16 अक्तूबर 2016 की व्यंग्य की जुगलबंदी (क्र. 4) का विषय था – बदलता मौसम निर्मल गुप्त का व्यंग्य : बदलता मौसम और फेस्टिव सीजन सर्दी लगभग जा ...
16 अक्तूबर 2016 की व्यंग्य की जुगलबंदी (क्र. 4) का विषय था – बदलता मौसम
निर्मल गुप्त का व्यंग्य :
बदलता मौसम और फेस्टिव सीजन
सर्दी लगभग जा चुकी है। या शायद ढंग से आ भी गई हो, क्या पता? लोग युद्ध- युद्ध खेलने में इस कदर मशगूल हैं कि उसका जिक्र तक कोई नहीं कर रहा। तोते पिंजरे का दरवाज़ा खुला होने के बावजूद मजे से हरी मिर्च कुतरते हुए ‘आज़ादी आज़ादी’ की रट लगाये हैं। इस समय पूरा देश तरह–तरह के सवालों के घेरे में है। जिसे देखो उसी की जेब में प्रश्नों की पुड़िया है। भक्त टाइप लोगों के पास मुल्क की अस्मिता और देशभक्ति का मुद्दा है। उनके हाथों में लाठियां डंडे हैं जिन पर झण्डे टंगे हैं। जुबान पर तेजाबी बयान हैं। चेहरे पर कर्तव्यपरायणता की दमक है। आस्तिक हर नास्तिक सोच और मंशा वालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटने का जबरदस्त कौशल दिखा रहे हैं। वैसे पिटने वालों के लिए यह ट्रेजडी किंग बनने का सही समय है इसलिए पिट जाने के बावजूद मजे में हैं।
मौसम बदलने के साथ गर्म ऊनी कपड़े शोकेस के हैंगर से लेकर फुटपाथी रेलिंग पर टंग गये हैं। गर्मी वाले सूती झीने कपड़े अभी अलमारियों में तह लगा कर रख दिए गये हैं। फिर भी राजनीतिक माहौल गरमा गया है,पर इतना भी नहीं कि माथे पर पसीना चुहचुहाता हो। देह पसीने के नमक से इतनी नमकीन नहीं हुई है कि अपनी-अपनी आइडियोलाजी के अनुसार नमक हलाली के सवाल उठने लगें। वैसे भी राजनीति में नमकहलाली और नमकहरामी में कोई मौलिक भेद नहीं होता। यह बदलते हुए मौसम का संगीन समय है। ऐसे में एहतियात ही बचाव है। वस्तुत: यह भविष्य की ग्रीष्म ऋतु के लिए कम खर्च पर बेहतरीन ब्रांडेड डिजाइनर्स सूती कपड़ों की खरीददारी की अक्लमंदी से भरा मौका है। यह आने वाले कल के सपनों में निवेश का वक्त है।
पूरे मुल्क में भागमभाग और धरपकड़ मची है। मीडिया की मंडी में बड़ी हलचल है। सब अपने - अपने चैनल के लिए टीआरपी बटोरने के लिए पारदर्शी जाल बिछाए बैठे हैं। सबको पता है कि आजकल सूचना प्रधान ‘सीजन’ आने ही वाला है। मनगढंत ग्राफिक्स और रिसर्च के ज़रिये मनमाफिक सिंथेटिक सच और झूठ सामने आ रहे हैं। यह ठीक उसी तरह का सीजन है जैसे डेंगू जैसी महामारी फैलने पर डाक्टरों और दवा विक्रेताओं का बन आती है। जैसे मिठाई भरे थाल के ऊपर रखी चादर के जरा-सा उघड़ते ही मक्खियाँ भिनभिना उठती हैं। जैसे मनमाफिक थानेदार के तैनात होते ही इलाके के सटोरियों की मौज आ जाती है। यकीनन तमाम तरह के स्वप्नजीवियों के लिए यह मुरादों भरे दिन हैं।
बदलती फिज़ा के हिसाब से बाज़ार करवट लेता है। विजय ध्वजा की तरह फेस्टिवल सेल, महासेल और मेगा सेल के पट लहराने लगते हैं। राजनीतिक सरोकारों के अनुसार बदलाव और क्रांति की नवीनतम अवधारणायें प्रकट होती है। वातावरण इंस्टेंट कॉफ़ी के झाग और अजब उमंग से भर जाता है। क्रांतिधर्मी पोस्टर योद्धाओं के होठों और मूंछों से चिपक कर यही झाग नवजागरण के गीत गुनगुनाता है। राजनीति के हाट पर इस तरह के रणबांकुरों की डिमांड बढ़ जाती है। मुल्क के भीतर कुछ चटखता है तो लोग नई सोच के नये नेता के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा देता है। नये रैपर में नये समीकरण सामने आते हैं। सोच भी मौसमी होती है, बदलते वक्त के साथ बदल जाती है।
