी और वही कारण उसके चक्कर और बेहोशी का भी था। सरस्वती के सिर पर तो पहाड़ ही टूट पड़ा था क्योंकि उसके अनुसार तो यह सरासर झूठ था। उधर लल्लन पर इस ब्रह्मास्त्र ने अपना कमाल दिखा ही दिया। उसने तत्काल सरस्वती को घर से निकाल देने की घोषणा कर दी। बेचारे रामबरन पूरे विश्वास के साथ, सम्पूर्ण घटनाचक्र को एक षडयंत्र मानते हुए भी न कुछ  कर पाये, न बोल पाये और हार कर सरस्वती को साथ ले कर गोरखपुर चले गये। आख़िर सरस्वती उनकी ज़िम्मेदारी थी। सरजू के घर का ताला एक बार फिर खुल गया। सरस्वती बी.ए. पास थी उसने बी.एड. भी किया हुआ था। रामबरन ने उससे कई जगह आवेदन दिलवा दिये और तत्काल उसके रहन-सहन की व्यवस्था भी कर दी। रामबरन घर वापस लौट आये। उनकी वापसी पर माँ-बेटे दोनों ने उनसे कोई सवाल नहीं किया न उन्होंने ही अपनी तरफ से कुछ कहा। घर का वातवरण तनावपूर्ण था। आवश्यक बातों के अलावा आपस में कोई बातचीत नहीं होती थी उधर सरस्वती गोरखपुर में रहते हुए भी पूर्णतः रामबरन के ही संरक्षण में थी जिसकी ख़बर सुलभा और लल्लन को कानों-कान नहीं थी। हर काली रात के बाद सुखद भोर का आगमन होता ही है सरस्वती की भी भगवांन ने सुन ली और जल्दी ही उसे एक जूनियर हाईस्कूल में नौकरी मिल गयी। रामबरन ने चैन की सांस ली। सरस्वती के जीवन की गाड़ी चल निकली पर फिर भी रामबरन उसका पूरा ध्यान रखते थे। उनका हाथ उसके सिर पर बराबर बना ही रहा क्योंकि उसे तो उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी मान ही लिया था। सुलभा अपनी योजना को मूर्त रूप देने में लगी हुई थी जिसके लिए लल्लन का सरस्वती से तलाक होना ज़रूरी था इसलिए वह लल्लन पर तलाक के लिए बराबर दबाव बना रही थी उसकी मंशा थी कि जल्दी-से-जल्दी तलाक हो जाये तो अंजना भारी-भरकम दहेज़ के साथ उनके घर बहू बन कर आ जाये पर लल्लन था कि किसी न किसी बहाने से टाल जाता था। सुलभा कुछ समझ नहीं पा रही थी की आख़िर मामला क्या है। चोर की दाढ़ी में तिनका वाली हालत हो रही थी उसकी। उसे संदेह हो रहा था कि कहीं लल्लन को असलियत का पता तो नहीं चल गया ! कुछ हद तक उसका संदेह सही भी था क्योंकि भले ही लल्लन ने उसे पत्नी रूप में स्वीकार नहीं किया था पर उसे चरित्रहीन मानने के लिये भी उसका मन तैयार नहीं था। यही कारण था कि वह इस पूरे घटनाक्रम में खुद को किसी-न-किसी रूप मे दोषी मान ही रहा था। और जोश में आ कर उठाये गए क़दम ने उसे हीनभावना से जकड़ लिया था। साथ ही उसे अपनी नौकरी पर भी काले बादल मंडराते नज़र आ रहे थे। अंजना का खिंचाव यकायक लल्लन से एक पोस्ट नीचे काम करने वाले राजेश की ओर बढ़ता दिखाई पड़ रहा था। इतना ही होता तो भी गनीमत थी। लल्लन मैनेजर था, प्रमोशन की कगार पर खड़ा हुआ था पर प्रमोशन लिस्ट निकली तो एक तो उसमें लल्लन का नाम नदारद था उल्टा राजेश को पदोन्नत करके सीनियर मैनेजर बना दिया गया था। न चाहते हुए भी लल्लन ने मिल मालिक श्यामनन्दन जी से अपनी फरियाद सुनायी। फ़रियाद के जवाब में उसे टके भर का जवाब मिला -----'भई ये सब तो अंजना मैडम का डिपार्टमेंट है। अपने काम में दखलंदाज़ी उसे कतई पसंद नहीं है इसी से मैं उसके किये पर कुछ बोलता नहीं हूँ।'

मुंहलगा होने के कारण लल्लन ने कहा ----'सर ! मैं इतना पुराना कर्मचारी हूँ, मुझसे जूनियर को मेरे ऊपर बैठाना क्या जायज़ है ?"

