यहां वहां की सितम्बर के शुभाकां क्षी दिनेश बैस मे रे एक मित्र सितम्बर महीने को लेकर बहुत भावुक थे. कहते थे कि साल में सितम्बर का महीना न...
यहां वहां की
सितम्बर के शुभाकांक्षी
दिनेश बैस
मेरे एक मित्र सितम्बर महीने को लेकर बहुत भावुक थे. कहते थे कि साल में सितम्बर का महीना नहीं होता तो समस्त पृथ्वी की रचना व्यर्थ हो जाती. प्रभु की लीला अपरम्पार है. उसने सितम्बर के महीने का सृजन किया. अपितु वर्ष भर सितम्बर ही बना रहता, तब इस महान सृष्टि का अनुपम कल्याण हो जाता, वे भावनाओं में बहने लगते. बहने के मामले में उन्हें नदी की तेज धार की तुलना में भावनाओं में बहना अनुकूल लगता था. वह भावुक होते थे तो संस्कृतनिष्ठ हिंदी पर सवार हो जाते थे. भावुक होने के दौरे उन पर प्रायः पड़ते ही रहते थे. हिंदी के शिक्षक थे. हालांकि वे अपना परिचय शिक्षक के रूप दिया जाना पसंद नहीं करते थे. कोई उन्हें हिंदी का शिक्षक कहता तो वे दीन-हीन की मुद्रा में आ जाते. और अधिक भावुक हो उठते- मां शारदे का अकिंचन सेवक कहो, मित्र. शिक्षक कह कर हमारा अपमान मत करो-
सितम्बर महीने के प्रति भावुक होना वे इसलिये अपना कर्तव्य मानते थे कि इस महीने में अचानक उनका सम्मान बढ़ जाता था. उन सरकारी कार्यालयों में जहां हिंदी लिखना पढ़ना असभ्यता माना जाता था, सितम्बर के महीने में अचानक हिंदी के उत्थान के लिये वहां व्याकुलता पैदा हो जाती थी. वे हिंदी के कल्याण के लिये उन्हें आमंत्रित करना आरम्भ कर देते. उनसे दीप प्रज्वलित करवा कर कार्यालय की किसी सुदेहा के कर कमलों से पुष्प-गुच्छ- इस प्रकार के आयोजनों में बुके या गुलदस्ता कहना वर्जित माना जाता है- भेंट करवाते. शाल-श्रीफल अर्पित कर, उन्हें हिंदी के पुरोधा बता कर, राजभाषा के उत्थान पर व्याख्यान देने का अनुरोध करते. वे हिंदी के विकास के प्रमाण में बताते कि पहले हम केवल हिंदी दिवस मनाते थे, आज हिंदी माह मना रहे हैं. आप देखेंगे कि हिंदी इसी प्रकार उत्तरोत्तर पुष्पित-पल्लवित होती जायेगी. एक दिन वह आयेगा जब हम हिंदी वर्ष मनायेंगे. कार्यालयी मजबूरियों के कारण आयोजन में बैठे श्रोताओं की प्रतीक्षा की घड़ी चाय-समोसों के आगमन से समाप्त होती. वे उन्हें नष्ट करने का कष्ट करते. कार्यक्रम की सफलता स्वीकारते हुये यह कह कर निकल लेते कि चलो, हो गया हिंदी का तर्पण.
