काव्य जगत दो गजलें अदीम हाशमी ऐसा भी नहीं, उससे मिला दे कोई आकर. कैसा है वो, इतना बता दे कोई आकर. सूखी हैं बड़ी देर से पलकों की जबानें...
काव्य जगत
दो गजलें
अदीम हाशमी
ऐसा भी नहीं, उससे मिला दे कोई आकर.
कैसा है वो, इतना बता दे कोई आकर.
सूखी हैं बड़ी देर से पलकों की जबानें,
बस आज तो जी भर के रुला दे कोई आकर.
बरसों की दुआ फिर न कहीं खाक में मिल जाए,
ये अब्र1 भी आंधी न उड़ा दे कोई आकर.
हर घर पे है आवाज, हर इक दर पे है दस्तक,
बैठा हूं कि मुझको भी सदा दे कोई आकर.
इस ख्वाहिश-ए-नाकाम2 का खूं भी मिरे सर है,
जिन्दा हूं कि इसकी भी सजा दे कोई आकर.
1. बादल, 2 असफल इच्छा
अनवर महमूद खालिद
अनकहे लफ्जों में मतलब ढूंढ़ता रहता हूं मैं.
क्या कहा था उसने और क्या सोचता रहता हूं मैं.
यूं ही शायद मिल सके होने न होने का सुराग,
अब मुसलसल1 खुद के अन्दर झांकता रहता हूं मैं.
इन फजाओं में उमड़ती, फैलती खुशबू है वो,
इन खलाओं2 में रवां, बनकर हवा रहता हूं मैं.
जिस्म की दो गज जमीं में दफ्न कर देता है वो,
कायनाती हद की सूरत फैलता रहता हूं मैं.
चैन था खालिद तो घर की चार दीवारी में था,
रेस्तराओं में अबस3 क्या ढूंढ़ता रहता हूं मैं.
1. निरन्तर, 2. अंतरिक्ष, 3. व्यर्थ, निरर्थक
दोहे
जगदीश तिवारी
सांसों में बहने लगी, जब से स्वारथ गंध
टूट रहे तब से यहां, मानवता के बंध
कम कर दो सब दूरियां, अपनों से तुम आज
सम्बंधों के बीच अब, बजे प्रीत का साज
बुरी चाह रखना नहीं, रखना अच्छी चाह
सच का दामन थाम कर, चल तू अपनी राह
मानवता के गांव से, मानवता गुमनाम
भ्रष्टाचारी हंस रहे, देख रहा है राम
देख सत्य के द्वार पर, झूठ कर रहा राज
सच को घर में बंद कर, सच की लूटे लाज
बदल गये अब देख लो, सभी यहां प्रतिमान
जिसने किया न काम कुछ, उसे मिले सम्मान
शब्द करेंगे रात दिन, छंदों की बरसात
शब्दों से तू प्यार कर, शब्दों से कर बात
लगा न इनका मोल तू, कभी न इनको तोल
गीत गजल दोहे सभी, मीत! यहां अनमोल
कौन गया ये छोड़कर, मेरे हिय के तार
सपने फिर हंसने लगे, उमड़ पड़ा फिर प्यार
अनुबंधों का फूल मां, मां आंगन की गंध
मां घर में है तो सभी, जीवित हैं संबंध
मां है तो संवेदना, जीवित है घर द्वार
मां के कारण ही लगे, ये घर, घर संसार
अपने में तू डूबकर, कर कुछ उसका ध्यान
हो जायेगा खुद-ब-खुद, दूर तेरा अज्ञान
आशा जिसके पास है, वो पूछता आकाश
आशा ही भरती सभी, इन्सां में विश्वास
दुर्गा काली शारदा, नारी इनका रूप
फिर क्यों नारी को जगत, दिखा रहा है कूप
जीवन भर करता रहा, उलटे सीधे काम
अंत समय में आ रहा, याद उसे है राम
सम्पर्कः 3-क-63, सेक्टर-5
हिरण मगरी, उदयपुर
313002 (राज.)
कविता
एहसास
रीभा तिवारी
जब भी हमारी
खिड़कियों के परदे
हवाओं के माध्यम से
सरकने लगते हैं
कुछ यादें
वजूद की विरासत से
एकाएक सामने आकर
खड़ी हो जाती हैं
हृदय में एक अलौकिक
एहसास सा भर जाता है
एक ही समय में सैकड़ों सूरज
चमकने लगते हैं
और मैं तुम्हारे हिस्से में
अपनी रातें रखकर
अपने गीते सपनों के साथ
सो जाती हूं
सुबह की प्रतीक्षा में
सम्पर्कः एस.बी.आई. कॉलोनी से पहले, फजलगंज, सासाराम, जिला- रोहतास (बिहार)- 82115
मो. 9430990767, 9430273449
गीत
अरविंद अवस्थी
दिन में देखो कैसे
सहसा रात हो गई.
