हाल ही में "व्यंग्य और साहित्य में मठाधीशी" पर एक दिलचस्प बहस हुई. लीजिए आप भी कूदिए! - अनूप शुक्ल बीते कल 08:03 पूर्वाह्न बज...
हाल ही में "व्यंग्य और साहित्य में मठाधीशी" पर एक दिलचस्प बहस हुई. लीजिए आप भी कूदिए! -
व्यंग्य के बहाने
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"अनूप शुक्ल कहते हैं कि कोई मठाधीशी नहीं है| हँसी आती है उनकी सीमित ज्ञान और अनुभव पर आधारित मान्यताओं पर| अरे, लिखने से पहले किसी भी अच्छे लेखक से पूछकर तो देख लेते| मसलन सुशील सिद्धार्थ से ही| जिन्होंने अपनी जगह बना तो ली, अगर वैसा कहा जा सके तो, पर कितने अवरोधों और उपेक्षाओं से पार पाने के बाद!"
यह बात सुरेश कांत जी ने अपनी 2 सितम्बर की एक पोस्ट में ’प्रभात खबर’ में छपा एक लेख साझा करते हुये कही (पोस्ट का लिंक यह रहाhttps://www.facebook.com/profile.php…)
मैंने जो लिखा था वह यह था :
" आज की तारीख में छपने, छपाने, पाठकों तक पहुंचने की जैसी सुविधा है उसके चलते मठाधीशी जैसी स्थिति कत्तई सम्भव नहीं है। अगर किसी के पास लिखने का हुनर है तो उसको छापने के अनगिनत मंच हैं। अगर कोई अच्छा लिखता है तो वह किसी ने किसी तरीके से देर-सबेर लोगों तक पहुंचता ही है। कोई भी खलीफ़ा किसी को अपने पाठकों तक पहुंचने से रोक नहीं सकता। किसी की मठाधीशी नहीं चल सकती आज के समय में किसी भी विधा में। लोग अपने-अपने ग्रुप बनाकर अपने पसंदीदा की तारीफ़ करें, अपने पसंदीदा को देवता बनाकर पूजें वह बात अलग है। संविधान भी अनुमति देता है अपने हिसाब से पूजा पाठ के लिये। "
सुरेश जी की पोस्ट पर मैंने टिप्पणी करते हुये लिखा था कि इस बात पर फ़िर कभी लिखूंगा।
सुरेश जी ने हमारी बात को सीमित ज्ञान और अनुभव पर आधारित मान्यता बताते हुये किसी अच्छे लेखक से पूछने की सलाह दी। मसलन सुशील सिद्धार्थ से ही। सुशील सिद्धार्थ को ’मसलन’ हम भी अच्छा लेखक मानते हैं लेकिन फ़ेसबुक पर उन्होंने हमको ब्लाक कर रखा है क्योंकि हमने एक लेख में ज्ञान जी (जिनको सुशील जी व्यंग्य लेखन में देवता मानते हैं) एक लेख पर उनके लेख के विपरीत टिप्पणी की थी। तो उनसे कैसे पूछे?