होली जब आएगी तब आएगी। बजट सत्र से पहले इस पर्व के साथ जुड़ा हुडदंग सामने आ गया है। एक दूसरे के मुंह पर कालिख पोतने की होड़ लगी है। जगह-जगह मजीरे बज रहे हैं। सब अपने –अपने एजेंडे का फाग गाने की अभी से प्रेक्टिस कर रहे हैं। गायन के मुकाबले वादन का ‘पिच’ इतना अधिक है कि इसकी धमक में असल मंतव्य हवा में गुम हो गये हैं। देशद्रोह और देशभक्ति के नारों से अभिमंत्रित फुलझड़ियाँ चहुँ ओर चमक बिखेर रही हैं।
बदलते मौसम के साथ मुखौटे भी बदल रहे हैं पर लक्ष्मी जी की आरती फिर भी पूर्ण भक्तिभाव और मिष्ठान भरी प्लेट सजाकर पूर्ण विधि विधान के साथ गाने की तैयारी चल रही है।
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अनूप शुक्ल का व्यंग्य :
मौसम है आशिकाना
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कल एक मित्र से बात हो रही थी। उन्होंने पूछा –’ तुम्हारे उधर का मौसम कैसा है?’
हमने कहा – आशिकाना।
यह कल की ही बात नहीं। हमसे कोई भी मौसम के बारे में पूछता है हमारा जबाब हमेशा एक ही रहता है- आशिकाना। मौसम बदलता रहे उसकी बला से। भीषण गर्मी पड़ रही हो। भयंकर लू चल रही हो। भद्दर जाड़ा पड़ रहा हो। दांत के साथ शरीर भी किटकिटा रहा हो। लेकिन हमसे मौसम की जब भी किसी ने बात की हमारा जबाब हमेशा एक सा ही रहा - आशिकाना।
यह कुछ ऐसा ही है कि भले ही अमेरिका कहीं भी बम बरसा रहा हो। किसी देश को तबाह कर रहा हो। आतंकवादियों को हथियार मुहैया करा रहा हो लेकिन जब भी उसकी नीतियों की बात चलेगी वह बयान जारी करेगा-’अमेरिका शांतिप्रिय देश है।’
एक तरह से सही ही कहता है अमेरिका भी। जब सब लोग मर खप जायेंगे तो हल्ला कौन मचायेगा। परसाई जी भी लिखते थे- “अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं। बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है, सभ्यता बरस रही है।“
हमने एकाध बार सोचा भी कि हमको हर मौसम ’आशिकाना’ ही क्यों लगता है। कारण समझ में नहीं आया। एक मित्र ने अपनी राय बताई –’ जिसको जो सुविधा हासिल नहीं होती वह उसका हल्ला मचाता रहता है। तुम शायद आशिकी से महरूम रहे इसलिये उसका नाम लेकर काम चलाते हो। सींकिया लोग ही अपनी पहलवानी के किस्से सुनाते हैं। साहब के चैम्बर में डांट खाकर निकले लोग बाहर सबको बताते हैं-’ आज हमने साहब को कस के हड़का दिया।’
हम मित्र की बात का क्या जबाब देते? कहते खूब आशिकी किये हैं तो फ़र्जी किस्से सुनाने पडते। उसमें भी दोहरा नुकसान। पहले तो हमारा ’शराफ़त इंडेक्स’ फ़ौरन कम होता। इश्क करना खराब माना जाता है न अपने यहां। इसके बाद जब किस्सों का झूठ सामने आता तो और बवाल होता।
लेकिन बात बदलते मौसम की हो रही है। आजकल मौसम इतनी तेजी से बदलने लगा है कि बेईमान से भी ज्यादा बेईमान हो गया है। बरसात का मौसम निकल जाता है पानी नहीं बरसता नहीं लेकिन अचानक जाड़े में धुंआधार हो जाता है। इसके अलावा पहले मौसम समाजवादी टाइप होता है। पूरे शहर में एक सा मौसम। अगर भन्नानापुरवा में धूप खिली है तो बांसमंडी में भी कपड़े सुखाने के डाल दिये जाते थे। अगर अफ़ीमकोठी में बारिश हो रही है तो ये नहीं हो सकता था कि गन्देनाले में छतरियां न खुलीं हो। मतलब सब जगह एक सा मौसम होता था।