          'देखो लल्लन ! ये जायज़-नाजायज़ तो मुझे मत बताओ।' उनकी भाषा में कुछ तल्ख़ी आ गयी थी जिसे लल्लन ने स्पष्ट अनुभव किया----'ये सब जांचना-परखना तो  अंजना मैडम की अपनी सूझ-बूझ का कमाल है। माना की तुम एक अच्छे कर्मचारी रहे हो लेकिन इसका ये तो मतलब नहीं है कि कोई और तुमसे ज्यादा लायक और क़ाबिल हो ही नहीं सकता है। उसकी पारखी दृष्टि कभी ग़लत निर्णय नहीं ले सकती।' फिर पल भर ठहर कर बोले ----'वैसे तुम्हारी जगह तो बरक़रार है ही उस पर तो कोई आंच नहीं न आयी है। फिर क्यों परेशान हो ! जाओ मस्त रहो।'

लल्लन चुपचाप वहां से चला आया। सब कुछ साफ़ था आगे कुछ कहने-सुनने के लिये बचा नहीं था। लल्लन तब से अनमना सा रहने लगा था। अंजना का रुख़ बदल ही चुका था। अपने व्यवहार के बदलाव को वह छिपाना तो चाहती थी पर सच्चाई भला कहीं छिप सकती थी ! लल्लन को आभास हो चुका था कि उसकी नौकरी ख़तरे में पड़ चुकी है। उसने अन्य कई जगहों पर नौकरी के लिए आवेदन भी डाल दिए थे। लल्लन की मानसिक अवस्था बड़ी अजीब सी हो गयी थी वह न किसी से कुछ कहता था, न ही हँसता बोलता था। बस अपने आप में ही घुटता रहता था। एक ओर रोज़ी-रोटी की चिंता तो दूसरी तरफ पत्नी के प्रति किये गये अन्याय को ले कर अपराधबोध की भावना से ग्रसित अपने ह्रदय की व्यथा कहता भी तो किससे ! पूरे परिवार का माहौल तनावपूर्ण चल रहा था कि एक दिन तो वह हो गया जिसकी कल्पना किसी ने स्वप्न में भी नहीं की थी।

रामबरन और लल्लन एक परिचित की बीमार पत्नी को देखने उसी अस्पताल में जा पहुंचे जहाँ सरस्वती भर्ती की गयी थी। कहते हैं कि सत्य कभी हारता नहीं है और झूठ कभी फलदायी नहीं होता है। रामबरन को वहां की एक नर्स ने देखते ही पहचान लिया और एकदम से पूछ बैठी ----'आप सरस्वती पिता हैं न ?' उसकी वाणी में बेचैनी और सुकून एक साथ ही झलक उठे थे।

           'हाँ वह मेरी बहू है।' रामबरन ने सिर हिलाते हुए उत्तर दिया।

          'कैसी हैं सरस्वती जी ?' कुछ संदिग्ध सा स्वर था नर्स का और साथ ही आगे बोली ----'मुझे आपसे कुछ कहना है।'

           'हाँ ! हाँ बेटी कहो न !' 

दाहिने बांये पैनी दृष्टि से देखते हुए नर्स ने बड़े आहिस्ते से कहा ----'यहाँ नहीं। आइये।' कहते हुए नर्स गलियारे के थोड़े एकान्त स्थान की ओर बढ़ गयी। लल्लन भी साथ-साथ आगे बढ़ा तो अपरिचित होने के कारण नर्स ने उसे साथ आने से मना कर दिया। एकान्त में पहुँच कर नर्स ने जिस सत्य से पर्दा उठाया उसने रामबरन के दिमाग़ में तूफ़ान मचा दिया।

