भगवान बुद्ध ने एक स्थान पर कहा है कि संसार दुःखों का समुद्र है। यह बात अब भी उतनी ही सच है कि जितनी कि गौतमबुद्ध के समय में थी । सच्ची स्थ...
भगवान बुद्ध ने एक स्थान पर कहा है कि संसार दुःखों का समुद्र है। यह बात अब भी उतनी ही सच है कि जितनी कि गौतमबुद्ध के समय में थी । सच्ची स्थिति तो यह है कि दुःखों की संख्या इन दिनों कुछ बढ् ही गयी है और ऐसे अनेक दुखों का प्रादुर्भाव हो गया है जो कि भगवान के समय में' नहीं थे । उदाहरण के लिये रेल छूटने का दुःख, नायब तसीलदारी में न लिये जाने का दुःख या बीमे की रसीद वक्त पर न आने का दुःख । पुराने जमाने में गिनती के दो-चार दुःख होते थे जिनमें दूसरे की सुंदर सी और राज्य न छीन पाने का दुःख कदाचित सबसे ऊंचा स्थान रखता था । आज के युग के जो दुःख हैं? उसके सामने परायी स्त्री और दूसरे के राज्य का दुःख कुछ भी नहीं । हमसे पूछिये, लोकल ट्रेन में यदि खिड़की के पासवाली सीट मिल जाये तो रसखान के शब्दों में तीनों लोकों के सुखों को न्यौछावर कर दें । मनुष्य के पास काम न होने का दुःख भी अपने किस्म की एक अलग चीज है । जिन लोगों को बेकारी झेलने का साबका नहीं पड़ा, वे इसके मजे कभी समझ ही नहीं सकते । बेकारी से मेरा अर्थ काम के लिये काम ढूंढने से नहीं है-वैसा करना तो शास्त्र के विरुद्ध होगा, क्योंकि गीता में इस बात पर जोर दिया गया है कि मनुष्य सम्यक् बुद्धि की सहायता से कर्मों के बंधन को काटे । मेरे कहने का अभिप्राय यहां धन के लिये काम खोजने से है । यह जो मुद्रा का राक्षस है यह बड़ा विकट है । संस्कृत साहित्य में भी मुद्राराक्षस नाटक इन्हीं कारणों से ऊंचा माना जाता है ।
उन दिनों की बात मुझे हमेशा याद रहेगी जब कि मैं रात-दिन काम की खोज में मारा- मारा फिरता था । काम का विरह यक्षिणी के विरह से जियादा भयंकर होता है । वैसे मैं मानता हूं कि वह दुःख भी किसी-किसी स्थिति में काफी तीव्र होता है पर फिर भी बेकारी के सामने वह कुछ नहीं । जहां तक मेरा विचार है, मेघदूत का यक्ष भी खाने-पीने की चिंता से मुक्त था । मेरे खयाल से ये हजरत काफी शौकीन किस्म के आरामतलब इंसान थे जो छोटा नागपुर की पहाड़ियों पर किसी रेस्ट हाउस में रहते थे । आरामतलबी के बारे में तो कहना ही क्या- अलकापुरी से निकाले ही इस चार्ज पर गये थे । हां, तो ये रेस्ट हाउस में रहते थे सुबह उम्दा नाश्ता किया और फिर बगीचे की सैर को निकल गये । इसके बाद खानसामा के साथ कुछ गप्पें मारीं और फिर एक श्लोक स्टेनोग्राफर को डिक्टेट कर दिया । तीसरे पहर स्थानीय सुंदरियों के साथ चौपड़ खेलने निकल गये और बस छुट्टी । दूसरे शब्दों में, ये अपनी प्रिया को ठीक उसी तरह याद करते थे जैसे कि दौरे पर आजकल साहब लोग याद करते हैं । मेरा यह निश्चित मत है कि मेघदूत का यक्ष सच्चा प्रेमी नहीं था । सच्चा प्रेमी कभी इतनी व्याकरण सम्मत और प्रांजल भाषा में इस प्रकार का छंदोबद्ध काव्य नहीं रचता-वह तो टूटे-फूटे शब्दों में दिल की बात कहता है और उसके बाद आत्महत्या कर लेता है ।
आत्महत्या करने के बाद वह किसी घरेलू लड़की से विवाह करता है । परिवार नियोजन की सारी सरकारी योजनाओं को खल्लास करता है और इसके बाद स्थानीय कवि-सम्मेलनों में प्रयाण-गीत नाम की पुरानी कविता को सस्वर दो बार पढ़कर सुनाता है ।
