23 अक्तूबर 2016 की व्यंग्य की जुगलबंदी (क्र. 5) का विषय था – आस्तिक कि नास्तिक निर्मल गुप्त का व्यंग्य : पाषाण काल में आस्तिकता और नास...
23 अक्तूबर 2016 की व्यंग्य की जुगलबंदी (क्र. 5) का विषय था – आस्तिक कि नास्तिक
निर्मल गुप्त का व्यंग्य :
पाषाण काल में आस्तिकता और नास्तिकता का रिमिक्स
एक समय वो भी था जब कांकर पाथर जोड़ कर आस्थावान लोग धर्मस्थल बना लेते थे और उसके ऊपर बैठ कर लाल कलगी वाले मुर्गे बांग दे लेते थेl सबकी बांग अलग अलग तरीके की होती थी l कहते हैं कि उन दिनों मुर्गे के बांग दिए बिना भी सलीके के साथ सवेरा हो जाता थाl तब पहाड़ की जगह चाकी को पूजने का सुझाव उपयोगिता के आधार पर दिया जाता था और इस तरह की नास्तिक अभिव्यक्ति पर कोई नाराज भी नहीं होता थाl इस बावजूद प्रजा से लेकर राजा तक सब घनघोर आस्तिक थे पर किसी एक की तथाकथित धार्मिकता किसी दूसरे द्वारा लागू किये गये जजिया नामक शुल्क के बावजूद कोई खास बहस का मुद्दा नहीं बनती थीl हम उस शहंशाह के इतिहास को भी उसी श्रृद्धा के साथ रखते हैं जैसे कलिंग में खूनखराबा करने वाले ‘महान’ शासक की धर्मनिरपेक्ष सोच कोlलुटियन की दिल्ली में दोनों के नाम किसी न किसी नयनाभिराम की सोच की वजह से लोगों की स्मृति में जिन्दा हैl
अब समय बदल गया है l पवित्र नदियों का जल गटर का पानी बन चुका है लेकिन उसके साथ जुड़ी हमारी भावुकता बीमारी के तमाम जीवाणुओं के साथ बकायदा समस्त तरलता के साथ बनी हुई हैllवाटर ट्रीटमेंट प्लांट से निकले साफ़ पानी पर कोई धर्मगत या जातिगत वजह से नाक भौं नहीं सिकोड़ता या निरर्थक सवाल उठाता हैlसब उसे बेहद विनम्र भाव से ग्रहण कर लेते हैंl वैसे पीते तो हम वो पानी भी हैं जो गंदा होने के बावजूद अपनी पारदर्शिता से भ्रम पैदा कर लेता हैlबीमारी की जड़ों का कोई आकार नहीं होता,वे निराकार होती हैंlवे देह और धरती के भीतर धीरे -धीरे पलती उपजती और पनपती रहती हैंlशारीरिक व्याधियां अब देह का अतिक्रमण करती हुई धरती के उस जर्रे जर्रे तक पहुँच गयी हैं जहाँ कभी दैवीय एकाधिकार हुआ करता थाl प्रबल आस्थावान लोगों की इस दुनिया में अब रक्तबीज पल्लवित होते हैं और उसी पर हमारी सहृदयता से भरी धारणाएं पुष्पित होती हैंl
समय बदला है तो घरों से लेकर पूजा स्थलों का वास्तु और तकनीक में बदलाव आया हैl अब निर्माण कंकड़ पत्थर से नहीं आग में तपाई गई ईंटों(ब्रिक्स) के जरिये होता हैlधरती के स्वर्ग पर पाषाण काल का आगमन हुआ तो ईंटों के गुम्बे हथियार बन गये l यह सिर्फ हथियार ही नहीं विकास का औजार भी हैlइनसे ही भविष्य के अमन चैन और अस्मिता की इबारत पूर्ण मनोयोग से लिखी जा रही हैl
इस पत्थर फेंक समय का फेक कालखंड में आतंक के प्यारे मासूम और दुलारे बच्चे पडोसी के आंगन में एक दूजे का हाथ पकड़ कर ‘रिंगा रिंगा रोजेस’ गाते हुए गोलचक्कर लगाते हैंl सब अपने अपने तरीके से खेल में मशगूल हैl सबके पास अपने खेल के लिए स्वदेशी हित में सराबोर मासूम तकनीक और हुनर हैl इस तकनीकी हुनरमंदी के साथ राजनीति और डिप्लोमेसी का गज़ब रिमिक्स हैl बड़े गुलाम अली खां के साथ यो यो जी की जुगलबंदी दिल को भरमाती हैl