लेकिन आजकल अक्सर ऐसा नहीं होता है। पता चलता है चेन्नई में झमाझम हो रहा होता है उधर कश्मीर में बर्फ़ गिर रही होती है। एक ही शहर तक में भी यही नजारा दिखता है। अक्सर होता है कि आर्मापुर में पानी बरस रहा है उधर कैंट में धूप खिली होती है। मौसम का यह बदलता अंदाज खाते में सीधे सब्सिडी जाने जैसा है। आर्मापुर का आधारकार्ड बारिश के लिये रजिस्टर है तो पानी बरसा दिया कैंट का नंबर धूप के लिये जुड़ा है तो वहां किरणें खिल गईं। यह भी हो सकता है कि मौसम के पास भी पानी और धूप का स्टाक सीमित हो या सर्विस एजेंट कम हो जाते हों इसलिये एक-एक करके सप्लाई करता हो। लोग कहते हैं आदमी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करता रहता है इसलिये कुदरत भी डर-डरकर निकलती है बाहर! टुकडों-टुकड़ों में सहमते हुये। इसीलिये कहीं धूप दिखती है, कहीं बारिश।
यह तो कुदरत के नजारे हैं। मौसम कैसा भी रहे उसका असर मन पर परिस्थिति के हिसाब होता है। इस लिहाज से इधर देश-दुनिया का मौसम बड़ी तेजी से बदल रहा है। कुछ लोग बहुत तेजी से अमीर हो रहे हैं, बहुत ताकतवर हो रहे हैं, सारी खुशियां कुछ लोगों तक सिमटकर रह गयीं हैं। संतुलन बनाये रखने के लिये तमाम लोग बहुत तेजी से गरीब, कमजोर और बेहाल हो रहे हैं।
पहले अपराध, धतकरम और तमाम बुराईयां डरी-सहमी सी रहती थीं। सबके सामने आने में उनको उसी तरह डर लगता था जिस तरह आज एक लड़की को अकेले बाहर निकलने में लगता होगा। लेकिन आज बदलते समय में अपराध, धतकरम और तमाम बुराईयों ने सत्ता और पूंजी के साथ गठबंधन सरकार बना ली है। गुंडे, बाहुबली जो पहले पर्दे के पीछे से सत्ता की सहायता करते थे वे अब खुद सरकार बनाने लगे हैं। माफ़िया मसीहा बनकर सामने आ रहे हैं। दुर्बुद्धि, गुंडई , अराजकता अपनी तेजी से बढती ताकत के साथ न्यायबुद्धि, भलमनसाहत और सज्जनता को पटकनी दे रही हैं। सच्चाई मुंह छिपाये कहीं कोने में खड़ी है। झूठ लिपा-पुता मंच पर अट्ठहास करते हुये सम्मानित हो रहा है। जनता भौंचक्की सी इस बदलाव को देखती है। उसको झटका तब लगता है जब उसको बताया जाता है कि इस सब की जिम्मेदार वही है! उसी ने झांसे में आकर अपनी बदहाली का इंतजाम किया है!
इधर मौसम बहुत तेजी से बदल रहा है।
लेकिन मौसम का बदलना भी एक शाश्वत सच है। मौसम हमेशा एक सा कहीं नहीं रहता। यह समय भी बदलेगा। पर बदलाव के लिये मौसम की मेहरबानी से ज्यादा मन की मजबूती चाहिये। रमानाथ अवस्थी के शब्दों में- ’कुछ कर गुजरने के लिये, मौसम नहीं मन चाहिये।’ या फ़िर परसाई जी के कहे के अनुसार –’ मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।’
यह तो हुई हमारे इधर के मौसम की बात ! अब आप बताइये आपके इधर कैसा मौसम है।
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समीर लाल का व्यंग्य :
बदलता मौसम
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एक सामान्य जीव के संज्ञान में मात्र तीन मौसम होते हैं. सर्दी, गर्मी और बरसात और इन तीन मौसमों के भीतर प्रति मौसम के दो स्वरुप- एक तो ठीक ठाक और दूसरा भीषण.