          'बाबू जी ! मैं छटपटा कर रह गयी थी कुछ बोल नहीं पायी थी उस समय। सरस्वती जी दो दिन यहाँ भर्ती रहीं। आप तो पहले ही दिन आये थे जब टेस्ट वग़ैरह हो रहे थे। दूसरे दिन तो माता जी ही आई थीं और एक नहीं दो-तीन बार वे यहाँ आयीं डॉक्टर मिश्रा से मिलने। फिर रिपोर्ट तैयार होने के बाद डॉक्टर मिश्रा ने सरस्वती जी के रूम में आकर उन्हें ----'माता जी बधाई हो ! आप दादी बनने वाली हैं ' कहते हुए रिपोर्ट थमा दी थी। रिपोर्ट में चक्कर और बेहोशी का कारण प्रिग्नेंसी दिखाया गया था। रिपोर्ट देखते ही सरस्वती जी बड़ी ज़ोर से चीखी थीं ----'नहीं s s s s । ये झूठ है।' उनकी चीख सुन कर सारा स्टाफ दौड़ते हुए उनके कमरे में पहुँच गया था। पर डॉ. मिश्रा ने सबको डांटते हुए वहां से भगा दिया। इसके बाद माता जी ने उन्हें घसीटते हुए बिस्तर से उतारा और ले कर चली गयीं।' पल भर रुक कर नर्स ने आगे कहा----'यहाँ क़रीब-क़रीब सबको असलियत का पता लग गया था क्योंकि डॉ. मिश्रा से जिस समय माता जी बातें कर रही थीं एक वार्ड ब्वॉय किसी काम से उनके कमरे में पहुँच गया था। उनके वार्तालाप के कुछ अंश उसके कानों तक भी पहुँच गये थे साथ ही नोटों की गड्डी थमाते हुए साक्षात् उसकी आँखों ने देख लिया था। उसकी तो उसी दिन नौकरी चली गई बिना नॉक किये केबिन में घुसने के जुर्म में।' इतना कह कर नर्स हौले से मुस्कुरा दी और फिर आगे कहा उसने ----'वह भी कम नहीं था जाते-जाते पूरे स्टाफ को सच्चाई बता कर ही गया। दरअसल डॉ. मिश्रा तो बहुत पहले से ऐसे कामों के लिए मशहूर थे। पैथोलॉजी वाले एक रिपोर्ट तो बना ही चुके थे जब उन्हें दूसरी रिपोर्ट बनाने को कहा गया तो वहाँ से भी बात लीक हुई। डॉ.मिश्रा को जब कुछ ख़तरा महसूस हुस तो उन्होंने पूरे स्टाफ को अपने कमरे में बुलाया और टाइट करते हुए कहा कि बात अगर अस्पताल से बाहर गयी तो किसी की नौकरी नहीं बचेगी, साथ ही निकाले गए वार्ड ब्वॉय का हवाला भी दिया। और फिर आप समझ सकते हैं रोज़ी-रोटी के डर ने सभी के मुंह पर ताला जड़ दिया। आपका पता-ठिकाना सब रजिस्टर से ग़ायब कर दिया गया था। इसलिए जिन एक दो लोगों के मन में आप तक पहुँचने की इच्छा थी भी उनका कोई बस नहीं चला। लेकिन आज आपको देख कर मैं अपने आपको रोक नहीं पायी सच कहने से। सरस्वती जी के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम पर माता जी के उस दिन के तेवर देख कर इतना तो हम लोग समझ ही गए थे कि उनके साथ उन्होंने कुछ अच्छा तो नहीं ही किया होगा।' 

सच से पर्दा उठ चुका था। लल्लन को जब सच्चाई का पता लगा तो उसे अपनी छोटी सोच के कारण स्वयं से घृणा हो गई। अंजना का भूत तो उतर ही चुका था उस पर से। घर आ कर पिता और पुत्र दोनों ने सुलभा को खूब खरी-खोटी सुनाई और तत्काल सरस्वती को लाने के लिए  दोनों ही गोरखपुर रवाना हो गए।

सुबह का वक़्त था सरस्वती विद्यालय जाने के लिए तैयार हो रही थी। दरवाज़े पर दस्तक सुन कर उसने दरवाज़ा खोला, सामने बाबू जी को देख कर उसने झट से चरणस्पर्श कर प्रणाम किया पर उनकी आड़ में खड़े लल्लन को देख कर उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। अपने संस्कारों का मान रखते हुए उसने पति के भी चरणस्पर्श किये तो उसकी शालीनता देख कर रामबरन का ह्रदय भर आया। जलपान आदि के बाद थोड़ा व्यवस्थित हो कर बैठने पर अपने आने का कारण स्पष्ट करते हुए रामबरन एक प्रकार से बहू से क्षमा ही मांग बैठे ----'बेटी ! मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई मैं सरजू भइया को दिया हुआ वचन ठीक से नहीं निभा पाया पर मुझे भूल सुधारने का मौका तो तुम्हें देना ही पड़ेगा।' कहते हुए उससे साथ चलने के लिए कहा तो अब तक चुप बैठा लल्लन भी अपने आपको रोक न सका ----'मुझे पछतावा है कि मैं माँ के कहने में चलता रहा, उनकी धन की भूख के आगे सामने रखें हीरे को पहचान न सका।' फिर गिड़गिड़ाता हुआ सा बोला ----'प्लीज़ ! मुझे माफ़ कर दो  घर वापस चलो।'

पिता-पुत्र का अनुमान था कि इतनी अनुनय-विनय के बाद सरस्वती ख़ुशी-ख़ुशी उनके साथ चली आयेगी। पर वे ग़लत थे। सरस्वती ने कड़े शब्दों में वापस जाने से साफ़-साफ़ इंकार कर दिया----'बाबू जी ! अब वापस तो मैं उस घर में नहीं जाऊँगी। आपका मैं सम्मान करती हूँ। आप मेरे पिता तुल्य हैं, सदा रहेंगे भी और ------' लल्लन की और इशारा करके -----'और ये सदा मेरे पति रहेंगे मेरी आख़िरी सांस तक। हाँ ! ये मेरे साथ रहना चाहें तो यहाँ आकर रह सकते हैं। मैं जैसी भी हूँ अब यहीं ठीक हूँ। '

रामबरन और लल्लन का मुंह खुले का खुला रह गया। रामबरन खुश थे कि आज सरस्वती को कष्टों ने इतना साहसी और दृढ़ बना दिया है जो कि उनकी सोच के परे था। सरजू को दिया हुआ वचन भी आज सही मायने में पूरा हो गया था।

समाप्त

मधुरिमा प्रसाद

मो. न. 09935140682     

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रचनाकार: वचन मत देना - कहानी - मधुरिमा प्रसाद
वचन मत देना - कहानी - मधुरिमा प्रसाद
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