सभी लोग कमोबेश नास्तिकता या आस्तिकता का इस्तेमाल अपनी समझ के हिसाब से करने के लिए एकमत हैंl वस्तुत: दोनों अवधारणायें एक ही जादुई सिक्के के दो पहलू हैं जिसके माध्यम से न किसी की निर्णायक जीत तय होती है और न पराजयl
#जुगलबंदी अनूप शुक्ल Udan Tashtari Arvind Tiwari
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अनूप शुक्ल का व्यंग्य :
आस्तिक कि नास्तिक
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जो लोग ईश्वर को मानते हैं उनके हिसाब से दुनिया में जो हो रहा है उस सबका कर्ता-धर्ता भगवान ही है। वही लोगों को बनाता है। वही निपटाता है। भक्तों को परेशान करके इम्तहान लेता है, वही दयालु बनकर उनका कल्याण करता है। वही आतंकवादी बनाता है वही उनको ’सर्जिकल स्ट्राइक’ में निपटाता है। वही मनेरेगा चलाता है वही जियो का सिल दिलाता है। ट्रम्प के रूप में वही स्त्रियों के खिलाफ़ छिछोरी हरकतें करता है तो हिलेरी भौजी के रूप में वही उसकी भर्त्सना करता है। वही करण जौहर की पिच्चर में पाकिस्तानियों को रोल दिलाता है फ़िर वही उनके खिलाफ़ हल्ला मचवाता है इसके बाद वही बीच का रास्ता निकालता है। बहुत बड़ा कारसाज है ऊपर वाला।
नास्तिक भाई लोग मानते हैं कि ईश्वर जैसी कोई चीज ही नहीं। आस्तिकों द्वारा भगवान को साबित करने की हर दलील को वह उसी तरह नकार देता है जैसा आतंकवादी गतिविधियों के सबूत देखकर पाकिस्तान नेति, नेति कर देता है।
तमाम लोग भगवानों के भौकाल से जलते हैं। सोचते हैं कि ईश्वर के तो जलवे होते हैं। जो मन आये करें। जिसको जो मन आये वरदान दे दिया। न कोई काम न धाम। न मंहगाई की चिन्ता न आटे-दाल का सोचना। भक्त हैं न सब करने के लिये। लेकिन यह धारणा केवल जलवेदार भगवानों के किस्से सुनकर बनाई धारणा हैं। जैसे फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़े अभिनेताओं और एक्स्ट्रा का काम करने वालों की हैसियत अलग-अलग हैसियत होती है वैसे ही देव समाज में भी छोटे देवताओं की सेवा शर्तें बड़ी कड़ी होती होंगी।पुराने समय में जो जरा-जरा सी बात पर पुष्पवर्षा करने के वाले देवता होते होंगे वे एक्स्ट्रा देवता लोग ही होते होंगे जिनको विमान का किराया देकर भेज दिया जाता होगा। क्या पता जो बहादुरी वाले स्टंट होते हैं ईश्वर के वो करने वाला कोई 'स्टंट देवता' होता हो उनके यहां।
क्या पता कि ईश्वर की जिन लीलाओं के किस्से हम सुनते आये हैं वो उनके द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक होती हों। हर अगला अवतार आते ही कहता हो कि इसके पहले यह लीला किसी ने नहीं दिखाई।
लोग समझते हैं कि देवताओं की जिंदगी बड़ी ऐश से गुजरती होगी उनको केवल स्तुतियां मिलती होंगी लेकिन ऐसा होता नहीं हैं। आजकल देवताओं की सर्विस कंडीशन भी बड़ी कठिन हो गयी हैं। जैसे राजनीति में मंत्रिमंडल में मनमाफ़िक पद या चुनाव में टिकट न मिलने पर राजनीति में लोग पार्टी बदल लेते हैं वैसे ही जहां जरा सा काम नहीं बना किसी का तो वो फ़ौरन अपना देवता बदल देता है।
आजकल तो भगवानों पर भी पूजा, नमाज में गबन के आरोप लगते हैं और कोई कवि कहता है:
सब पी गये पूजा ,नमाज बोल प्यार के
नखरे तो ज़रा देखिये परवरदिगार के।
अगर भगवान के लिये भी चुनाव होते तो इसी तरह के आरोपों में उनकी सरकार गिर जाती।
माना जाता है कि आस्तिक मने ईश्वर को मानने करने वाला, नास्तिक मने ईश्वर को न मानने वाला। दोनों अलग-अलग स्कूल की तरह हैं। दोनों का अपना सिलेबस है। अपने मास्टर। अपने छात्र। दूर से देखने पर लगता है कि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। लेकिन बाद में पता चलता है कि दोनों की मैनेजमेंट कमेटी में एक ही परिवार के लोग शामिल हैं।
यह कुछ ऐसे ही है जैसे किसी लोकतंत्र में तमाम तरह की विचारधाराओं वाली पार्टियां होती हैं। कभी किसी की सरकार बनती है, कभी किसी की। लेकिन असल में पार्टियों को चन्दा देने कारपोरेट से ही मिलती है चलती है उसी की है। लोकतंत्र में सरकारें तो बाजार की कठपुतली होती हैं। बाजार पक्ष को भी चन्दा देता है विपक्ष को भी। बाजार दोनों को बनाये रखता है ताकि दोनों आपस में हल्ला मचाते रहें और वो अपनी दुकान चलाता रहे।
खैर यह तो ’हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह हैं। बाजार में सेन्सेक्स की तरह ईश्वर के प्रति आस्था भी कम-ज्यादा होती रहती है। कभी तमाम लोगों के लिये भगवान सरीखे रहे बापू आशाराम बेचारे जेल की कोठरी में निराश पड़े हुये हैं महीनों से। नास्तिक लोग अपने स्वामी की बात उसी तरह मानते हुये कीर्तन मुद्रा में जमा हो जाते हैं जिस तरह आस्तिक अपने भगवान के लिये इकट्ठा होते हैं।
हमसे कोई पूछे कि ’आस्तिक’ कि ’नास्तिक’ तो हम तो यही कहेंगे कि भईया जौन पैकेज में फ़ायदा ज्यादा हो वही तौल देव हमको। जिअमें दीपावली का बम्पर डिस्काउंट चल रहा हो वही बुक कर देव हमारे लिये।
आपका क्या कहना है इस बारे में?
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समीर लाल ‘समीर’ का व्यंग्य :
आस्तिक एवं नास्तिक
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मांसाहारी को यह सुविधा रहती है कि मांसाहार न उपलब्ध होने की दशा में वो शाकाहार से अपना पेट भर ले. उसे भूखा नहीं रहना पडता. जबकि इसके विपरीत एक शाकाहारी को, शाकाहार न उपलब्ध होने की दशा में कोई विकल्प नहीं बचता. वो भूखा पड़ा मांसाहारियों को जश्न मनाता देख कुढ़ता है. उन्हें मन ही मन गरियाता है. वह खुद को कुछ इस तरह समझाता है कि देख लेना भगवान इनको इनके किए की सजा जरुर देगा. ये जीव हत्या के दोषी हैं और फिर चुपचाप भूखा सो जाता है.
नास्तिक ओर आस्तिक में भी कुछ कुछ ऐसा ही समीकरण है. नास्तिक आस्तिकों की भीड़ में भी नास्तिक बना ठाठ से आस्तिकों की आस्था को नौटंकी मान मन ही मन मुस्करता रहता है. नास्तिक स्वभावतः एकाकी रहना पसंद करता है और जब तक उसे आस्तिक होने के उकसाया न जाये, अपने नास्तिकपने का ढिंढोरा बेवजह नहीं पीटता है.
आस्तिक गुटबाज होता है. वो आस्तिकों की भीड़ में रहना पसंद करता है. वह किसी नास्तिक को देख मन ही मन मुस्करता नहीं है बल्कि उसे बेवकूफ मान प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु, यह अज्ञानी है, इसे नहीं पता कि यह क्या कर रहा है. इसे माफ करना.