आंखों की रोशनी उतरकर
कहीं खो गई
हरियाली की जगह कुहासा-
धुंध बो गई
नेकी कर दरिया में हमने
डाल दिया था
फिर भी जाने कैसे
उलटी बात हो गई.
पेड़ों का रिश्ता पत्तों से
टूट गया
लहरों का गुस्सा नदियों पर
फूट गया
बहुत प्रयास किए तटबंधों ने
फिर भी
बढ़ते-बढ़ते बातों से
बेबात हो गई.
गूंगे चढ़े शिखर पर
नारे लगा रहे हैं
जो सोए हैं जगे हुए को
जगा रहे हैं
कमल और कीचड़ में भी
है ठनी हुई
बिन बादल जाने कैसे
बरसात हो गई.
मंदिर के घंटे भी
बेईमान हो गए
उपासना के स्वर अपनी
पहचान खो गए
इससे तो अच्छे वन के
पशु-पक्षी हैं
कैसे आदमखोर
आदमी-जात हो गई.
दिन में देखो कैसे
सहसा रात हो गई.
वर्षा हुई घुमड़कर फिर भी
घट है रीता
शकुनी के सामने युधिष्ठिर
कब है जीता
बाजी तो अच्छी खेली थी उसने भी
फिर समझ न आया
कैसे मास हो गई.
दिन में देखो कैसे
सहसा रात हो गई..
सम्पर्कः श्रीधर पाण्डेय सदन,
बेलखरिया का पुरा, मीरजापुर (उ.प्र.)
गजल
राकेश भ्रमर
मसीहा का शहर है ये, यहां हंसता नहीं कोई.
किसी के पास दो पल भी, यहां रुकता नहीं कोई.
न जाने दर्द कैसा है कि रोकर भी नहीं रोते,
बहुत टूटे हुए हैं पर यहां झुकता नहीं कोई.
समन्दर की लहर बनकर मिटाना चाहते हो तुम,
बहेगा रेत बनकर वो, यहां मिटता नहीं कोई.
कहां की दास्तां लेकर सुनाने आ गए सबको,
किसी की आपबीती भी, यहां सुनता नहीं कोई.
सभी को चांद की चाहत, सितारे कौन ले जाए,
अंधेरों की शिकायत है, यहां रुकता नहीं कोई.
‘भ्रमर’ तुम पत्थरों की बस्तियों में क्यूं चले आए,
गले किसको लगाओगे, यहां मिलता नहीं कोई.
कविता
विचार कर रहे हैं
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
अब न सावन रहा
न भादों
न बसंत रहा
न शरद
अब तो बस
गर्मी है गर्मी
अकाल है
सूखा है
फसल नष्ट करती
बेमौसम की
जहरीली बारिश है
ओलावृष्टि है
और कारण बस
इतना है कि
जंगल हमने काट डाले
वृक्षों को उखाड़कर
इमारतें कर दी खड़ी
रेत निकाल ली नदियों से
खेत बेचकर प्लॉट
बेच रहे हैं
हम व्यापारी बने
मुनाफे के लिए
बड़े-बड़े बाजार
बड़ी-बड़ी इमारतें
और तरसने लगे
शुद्ध हवा और पानी के लिए
रोटी दिन प्रतिदिन महंगी
होकर गरीब के हाथ से
निकलने लगी है
ये हमारा विकास है
या विनाश है
अभी हम इस पर
विचार कर रहे हैं.
सपर्कः पाटनी कॉलोनी, भरत नगर, चंदनगांव
छिंदवाड़ा (म.प्र.), 480001
मोः 942545022
गजल
यूनुस अदीब
रोशनी कर दे जो मुहब्बत की
ऐसा फिर कोई आफताब आये
दाग चेहरे पे है जो गुरबत के
हम गरीबों पे कब शबाब आये
सिर्फ खुशबू से कुछ नहीं होता
मेरे हिस्से में भी गुलाब आये
सिल गये लब मेरे सवालों से
हां नहीं में ही कुछ जवाब आये
हश्र हो जायेगा, बपा देखो
आज क्यूं आप बेनकाब आये
मैं तुम्हारी गली से क्या गुजरा
जाने क्या-क्या मुझे खिताब आये
है यही जीस्त का निजाम ‘‘अदीब’’
खार आये कभी गुलाब आये
सम्पर्कः गढ़ा बाजार,
जबलपुर (म.प्र.)
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