आलेख सतत् गति शील और जीवंत नामवर सिंह विजय केसरी 2 005 में विनोबा भावे विश्वविद्यालय के आमंत्रण पर हिन्दी साहित्य के सतत् गतिशील और जीव...
आलेख
सतत् गतिशील और जीवंत नामवर सिंह
विजय केसरी
2005 में विनोबा भावे विश्वविद्यालय के आमंत्रण पर हिन्दी साहित्य के सतत् गतिशील और जीवंत आलोचक डॉ. नामवर सिंह हजारीबाग आए थे. तीन दिनों तक हजारीबाग में रुके थे. यहां कथा सम्राट ‘प्रेमचंद की विरासत’ पर उनका यादगार व्याख्यान हुआ था. जिसे आज तक लोग भूल नहीं पाये हैं. लोगों ने प्रेमचन्द की रचनाओं पर इतना बेहतरीन और सूक्ष्म अन्वेषित भाषण नहीं सुना था. यह मेरा सौभाग्य है कि उक्त कार्यक्रम में मैं भी एक भाग्यशाली श्रोता के रूप में उपस्थित था. पूरा सभाकक्ष भरा था. पूर्णरूपेण शान्तचित होकर लोग डॉ. नामवर सिंह को सुन रहे थे. उन्होंने कहा था- ‘‘प्रेमचन्द जैसे कथाकार सदियों बाद आते हैं और सदियों तक रहते हैं. उन्होंने अपनी कथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त असमानता, गरीबी, रुदन, टूटन और शोषण के खिलाफ आवाज ही नहीं उठायी, बल्कि जमकर प्रहार भी किया.’’
विश्वविद्यालय के कार्यक्रम के अलावा हजारीबाग के साहित्यकारों ने आयकर प्रशिक्षण केन्द्र के सभागार में भी साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन किया था. बतौर मुख्य वक्ता के रूप में डॉ. नामवर सिंह सम्मिलित हुए थे. अध्यक्षता स्व. प्रो. नागेश्वर लाल ने की थी. आयोजित उक्त साहित्यिक सभा में इससे पूर्व यहां होने वाली गोष्ठियों की तुलना में कभी भी इतनी भीड़ नहीं हुई थी. सभाकक्ष पूरी तरह भरा था. लोगों ने नामवर सिंह के आने के एक घंटा पूर्व ही वहां आना शुरू कर दिया था. हिन्दी साहित्यानुरागियों के लिए नामवर सिंह का सीधा सम्बोधन सुनना सपने के सच होने जैसा प्रतीत हो रहा था. इस सभा में डॉ. नामवर सिंह ने स्थापित कथाकारों से सीखने की सीख दी और आलोचना क्या होती है, उससे परिचित भी करवाया. उन्होंने कहा- ‘‘मैं बने-बनाए सत्य की पुड़िया बांटने नहीं आया हूं. मैं आपको झकझोरने आया हूं कि नये लोग सामने आयें और हमारी
अधूरी, अपूर्ण बातों को पूरा करें.’’ उनकी उक्त टिप्पणी से प्रतीत होता है कि उन्हें यह अहसास होना शुरू हो गया था कि अब उनकी उम्र चुक रही है, इसलिए नये लोगों को सामने आना चाहिये. आलोचना का जो नया मार्ग उन्होंने दिखाया है, उसपर बहुत काम करने की जरूरत है.