आस्तिक बेवजह नास्तिक को अपनी आस्था के चलते जीवन में हुए चमत्कारों को रस ले ले कर सुनता है ताकि नास्तिक भी उन चमत्कारों की बातों के प्रभाव में आकर आस्तिक बन उसके गुट में आ जाये. बस, इसी उसकाये जाने के चलते नास्तिक भड़कता है और पचास ऐसे किस्से सुनाता है जिसमें ह्र किस्से का अंत मात्र इस बात से होता है अगर भगवान होता है तो वो उस वक्त कहाँ था? तार्किक जबाब के आभाव में आस्तिक इसे नास्तिक की नादानी मान उसे उसके हाल पर छोड़ते हुए नाक भौं सिकोड़ कर मात्र इतना कह कर निकल लेता है कि एक दिन तुम्हें खुद अहसास होगा तब तुम अपनी बेवकूफी पर पछताओगे.
आस्तिक स्वभावतः भीरु एवं आलसी प्रवृति का प्राणी होता है अतः एक सीमा तक कोशिश करने के बाद आस्था की रजाई ओढ कर सो जाने का स्वांग रच, रजाई से कोने से किसी चमत्कार की आशा लिए झांकता रहता है और यह मान कर चलता है कि जैसा ईश्वर को मंजूर होगा, वैसा ही होगा. प्रभु जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे. उसे अपनी मेहनत से ज्यादा यकीन आस्था के प्रभाव से हुए चम्त्कार पर होता है.
नास्तिकों में एक बड़ा प्रतिशत उन नास्तिकों का होता है जिन पर अब तक कोई ऐसी विपदा नहीं पड़ी है जिसका कोई उपाय न हो और मात्र प्रभु पर भरोसा ही एक सहारा बच रहे. ऐसे नास्तिक अधिकतर उस उम्र से गुजरते हुए युवा होते हैं जिस उम्र में में उन्हें अपने मां बाप दकियानूसी लगते हैं या गाँधी को वो भारत की आजादी नहीं, भारत की बर्बादी जिम्मेदार मानते हैं. उनकी नजरों में गाँधी की वजह से देश इस हालत में है वरना तो देश की तस्वीर कुछ और होती. उम्र का यह दौर उसकी मानसिकता पर अपना ऐसा शिकंजा कसता है कि उसे अपने आप से ज्ञानी और तार्किक कोई नहीं नजर आता. वो अक्सत गंभीर सी मुद्रा बनाये दुनिया की हर उस चीज को नाकारता दिखता है जिससे की यह दुनिया और इसकी मान्यतायें चल रहीं हैं. उसकी नजर में वह सब मात्र बेवकूफी, हास्यास्पद एवं असफल जिन्दगियों के ढकोसले हैं जो उनके माँ बाप गुजार रहे हैं.
उम्र के साथ साथ समय की थपेड़ इन नास्तिकों का दिमाग ठिकाने लगाने में सर्वदा सक्षम पाई गई है. जैसा कहा गया है कि गाँधी को समझने के लिए पुस्तक नहीं, एक उम्र की जरुरत है..ऐसे नास्तिक भी उम्र के साथ साथ आस्तिक की आस्था को समझने में सक्षम हो जाते हैं और फिर सही पाला तय कर पाते हैं.
कभी आस्तिक व नास्तिक मात्र भगवान के प्रति आस्था और विश्वास रखने एवं न रखने का प्रतीक था. आज के अस्तिक ,अपने बदलते स्वरुप के साथ, अपने राजनैतिक आकाओं को भगवान का दर्जा देकर उनके भक्त बने आस्तिकता का परचम लहरा रहे हैं ओर जो उनके भगवान में आस्था न रखते, उन्हें गाली बकने से लेकर उनके साथ जूतमपैजार करने तक को आस्था का मापदण्ड बनाये हुए.
इसी की परिणिति है कि आज भक्त का अर्थ भी मात्र एक राजनैतिक पार्टी के आका में आस्था रखने वालों तक सीमित होकर रह गया है, शेष सभी जो बच रहे, उन्हें आप अपनी इच्छा अनुसार दुष्ट, नास्तिक या देशद्रोही आदि पुकार सकते हैं. आज का आस्तिक भक्ति भाव से नाच नाच कर भजन पूजन का स्वांग रच रहा है और फिर थक कर आस्था की रजाई में मूँह ढाँपे अच्छे दिन लाने वाले चमत्कार का इन्तजार कर रहा है.