यह तो खैर मजे लेने की बात हुई। आज सुशील जी से बात हुई व्हाट्सएप पर तो उन्होंने सुरेश जी बात को उनका बड़प्पन बताया, सुरेश जी के लिये नमस्कार पठाया और उनकी बात को विचारणीय बताया।मठाधीशी बहुत दिन चली। नामवर सिंह, कालिया, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर की बहुत चली। आज भी किसी न किसी रूप में जारी है। ये रूप इतने स्थूल नहीं हैं जितने हम समझ रहे हैं। इसके पहले उन्होंने यह भी कहा -आज, यह कहा आपने तो सोशल मीडिया आने के बाद कम हुई है (मठाधीशी)
हमारी बात आज के ही संदर्भ में थी। आज सोशल मीडिया में हर व्यक्ति को यह सुविधा है कि वह अपना लिखा हुआ कूड़ा या कालजयी लेखन दुनिया भर में पहुंचा सकता है। किसी संपादक की कृपा का मोहताज नहीं है कोई। अखबारों, पत्रिकाओं में छपना आज भी अच्छा लगता है लेकिन अगर लिखा अच्छा है तो अखबार चुराकर छापेंगे।
हम अपने अनुभव से जो जानते हैं वह यह है कि आज के समय में अगर कोई अच्छा लिखता है तो उसके लिखे को सामने आने से कोई रोक नहीं सकता। किसी को अगर लगता है कि उसकी मठाधीशी चल रही है तो वह भरम में ही होगा। हाँ, लाभ के पद पर कोई है तो उपकृत करने का धंधा करते हुए तात्कालिक फायदे कोई किसी को भले पहुंचा सकता हो। कोई किसी की किताबें छपवा दे, कोई किसी को इनाम दिलवा दे, कोई किसी को महान घोषित करा दे, कोई किसी की कृति को महानतम बता दे।
इसके उलट किसी के बारे में प्रायोजित नकारात्मक प्रचार भी किया जा सकता है। किसी कृति को खराब बताते हुए उसकी ऐसी-तैसी कर सकता है कोई। जैसी 'हम न मरब' की व्यंग्य यात्रा में छपे लेख में की गयी। पर इससे उस कृति का कुछ बिगड़ता कुछ नहीं। उलटे प्रचार ही होता है। हमने जब उस लेख के बारे में पढ़ा तो किताब मंगवाई। उसको पढ़ा। उसके बारे में लिखा। फिर कल वह लेख मंगवाया। लेख और किताब दोनों पढ़ने के बाद यही लगा कि लेख एकांगी है। वह केवल गालियों पर केंद्रित है। उपन्यास , बावजूद तमाम गालियों के, बेहतरीन उपन्यास है। व्यंग्य या फिर उपन्यास के इतिहास वह उपन्यास कहाँ रखा जाएगा यह समय बताएगा।
मठाधीशी इनाम लेने- देने में हो सकती है। ज्यादा समय जो जिस विधा में रहा और पहले आने के चलते अपनी प्रतिभा या जुगाड़ से इनाम कमेटियों में घुस गया वह अपने पसंद के लोगों को इनाम-विनाम दिलवा सकता है। यह भी कर सकता है कोई कि किसी को 5 लाख इनाम दिलाने में किसी ने सहयोग किया इसके बाद टिप के रूप में 5 लाख इनाम पाने वाले ने इनाम दिलाने वाले को 1 लाख रूपये का इनाम अपनी माता-पिता के नाम ट्रस्ट बनाकर दिला दिया। 4 चार तो बचा लिए। यह काम लोग जितने गुपचुप तरीके से और मासूमियत से करते हैं लोगों को उतनी ही तेजी से इनका पता चलता है। लेकिन इस तरह के काम तो जीवन के हर क्षेत्र में हो रहे हैं। बेचारा व्यंग्यकार ही क्यों इनसे वंचित रहे।
मठाधीशी का हल्ला कुछ आदतन भी मचाया जाता है। शायद यह लगता है कि बिना विरोध हुए प्रसिद्धि नहीं मिलती इसलिए लोगों के विरोध कम उपेक्षा को लोग बढ़ाचढ़ाकर प्रचारित करते हैं। स्यापा करते हैं। दो चार लोगों के विरोध को 'इंट्रीगेट करके' पूरे जहां का विरोध बताते हैं। कुछ ऐसा जैसा गीतकार उपेन्द्र जी बताते हैं:
'माना जीवन में बहुत-बहुत तम है
