सा क्षात्कार ‘‘कोई विधा मेरे लिए सौतेली नहीं है’’ ( वरिष्ठ कवि , नाटककार एवं कथाकार प्रताप सहगल से डॉ . भावना शुक्ल की बातचीत ) कवि , न...
साक्षात्कार
‘‘कोई विधा मेरे लिए सौतेली नहीं है’’
(वरिष्ठ कवि, नाटककार एवं कथाकार प्रताप सहगल से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत)
कवि, नाटककार, कथाकार एवं एक विचारक के रूप में ख्यात प्रताप सहगल के अब तक सात कविता संग्रह, आठ मंच नाटक, लगभग तीस लघु नाटक, बीस बाल नाटक, कुछ ध्वनि नाटक एवं धारावाहिक प्रकाशित हो चुके हैं. आलोचना एवं चिंतन परक चार पुस्तकें भी उनके नाम हैं. उन्होंने मूल नाट्य-लेखन के साथ-साथ कई विदेशी एवं संस्कृत नाटकों का अनुवाद एवं रूपांतर भी किया है. हिन्दी अकादमी के साहित्यकार सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, संस्कृति मंत्रालय (भारत सरकार) के साथ अनेक सम्मानों से अलंकृत किए जा चुके हैं. दिल्ली में उनके निवास पर हमारी सहयोगी डॉ. भावना शुक्ल ने उनसे बातचीत की. यहां प्रस्तुत है उनसे बातचीत के अंश.
डॉ. भावना शुक्लः आपकी नाट्य-लेखन की प्रक्रिया क्या है?
प्रताप सहगलः यह प्रश्न जितना छोटा है, उसका जवाब उतना लंबा. नाट्य-लेखन की अपनी प्रक्रिया पर मैंने अलग से एक पूरा लेख लिखा है, लेकिन संक्षेप में कहूं तो हर नाटक लिखने के लिए अलग तरह से तैयारी करनी पड़ती है. नाटक चाहे किसी भी यानर का हो, रंगमंच की समझ जरूरी है. नाटक का शब्द पठित होने के साथ-साथ दृश्यात्मक भी हो. अगर नाटक की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक या पौराणिक है तो सबसे पहले उस विषय पर शोध और फिर यह सोच कि क्या उस शोध का कोई नया संदर्भ भी हो सकता है, जो इतिहास और पुराण में अवस्थित होते हुए भी कोई नई व्याख्या प्रस्तुत कर सके. उस काल-खंड या पुरा-कथा को ज्यों का त्यों लिखने का कोई अर्थ नहीं. शोध के बाद नाटक के लिए एक खाका तैयार करता हूं. उस खाके में रंग तब आते हैं, जब नाटक का कोई ग्राफ तैयार होता नजर आता है. संवादों में त्वरा नाटक को गति देती है. संवाद ऐसे हों कि वे मंच पर दृश्य-
बंध एवं बिंब तैयार करने में कारगर हो सकें. पात्रों को चरित्र बनाने के लिए उनकी पृष्ठभूमि के साथ-साथ उनके अंतर्लोक में भी प्रवेश करना होता है. संवादों में इतनी स्पेस जरूरी है कि अभिनेता चरित्र को रूपायित कर सके. यानी उसे भी अभिनय का अवसर मिले. नाटक में आई शब्द-बहुलता दृश्य-बंध बनने में रुकावट हो सकती है. इसलिए ध्यान रखता हूं कि हर पात्र के संवाद घात-प्रतिघात करते हुए नाट्य-व्यापार को घटित होते हुए दिखा पाने में सक्षम हों. अपने शुरू के नाटकों में नाट्य-निर्देश बहुत देता था, अब कम से कम. दृश्य-बंध लचीला हो तो अच्छा. चरित्रों के अनुरूप भाषा-अनुकूलता पर ध्यान रहता है. मैं नाटक में कथा-तत्त्व को अनुपस्थित कर देने में विश्वास नहीं करता. और भी बहुत सी बातें, जो हर नए नाटक के साथ अलग-अलग तरीके से जुड़ती चली जाती हैं. इसलिए कोई एक ही प्रक्रिया हर नाटक के लिए नहीं हो सकती. नाटक के मंतव्य भी मेरी नाट्य-लेखन की प्रक्रिया को तय करते हैं.
डॉ. भावना शुक्लः नाट्य-लेखन अन्य विधाओं की अपेक्षा कम है क्या?
प्रताप सहगलः उत्तर तो हां में ही है. इसीलिए हमें कहानियों, उपन्यासों के सीधे या फिर उनके रूपांतरित रूप मंचित होते नजर आते हैं. देशी-विदेशी भाषाओं के नाटकों के अनुवाद या रूपांतर भी मंच पर अवतरित होते रहते हैं. रंगमंच करने वाले लोग अब बहुत हैं. हिन्दी में पहले से कहीं ज्यादा रंगकर्मी सक्रिय हैं. सभी को नए नाटक चाहिए, जो संभव नहीं है. हिन्दी में रंगमंच और नाट्य-लेखन से जुड़े लेखक कम ही हैं.
