भारत में गणतंत्र शासन प्रणाली पहली बार नहीं है । इसके पूर्व भी हमारे भारत ने समृद्ध और विकासशील गणतंत्र राष्ट्र के रूप में उभरकर , विश्व का...
भारत में गणतंत्र शासन प्रणाली पहली बार नहीं है । इसके पूर्व भी हमारे भारत ने समृद्ध और विकासशील गणतंत्र राष्ट्र के रूप में उभरकर , विश्व का अनेकों बार मार्गदशन किया है । पौराणिक आख्यानों और ऐतिहासिक तथ्यात्मक विवेचनाओं के अध्ययन करने पर पता चलता है कि भारत विश्व राष्ट्र संघ का अध्यक्ष भी रहा है । आज भारत सहित विश्व के कई गणराज्यों , उपनिवेशों और अधिनायकवादी राज्यों में अस्थिरता , अशांति और घोर निराशा व्याप्त है । कारण कमोवेश सभी को ज्ञात है । पतितोन्मुखी विश्व को विनाश से बचाया जा सकता है । इसके लिये स्वार्थ पटुता से उबरकर , कर्तव्यनिष्ठा को प्रमाणित करना होगा । व्यक्तिनिष्ठ महत्वाकांक्षा से मुक्त रहकर आम लोगों को कुंठा और निराशा से उबारने के लिये भागीरथी प्रयास करने पड़ेंगे सभी को ।
धर्म के दुरूपयोग और राजनीति के अपराधीकरण से बचने और राष्ट्र को बचाने के लिये , गणतंत्र राष्ट्र के नायक लोग गणाध्यक्ष के गुण , कर्म , स्वभाव , स्वरूप और हेतु को यथार्थ रूप में जानकर उसका पालन भी करें । तभी वे अपने दायित्वों का त्रुटिरहित और सफलतापूर्वक निर्वहन कर सकते हैं । अभिप्राय है राजनीतिज्ञों की राष्ट्रीय नीति कैसी होनी चाहिये ? अनुकरणार्थ उन्हे इसके एक रोल माडल अर्थात नमूने की आवश्यकता है । मेरी जानकारी के अनुसार गणाध्यक्ष श्रीगणपति जी से श्रेष्ठ कोई दूसरा आदर्श उदाहरण नही है , गणतंत्र के लिये । जो गणाध्यक्ष निर्वाचित होता है उसमें जिन जिन गुणों की आवश्यकता होती है , वह सब गणपति जी में समाविष्ट है ।
गणाध्यक्ष के प्रतीक हैं श्री गणपति जी । इनका आचरण , क्रियाकलाप और लीला आदि गणाध्यक्षों अर्थात राजनैतिक लोगों के लिये उनके नेतृत्व क्षमता को बढ़ाने के लिये लोकहितकारी आचार संहिता है । श्री गणपतिजी को समझने के लिये उनका सांगोपांग वर्णन पूर्णतया प्रासंगिक होगा , किंतु अपारचरितानाम हैं श्री गणपति जी । इसलिये उनका सूत्रात्मक और प्रतीकात्मक संक्षिप्त विवेचन ही संभव , उचित और उपयोगी होगा ।
विशिष्ट बुद्धिमान , बहुश्रुत सारग्रही , निष्पक्ष न्यायकर्ता , सूक्ष्मदर्शी , दूरदर्शी , शाश्वत प्रतिष्ठित व्यवहार , परमार्थ का समन्वयक , वाणी का अंत:प्रयोक्ता , भावग्रही , हृदयवान , क्रियाशील , अभय बल , ऐश्वर्य आनंद प्रदाता , गम्भीर रहस्यवान कुशल राजनैतिज्ञ , अपराजित योद्धा , रिद्धि सिद्धि दायक , तर्काधिपति , जनप्रियनाम आदि अगणित गुणों से युक्त हैं श्री गणेश जी ।
शुक्ल यजुर्वेद के 23/19 के अनुसार “ गणानां त्वा गणपति “ , गणपति का अर्थ उदबोधन सूत्रात्मक मंत्र है । दरअसल गण शब्द समूह का वाचक है । समूहों के स्वामी होने वाले परम शक्तिवान को गणपति कहते हैं ।
“ गणयंते बुद्धयते ते गणा:” सम्पूर्ण दृश्यवान गण है और उसका जो अभिज्ञान है – वही गणपति है ।
ज्ञानार्थवाचकों गश्च , पश्च निर्वाणवाचक: ।
त्योरीश पर ब्रम्ह , गणेश प्रणम्यहम ।
व्याकरण शास्त्र के अनुसार “ अस्टौ विनायक: “ गणपति है । मतलब छ्न्द शास्त्र में आठ गण है – यगण , मगण , तगण , रगण , जगण , भगण , नगण , सगण , आदि जो कुछ गणना में आता है अर्थात जो दृश्यमान है और जो दृष्टिगोचर भी नही होता ऐसे भाव , सम्वेदना और स्थितियों के भी पति होने से वे गणपति हैं ।
गणपति का दार्शनिक ,तात्विक और मीमांसक अर्थ कुछ इस प्रकार भी है । श्री गणपति जी सत – चित – आनंद तीनों से विभूषित हैं । वे सत्ता , ज्ञान, सुख तीनों के रक्षक हैं । वे जागृत , स्वप्न , सुषुप्ति तीनों से तुरीय हैं । परा - पश्यंति – मध्यमा और बैखरी वाणी में दृष्टिगोचर होते हैं । श्री गणपति जी पृथ्वी – अंतरिक्ष – स्वर्ग तीनों के स्वामी एवं देव – मानव - दानव गण के पति होने से गणपति हैं ।