हां, तो बात उन दिनों की चल रही थी जबकि मैं बेकार था । मेरे प्रदेश के एक नेता थे जो लखनऊ में रहते थे । इलेक्शन के दिनों में एक बार मैंने उनके लिये काफी काम किया था । वे मुझसे बड़ा स्नेह करते थे और प्राय: और लोगों के सामने कहा करते थे कि लड़का बड़ा होनहार है-बड़ा होकर कुछ न कुछ सुरूर बनेगा । बाद में विचार करने पर महसूस किया कि उन्होंने कितनी सच्ची बात कही थी-कुछ न कुछ तो हमें बनना ही था । इन सज्जन से मिलने मैं किसी तरह लखनऊ तक गया । काउंसिल हाउस के लॉन पर भेंट हुई बडे स्नेह से मिले । अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में इतनी दिलचस्पी से प्रश्न पूछने शुरू किये जैसे कोई दक्षिणी ध्रुव के बारे में पूछ रहा हो । देश-विदेश, साहित्य और संस्कृति-इन सभी पर काफी विचार- विमर्श हुआ । जो सज्जन चुनाव में प्राय: इनके विरुद्ध खड़े होते थे और जिन्हें पिछले दिनों दमे का दौरा पड़ा था, उनके स्वास्थ्य के बारे में आँख मार-मारकर पूछते रहे । राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्थिति की चर्चा के उपरांत व्यक्तिगत स्थिति की चर्चा करना कुछ असंगत तो लगा पर क्या करता-मजबूरी थी । खैर, मेरी परेशानी सुनकर वे कतई अप्रसन्न नहीं हुए और न उन्होंने मुझसे पीछा छुड़ाने की कोशिश की । पान खिलाया और फिर कहा कि पंचवर्षीय योजनाओं के बाद देश का हर एक नवयुवक खुशहाल होगा । इसके बाद आधे घंटे तक कुछ आंकड़े बतलाये और उसके बाद वे मुझसे सहसा बोले कि तुम तराई में एक बड़ा-सा फार्म क्यों नहीं खोल लेते?
मैंने बात सुनी और स्थिति साफ करते हुए बताया कि विचार तो उत्तम है पर यदि मैं तराई में फार्म खोलने की स्थिति में होता तो इस वक्त लखनऊ में न होकर तराई में ही होता, मगर दुर्भाग्य देखिये कि मैं तराई में क्या, कहीं भी किसी तरह का फार्म खोलने की स्थिति में नहीं हूं । इस पर उनका चेहरा कुछ विरक्त-सा हो गया और वे पूछने लगे कि फिर तुम मूर्तियों का एक बाड़ा ही क्यों नहीं शुरू कर देते? चाहो तो एक मुर्गी से भी काम शुरू कर सकते हो, क्योंकि इस पक्षी में एक खास बात यह है कि यह अंडा देता है जिससे फिर एक मुर्गी निकलती है । यूं चाहो तो अंडे से आमलेट भी निकाल सकते हो, पर वह आपकी मर्जी पर है । जहां तक शुरू की मुर्गी का प्रश्न है, तुम चाहो तो उसकी चोरी भी कर सकते हो । इसके बात उन्होंने विरोधी दल के एक सदस्य के घर का पता भी बताया जहां से मैं मुर्गी चुरा सकता था । मेरा हौसला बढ़ाते हुए उन्होंने यह भी कहा कि यदि चोरी से बचना चाहते हो तो बजाय मुर्गी के, अंडे से ही अपना कारोबार शुरू कर दो-यह तो बड़ा पुराना प्रश्न है कि पहले मुर्गी आयी कि अंडा । और हां, जब धंधा बढ़ जाये तो अंडे विदेशों को सुरूर भेजना-इससे विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है । इस संदर्भ में यदि कोई कठिनाई पड़े तो हमसे संपर्क सुरूर स्थापित करना । अपने क्षेत्र की जनता को मैं कभी नहीं भूल सकता ।
उनकी सरस्वती से सचमुच मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला । अंडे खरीदने को तो पैसे अपने पास शायद थे नहीं, हां, अलबत्ता मुर्गी की चोरीवाली सलाह अपनी आत्मा को विशेष रुचिकर लगी । वैसे भी यह अपना है और वह पराया है, यह मनःस्थिति बड़ी संकीर्ण है और जाहिर है कि स्वाधीन देश इस प्रकार की मनोवृत्तियों के आधार पर कभी आगे नहीं बढ़ सकता । मैं विरोधी दल के उन सदस्य की कोठी पर गया और मुर्गियों पर एक निगाह डाली । मगर वे मुर्गियां मुझे इतनी सतर्क और चालाक नजर आयीं कि मैं तो उनकी चोरी क्या करता, हां, वे चाहतीं तो मुझे सुरूर चुरा सकती थीं देश का दुर्भाग्य देखिये कि इस छोटे-से अलबत्ता ।