डॉ. भावना शुक्लः नाट्य-लेखन के क्षेत्र में महिला-नाटककार इस समय कौन हैं? और जो हैं उनके मुद्दे क्या पुरुष लेखकों से अलग हैं?
प्रताप सहगलः केवल नाटक लिखने वाली तो संभवतः त्रिपुरारि शर्मा हैं लेकिन अनेक महिला कथाकारों एवं कवियों ने भी नाटक लिखे हैं. कुसुम अंसल या वनीता जैसी महिला लेखकों ने केवल एक या दो नाटक ही लिखे हैं लेकिन मीरा कांत, मृणाल पांडे, मृदुला गर्ग या फिर नादिरा जहीर बब्बर आदि ने दो-तीन से
अधिक नाटक लिखे हैं. जहां तक महिला नाटककारों के मुद्दों की बात है तो कहूंगा कि कमोबेश मुद्दे तो एक से ही होते हैं, लेकिन मूल अंतर दृष्टि का होता है. इस संदर्भ में पुरुष नाटककारों की दृष्टि जिस तरह से अलग-अलग होती है, उसी तरह महिला नाटककारों की भी. महिला-पुरुष लेखक का भेद करना उचित नहीं लगता.
डॉ. भावना शुक्लः थियेटर में महिलाओं का शोषण होता है क्या?
प्रताप सहगलः थियेटर में शोषण किसका नहीं होता. केवल महिलाओं की बात करना यहां भी उचित नहीं. आर्थिक, मानसिक और दैहिक शोषण बहुत लोगों का होता है. आजकल तो सबसे ज्यादा शोषण नाटककार का हो रहा है. न तो नाटककार से अनुमति ली जाती है, न उसे रायल्टी दी जाती है. यहां तक कि उसे सूचित भी नहीं किया जाता कि उसका फलां नाटक फलां जगह पर फलां निर्देशक या नाट्य-दल द्वारा किया जा रहा है. और तो और प्रचार सामग्री से नाटककार का नाम तक गायब कर दिया जाता है.
डॉ. भावना शुक्लः रंगमंच और लेखक के बीच आपसी रिश्ता क्या हो सकता है?
प्रताप सहगलः दोनों एक-दूसरे का सम्मान करें.
डॉ. भावना शुक्लः दिल्ली के रंगमंच और बाहर के रंगमंच में क्या फर्क है?
प्रताप सहगलः दिल्ली में रंगमंच बहुत विकसित हो चुका है. इतना विविधताओं से भरा विकसित रंगमंच शायद ही देश के किसी अन्य शहर में हो. अब धीरे-धीरे कुछ प्रोफेशनलिज्म भी आने लगा है दिल्ली में. मुंबई में कुछ सुविधाएं हैं लेकिन अन्य शहरों में शायद इतनी सुविधाएं नहीं हैं. अभी भी वैश्विक स्तर पर दिल्ली रंगमंच पिछड़ा हुआ ही लगता है. फिर भी कहूंगा कि दिल्ली में बहुत मैच्योर रंगकर्म हो रहा है और इसी के समानांतर एक हल्का-फुल्का रंगमंच भी चल रहा है और दोनों को दर्शक मिल रहे हैं.
डॉ. भावना शुक्लः क्या आप दलित लेखन और अन्य लेखन में कोई भेद करते हैं? दलित लेखन क्या केवल दलित ही कर सकते हैं?
प्रताप सहगलः मैं केवल अच्छे लेखन और खराब लेखन में भेद करता हूं. दलित लेखन के नाम पर बहुत कूड़ा भी सामने आया है और जिसे आप अन्य लेखन कह रही हैं, वहां तो पहले से ही बहुत कूड़ा जमा है. अब प्रश्न रहा कि क्या दलित लेखन केवल दलित ही कर सकते हैं तो यह बात एक सीमा तक सही है, क्योंकि जितने तल्ख अनुभव दलित लेखकों के पास हैं, उस तरह के अनुभव हमारे पास नहीं हैं. हमारे तल्ख अनुभवों एवं दलितों के तल्ख लेखन में कुछ बुनियादी फर्क हैं.
डॉ. भावना शुक्लः कैसे बुनियादी फर्क?
प्रताप सहगलः जैसे सामाजिक स्तर पर जिस तरह का अपमान दलितों ने झेला है और कुछ इलाकों में अब भी झेल रहे हैं, वह शर्मनाक तो है ही, उनके लेखन के लिए जमीन भी है. सामाजिक अन्याय एवं आर्थिक असमानता दोनों मिलकर दलितों के अनुभवों को इतनी तल्खी देते हैं कि कई बार इस तल्खी में साहित्यिक मान पूरी तरह से खंडित हो जाते हैं. यहां तक तो ठीक, लेकिन जब लेखन केवल प्रलाप में बदल जाता है तो उसे हम साहित्य तो नहीं कह सकते. ऐसा लेखन तात्कालिक असर करता है, लेकिन संवेदनात्मक स्तर पर परिवर्तन कम करता है. ऐसा भी नहीं कि दलितों के जीवन की विषमताओं एवं उनपर होने वाले अत्याचारों पर गैर-दलित लिख ही नहीं सकते. लिखते हैं और अच्छा लिखते. यह एक्चुअल रियल्टी से वर्चुल रियल्टी की यात्रा है.
