संपादकीय कितने अच्छे दिन ? - राकेश भ्रमर अ हा! कितने अच्छे दिन थे. आजादी मिली थी, सोचा था, अंग्रेजों से आजादी मिली है, तो हर चीज से आ...
संपादकीय
कितने अच्छे दिन?
- राकेश भ्रमर
अहा! कितने अच्छे दिन थे. आजादी मिली थी, सोचा था, अंग्रेजों से आजादी मिली है, तो हर चीज से आजादी मिल गयी है. देश में लोकतंत्र, जनतंत्र और गणतंत्र नाम की सरकारें स्थापित हो गयी हैं, तो नागरिकों को हर प्रकार के अधिकार प्राप्त हो गए हैं. सबने समझ लिया, अधिकार जनता के हैं और कर्त्तव्य सरकार के...
बस, इतना समझ में आने की देर थी कि हर नागरिक अपने-अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए अंधी भीड़ में कूद पड़ा. कुछ पढ़-लिखकर तो कुछ जोड़-जुगत से सरकारी नौकरियों में आ गए, ताकि हर महीने उनको नियमित आय प्राप्त होती रहे. सरकारी नौकरियों में उनके कर्त्तव्य क्या हैं, यह जानने की उन्हें आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि प्रत्येक कर्मचारी/अधिकारी यह मान बैठा था कि अधिकार उनके हैं, और कर्त्तव्य सरकार के.
बिना काम के तनख्वाह मिले, तो इससे अच्छी सरकार कौन हो सकती है. चारों तरफ लोकतांत्रिक सरकार के जयगान होने लगे. जो सरकारी नौकरियों में थे, उनके घर में मलाई खाई जाने लगी, परंतु नागरिक कर्त्तव्य पूरा न होने के कारण देश में बहुत अव्यवस्था फैल गयी. देश की अर्थ-व्यवस्था बिगड़ गयी. लोग मालामाल थे, परन्तु सरकारी खजाने में घाटे के आंकड़े बढ़ने लगे. सभी सरकारी प्रतिष्ठान घाटे में चल रहे थे. कुछ ने तो घिसट-घिसट कर दम तोड़ दिया, परंतु इससे नागरिकों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. यूनियन की बदौलत प्रतिष्ठानों के बंद होने के बावजूद भी उनकी नौकरी बदस्तूर जारी रही, तनख्वाह मिलती रही. कंपनी के गेट पर ताले जड़े थे, परंतु मजदूर लॉन में बैठकर ताश खेलते थे और अधिकारी गेस्ट हाउस में बैठकर लालपरी का नाच देख रहे होते थे. इस तरह सरकारी संस्थाएं और प्रतिष्ठान चल रहे थे और कुछ अभी भी चल रहे हैं और देश के नागरिक अपने अधिकारों का बखूबी फायदा उठा रहे हैं.
अगर आप समझते हैं कि आजादी से केवल सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को ही सर्वाधिक लाभ हुआ है, तो आप ग़लतफ़हमी में हैं. सभी नागरिकों को अपने-अपने तरीके से आजादी के फायदे मिले हैं. अब देखिए न, आजादी के पहले केवल राजा-महाराजे ही देश पर शासन करते थे. यह उनका पुश्तैनी धंधा था. राजा का बेटा ही राजकुमार होता था और बाद में वही राजा की गद्दी प्राप्त करता था. आजादी के बाद राजतंत्र समाप्त हो गया, लोकतंत्र आया, परंतु यहां भी गद्दी के लिए चुनावरूपी युद्ध लड़ना पड़ता था. आजादी के तुरंत बाद तो प्रभावशाली व्यक्तियों, यथा- पुराने राजा-महाराजाओं, धनी व्यक्तियों, अमीर-उमराव आदि ने अपने-अपने तरीके से सत्ता हथिया ली. धीरे-धीरे आरक्षण की बदौलत कुछ गरीब-दलित भी सत्ता सुख भोगने में कामयाब होने लगे. लोकतंत्र के कारण उनको यह अधिकार प्राप्त था.