एक अन्य परिचित किन्हीं अलग कारणों से सितम्बर माह का सम्मान करते थे. उनके सम्मान का कारण संस्कारगत् रहा है. वे तेरहीं प्रबंधन का व्यसाय करते थे. श्मशान, संगम, तेरहीं समारोह के साथ स्वर्ग प्रेषण तक का पैकेज लिया करते थे. उनकी प्रतिष्ठा सफल तेरहीं प्रबंधकों के रूप में स्थापित हो चुकी थी. कोई भी जरूरतमंद उनसे कभी भी सम्पर्क कर सकता था. उनके विजिटिंग कार्ड का संदेश था- एक बार सेवा का अवसर अवश्य दें. संतुष्ट हों तो सबसे कहें. शिकायत हो तो हमसे कहें-
वे इस सीमा तक उदार रहे हैं कि कहा करते थे कि भगवान, हमें नहीं चाहिये सितम्बर तीस दिन का. तू इसे पंद्रह दिन का कर देगा तो भी कोई आपत्ति नहीं है. पितृ-पक्ष तो पंद्रह दिन में ही निबट लेता है. इतना ही बहुत है. विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि उनके निजी पिता को बिना भोजन तथा बिना दवाइयों के ही रवानगी डालनी पड़ी थी. उनके संस्कार इस मद में व्यय करने की अनुमति नहीं देते थे. लेकिन इससे क्या है. यह उनके घर का निजी मामला था. किसी को किसी के निजी मामले में चोंच अड़ाने का क्या अधिकार है. सार्वजनिक मामला यह रहा है कि वे पूर्वजों का बहुत आदर करते हैं. पितृ-पक्ष पूर्वजों को समर्पित होता है. वे किसी के भी पूर्वजों के तर्पण हेतु सदैव तत्पर पाये जाते हैं. जजमानों की सुविधा के लिये उनके पास बाकायदा लिस्ट होती है. वे फोन पर अग्रिम सूचना दे देते थे कि जजमान आपके पिता श्री अमुक तिथि को सिधारे थे. और कि श्राद्ध वाले दिन वे समय पर अवतरित हो जायेंगे. उस सपने का वर्णन कर देते जिसमें पारलोकीय पिता श्री ने श्राद्ध वाले दिन क्या खाने की इच्छा व्यक्त की है. उनका संकल्प होता था कि केवल दोपहर को ही भोजन करेंगे. शेष समय भोजन को अपान वायु में परिवर्तित करने में व्यय करेंगे. ऐसा वह उस पुरखे के स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर करते थे कि कहीं उसे अपच न हो जाये.
हालांकि इस फुल प्रूफ व्यवस्था में कभी-कभी व्यवधान भी पैदा हो जाता था. एक बार एक क्लाइंट से वे पूर्व में सम्पर्क नहीं कर पाये. निश्चित तिथि पर उसके घर श्राद्ध करने पहुंचे तो क्लाइंट ने सूचना दी कि अम्मा बता रही थीं कि पीता श्री जिस दिन सिधारे, उस दिन उनका निर्जला व्रत था. उनकी आत्मा की शांति हेतु महाराज को भी वैसे ही श्राद्ध करना होगा. इस घटना से उन्होंने सबक लेते हुये माना कि सावधानी घटी और दुर्घटना घटी. गलती फिर न हो, इस उद्देश्य से जजमान को ब्लैक लिस्टिड कर दिया. एक और जजमान को उन्हें ब्लैक लिस्टिड करना पड़ा था- वे जजमान के दादा का श्राद्ध करके लौटे थे. घर आते-आते पेट ने बगावत शुरू कर दी. पूरा दिन शौचालय प्रवास में बीता. तभी मुक्ति प्राप्त हुई जब अस्पताल में बोतल लटका कर उनकी नसों में पानी भरा गया तथा पेट की बाढ़ की रोक थाम के प्रबंध किये गये. अस्पताल में जजमान उनकी मिजाजपुर्सी के लिये आये थे. बोले- आप नाहक परेशान हैं. दादा जी ने आप से सपने में सम्पर्क करने का प्रयास किया था, लेकिन सारे चैनल व्यस्त चल रहे थे. हार कर उन्हें सीधे हमारे सपने में आना पड़ा. बता रहे थे कि बेटा और तो सब यहां कुशल है मगर पेट में कब्जियत बहुत है. श्राद्ध में कुछ ऐसा उपाय करना कि पेट साफ हो जाये. इसलिये दादा जी का कष्ट दूर करने के लिये खीर में तनिक कब्ज निवारक वस्तुओं का प्रयोग किया गया था. दादा जी की आत्मा की प्रेरणा से आपने मन लगा कर खीर खाई. वे आपको आशीर्वाद दे रहे होंगे.
उन्हें अफसोस हुआ कि जजमान की नादानी से अगले चार दिन वे किसी अन्य के पुरखों का तर्पण करने की स्थिति में नहीं रहे. घर की खिचड़ी पर अपनी आत्मा को ही व्यवस्थित करते रहने के लिये विवश हो गये. उन्होंने यह सोच कर धैर्य धारण किया कि जीवन है तो दुर्घटना भी होगी ही. इससे सितम्बर का महत्व थोड़े ही कम हो जायेगा.
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