डॉ. भावना शुक्लः नाट्य-लेखन ने बाल रंगमंच को किस प्रकार प्रभावित किया है?
प्रताप सहगलः कहना चाहिए कि बाल रंगमंच ने नाट्य-लेखन को किस प्रकार प्रभावित किया है. बाल रंगमंच की स्थिति पिछली शताब्दी से भले ही बेहतर है लेकिन अभी भी इसका विकसित रूप हमारे सामने आना शेष है. हिन्दी का लेखक रंगमंच की नजर से नाटक ही कम लिखता है तो बाल नाट्य लेखकों की संख्या और भी कम है. बाल-नाटक के नाम पर जो नाटक सामने आ रहे हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे हैं, जिनमें रंगमंच की समझ नहीं है.
डॉ. भावना शुक्लः आपने नाटकों के साथ कविता, कहानी, उपन्यास आदि अनेक विधाओं में लेखन किया है. कौन सी
विधा आप ज्यादा प्रभाव छोड़ती है.
प्रताप सहगलः जब जिस विधा में लिख रहा होता हूं, उस समय मैं उसी विधा का लेखक होता हूं किसी भी लेखक को आप
विधाओं में कैद नहीं कर सकते. हर लेखक की अपनी-अपनी क्षमताएं हैं. मुझे जो कहना है, उसके लिए जो विधा उपयुक्त लगती है, उसमें लिखता हूं. कोई विधा मेरे लिए सौतेली नहीं है.
डॉ. भावना शुक्लः लोक पर समकालीन नाटकों का क्या प्रभाव पड़ा?
प्रताप सहगलः प्रदर्शनकारी कलाओं का प्रभाव हमेशा अधिक होता है. नाटक का भी है. जैसे मंच से पढ़ी जाने वाली अच्छी या खराब कविता से लोग अधिक प्रभावित होते हैं बनिपस्पत केवल पढ़ी जाने वाली कविता के. अधिक तो नहीं, इतना जरूर कह सकता हूं जो लोग नाटक एवं रंगमंच से जुड़े हुए हैं, वे अधिक जागरूक, अधिक वाचाल और अधिक संघर्ष की क्षमता रखते हैं. उनमें संस्कारगत अभिरुचियां अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होती हैं.
डॉ. भावना शुक्लः ध्वनि नाटकों का रंगमंच पर क्या प्रभाव पड़ा है?
प्रताप सहगलः सीधा कोई प्रभाव पड़ा हो, ऐसा तो नजर नहीं आता लेकिन रंगमंच पर सफल होने वाले अनेक ऐसे बड़े नाटक हैं जो मंच पर आने से पूर्व रेडियो पर प्रसारित हुए. मिसाल के तौर पर धर्मवीर भारती का अंधायुग, मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन और मेरा अपना नाटक अन्वेषक. यह तीनों ही नाटक मंच पर बहुत सफल रहे हैं लेकिन मंच पर आने से पूर्व यह रेडियो पर प्रसारित हो चुके थे. यह बात अलग है कि हर नाटककार ने अपने-अपने नाटक पर मंच की दृष्टि से इन पर काम किया. ऐसे और भी बहुत नाटक होंगे जो पहले प्रसारित हुए, बाद में खेले गए और इसके विपरीत भी हुआ. यानी यह आवाजाही चलती रही, आज भी जारी है.
डॉ. भावना शुक्लः हमारे पाठकों तथा आज की पीढ़ी को आप क्या संदेश देंगे, जिससे साहित्य के प्रति रुचि जागृत हो.
प्रताप सहगलः भावना, तुम्हें किसने संदेश दिया कि तुम्हारी रुचि साहित्य में होगी. किसी न किसी रूप में कलाएं हर मनुष्य को जीवित रखने के लिए खुराक हैं. कला के रूप और मान अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन हैं. मुझे तो लगता कि आज की पीढ़ी बड़ी तल्लीनता से साहित्य कर्म में डटी हुई है. ढेरों साहित्यिक पत्रिकाएं और किताबें इसकी गवाह हैं. हां, इतना जरूर कहूंगा कि रचना को प्रकाशित करवाने में जल्दबाजी न करें और न महान बनने की कोशिश. काम करते रहें, इसमें बड़ा सुख है और यह सुख कोई भी आपसे छीन नहीं सकता. एक बात और कि अपने अनुभवों पर यकीन करें. भले ही बात शास्त्रीय हो लेकिन सच है कि लेखन के लिए प्रतिभा के अतिरिक्त अध्ययन, चिंतन-मनन, देशाटन और विचारशील होना बहुत जरूरी है.
संपर्कः सह संपादक प्राची
डब्ल्यू जेड 21, हरिसिंह पार्क, मुल्तान नगर,
पश्चिम विहार, नई दिल्ली- 110056
मोबाइलः 09278720311
ईमेल- bhavanasharma30@gmail-com
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