आप जब कभी उनसे पूछें कि मौसम कैसा है? तो जबाब में या तो वो कहेंगे कि ठीक ठाक ही है या फिर भीषण गर्मी पड़ रही है या भीषण ठंड या भीषण बारिश. डिग्री, सेल्सिया या मिलिमीटर आदि से उनका कोई साबका नहीं होता. उनकी नजर में ये सब मौसम विभाग के चोचले हैं और इससे मौसम पर कोई फरक नहीं पड़ता.
इनसे इतर कुछ ऐसे जीव है तो एक खास तबके के बीच ज्ञानी मात्र इसलिए कहलाये जाते हैं कि उन्हें मौसमों के वो नाम आज भी याद हैं जो कभी दर्जा छ की किताबों में पढ़कर, हिन्दी वर्णमाला की तरह, प्रायः सभी के द्वारा भुला दिये जाते है. उनके द्वारा जब महफिलों में, मौसम के नाम शरद, शिषित, हेमन्त, गीष्म, बर्षा और बसंत गिनाये जाते हैं तो महफिल में उपस्थित सभी लोग अपना बचपन का पाठ याद कर, मूँह बाये बतानें वाले की विद्वता को ताकते नहीं अघाते. महफिल में खुद मूर्ख नज़र न आयें इसलिए बगल में बैठे व्यक्ति को कोहनी मारकर बताते हैं कि भाई साहब ठीक बता रहे हैं.
सामान्य जन द्वारा इन मौसमों के साहित्यिक नामों को भुला दिया जाना स्वभाविक सा भी है. जिस चीज का इस्तेमाल आम भाषा में नहीं होता और जो प्रचलन से बाहर हो चुकी हों, उहें कोई याद भी रखे तो कैसे और क्यूँ? इसी तरह हिन्दी श्ब्दकोष कें न जाने कितने शब्द आम प्रचलन ओर बोलचाल के आभाव में विलुप्त हो शाब्दकोष के भीतर कैद हो गुमनामी की जिन्दगी बसर कर रहे हैं.
विचारणीय एवं चिन्तनीय मुद्दा यह न्हीं है कि प्रचलन के आभाव से क्या विलुप्त हो रहा है या प्रचलन के प्रभाव से क्या स्थापित हो रहा है. विचार करने योग्य मुद्दा यह है कि आने वाली पीढ़ी, ऐसे मौसम के नाम सुन, प्रचलन के प्रभाव से प्रभावित हो, पड़ोसी को कोहनी भी मारने योग्य न रह जायेगी.
आने वाली पीढ़ी का बड़ा प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से आयेगा और वो शायद इस तरह के शरद, हेमन्त आदि नामों से कभी परिचित भी न हो पायेगा. वो भी एक अलग सा ही मौसम होगा जहाँ, हिन्दी रोजगार की भाषा होने के आभाव में, अधिकाशतः मात्र बोलचाल की भाषा बन कर रह जायेगी.
प्रचलन के प्रभाव में आकर आने वाले समय में शायद मौसम के नाम कुछ नये तरीके के लिए जाने लगें –मसलन चुनाव का मौसम, परीक्षा का मौसम, डैंगू का मौसम, त्यौहारों का मौसम, विवाह का मौसम, घूमने का मौसम...आदि आदि. इन मौसमों में हवायें भी अपना स्वरुप बदलेंगी जैसे पछुवा और पुरबिया हवा के बदले चुनाव कें मौसम में मोदी की हवा या अखिलेश की हवा, त्यौहारों के मौसम में मंदी और तेजी की हवा आदि चला करेंगी.
प्रचलन के आभाव का प्रभाव देखना हो तो हिन्दी के मौसम में, हिन्दी दिवस के आसापास, हिन्दी साहित्य कें तथाकथित वरिष्ठ साहित्यकारों को हिन्दी कें सम्मेलनों में हिन्दी की बिगड़ती स्थिति पर चिन्ता व्यक्त करने के बाद, मंच से उतार कर हिन्दी वर्णमाला पूछकर देखिये ओर बदलते मौसमा का लुत्फ उठाईये या सर फोडिये, सब आप पर निर्भर है.
मौसम कब एक सा रहा है वो तो स्वभावतः बदलता ही रहेगा.
