चुटकुले आज समाज में मनोरंजन का पर्याय बन चुके हैं जो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबको भाते हैं। कई चुटकुले हलके-फुलके तरीक़े से हँसाने-गुदग...
चुटकुले आज समाज में मनोरंजन का पर्याय बन चुके हैं जो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबको भाते हैं। कई चुटकुले हलके-फुलके तरीक़े से हँसाने-गुदगुदाने का काम करते हैं तो कई व्यक्ति, समाज और व्यवस्था के सतहीपन पर गहरा आघात भी करते हैं। हर चुटकुला किसी न किसी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र के चरित्र को बेनक़ाब करने पर आमादा होता है बशर्ते कि हम उसको समझने की योग्यता रखते हों। आम आदमी आज जिस भ्रष्टाचार से त्रस्त और बदहाल है, जिसे मिटाने के लिए लोग बार-बार सड़कों पर उतर रहे हैं क्या उस भ्रष्टाचार के ग्रंथ की भूमिका नहीं हैं ये चुटकुले? कुछ चुटकुले देखिए।
पत्नी ने पति से पूछा, ''क्या आपको यही चोर नौकर मिला था घर पर काम करने के लिए?'' ''क्यों क्या हुआ?''पति ने निर्विकृत होकर पूछा। पत्नी ने जवाब दिया, ''परसों नेताजी के यहाँ हुई पार्टी में से हम जो चाँदी के चम्मच चुराकर लाए थे, वो सब के सब आज इसने ग़ायब कर दिए हैं। ऐसे चोर को मैं एक दिन भी घर में बर्दाशत नहीं कर सकती।'' क्या यह चुटकुला हमारे चरित्र की वास्तविकता को प्रकट नहीं करता? यह हमारी दोहरी मानसिकता को स्पष्ट करता है। हम स्वयं चाहे कितने ही अनैतिक क्यों न हों लेकिन दूसरों की अनैतिकता कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे।
एक चुटकुला और देखिए। एक जज ने चोर से पूछा, ''आख़िर तुम बार-बार चोरी क्यों करते हो?'' ''हुज़ूर आप ही के लिए'', चोर ने जवाब दिया। जज महोदय ने आश्चर्य के साथ पूछा, ''मेरे लिए?'' चोर ने अत्यंत नम्रतापूर्वक कहा, ''हाँ हुज़ूर, आपके लिए, आपके परिवार के लिए। मैं चारी न करूँ तो आपकी क्या ज़रूरत रह जाएगी और आपकी नौकरी नहीं रही तो आपके परिवार का गुज़ारा कैसे होगा?'' अब एक शराब पीने वाला व्यक्ति भी गर्व के साथ कह सकता है कि वह शराब न पिए तो सरकार को आमदनी कहाँ से हो? यह वास्तविकता है कि सरकार को शराब आदि वस्तुओं पर उत्पादन शुल्क के रूप में काफी आय होती है।
पिछले दिनों एक समाचार पढ़ा। स्विट्ज़रलैंड में एक इलाक़ें में एक फायर स्टेशन था। उस पूरे क्षेत्र में आग लगने की घटनाएँ लगभग समाप्त हो गईं तो प्रशासन ने उस फायर स्टेशन को बंद करने का फैसला कर लिया। फायर स्टेशन के कर्मचारियों को इस बाबत नोटिस थमा दिया गया। अभी न तो फायर स्टेशन बंद किया गया था और न ही कर्मचारियों को निकाला गया था कि अचानक उस क्षेत्र में आग लगने की घटनाओं में बेतहाशा तेज़ी आ गई। रोज़ किसी न किसी इलाक़े में आग लगने लगी। बाद में प्रशासन ने इसकी खोजबीन की तो पता चला कि अपनी नौकरी बचाने के उद्देश्य से फायर स्टेशन के कर्मचारी ही विभिन्न स्थानों पर ये आग लगा देते थे।
प्रश्न उठता है कि क्या विभिन्न सेवाओं का विस्तार अथवा आर्थिक विकास लोगों को सुविधा प्रदान करने के उद्देश्य से किया जाता है अथवा रोज़गार के क्षेत्रों में वृद्धि के लिए ही सेवाओं का विस्तार अथवा आर्थिक विकास ज़रूरी है? क्या कानून व्यवस्था अपराध रोकने और अपराधियों को सज़ा देने, उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए बनी है अथवा अपराधों में वृद्धि द्वारा कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में रोज़गार के अवसरों का सृजन संभव है? क्या वर्तमान न्याय-व्यवस्था द्वारा लोगों को सही न्याय मिल पा रहा है?