लेकिन तम से ज्यादा तम का मातम है।'
मेरा अपना अनुभव है कि अगर आज कोई बढ़िया लिखता है तो उसके लेखन को कोई सामने आने रोक नहीं सकता है। हो सकता है दुर्भावनावश कोई उपेक्षा करे या विपरीत विचार व्यक्त करे लेकिन अगर कोई अच्छा लिखता है तो लोग उसके लेखन तक अवश्य पहुंचेंगे। कोई इसको रोक नहीं सकता। पाठक जिक्र करते हैं, लेखक बताते हैं कि फलाने का लिखा पढ़ो।
आज के समय लेखन का लोगों तक पहुंचना आसान है। रांची में छपा 'प्रभात खबर' में छपा मुंबई वाले और मुंबई में छपे नवभारत टाइम्स का कालम न्यूयार्क में छपने के फ़ौरन बाद पढ़ा जा सकता है। कोई अच्छा लिखता है तो उसके लिंक वायरल होते हैं। परसाई जी के उद्धरण हमने पोस्ट किये तो सैकड़ों लोगों ने साझा किये। अच्छे लेखन सुगन्ध की तरह अपने आप फैलता है। उसको बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता। वह लोगों तक पहुंचेगी ही। देर भले हो जाए पहुंचने में लेकिन पहुंचेगी जरूर।
बाकियों के अनुभव पता नहीं कैसे रहे होंगे लेकिन मुझे तो यही लगता है कि आज के समय में लेखन के क्षेत्र में किसी की मठाधीशी चल नहीं सकती। जो कभी मठाधीश रहे भी होंगे उनके हाल आज के संचार के युग में रागदरबारी के दूरबीन सिंह सरीखे ही होते जाएंगे।
यह मेरा मानना है। अपने अनुभव और विश्वास के आधार पर। कोई मठाधीशी लेखन और खासकर व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में चल नहीँ सकती।
आपका क्या मानना है?
टिप्पणियाँ
संतोष त्रिवेदी अफ़सोस की बात यह कि अब मठाधीशी में भी कम्पटीशन मचा हुआ है।जिनसे बहुत उम्मीदें थीं,वे व्यंग्य के केजरीवाल निकल गए।कोई कितना गिर रहा है,यह हमारी समस्या नहीं,उसकी प्रतिभा का कमाल है।आगे-आगे देखिए, होता है क्या! अभी तो साहित्य में घटियागीरी के उच्चतम मानदंड स्थापित होने हैं।
अनूप शुक्ल हरेक का अपना नजरिया होता है। वैसे जब जीवन के अन्य क्षेत्रों में फ़िसलपट्टी लगी हुई है तो साहित्य बेचारे ने क्या गुनाह किया है जो यहां पतन की सुविधा न हो ! :)
Nirmal Gupta व्यंग्य के केजरीवाल तो कोई नहीं वीभत्स रस के प्रणेता अनेक हैं।
Arvind Tiwari सुलझी हुई पोस्ट बायस्ड को आईना दिखाने वाली।पर यह गलत है की आपसे हम सहमत न हों तो आप हमें अन्फ्रेंड कर दें।रविन्द्र नाथ त्यगी ने एक बार कहा था ज्ञान चतुर्वेदी प्रायः बहुत अच्छा लिखते हैं लेकिन कभी कभी बहुत ख़राब लिखते हैं।वाल्टेयर ने कहा है हो सकता है मै...और देखें
अनूप शुक्ल असल में लिखने-पढने की दुनिया में जो लोग छपने-छपाने वाले हलके से संबंधित रहे हैं उनको सोशल मीडिया को बैपरना सीखना बाकी है। यहां संबंध बड़े-छोटे या जूनियर-सीनियर जूनियर के नहीं चलते। यहां संबंध बराबरी के होते हैं। होंगे आप खलीफ़ा अपने क्षेत्र के लेकिन यहां दोस्ती में मामला बराबरी का रहता है। असहमति होने पर अनफ़्रेंड करना, ब्लाक करना बचकानापन है। लेकिन यह सीखने में समय लगता है। किसी लेखक को देवता बनाकर प्रचारित करना और उस लेखक का इस पर मौन रहना । नंदन जी की कविता पंक्ति अनायास याद आती है:
"बड़े से बड़े हादसे पर
समरस बने रहना
सिर्फ देखना और कुछ न कहना
ओह कितनी बड़ी सज़ा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना!"