-समीर लाल ’समीर’
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रवि रतलामी का व्यंग्य :
बदलता मौसम
मालवा क्षेत्र में मौसम के बदलाव का पूर्वानुमान या फिर यूं कहिए कि बदलते मौसम की भविष्यवाणी हवा का रूख देख कर किया जाता रहा है। कुरावन नाम की हवा की दशा-दिशा और गति को भांप कर बुजुर्ग आज भी सटीक भविष्यवाणियां करते हैं कि पानी कब, कितना गिरेगा और ठंडी गर्मी कितनी पडे़गी। मगर आज के जमाने का आदमी अपनी इंद्रियों की अपेक्षा वेदर डॉट कॉम पर ज्यादा भरोसा करने लगा है। वो घर से निकलने से पहले लोटा भर पानी पी कर, हाथ में छतरी लेकर या रैनकोट डाटकर निकलने के बजाए गूगल नाओ पर मौसम चेक कर निकलता है। क्योंकि वैसे भी उसे अब कहीं पानी की किल्लत कहीं नहीं होती। धन्य हो बोतलबंद पानी बनाने वाली कंपनियों का। बीस रुपल्ली निकालो और एक बोतल पानी हाजिर। कभी भी कहीं भी। हां, अगर कहीं बिन बुलाए बरसात हो गई, आंधी-तूफान आ गया और पास में छतरी या रेनकोट न हो तो उसका प्रोग्राम बरबाद हो सकता है। इसलिए बदलते मौसम के पूर्वानुमान पर अपडेट, एक अदद पानी के लोटे से ज्यादा जरूरी है।
साथ ही, अचानक कहीं चटख धूप के बीच पानी की बौछारें होने लगे तो एक अदद छतरी का जुगाड़ होना मुश्किल है। पर यह भी सत्य है कि ऐसी चटख धूप में भी कोई बंदा यदि छतरी लिए या रेनकोट पहने दिख जाए तो यह समझें कि उसने पक्के तौर पर मौसम ऐप्प पर मौसम का मिजाज चेक कर लिया है और उसे अपने मौसम भविष्यवाणी करने वाले ऐप्प पर अपने आप से ज्यादा भरोसा है कुछ इस तरह कि हिंदी का कवि इस पक्के भरोसे में रहता है कि 250 प्रतियों के प्रिंट आर्डर में, सहयोग राशि के सहयोग से प्रकाशित उसके इकलौते कविता संग्रह के लाखों पाठक हैं और वो दुनिया में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध कवियों की कतार में खड़ा है ।
भारत में यूं तो प्रकट रूप में तीन मुख्य मौसम हैं - ठंडी, गर्मी और बरसात। परंतु इधर कुछ सालों में भारत के मौसम में बहुत बड़ा बदलाव आया है। एक नया, सुहावना, सबके फायदे का मौसम पैदा हो गया है - चुनाव का मौसम।
चुनाव का मौसम बहुत से परिवर्तन लाता है। चुनाव के मौसम में कहीं पैसों की बारिश होती है, कहीं टीवी, रेडियो, स्मार्टफ़ोन और लैपटॉप की। भारत की जनता के लिए यही मौसम सबसे बेहतर होता है। इसी मौसम में कई नई योजनाएं अवतरित-स्वीकृत होती हैं। पुरानी रूकी फंसी पड़ी योजनाएं द्रुतगति पाती हैं। कभी-कभी दस-बारह वर्षों से रूके फंसे पुलों के काम तो इतनी द्रुतगति पाते हैं कि भरभराकर ढह भी जाते हैं।
सोशल मीडिया के आभासी संसार के वास्तविक मौसम के तो क्या कहने! यहाँ का मौसम प्रकाश की रफ्तार से भी अधिक गति से बदलता है, बनता-बिगड़ता है। यहां का मौसम परिवर्तन ब्रह्मांड के किसी नियम कानून को नहीं मानता। दरअसल यहां पर हर नियम फट जाता है। ऊपर से बड़े अजीब अजीब, अब तक के अनदेखे अनसुने मौसम आते-जाते हैं। कभी कन्हैया मौसम तो कभी वेमुला मौसम तो कभी पुरस्कार लौटाऊ मौसम। कुछ समय पहले तोता-तोती कविताई का ऐसा बिगड़ा मौसम आया कि कोई बच न पाया। किसी सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में, वर्तमान में अचानक ही, बेमौसम बरसात की तरह, आलुओं का, बल्कि सड़े गले आलुओं का मौसम यहां छाया हुआ है।
ओह, मौसम की बात करते-करते यहां का अच्छा भला मौसम भी मोनोटोनस हो गया। तो क्यों न, यह लेख व्यंग्य है कि हास्य, कि महज बकवास, इस बात पर, आइए, गर्मागर्म बहस करें और यहां के मौसम के मिजाज को थोड़ा बदलें।
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