लोगों का उपचार करने के लिए डॉक्टर बनें, दवाओं का आविष्कार हो ये बात तो ठीक है लेकिन यदि इसका उलट होने लगे तो? आज दवाओं को खपाने के लिए बीमारियाँ ईजाद की जा रही हैं। लोग चिकित्सा जगत की प्रयोगशाला बनकर रह गए हैं। चिकित्सा एक उद्योग बन गया है जबकि व्यक्ति मात्र एक उपभोक्ता। एक सामान्य व्यक्ति ही नहीं रोगी भी बाज़ारवाद के चंगुल में फंस कर छटपटाने को विवश है। रोग और उपचार का संतुलन अनिवार्य है अन्यथा डॉक्टरों की संख्या ओर दवाओं की मात्रा ही नहीं रोग और रोगी भी बढते रह़ेंगे।
एक तरफ हम पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण बचाओ चिल्ला रहे हैं तो दूसरी ओर विकास के नाम पर उसी पर्यावरण की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। पहले तो दीपावली आदि त्यौहारों पर ही पटाखों का प्रदूषण फैलता था लेकिन आजकल तो दिन को होली रात दिवाली की तर्ज़ पर रोज़ ही पटाखे बजने लगे हैं। वो कोई बारात हो या वारदात पटाखों के बिना रंग जमता ही नहीं। वैसे कुछ लोग पटाखे न जलाएँ, प्रदूषण न फैलाएँ तो इस विषय पर वाद-विवाद कैसे हो? और वाद-विवाद न हो तो विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास कैसे हो?
क्रिकेट और पटाखों का तो चोली-दामन का साथ हो गया है। भारत जीते तो पटाखे बजाना बनता है लेकिन पाकिस्तान हारे तो भी पटाखे बजाने का औचित्य अपनी अल्पबुद्धि से परे है। हाँ भारत की जीत पर ही नहीं कुछ लोग पड़ौसी मुल्क की जीत पर भी सेलिब्रेट करने से नहीं चूकते जो उनकी फ़राख़दिली का ही सबूत है। कोई जीते कोई हारे, बहरहाल पटाखों की शामत तो आ ही जाती है। साथ ही हमारे चरित्र की वास्तविकता उजागर हो जाती है, इसमें भी संदेह नहीं।
बच्चे और समाज को शिक्षित करने के लिए जिस शिक्षा पद्धति का सहारा लिया जा रहा है वही शिक्षा पद्धति या उससे प्राप्त शिक्षा जीवन मूल्यों का निरंतर ह्नास कर रही है। खेलों के अंतर्राष्ट्रीय मुक़बले हों या क्रिकेट, खेल भावना और स्वास्थ्य उपेक्षित है। मात्र कुछ लोगों की जेबें भरने का षड़यंत्र हैं ये सभी आयोजन। जिसको विकास कहते हैं कहीं वह इसलिए तो नहीं हो रहा है कि उस विकास से कुझ लोगों का मोटा लाभ और कुछ का भारी-भरकम कमीशन जुड़ा है?
मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। एक बार एक व्यक्ति की फ़ैक्टरी में आग लग गई। जब उनके पड़ौसी को फ़ैक्टरी में आग लगने का पता चला तो वो अफसोस ज़ाहिर करने के लिए आया और कहा कि बड़े दुख की बात है कि आपकी फ़ैक्टरी में आग लग गई और आपका बहुत नुक़सान हो गया। उसके बाद पड़ौसी ने उनसे पूछा, '' वैसे भाई साहब आपकी फ़ैक्टरी में बनता क्या है?'' फ़ैक्टरी मालिक ने जवाब दिया, ''हमारी फ़ैक्टरी में आग बुझाने के यंत्र बनते हैं।'' हमारा विकास मात्र छलावा और हम पर बोझ बनकर तो नहीं रह गया है, इस पर भी चिंतन करने की आवश्यकता प्रतीत होती है।
एक जीवंत समाज की पहचान ही इस से होती है कि वह अपने ऊपर हँस सकता है कि नहीं। शायद इसीलिए सभ्य समाज ने चुटकुले बनाए। इनका मक़सद न केवल अपने ऊपर हँसना है अपितु हँसते-हँसते समाज की शिष्ट आलोचना करना भी है। अफ़सोस कि आज हम चुटकुलों को केवल हँसने का माध्यम समझ रहे हैं। हम चुटकुलों के जरिए हँसे, लोगों को उनका असली चेहरा दिखाएँ लेकिन साथ ही इस बात का भी मूल्यांकन करें कि कहीं हम स्वयं भी उसके एक पात्र तो नहीं?
सीताराम गुप्ता
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मनोरंजक रचना के लिए सीताराम गुप्ता जी को मेरा साधुवाद| जब विद्यार्थी के पिता को विद्यालय में बुला अध्यापक जी ने उसके द्वारा पेंसिल चुराने की शिकायत की तो पिता ने बेटे को इस घोर पाप के लिए डांटते हुए कहा कि यदि उसे कहा होता तो वह कार्यलय से पेंसिलें ले आता!
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