भारतीय संस्कृति और उत्सव , निबंध में स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी ने गणपति जी के बारह प्रसिद्ध नामों की व्याख्या उनके स्वरूप एवं गुणों की गरिमा के साथ किया है , वह दृष्टव्य है – सबसे पहले गणेश जी के लिये “ सुमुख ” शब्द का प्रयोग किया गया है । सुमुख का अर्थ होता – वह व्यक्ति जिसका मुख सुंदर हो । गणेश जी की जो मूर्ति बनायी जाती है उसे देखकर कोई भी यह नही कह सकता कि वे सुमुख हैं । तब उनके लिये इस शब्द का प्रयोग क्यों किया गया । बात यह है कि सुमुख का यथार्थ सौंदर्य , आकृति में नहीं , प्रकृति और वचन में है । सत्य , प्रिय और मनोहारी सुनने वालों के लिये हितकारी और भविष्य में भी श्रेष्ठ फल प्रदान कराने वाली वाणी बोलने वाला मुख , सुंदर अर्थात सुमुख माना जाता है । गणेश जी इन्हीं अर्थों में सुमुख हैं । अभिप्राय है कि गणतंत्र के अध्यक्ष के लिये जो गुण सबसे अधिक जरूरी है , वह है – उसमें उत्तम वाणी का सच्चा वैभव होना चाहिये । मधुर वचन के साथ वाणी में सत्यता और पटुता भी आवश्यक है ।
गणपति का दूसरा नाम है एकदंत । निष्पक्ष न्यायकारी की नीति और अनुशासन से ही राष्ट्र की व्यवस्था स्थिर रहती है ।लोक प्रसिद्ध कहावत है कि जिसके खाने के दांत और दिखाने के दांत और होते हैं – ऐसे पक्षधर मुखिया के द्वारा अन्याय ही होता है । तात्पर्य यह कि पक्षपात रहित नीति रखने के लिये यह आवश्यक है कि जो अध्यक्ष हो उसे एकदंत अर्थात निष्पक्ष होना चाहिये ।
गणेश जी का तीसरा नाम कपिल है । गणेश जी उत्साह की लालिमा से युक्त हैं । जिनमें उत्साह की दीप्ति रहती है , उनके मुख पर सदैव लालिमा रहती है । निस्तेज व्यक्ति का मुख पीला पड़ जाता है । कर्तव्यनिष्ठ गणाध्यक्ष के लिये यह आवश्यक है कि उसमें उत्साह की स्फूर्ति हो ।
श्री गणेश जी गजकर्णक अर्थात हाथी के बड़े बड़े सूप जैसे कान वाले हैं । बड़े कान का अभिप्राय है सबकी बातें सुनने वाला और सूप जैसे आकृति का संकेत है – “ सार सार को गहि रहियो थोथा दई उड़ाय “ जो थोड़े ही लोगों की बातें सुनते व बिना विचार किये मान लेते हैं ऐसे लोग कान के कच्चे होते हैं । गणाध्यक्ष को चाहिये कि वह सभी लोगों की बातें सुनें और सार सार बातों को ग्रहण करे ।
श्री गणेश जी लम्बोदर हैं , जिसका अर्थ है बड़ा पेट वाला । बड़ा पेट का मतलब है सबकी बातें सुनकर पचा लेने वाला । एक की बात सुनकर तुरंत दूसरों से कह दे वह लम्बोदर नही हो सकता । जो उथली पेट वाला है , उनसे अपनी बात कहना लोग उचित नही समझते । सबकी बातों को सुन समझकर , धारण और व्यक्त करने के गुण वाला व्यक्ति ही गणाध्यक्ष होता है ।
कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी धैर्यवान और अत्याचारियों के दमन के लिये शक्तिमान ऐसे रौद्र रूप वाले श्री गणेश जी अदभुत तेज के कारण विकट भी हैं । विषम परिस्थितियों में भी धीरज न छोड़े , जिनसे दुष्ट लोग सतर्क एवं सज्जन लोग स्वतंत्र रहकर कार्य करें , गणतंत्र का अध्यक्ष ऐसे विकटगुणों से युक्त होता है ।
विघ्नोंको दूर करने में समर्थ होने से और सबके कार्य निर्विघ्न सम्पन्न करा देने वाले देवता होने के से गणेश जी विघ्नहर्ता हैं , जिनके स्वाभाव और प्रभाव के कारण , बिना किसी अड़चन के रचनात्मक कार्य करने में प्रजा सफल रहती है , वही गणतंत्र का अध्यक्ष होता है ।
राष्ट्र में सुख – समृद्धि का अर्थ यह है कि , सभी लोग अपने अपने घरों में भरपेट खाते पीते व सुखपूर्वक निवास करते हैं । किसी भी नगर में प्रवेश करते समय यदि हम देखते हैं कि सबके रसोई घर से धुआं निकल रहा है , तब स्पष्ट रूप से जान लेते हैं कि सभी घर रसोई बन रही है । मतलब यह कि सभी लोग समृद्धावस्था जीवन व्यतीत कर रहे हैं । विवेक मूर्ति श्री गणेश जी का नाम धूमकेतु इन्हीं अर्थॉं में समझा जाना चाहिये । जिनके राष्ट्र में सभी घरों में रसोई बनती रही हो , ऐसा गणाध्यक्ष गौरध्वज को धारण करने वाले होते हैं ।
गणानां पतिं: गणपति: अर्थात गणों के पति ही गणपति हैं , जो दृश्य और अदृश्य दोनों हैं , जिस पर सबकी जवाबदारी है और जो उस दायित्व और स्वामित्व का निर्वाह करने में पूर्णरूपेण सक्षम है वह व्यक्ति गणपति होता है ।
लेखक – गजानंद प्रसाद देवांगन , छुरा
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