बाकी किसी लेखक की किसी से तुलना करना भी बहुत ठीक नहीं लगता। परसाई जी से मेरी समझ में किसी और व्यंग्य लेखक की तुलना परसाई जी और उस लेखक के साथ भी अन्याय है। परसाई जी के लेखन की संवेदना बहुत विराट है। वे लेखन के अलावा शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने समय जो किया वह आज किसी और के बस की बात भी नहीं। ’रागदरबारी’ के बारे में आपकी बात से सहमत ! :)
ज्ञानजी के बारे में त्यागी जी ने जो कहा वे कह सकते हैं। हमें अभी उनको और अच्छे से पढ़ना है। अफ़सोस त्यागी जी से मिलने का सुयोग न मिला। :)
Arvind Tiwari मैं दो बार मिला।पत्र व्यवहार भी रहा।9 मई को उनका जन्मदिन भूल गया क्योंकि पत्नो मरणासन्न थी।फ़िर कभी लिखूँगा।
Surendra Mohan Sharma मुझे तो साहित्य और विशेषकर व्यंग में समूहवाद की तुक ही समझ नहीं आती ।
समूहवाद ही मठाधीशी को जन्म देता है ।
2 · बीते कल 10:04 पूर्वाह्न बजे
Ramesh Tiwari होंगे आप खलीफा अपने क्षेत्र के लेकिन यहाँ दोस्ती में मामला बराबरी का रहता है। मैं इतना ही पढ़कर आनंदित हूँ । कभी-कभी किसी मित्र की भाषा में अशालीनता या गाली-गलौज हो तो उनको चेतावनी देकर पाँच मिनट का समय देता हूँ। सुधार कर लें तो बेहतर अन्यथा बताते हुए अमित्र करता हूँ। ब्लॉक करने लायक मित्र तो हम बनाते ही नहीं हैं । यह सार्वजनिक मंच है, हमें भाषा भी सबकी मर्यादाओं को ध्यान रखकर ही प्रयोग करनी होगी । आपके ये विचार स्थायी महत्व रखते हैं । इन्हें सँभाले रखिए, बाद में पुस्तकाकार छपवाइएगा तो अच्छा रहेगा । सन 97-98 में मठ और मठाधीशी पर हमारी भी खूब बहस होती थी, मित्रों का कहना था - मठों से टकराते-टकराते तुम अपना मठ बना लोगे । मुझे आज भी वे पंक्तियाँ रास्ता दिखाती हैं । अब तो सब पढ़ें सब बढ़ें का जमाना है । लेकिन कोई पढ़ने को राजी नहीं है, सब दूसरों को पढ़ाना चाहते हैं। नमन आपको ।
Arvind Tiwari तिवारी जी ये अभी शुरु हुआ है।त्यगी जी ज्ञान जी से वरिष्ठ थे मगर ज्ञान जी के जबरदस्त फेन थे।आज किसी वरिष्ठ को फेन होते देखा है।त्यागी जी ने अपने व्यंग्य सन्ग्रह के फ्लैप पर ज्ञान जी से लिखवाया।अब संभव नहीं।वैसे ऐसी पोस्ट द्रोपदी का चीर तब बनती हैं जब कोई अन्य इसकी प्रतिक्रिया में पोस्ट डालता है।
1 · बीते कल 11:40 पूर्वाह्न बजे
Arvind Tiwari इनाम की मठाधीशी अपनों को उपकृत करने तक है।लेन देन का मामला थोडा दूर है साहित्य से।
अनूप शुक्ल हां लेकिन ऐसे किस्से भी सुनने में आये हैं जैसा मैने लिखा! ठेके पर भी काम शुरु हो गया है ! :)
Arvind Tiwari मामला क्या है फ़ोन पर तफ़सील से।
2 · बीते कल 09:44 पूर्वाह्न बजे
D.d. Mishra बडी ही सही सीख आपने दीहै लेखको के लिए उम्मीद है यह लिखने का उत्साह दिलाए गी
अनूप शुक्ल धन्यवाद ! :)
Nirmal Gupta बेहतरीन.सिलसिलेवार लिखते रहें अनूप जी.