विनोबा भावे विश्वविद्यालय प्रशासन ने हजारीबाग परिसदन के नये बिल्डिंग के दूसरे तल्ले में नामवर सिंह के ठहरने की व्यवस्था की थी. सुबह लगभग 7 बजे मैं ‘रांची एक्सप्रेस’ की एक प्रति लेकर उनसे मिलने पहुंच गया. कोई तामझाम नहीं और न ही कोई सुरक्षा के विशेष इंतजाम. यह देख मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि जब कोई मंत्री,
विधायक अथवा अधिकारी आते हैं तो सुरक्षा के कड़े प्रबन्ध होते हैं. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की पुरानी परम्परा के अन्तिम महत्वपूर्ण कड़ी हैं. क्या इन्हें सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं है? इन्होंने प्रचलित आलोचना परम्परा को एक नया स्वरूप प्रदान किया. इनकी प्रखर आलोचनाओं के प्रहार से न जाने कितनी मान्यताएं ध्वस्त हो चुकी हैं. लाखों रचनाकारों को नाराज कर चुके हैं. क्या ये कारण नहीं बनते इनकी सुरक्षा के? खैर, इन बातों को आगे नहीं बढ़ाते हुए मैंने सीधे दरवाजे को बाहर से खटखटाया ही था कि पलभर में दरवाजा खुला और सामने नामवर सिंह थे. उन्होंने बड़ी विनम्रता से पूछा, ‘‘क्या आप मुझसे मिलने आये हैं?’’ मेरे ‘‘हां’’ कहने पर सहज भाव से ‘‘आइए’’ कहा और मेरे प्रवेश करते ही स्वयं दरवाजा बंद कर लिया. अन्दर डॉ. खगेन्द्र ठाकुर भी बैठे थे. संभवतः वे दोनों आपस में बातचीत कर रहे थे. मैंने नामवर सिंह से कहा कि बिना समय लिये आपसे मिलने आ गया, कहीं कोई परेशानी, कह भी नहीं पाया था कि उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा कि कोई परेशानी नहीं. आप इत्मीनान से बैठें. यह सुन मुझे राहत महसूस हुई. मैं इस पर महसूस कर रहा था कि इतने विराट व्यक्तित्व के स्वामी इतने सामान्य और विनम्र? अब तक मेरा उनसे कोई पूर्व परिचय नहीं था और न ही कभी मिला था. एक अजनबी के साथ इतने बड़े हिन्दी साहित्य के आलोचक का यह व्यवहार- मैं कायल हो चुका था. मुझ अजनबी से उन्हें कोई खौफ नहीं. पूरी तरह बिंदास और शांत. मुझसे मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा, ‘‘क्या आप पत्रकार हैं?’’ मैंने तुरंत हां कह दी. मैं यह सोचकर हैरान था कि अभी मैंने उन्हें अपना कोई परिचय नहीं दिया था और पत्रकार एक लफ्ज कहकर वे मुझे जान गए. मैंने महसूस किया कि वे सिर्फ आलोचक ही नहीं है, बल्कि आदमी की परख भी उन्हें है.
मैंने ‘रांची एक्सप्रेस’ की एक प्रति उन्हें दी और विश्वविद्यालय में हुए कार्यक्रम की प्रकाशित रिपोर्टिंग देखने के लिए आग्रह किया. उन्होंने ‘रांची एक्सप्रेस’ की प्रति ले सरसरी निगाह से हर पन्ने को पलटते हुए कहा, ‘‘प्रश्नावली लिखकर लाये हैं?’’ मुझे फिर आश्चर्य हुआ कि इन्हें कैसे पता कि मैं प्रश्नावली लिखकर लाया हूं.’’ क्या नामवर सिंह मन की बात भी पढ़ लेते हैं? मैंने कहा, ‘‘हां’’ उन्होंने कहा कि आप मेरा एक काम कर दें. मुझे नींबू काटना है. कृपया एक चाकू का इंतजाम कर दें. उनकी यह बात सुन मैं दंग रह गया. मैं विचार करने लगा कि इन्हें चाकू कहां से लाकर दूं. तभी परिसदन के पिछले हिस्से में रह रहे अशोक चौरसिया जी की याद आई. मैं झट गया और उनसे चाकू लेकर उन्हें दी. उन्होंने पानी में नींबू का रस और नमक मिलाकर पिया. कुछ पल रुककर बोले, ‘‘पूछिये.’’ मैं क्रमवार सवाल पूछता गया और वे बारी-बारी से हर सवाल का जवाब सरल शब्दों में देते गये. मैंने सोचा था कि भेंटवार्ता के लिये इतने बड़े आलोचक के पास जा रहा हूं. क्या मेरे सवाल इतने प्रभावशाली होंगे? कहीं मैं हल्के सवालों के लिए अपमानित तो नहीं हो जाऊंगा? यह नामवर सिंह के इतने विराट व्यक्तित्व की देन थी कि उन्होंने सवालों पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया, बल्कि और कई नई जानकारियां दीं.