धीरे-धीरे देश में जागरूकता आई, तो गुण्डे-बदमाशों और अपराधियों ने देखा कि वह पैसा कमाने के लिए रात-दिन एक करते रहते हैं, खून-पसीना बहाते हैं और पुलिस-कानून के डर से भागते-छिपते हैं. फिर भी चैन की नींद नहीं सो पाते, जबकि चुनाव लड़कर एम.एल.ए., एम.पी. बनने के फायदे ही फायदे हैं. तथाकथित जनप्रतिनिधि को न तो खून-पसीना बहाना पड़ता है, न उन्हें किसी कानून का भय रहता है. ऊपर से चार-पांच पुलिसवाले सदा उनकी सुरक्षा में लगे रहते हैं और कमाई की पूरी गारंटी. पांच साल के अंदर ही जूता-चप्पल घिसने वाला नेता करोड़ों में खेलने लगता है, कई कोठियों और महंगी गाड़ियों का मालिक हो जाता है. घर-परिवार के लोग ट्रांस्पोर्टर और बिल्डर बन जाते हैं. चारों तरफ पैसे की नदियां बहने लगती हैं और मजाल है कि इन्कम टैक्स या इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट के अधिकारी उनका बाल भी बांका कर सकें.
इस प्रकार चुनाव के माध्यम से क्या आम नागरिक, क्या अपराधी...सबके इतने अच्छे दिन आए कि हजारों लोग सत्ता की बदौलत मालामाल हो गए और यह सिलसिला अभी तक जारी है. बल्कि अब तो इसकी जड़ें गांव-कस्बे की राजनीति में भी समा चुकी हैं. नौबत यह आ गयी है कि जिला पंचायत, जिला-परिषद और ग्राम पंचायत जैसे चुनाव लड़ने के लिए लोग मार-काट करने पर आमादा रहते हैं. सरकार ने इन परिषदों और पंचायतों के माध्यम से जनहित के बहुत सारे कार्यक्रम लागू किए हैं और इनके क्रियान्वन के लिए अरबों रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है. मजे की बात यह है कि पानी की तरह बहने वाला यह रुपया किसी गंदे नाले में नहीं जाता, बल्कि परिषदों और पंचायतों के सदस्यों और अध्यक्षों के खाते में जमा हो जाता है. जनहित के कार्यक्रम तो कभी पूरे नहीं होते, परन्तु पैसे का सदुपयोग हो जाता है.
ऐसे ही जनहित और देशहित के कार्यक्रमों से ठेकेदार और इंजीनियर भी बहुत लाभ कमाते हैं. सरकारी खर्च पर बनने वाली इमारतों में सीमेंट और मोरंग की जगह रेत और मिट्टी भर दी जाती है. सड़कों में गिट्टी और डामर की जगह सिर्फ बालू-रेत का उपयोग किया जाता है. परन्तु पैसा पूरा खर्चा हो जाता है. यह अलग बात है कि इसी पैसे से ठेकेदार और इंजीनियर की कोठियां बहुत ही मजबूत सीमेंट और संगमरमर के पत्थरों से बनकर चमचमाती रहती हैं और सरकार को मुंह चिढ़ाती रहती हैं.
देश के विद्यार्थी भी अच्छे दिनों का लाभ उठाने से नहीं चूक रहे हैं. पूरे साल उनको आवारागर्दी और लड़कियों को छेड़ने की छूट होती है. पुस्तकें पढ़कर वह आंखें नहीं फोड़ते. इसके लिए उनके मां-बाप और अध्यापक भी परेशान नहीं करते. पुस्तकें पढ़ने के बजाय वह स्मार्ट फोन में लड़कियों से चैटिंग में व्यस्त रहते हैं. फेसबुक पर अनजाने दोस्तों से बेवकूफाना बातें करते हैं और देश के खिलाफ नारेबाजी करते हैं. ऐसे संस्कारी और सद्गुणी लड़कों को परीक्षा में खुलेआम नकल करने की छूट होती है. कुछ लड़के तो परीक्षक, नियंत्रक आदि को लाखों रुपये की दक्षिणा देकर टॉपर भी बन जाते हैं. अब बताइए, विद्यार्थियों के लिए ऐसे अच्छे दिन किसी और देश में कहां मिलेंगे.