अनूप शुक्ल धन्यवाद ! कोशिश करते रहेंगे। :)
Anup Srivastava बेहतरीन
विचारणीय
1 · बीते कल 08:24 पूर्वाह्न बजे
अनूप शुक्ल आभार ! करिये विचार ! :)
Nirmal Gupta व्यंग्य के बहाने स्वघोषित धूमकेतुओं पर भी थोड़ी रौशनी डाल दें।व्यंग्य में बहुतेरे आत्ममुग्ध लोग है इस श्रेणी के।
6 · बीते कल 09:55 पूर्वाह्न बजे
Ramesh Tiwari हाहाहाहाहा....यानी लट्ठ बजवाए बिना रहोगे नहीं आप निर्मल भाई ! मेरा दूर से ही प्रणाम।
ALok Khare :)
ALok Khare vyang lekhan apne naam ke sath hi vivadit hota hai, mane ki kisi par kataksh karna, aur vivad par vivaad na honge to kis par honge! jitna vivaad hoga vunag utna hi unchai ko prapt hoga, unchai se matlab vunag ke playan se nhi hai hamara :)
1 · बीते कल 11:17 पूर्वाह्न बजे
Pradeep Shukla " मठाधीश " शब्द का प्रयोग सबसे ज्यादा व्यंग्य विधा में ही क्यों होता है? यह एक शोध का विषय हो सकता है. इस पर पी एच डी की पूरी थीसिस लिखने के सामर्थ्यवान लोग भले कम हों, लेकिन एम फ़िल का मसाला तो लोगों के पास है ही. मसलन सबसे पहले ' मठाधीश ' शब्द किसने प्रयोग किया? पहले यह शब्द किसी औपचारिक गोष्ठी में उच्चारा गया या राह चलते किसी ठुल्ले ने गली के किसी टपोरी गैंग के लीडर को मठाधीश कह कर सम्मानित किया. मेरी तरह निठल्ले लोग चाहें तो शोध प्रश्नों की पूँछ बढ़ा सकते हैं जो किसी गुरुघंटाल मठाधीश को विधिवत लगाई जा सकती है.
Anshuman Agnihotri यह व्यंगकारों की आपसी बहस है, बढिया घटिया के मापदंड स्था पित करती हुई .
सबलिखा पढ़ा ठीक , पर लंबी बहस , हमारे जैसे बुद्धि के बउओं के किस काम की ?
मै नहीं आता इस बहस में , बड़े बड़े मैमथ हाथियों के बीच घुस कर गन्ने खाने ! पिच्ची हो जाऊंगा !
गौतम राजरिशी बहुत सही आलेख देव । दरअसल मठाधीशी की सफलता को लेकर बस दो ही लोग आश्वस्त हैं... एक तो ख़ुद ही मठाधीश साब और दूजे उनका बैग उठाने वाले चेले चपाटे ।
Nisha Shukla मैं न साहित्यकार हूँ न लेखक न व्यंगकार,अदना सी पाठक हूँ मगर महसूस करती हूँ लिखनेवाले घोर दंभी होते हैं.. एक दुसरे को दम भर ख़ारिज करते हैं!
Vimlesh Chandra सचमुच में आप के लेखन को कोई मठाधीश दबा नहीं सकता। आप का नाम अब मठाधीश से भी बढ़ कर है इसे कोई झुठला नहीं सकता। व्यंग्यकारों की पहली पंक्ति में पहले खड़े होते है आप। मल्टीस्किल्ड प्रतिभा कूटकूट कर भरी है आप में दिखता है साफ।
एम.एम. चन्द्रा मेरा अपना अनुभव है कि अगर आज कोई बढ़िया लिखता है तो उसके लेखन को कोई सामने आने रोक नहीं सकता है।
Suresh Sahani सर!मठाधीशी तो है।कहीं व्यक्त तो कहीं अव्यक्त ।अब आप कट्टे के दम पर कर रहे हैं।
ALok Khare ek dam badhiya charcha, sehmati ke sath
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व्यंग्य के बहाने शीर्षक से अनूप शुक्ल ने दो आलेख और लिखे हैं.