बातचीत के क्रम में उन्होंने ‘रांची एक्सप्रेस’ द्वारा हर वर्ष किसी एक साहित्यकार को उसके समग्र साहित्यिक योगदान के लिए ‘राधाकृष्ण पुरस्कार’ प्रदान किये जाने की प्रशंसा की थी. उन्होंने राधाकृष्ण को एक महान साहित्यकार बताया था. प्रेमचंद की परंपरा को राधाकृष्ण ने आगे बढ़ाने का काम किया था. उन्होंने तत्कालीन सम्पादक बलवीर दत्त के पत्रकारिता की भी चर्चा की और कहा था कि दत्त जी एक कर्मठ, निर्भीक पत्रकार के साथ साहित्य की भी अच्छी समझ रखते हैं. इसी का प्रतिफल है कि वे राधाकृष्ण के नाम पर पुरस्कार चला रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि झारखण्ड में हिन्दी साहित्य में काम कर रहे कई रचनाकारों में अपार संभावनाएं हैं. डॉ. भारत यायावर की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि महावीर प्रसाद द्विवेदी और फणीश्वर नाथ रेणु रचनावली का सम्पादन कर उन्होंने बड़ा साहित्यिक काम किया है. कथाकार रतन वर्मा के संदर्भ में उन्होंने कहा था कि वर्मा जी का रचना संसार आने वाले दिनों में साहित्यिक धरोहर का रूप धारण करेगी.
चार दिनों तक मैं नामवर सिंह को सुनता रहा था. इसके बाद भी सुनने की ललक बरकरार रहती थी. वे हर रचनाकार और साहित्यानुरागियों से बड़े ही सहज ढंग से मिलते. मिलने वालों के प्रश्नों का उत्तर पूरी विनम्रता के साथ दिया करते थे. उनके साथ बिताये चार दिन मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है. ऐसा मैं मानता हूं. नामवर सिंह की विशेष जानकारी हिन्दी तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि देश-दुनिया में क्या घटनाएं घट रही हैं, क्यों घट रही हैं, इसके क्या-क्या राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय कारण हैं? इन तमाम बिन्दुओं पर बेवाक और स्पष्ट राय रखते थे. इन चार दिनों में मैंने देखा कि वे सदैव गतिशील बने रहते हैं. ताजगी और स्फूर्ति उनकी देखते बनती थी. जब मैंने इसका राज पूछा तो उन्होंने कहा कि सच के साथ रहो और सच के लिए मिटना पड़े तो मिट जाओ. मिटकर भी तुम सदियों तक जीवित रहोगे. इस शरीर को तो एक दिन नाश होना ही है और हर पल नाश हो रहा है. तुम्हारा सच हर पल जवान हो रहा है और तुम्हें ऊर्जा प्रदान कर रहा है.
‘रांची एक्सप्रेस’ में नामवर सिंह की भेंटवार्ता प्रकाशित होने के उपरांत एक प्रति मैंने उनके दिल्ली आवास के पते पर भेज दी थी. उम्मीद थी कि उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया आयेगी, किन्तु नहीं आयी. अगर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया भेजी भी होगी तो हो सकता है कि डाक विभाग कब कृपा प्रदान कर वह पत्र मुझे दे. तीन वर्ष पूर्व मैं दिल्ली गया था. उनके घर पहुंचने पर पता चला कि वे दिल्ली से बाहर गये हुए हैं. मैं निराश जरूर हुआ था, किन्तु बढ़ती उम्र में उनकी सक्रियता देख मन ही मन खुश हो रहा था. उनसे साहित्यकारों को प्रेरणा लेनी चाहिये कि रचनाकर्म साधारण कार्य नहीं है, बल्कि रचनाकारों को सदैव अपने काम में गतिशील होना चाहिये.
नामवर सिंह को इस बात को लेकर कष्ट होता रहा है कि अधिकांश रचनाकार दूसरे लेखकों की कृतियों को नहीं पढ़ते. रचनाकारों को अन्य रचनाकारों को भी पढ़ना चाहिये और उसमें डूबना चाहिये तथा विचार कर सृजन करें तब उनके लेखन में एक नयापन आएगा. मेरी समझ में उनका आशय यह था कि जब तक रचनाकार दूसरे रचनाकारों को नहीं पढ़ेंगे उनकी रचनाओं में दुहराव आने का खतरा बना रहेगा.