नास्तिक मानो मंदिर की दीवार पर सर टिकाये बीड़ी के धुँएं के छल्ले बना कर उड़ा रहा है उसे मालूम है कि अच्छे दिन आना मात्र एक चुनावी जुमला है. भला ऐसा भी कभी होता है कहीं.
-समीर लाल ’समीर’
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रवि रतलामी का व्यंग्य :
बहुत पुरानी बात है. धरती पर एक बार एक इंसान गलती से बिना धर्म का, नास्तिक पैदा हो गया. उसका कोई धर्म नहीं था. उसका कोई ईश्वर नहीं था. वो नास्तिक था.
चहुँ ओर हल्ला मच गया. आश्चर्य! घोर आश्चर्य!¡ एक इंसान बिना धर्म के, नास्तिक कैसे पैदा हो सकता है. वो बिना हाथ-पैर के, जन्मजात विकृतियों समेत भले ही पैदा हो सकता है, और अब तो विज्ञान की सहायता से बिना मां-बाप के भी पैदा हो सकता है, मगर बिना धर्म के? लाहौलविलाकूवत! ये कैसी बात कह दी आपने! पैदा होना तो दूर की बात, बिना धर्म के कोई इंसान, इंसान हो भी सकता है भला?
ताबड़तोड़ उस इंसान को अपने-अपने धर्मों में खींचने की, उसे आस्तिक बनाने की जंग शुरू हो गई.
“उद्धरेदात्मनात्मानम् ... वसुधैव कुटुंबकम्...” सहिष्णुता और विश्वबंधुत्व केवल हिंदुओं में है... इसका धर्म हिंदू होना चाहिए. हिंदुओं ने कहा.
“बिस्मिल्लाहिर्रहमानेहिर्रहीम...” ईश्वर केवल एक है और उसके सबसे निकट, शांति और सहिष्णुता का धर्म इस्लाम है, वही स्वर्ग जाने का एकमात्र रास्ता है. इसका धर्म इस्लाम होना चाहिए. मुस्लिमों ने अधिकार जताया.
“ईश्वर दयालु है- ईश्वर इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं...” दयालु ईश्वर केवल यीशु हैं और केवल वो ही इसके पापों को क्षमा कर सकते हैं. ईसाइयों ने बताया.
उस बेधर्मी इंसान ने कहा – ठीक है, मैं सभी धर्मों का अध्ययन करूंगा और जो सबसे अच्छा लगेगा उसे धारण करूंगा.
उसने विभिन्न धर्मों के अध्ययन के लिए पर्याप्त समय लगाया और अंततः अपना अध्ययन पूरा कर लिया. ओर फिर उसने एक सभा रखी जिसमें उसे घोषणा करनी थी कि वो कौन सा धर्म अपनाएगा.
बड़ी भीड़ जुटी. तमाम धर्मों की जनता और तमाम धर्मों के गुरु उस सभा में स्वतःस्फूर्त जुटे. एक बेधर्मी इंसान के धर्म के अपनाने का जो खास अवसर था यह. नास्तिक के आस्तिक बनने का अवसर जो था यह.
भरी सभा में उस बेधर्मी इंसान ने भीड़ की ओर दुःख भरी नजर डाली और ऐलान किया – मैं बिना किसी धर्म का ही अच्छा हूँ. मैं नास्तिक ही ठीक हूँ. मुझे किसी ईश्वर में, किसी धर्म में कोई विश्वास नहीं है.
“भला ऐसा कैसे हो सकता है?” क्रोध से हिंदू धर्माचार्य चिल्लाये. उनके त्रिनेत्र खुल चुके थे. लोग त्रिशूल, भाले लेकर उस बेधर्मी इंसान की ओर दौड़े.
“लाहौलविलाकूवत!” ये तो ईशनिंदा है. परम ईशनिंदा. इसे दोजख में भी जगह नहीं मिलनी चाहिए... मुसलिम धर्माचार्य गरजे. पत्थर, कंकर लेकर लोग उसे मारने दौड़े.