व्यंग्य के बहाने - 1
व्यंग्य लेखन के बारे में अक्सर छुटपुट चर्चायें होती रहती हैं। लोग अपने अनुभव के हिसाब से बयान जारी करते रहते हैं। शिकवा, शिकायतें, तारीफ़, शाबासी भी चलती ही रहती है। कभी-कभी लम्बी चर्चा भी होती रहती है। कुछ बातें जो अक्सर सुनने में आती रहती हैं:
१. व्यंग्य संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।
२. व्यंग्य में मठाधीशों का कब्जा है।
३. नये-नये लोग लिखने वाले आते जा रहे हैं।
४. नये लोगों को लिखना नहीं आता, उनको जबर्दस्ती उछाला जाता है।
५.पुराने लोग नये लोगों को तवज्जो नहीं देते।
६. नये लोग पुरानों की इज्जत नहीं करते।
इसी तरह की और भी बातें उछलती रहती हैं। समय-समय पर। खासकर किसी इनाम की घोषणा के समय। जिसको इनाम मिलता है, वह बेचारा टाइप हो जाता है। सामने तारीफ़ होती है, पीछे से तारीफ़ को संतुलित करने के लिये जबर खिल्ली उड़ाई जाती कि इसको भी इनाम मिल गया, इसको तो लिखना भी नहीं आता, अब तो भगवान ही मालिक है व्यंग्य का। कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनको कोई भी पुरस्कार मिलता है तो कहा जाता है इनाम सम्मानित हुआ है इनको सम्मानित करने से। वह बात अलग है कि उनके भी किस्से चलते हैं कि कैसे इनाम जुगाड़ा गया, क्या समझौते हुये। लेकिन इनाम की छोडिये- इनाम तो हमेशा छंटे हुये लोगों को मिलता है।
सबसे पहले बात मठाधीशी की। आज की तारीख में छपने, छपाने, पाठकों तक पहुंचने की जैसी सुविधा है उसके चलते मठाधीशी जैसी स्थिति कत्तई सम्भव नहीं है। अगर किसी के पास लिखने का हुनर है तो उसको छापने के अनगिनत मंच हैं। अगर कोई अच्छा लिखता है तो वह किसी ने किसी तरीके से देर-सबेर लोगों तक पहुंचता ही है। कोई भी खलीफ़ा किसी को अपने पाठकों तक पहुंचने से रोक नहीं सकता। किसी की मठाधीशी नहीं चल सकती आज के समय में किसी भी विधा में। लोग अपने-अपने ग्रुप बनाकर अपने पसंदीदा की तारीफ़ करें, अपने पसंदीदा को देवता बनाकर पूजें वह बात अलग है। संविधान भी अनुमति देता है अपने हिसाब से पूजा पाठ के लिये।
-आगे भी लिखा जाये क्या ? :)
व्यंग्य के बहाने -2
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कल सुबह व्यंग्य पर कुछ लिखना शुरू किया था। पूरा नहीं हुआ तो सोचा बाद में लिखेंगे। सेव करके छोड़ दिया। दोपहर को लंच में जब समय मिला तो जित्ता लिखा था वो पोस्ट कर दिया। उसके बाद समय ही नहीं मिला। मिला भी तो हमारे रोजनामचे ने झटक लिया। व्यंग्य की बात किनारे धरी रह गयी। अब जब सुबह समय मिला, आधे घण्टे का, तो वो सारे आइडिया फूट लिए जो कल हल्ला मचा रहे थे कि हमारे ऊपर लिखो, हमारे ऊपर लिखो।
आजकल का अधिकांश व्यंग्य शायद इसी अंदाज में लिखा जा रहा है। न भी लिखा जा रहा हो तो हम तो ऐसा ही सोचते हैं। जैसा हम करते हैं वैसा ही तो दूसरों के बारे में सोचेंगे न।