पक्षी के असहयोग से यह देश एक विशाल पोल्ट्री-फार्म से हमेशा के लिये वंचित रह गया । रोजगार के दफ्तर के न जाने कितने चक्कर लगाये । इस दफ्तर ने मुझे कई जगह जाने की सलाह दी । एक छोटी-सी फैक्टरी के स्वामी के यहां कुछ जगह खाली थी मगर वहां इल्लत यह थी कि फैक्टरी के मालिक जहां सुंदर लड़की की तरजीह देते थे, वहां उनकी पत्नी खिलाड़ी लड़कों को पसंद करती थीं । लड़का तो मैं था पर खिलाड़ी नहीं था ( और लड़की तो मैं किसी भी तरह की नहीं था) और इस कारण मैं नहीं लिया गया । वे पुराने जमाने के दिन थे और उन दिनों यौन-परिवर्तन जरा कम ही होता था । जियादातर लोग अगर लड़का पैदा होते थे तो जीवन- भर लड़का ही रहते थे । एक दूसरी जगह मैं गया तो मुझे बड़ी शालीनता के साथ ड्राइंगरूम में बिठाया गया । इसके बाद बताया गया कि काम कुछ टेक्निकल किस्म का है और इस कारण मुझे छ: माह तक सीखना पड़ेगा । सीखने की अवधि में मुझे वेतन नहीं मिलेगा । हमारी स्थिति यह थी कि यदि तीन महीने भी और काम न मिलता तो शरीर और आत्मा हमेशा के लिये एक-दूसरे से अलग- अलग हो जाते ।
एक बार एक नौकरी रेल में मिली पर हम वहां नहीं गये । पता नहीं क्यों, रेल के इंजन को देखकर हमें हमेशा आत्महत्या करने की इच्छा होती थी । एक-दो दिन तो हम अपनी इच्छा को दबा सकते थे पर अपने साथ इससे जियादा जियादती बरतना हमारे लिये असंभव था ।
पत्रकारिता का अनुभव भी मुझे इन्हीं दिनों हुआ । एक स्थानीय साप्ताहिक था, उसमें मैं काम करने लगा । संपादक के अतिरिक्त हम तीन व्यक्ति थे और एक दफ्तरी था । यह पत्र इस जिले का सर्वप्रमुख पत्र माना जाता था, पर छपते इसमें शोकप्रस्ताव और चुटकुले ही थे । संपादक जी काफी ईमानदार व्यक्ति थे और अपने जमाने में वे अपने ढंग से जेल भी गये थे । पत्रकारिता का उन्हें सच्चा शौक था और अपनी सारी पूंजी वे उसी में स्वाहा कर चुके थे । जिन दिनों मैं उनके यहां भरती हुआ था, वे उस पत्र के अंतिम दिन थे । संपादक जी जीवन से काफी निराश हो गये थे और गाहे-बगाहे अफीम भी खाने लगे थे । जिस दिन वे जोरदार अग्रलेख लिखते, हम समझ जाते कि वे नशे में हैं । हम तीन सहयोगियों में से एक अदालतों और थानों से समाचार इकट्ठा करता था, दूसरा रिक्शेवालों और दूधवालों से देहात की घटनायें इकट्ठी करता था और तीसरा विज्ञापन बटोरता था । हालत यह थी कि जब तक नई खबरें मिलें तब तक पुरानी खबरें ही कुछ रद्दोबदल के साथ छपती रहती थीं । चाहे सर्दी हो चाहे गर्मी, संपादक जी हमेशा एक बनियाइन और लुंगी में सारा दिन काम करते थे । लोग कहते थे कि पुराने जमाने में वे कपड़ों के काफी शौकीन थे, मगर इस पत्र के लिये उन्होंने सब कुछ विसर्जित कर दिया । हुआ यह कि वेतन न मिलने पर कोई शेरवानी ले गया तो कोई पाजामा । किसी को जूते फिट आये तो उसने जूते पहन लिये, किसी को गुलूबंद ठीक लगा तो उसे वह ले गया । जिन दिनों हमारी तनख्वाह के दिन आये, इन पर एक लुंगी और एक बनियाइन थी । सुबह-शाम चाय और दोपहर का खाना संपादक जी सबको खिलाते थे । मैं उनके साथ कोई तीन माह रहा । कुछ दिनों बाद किसी ग्रामीण नेता ने मुकदमेबाजी शुरू करके उस पत्र को हमेशा के लिये बंद करा दिया । ऐसा लगता था कि इन सज्जन की मृत्यु या गिरफ्तारी का गलत समाचार उस पत्र के मुखपृष्ठ पर तीन माह तक बिना नागा छपता रहा था । इसके बाद संपादक जी मुझे एक बार एक स्टेशन पर मिले थे, तो सिर्फ लुंगी में थे । घोर गरीबी के दिनों में मेरे चरित्र का कोई विकास नहीं हुआ । अब्राहम लिंकन ने कहा था कि वह गरीबी की ही पाठशाला में पढ़कर अमेरिका का राष्ट्रपति हुआ था । हमारे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ । हम न तो अभी तक अमेरिका के राष्ट्रपति हुए और न निकट भविष्य में होने की कोई संभावना ही दिखाई देती है । गरीबी के दिनों में मैं हर तरह टूटा ।
यक्षिणी के विरह की भांति मेरे दिनों के पहिये ने भी पलटा खाया । बेकारी खत्म हुई । इन दिनों तो स्थिति इतनी सुखद हो गई है कि यदि कोई होनहार और गरीब नवयुवक मेरे पास आकर काम मांगता है तो मैं बड़े स्नेह से उसे तराई की तरफ एक बड़ा-सा फार्म खोलने की सलाह देता हूं ।
(लफ़्ज, सितम्बर - नवंबर 2007 से साभार)
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