“हे ईश्वर इसे क्षमा करना.. ये नहीं जानता ये क्या कह रहा है...” ईसाई धर्माचार्यों ने हल्ला मचाया. लोग कीलें हथौड़े लेकर उसके पापों के प्रायश्चित्त करवाने के लिए उसे सूली पर टांगने दौड़े.
तब से, इस धरती पर कोई भी इंसान, गलती से भी, बिना धर्म के पैदा नहीं होता.
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अरविंद तिवारी का व्यंग्य
अरविन्द तिवारी Arvind Tiwari जी का फ़ेसबुक पोस्ट सर्च में पता नहीं क्यों नहीं मिल पाई. बहरहाल, अनूप शुक्ल के वाल से उनके लिखे व्यंग्य के मुख्य अंश -
१. दरअसल हमारे देश में नास्तिक आस्तिक वाला फिनोमिना सुविधानुसार बदल जाता है।घोर नास्तिक सियासी व्यक्ति चुनाव के दिनों में मन्दिर मस्जिद में पूजा अर्चना करता हुआ पाया जाता है।
२. धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले चैनल शुल्क लेकर निर्मल टाइप की गतिविधि चलाते हैं।घोर नास्तिक वाममार्गीय स्वयं के सम्प्रदाय से इतर सम्प्रदाय के ढोंगों की वक़ालत करते नज़र आते हैं।घोर नास्तिक लेखक घर परिवार समाज का हवाला देकर कर्मकांड कर डालता है जो प्रकारान्तर नास्तिकता में हवाला कारोबार की तरह है। इस मामले में अक़बर इलाहाबादी याद आते हैं
मेरा ईमान क्या पूछती हो मुन्नी
शिया के साथ शिया सुन्नी के साथ सुन्नी
३.इस देश में नास्तिक व्यक्ति उस पटाखे के समान है जो फूटता नहीं फ़ुस्स होकर आस्तिक बन जाता है। बदबूदार सार्वजनिक शौचालय की दीवार से टिकी हवन सामग्री पण्डितजी इसलिए खरीद लाते हैं क्योंकि वह बाज़ार से सस्ती मिल रही है।इसमें पवित्रता का बन्धन शिथिल इसलिए होजाता है क्योंकि दीवाली के दिन सौ घरों में पूजन करना है।वैसे भी हवन कुण्ड में जाकर सब कुछ पवित्र हो ही जाता है।
जुगलबंदी की चौथी पेशकश रही निर्मल गुप्त की Nirmal Gupta निर्मल जी आजकल दनादन लिख रहे हैं और छप भी रहे हैं। निर्मल जी के लेख के मुख्य अंश:
१. अब समय बदल गया है l पवित्र नदियों का जल गटर का पानी बन चुका है लेकिन उसके साथ जुड़ी हमारी भावुकता बीमारी के तमाम जीवाणुओं के साथ बकायदा समस्त तरलता के साथ बनी हुई हैllवाटर ट्रीटमेंट प्लांट से निकले साफ़ पानी पर कोई धर्मगत या जातिगत वजह से नाक भौं नहीं सिकोड़ता या निरर्थक सवाल उठाता हैlसब उसे बेहद विनम्र भाव से ग्रहण कर लेते हैंl
२.समय बदला है तो घरों से लेकर पूजा स्थलों का वास्तु और तकनीक में बदलाव आया हैlअब निर्माण कंकड़ पत्थर से नहीं आग में तपाई गई ईंटों(ब्रिक्स) के जरिये होता हैlधरती के स्वर्ग पर पाषाण काल का आगमन हुआ तो ईंटों के गुम्बे हथियार बन गये l यह सिर्फ हथियार ही नहीं विकास का औजार भी हैlइनसे ही भविष्य के अमन चैन और अस्मिता की इबारत पूर्ण मनोयोग से लिखी जा रही हैl
३.सभी लोग कमोबेश नास्तिकता या आस्तिकता का इस्तेमाल अपनी समझ के हिसाब से करने के लिए एकमत हैंl वस्तुत: दोनों अवधारणायें एक ही जादुई सिक्के के दो पहलू हैं जिसके माध्यम से न किसी की निर्णायक जीत तय होती है और न पराजयl
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