अधिकतर व्यंग्य लेखक नौकरी पेशा वाले हैं, दिन में कब्बी समय मिला तो लिख मारा। कहीं भेज दिया। छप गया तो ठीक। वर्ना कल फिर देखा जाएगा। जो लोग नियमित लिख लेते हैं, छप भी जाते हैं वे वास्तव में 'व्यंग्य ऋषि' हैं। अपनी तपस्या मन लगाकर करते हैं। उनमें से ज्यादातर तपस्या का वरदान भी हासिल करके ही रहते हैं।
आज प्रकाशन के इतने अवसर हैं कि हर शहर में सैकड़ों तो व्यंग्य लिखने वाले होंगे। उनके व्यंग्य संग्रह नहीं आए, अख़बारों में नहीं छपे यह अलग बात होगी। अख़बार, पत्रिकाओं में छपने के लिए नियमित लेखन, नियमित भेजन और काम भर का धैर्य चाहिए होता है। अख़बार में जो भी छापने वाले होते हैं वे नियमित कॉलम वालों के अलावा पलटकर बताते नहीं हैं कि लेख छाप रहे हैं कि नहीं। आखिरी समय तक अपने पत्ते नहीं खोलते कि आपका लेख छापेंगे कि नहीं।
जब सैंकड़ों लोग लिख रहे हों और उनमें से कुछ अच्छा भी लिख रहे हों तो बाद चलने पर व्यंग्य लेखन की बात दो-तीन चार लोगों तक सीमित कर देने वाली बात 'हमारी सूर-सूर, तुलसी-शशि उडगन केशव दास' वाली परम्परा का हिस्सा है।
दो तीन नाम गिनाकर उनको व्यंग्य का पर्याय बताना अपने यहां की 'कुंजी परम्परा' का प्रसार है। इम्तहान में पास होने के लिए किताब पढ़ने की जरूरत नहीँ बस इनको पढ़ लो, पास हो जाओगे। इसीतरह लेखन को भी दो तीन नामों तक सीमित करके बाकी सब को 'उडगन' में शामिल कर दिया जाता है। अब जुगनुओं के नाम तो होते नहीं, सो जिनको सूरज नाम मिल गया उनको ही चमकने वाला बता दिया गया। नया जो आएगा इस दुनिया में वह भी इन्हीं कुंजियों से पढ़ेगा।
मेरी समझ में साहित्य हो या जीवन का कोई भी क्षेत्र हो उसमें कभी अकेले का सम्पूर्ण योगदान नहीँ होता। जो शीर्ष पर है उसके अलावा भी अनगिन लोग उस क्षेत्र में शामिल होते हैं। जिनका जिक्र सरलीकरण और समयाभाव में नहीं हो पाता होगा।
गंगोत्री और अमरकण्टक के उदाहरण से मुझे अक्सर याद आता है। नर्मदा जब अमरकंटक से निकलती है तो बहुत पतली धार होती है, एकदम घर के पानी के नल सरीखी। लेकिन आगे चलकर जब सौंदर्य की नदी बनती है। यह सौंदर्य सामूहिकता का सौंन्दर्य होता है। अमरकंटक से निकली एक पतली धार को सौंदर्य की नदी बनाने में रास्ते में मिलने वाले अनगिनत जलस्रोत सहयोग करते हैं। केवल अमरकंटक के पानी से नर्मदा जीवनदायी नदी नहीं बनती। अनगिनत जलस्रोतों का सहयोग उसमें होता , नाम भले ही केवल अमरकंटक का ही होता हो। बाकी लोगों का नाम लोग जान भी नहीं जानते हैं।
लेकिन दुनिया में संतुलन का सिद्धांत हमेशा काम करता है। जिनका अच्छा काम होता है वह कभी न कभी सामने आता है। खराब काम जो कभी बहुत उछलता कूदता रहता होगा समय उसमें उसमें अपनी पिन चुभाता रहता है।
साहित्य का क्षेत्र भी जीवन से अलग नहीं है। कुछ क्या बहुत कुछ खराब लेखन सामने हल्ला मचाता है और बहुत कुछ अच्छा सामने नहीँ आ पाता। लेकिन कभी-कभी न कभी अच्छे तक लोग पहुँचते ही हैं। समय बहुत बड़ा संतुलनकारी तत्व है।
यह सब बातें बिना किसी तारतम्य के ऐसे ही। किसी और से ज्यादा अपने लिये।
बाकी फिर कभी। लिखें कि नहीं ?
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