आजादी के कारण सबके जीवन में अच्छे दिन आए हैं. क्या छोटा, क्या बड़ा...? सभी आजादी का लाभ उठा रहे हैं. देखिए न, आजादी के 69 वर्ष पश्चात् देश में कानून का राज समाप्त हो गया है. कानून नागरिकों को बंधन में बांधता है. और बंधन गुलामी का पर्याय है. जब लोग आजाद हैं, तो वह किसी ऐसे कानून का पालन क्यों करें जो उनकी स्वतंत्रता में बाधक बनता है? स्वतंत्रता सबका जन्मसिद्ध अधिकार है, इसी सोच के कारण लोग हर प्रकार से कानून का उल्लंघन करते हैं. कानून के प्रति सभी का भय समाप्त हो गया है. जब देश हमारा है, देश में शासन हमारा है तो हम किसी नियम-कानून का पालन क्यों करें? जो हमारी मर्जी होगी, वहीं करेंगे. इसी कारण देश के हर कोने में हत्या-बलात्कार, अपहरण, चोरी-डकैती, लूटमार आदि की घटनाओं में श्रीवृद्धि हुई है. सड़क के नियमों का उल्लंघन करना हमारी आदत में शुमार हो गया है. इसीलिए तो हम सभी गर्व से कहते हैं, ‘‘हमारा भारत महान!’’
‘‘सरकारी सम्पत्ति आपकी अपनी है. इसकी सुरक्षा करना हमारा कर्तव्य है.’’ जगह-जगह लिखा हुआ मिलता है. नागरिक बेचारा अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा करना तो चाहता है, परन्तु कैसे करे, यह उसकी समझ में नहीं आता. सरकारी सम्पत्ति जहां-तहां बिखरी पड़ी है. घर-परिवार और बाल बच्चों को छोड़कर वह मैदानों-पहाड़ों और बसों-रेलों में घूमता-फिरता सरकारी सम्पत्ति की चौकीदारी नहीं कर सकता. इसलिए बहुत सोच-विचारकर उसने यह तय किया कि सरकारी बनाम अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा सबसे बेहतर ढंग से अपने घर में ही की जा सकती है. अतः प्रत्येक नागरिक ने अपने-अपने हिस्से में आई सरकारी सम्पत्ति को उठाकर अपने घर में रख लिया और ईमानदारी से उसकी देखभाल करने लगा. परन्तु नागरिकों की इस ईमानदारी को शक की निगाह से देखा जाता है और कुछ दुष्ट पुलिसवाले, खासकर सीबीआई वाले ऐसे ईमानदार नागरिकों को सरकारी सम्पत्ति की चोरी और गबन के अपराध में जेल में बंद कर देते हैं और उनके विरुद्ध अदालत में अभियोग पत्र दाखिल कर देते हैं. यह कहां का न्याय है? जब सरकार हमारी, सरकारी सम्पत्ति हमारी, तो फिर चोरी कैसी? पता नहीं, चोरी और गबन का ऐसा अपराध किसने बनाया? सबसे पहले उसे ही फांसी देनी चाहिए. अवश्य ही वह लोकतंत्र का पालन करनेवाले नागरिकों का दुश्मन रहा होगा.
आजादी के इतने अच्छे दिन किसी और किस देश में कहां देखने को मिलेंगे. यहां सरकारी, अर्द्ध-सरकारी जमीन पर कब्जा करके बैठ जाइए, कोई रोकने नहीं आएगा. सड़क के बीच में मंदिर-मस्जिद, मजार बनाकर ऐश करिए, कोई आंख उठाकर भी नहीं देखेगा. इस देश में बिल्डर बिना अनुमति के बहुमंजिला इमारत बनाकर बेच देता है या खरीददारों का पैसा हड़पकर उनको जीवन भर दौड़ाता है, फिर भी फ्लैट नहीं देता है और किसी कोर्ट कचहरी में इसकी सुनवाई नहीं होती. चिटफण्ड जैसी कंपनियां खोलकर लोग जनता का अरबों रुपया आसानी से हड़प कर जाते हैं. किसी निवेशक को पैसा वापस करने का झंझट ही नहीं पालना पड़ता है. निवेशक कुछ दिन चिटफंड कंपनी के दफ्तर के चक्कर लगाता है, कोई उससे सीधे मुंह बात नहीं करता. यहां तक वह कर्मचारी जो निवेशक के पास पैसा जमा करने के लिए नाक रगड़ता था, वह भी उसे पहचानने से इंकार कर देता है. कुछ कंपनियां तो जनता का पैसा लेकर भाग ही जाती हैं. निवेशक बेचारा थक-हारकर खुद ही बैठ जाता है, क्योंकि हजार रुपया वापस पाने के लिए वह लाख रुपया खर्च करके जिन्दगी भर वकीलों और कोर्ट-कचहरी के चक्कर नहीं लगा सकता.
