कविता • तुम्हारी चिता से 1 तुम्हारी चिता से लौट रहा हूँ मैं खुद को जलाकर मेरे सपनों में मत आना तुम्हें मेरी कसम हैं। ...
कविता
• तुम्हारी चिता से
1
तुम्हारी चिता से लौट रहा हूँ मैं
खुद को जलाकर
मेरे सपनों में मत आना
तुम्हें मेरी कसम हैं।
2
ये जो शब्द
तुम्हारी याद में लिखे हैं
मेरा तर्पण समझना
मैं बहुत अकेला हूँ
नहीं जा सकूँगा
गंगा किनारे
तुम्हारे फूल पदराने।
3
में स्वयं को
जलाकर तो आ गया
तुम्हारी चिता पर
मगर लौट आता हूँ
तेरी मृत्यु में
मेरा जीवन बनकर
तुमसे अकेला न रहा जाएगा
यहाँ इतना अँधेरा क्यों हैं
तुम कहां हो
मेरी राहों की दीपशिखा ।
4
श्रद्धांजलि मेरी मुझी को
अर्पित हैं
तुम्हारा यूँ चले जाना
में भी कहाँ जिंदा हूँ
तुम जो सोयी हो शांत
ये इतनी नीरवता
मेरी जिंदगी की
फुलवारी के
प्रत्येक पुष्प का
रंग उतर गया हैं
जड़ो में कोई गीत गुनगुनाती हुई
तुम कहाँ चली गई
पत्तियां ये बेसुरी हो चुकी हैं
शाखों से कोई परिंदा गिरा हैं
वो मैं हूँ
तुम कहाँ हो।
• ग़ज़ल
सरकार चिल्लाती रही,हम गूंगे बने रहे
आंदोलन की आवाज़ सुनकर भी,बहरे बने रहे
पिंजरों में पक्षियों को कैद देखा था,
जनतंत्र में जनता पर पहरे बने रहे
उड़ने की आजादी का ख्याल तो अच्छा था
मगर ख्वाबों पर भी पिंजरे बने रहे
खुद के घर की बारी आई तो रोये बुक्का फाड़ के
दूसरे के घरों को फूंका गया,हम पुतले बने रहे
कभी धर्म कभी जाति के नाम पर खून बहाने वाले
राजनीति की बिसात पर मुहरे बने रहे
• दोहे
इतने देखे प्रेम के, कलियुग में व्यापार
छल कपट का राज है, मिथ्या है संसार
युगों युगों से जिस धरती पर पूजा गया है नारी को
जाने किस किसकी नज़र लगी,मारे कोख में बेटी को
प्रेम गगरियाँ बिन पेंदे की,जैसे रातें काली
जितना भरते इस गगरी को,उतनी रहती खाली
सत्य अहिंसा प्रेम का, हुआ है बुरा हाल
मद माया और मोह का, ये है कैसा जाल
वोटों और नोटों की खातिर, गिरी है राजनीति
राज ही केवल रह गया शेष, धरी रह गई नीति
• ग़ज़ल
ये वक़्त की मांग है, आवाज़ उठाओ
पंखों को खोलो यारों, परवाज उठाओ
तुम्हारी ख़ामोशी को वे कमजोरी समझते है
गिड़गिड़ाओ मत,अपना अंदाज़ उठाओ
तख़्त ओ ताज को सलाम बहुत कर लिया
राजाओं के सिरों से ये ताज उठाओ
मुद्दतों से तुम्हारा हलक सूखा पड़ा है
गला तर करो, शासकों का पर्दा-ए-राज़ उठाओ
तुमने ढोयी है सदियों से इन महलों की रीत
परम्पराओं का बोझ छोड़ो, स्वयं का रिवाज उठाओ
कविता
युद्ध
वे कहते हैं
शांति के लिए युद्ध जरूरी है
किन्तु
युद्ध के बाद शांति होती कहां है
होता है केवल सन्नाटा
खून से सनी हुई नीरवता
इस ख़ामोशी से तो
क्या वो शोर अच्छा नहीं
जो हँसते खेलते बच्चे करते हैं।
।
कविता
• क्या राखी का मोल पता है
दहेज़ के भूखे जल्लादों से
बहू जलाते हैवानों से
कही मिलो तो पूछना
क्या राखी का मोल पता है?
इकतरफा ही प्यार पालना
चेहरे पर तेज़ाब डालना
सुंदरता का साधक हो
या चीखों का सौदागर हो
नज़र उठा के पूछना
क्या राखी का मोल पता है?
मज़हब का झूठा जेहादी
या धर्मों का ढोंगी रखवाला
आतंकी हो दंगाई हो
हिंसा का शैदाई हो
आँख मिला के प्रश्न दागना
क्या राखी का मोल पता है
चोली हो या चुनर दुपट्टा
सब पर नज़र गड़ाने वाले
वहश हवस के तुले में
इज्जत को तुलवाने वाले
अगर दिखे तो पूछना
क्या राखी का मोल पता है?