नामवर सिंह का मानना है कि सिर्फ लिखने से काम नहीं चलेगा बल्कि गंभीरता से पढ़ने की जरूरत है. उन्होंने यहां तक कहा कि आलोचना कर्म पढ़ने की उपज है. आज मैं जो कुछ भी हूं, इसी पढ़ने के कारण हूं. हिन्दी साहित्य के अलावा देश में ही अन्य भाषाओं का महत्वपूर्ण रचना संसार है. लेखकों को अन्य भारतीय भाषाओं की रचनाओं को पढ़ना चाहिये. यही कारण है कि नामवर सिंह के प्रशंसक और आलोचक भी यह मानते हैं कि हिन्दी साहित्य में उनके जैसी प्रभावशाली उपस्थिति शायद ही किसी की हो. उनका हिन्दी पर ही नहीं बल्कि तमाम भारतीय भाषाओं के बौद्धिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव पड़ा. उन्होंने अंग्रेजी की तानाशाही को समाप्त कर हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं की प्रतिष्ठा स्थापित करने में काफी योगदान दिया है.
28 जुलाई को नामवर सिंह 90 वर्ष पूरा कर चुके हैं. उन्होंने 1945 से लिखना प्रारंभ किया था. 71 साल से वे नियमित लिख रहे हैं, पढ़ रहे हैं, यात्राएं कर रहे हैं और मंचों से बोल रहे हैं. उनके हर सम्बोधन में नयापन है. उन्हें साहित्य की सूक्ष्म समझ है. बड़ी-से-बड़ी बात को बिल्कुल साधारण और बोलचाल की भाषा में कह गुजरते हैं. विद्वता की बुलन्दियों को सिद्ध करते हुए भी नामवर जी सदैव अपने को धरातल में बनाये रखते हैं. यह सिर्फ और सिर्फ नामवर सिंह से ही संभव है. जो एक बार भी उनसे मिल लेता है, उन्हीं का हो जाता है. उनकी ख्याति की गूंज सिर्फ देशभर तक सीमित नहीं है, बल्कि विश्वभर में उनके चाहने वाले लोग है. सभी नामवर जी की आलोचनाओं को शिद्दत से पढ़ते हैं. आलोचनाओं से सीखते हैं और अपनी रचनाओं की कमियों को दुरुस्त करते हैं, संवारते हैं.
प्रख्यात साहित्यकार डॉ. भारत यायावर ने नामवर सिंह के संदर्भ में लिखा है कि ‘‘हिन्दी आलोचना की एक गौरवशाली परंपरा है, जिसके आधार स्तंभ हैं- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की शायद वह अंतिम कड़ी हैं, जिसे इतिहास पुरुष कहा जा सकता है. भारतीय परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व से उनकी आलोचना निर्मित हुई है.’’
यह लिखने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनका कृतित्व ऐतिहासिक महत्व प्राप्त कर चुका है तथा उनका मूल्यांकन प्रस्तुत करना उनके साहित्यिक अवदान की मीमांसा प्रस्तुत करने का यह सही समय है. नामवर सिंह का होना पूरे हिन्दी परिदृश्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण एवं जरूरी है.
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नामः विजय केसरी
जन्मः 31.12.1961, हजारीबाग
लेखन और प्रकाशनः
14 वर्ष की उम्र से कविता, कहानी लेखन की शुरुआत.
कई कविताएं एवं कहानियां बाल पत्रिकाओं व क्षेत्रीय दैनिक पत्रों में प्रकाशित.
‘आत्मा के अनमोल रत्न’, ‘आत्मा की पुकार’, ‘बारह भावना’ पुस्तक का संपादन.
‘सनातन’ पत्रिका के कई अंकों का संपादन.
हिन्दी दैनिक ‘रांची एक्सप्रेस’ में ‘स्तंभ’ लेखन.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लेख,
निबंध, रिपोतार्ज, भेंटवार्ता आदि प्रकाशित
साहित्यिक संस्था ‘परिवेश’ के संयोयक के रूप में पिछले 22 वर्षों में सौ से अधिक गोष्ठियों का आयोजन करना.
सम्प्रतिः स्वतंत्र लेखन.
सम्पर्कः पंचमंदिर चौक, हजारीबाग-825301 (झारखण्ड)
मोः 9234799550
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