दूसरी तरफ चिटफंड कंपनियों के मालिक जनता के पैसे से होनेवाली बेशुमार कमाई से अखबार निकालते हैं, टी.वी. चैनल्स चलाते हैं, या हवाई जहाज उड़ाते हैं. कोई उनकी तरफ उंगली नहीं उठाता. ऐसी हिम्मत कोई लाएगा कहां से? हां, जनता के पैसे हड़पनेवालों को थोड़ी सावधानी अवश्य बरतनी पड़ती है. संरक्षण के तौर पर उन्हें राजनेताओं को चंदे के रूप में कुछ रकम उसी तरह देनी पड़ती है, जैसे किसी कुत्ते के सामने बासी रोटी के टुकड़े फेंके जाते हैं.
जो लोग बड़ी-बड़ी ज़मीनों पर कब्जा नहीं कर पाते, वो भी अच्छे दिनों का सुख भोग लेते हैं. अपना घर बनवाते समय आधी सड़क को घर के अंदर कर लेते हैं, दुकान बनवाते समय बरामदा सड़क के ऊपर बना देते हैं. या फिर दुकान का सामान सड़क पर ही रखकर बेचते हैं. पुलिसवाले और नगर निगम वाले आते हैं, और मुस्करा कर हाल-चाल पूछते हुए चले जाते हैं. हां, हाल-चाल बताने में दुकानदार का चाय-पानी के ऊपर कुछ पैसा जरूर खर्चा हो जाता है. क्या फर्क पड़ता है, बदले में हजारों कमा भी तो लेते हैं.
जिस देश में आजादी के इतने अच्छे दिन हों, वहां क्या कोई दुःखी रह सकता है? सभी कहेंगे नहीं? परंतु जब आदमी सुखी होता है, तो वह कुछ-कुछ बौराने लगता है. यहीं देश के कुछ लोगों के साथ हो रहा है. देश की वर्तमान सरकार कुछ सख्त है. उसने फरमान जारी किया है कि अधिकार चाहिए, तो कर्त्तव्य का भी पालन करना पड़ेगा. देश के संविधान के अनुसार रहना पड़ेगा...बस इतनी सी बात से कुछ धर्मावलंबियों और बुद्धिजीवियों के पेट में मरोड़ उठने लगी है. यह लोग आजाद देश में आजादी के नारे लगाने में जुट गए हैं. संभवतः ये लोग इराक और सीरिया जैसी आजादी इस देश में चाहते हैं.
यह बात सच है कि मनुष्य को जब स्वतंत्रता मिलती है तो वह उसका दुरुपयोग करने लगता है. स्वतंत्रता बंधनमुक्त नहीं होनी चाहिए. अधिकारों पर अंकुश होना चाहिए, तो कर्त्तव्यों का कड़ाई से पालन करवाना चाहिए, तभी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहेगी.
आजादी के इतने अच्छे दिन यदि हम सबको मिले हैं, तो इन्हें बरकरार रखना भी सीख लें. अधिकार सभी को प्राप्त हैं, परंतु कर्त्तव्यों का पालन हम ईमानदारी, निष्ठा और लगन से नहीं कर रहे हैं. यही कारण है कि न तो देश में समुचित विकास हो रहा है, न इसकी स्वतंत्रता अक्षुण्ण है. देश में टूटन और बिखराव आरंभ हो चुका है.
ऐसा न हो कि एक दिन हम रोते हुए बस यही कहें ‘‘हाय! कितने अच्छे दिन थे. कहां गए वो दिन? क्या फिर से लौटकर आएंगे वो अच्छे दिन?’’
कुछ अच्छे दिन हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए भी बचाकर रखें, तो क्या समझदारी नहीं होगी?
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