कविता
• अधूरी कविता
चिता की उजास ओढ़े
मौत का अँधेरा
लपेटता जा रहा है
उस शरारती लड़की को
उसके अधरों की
मुस्कान से खिलवाड़ न कर
रहने दे न जला
कोई कविता लिख देगा
इस मुस्कान पर
वो धुआँ धुआँ हो गई
और मैं हैरान हूँ
कलाई पे राखी
राख में तब्दील होती जा रही है
मेरे हाथों से फिसल गई
वो मोम से नाजुक हाथों वाली लड़की
कविता अधूरी रह गई
और रक्षाबंधन
दरवाजे पर आहिस्ता दस्तक देकर
लौट गया है।
कविता
• माँ
वक़्त हर याद को धुंधला कर देता है
तुम याद रखना
अपनी माँ को
उन परछाइयों में
जब तुम्हारी संतान
पहली बार मुस्कुराएं
पहली बार तुतलाकर पुकारें
पहली बार चले
उस वक़्त तुम्हें जो ख़ुशी हुई
वो ही ख़ुशी
कभी तुम्हारी माँ को हुई होगी
वर्तमान के दर्पण में
अतीत के चलचित्र याद रखना
कभी ठुकराना मत उन यादों को
कभी भूलना मत अपनी माँ को।
कविता
• ये शेर हमीं ने मारे हैं
हमारी झोली में जितने भी गिरे
सब टूटे हुए सितारे थे
सारी खुशियां उन्हें मिली
सदमे सभी हमारे थे।
वो बहते रहे हमें काटते हुए
कटने के शौक हमारे थे
आज बीहड़ों में सड़ रहे
हमने जो नीड़ सँवारे थे।
किनारे चाहे न मिल पाए
आओ मिलकर पुल बनाए
ये स्वप्न हमारा धरा रहा
ख़्वाबों का सूरज ढला रहा
जो कुत्ते हमको काट गए
कभी घर के रखवाले थे
जिन जंजीरों में जकड़े थे
वे फौलाद हमारे थे।
आज वो कुत्ते शेर बने है
सम्मुख सीना तान खड़े है
जिन शेरों की खाल ओढ़
ये कुत्ते इतना इतराते है
मगर इनको मालूम नहीं
वे शेर हमीं ने मारे हैं।
कविता
• माफ़ी नामा
मैं माफ़ी मांगता हूँ
गम गुरूर और घृणा की त्रिवेणी
पर बसी दुनिया में
प्रेम पाने की कोशिश के लिए
मैं माफ़ी मांगता हूँ
संस्कृति सभ्यता के चीरहरण पर
आवाज़ उठाने के एवज में
मैं शर्मिंदा हूँ अपनी शालीनता पर
नम्रता धर्म और आस्था पर
सत्य अहिंसा और सदाचार
जैसी मूर्खता पूर्ण बातों पर
मुझे लज्जा आती है
और मैं गड़ा जा रहा हूँ
ईमानदारी के दलदल में
जिसका मुझे क्षोभ है
मुझे गुलाब पर दया आती है
जो सांप्रदायिकता की बदबू के बीच
खुद की सुगंध महसूस नहीं कर पाता
काजल और कोयले में कोई भेद नज़र नहीं आता
उजाले पर अँधेरा लपेट दिया है
फेफड़ों में झूठ भर जाता है
और सदाक़त को थूक दिया जाता है
स्वाभिमान घमंड की शक्ल अख्तियार कर चुका है
और मैं छिन्न विछिन्न हृदय से
मानवता की मौत का मातम मनाता हूँ
मैं माफ़ी मांगता हूँ
अपने दिल की नजाकत के लिए
जीभ की सदाक़त के लिए
अन्याय की खिलाफत के लिए
विद्रोह की हिमाकत के लिए
जबकि मुझे पता है
आपको माफ़ करने का अधिकार नहीं
मैं माफ़ी मांगता हूँ ।
परिचय = साहित्य जगत में नव प्रवेश। पत्र पत्रिकाओं यथा, राजस्थान पत्रिका,दैनिक भास्कर,अहा! जिंदगी, कादम्बिनी , बाल भास्कर आदि में कुछ रचनाएं प्रकाशित । अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत ।
विनोद कुमार दवे
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बड़ी ब्रह्मपुरी
मुकाम पोस्ट=भाटून्द
तहसील =बाली
जिला= पाली
राजस्थान
306707
मोबाइल=9166280718
behtarin rachnayen
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अरुणजी
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक और मौलिक रचनाये हैं |प्रेम के रस में पगी है कवि को शुभकामना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
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