(कलाकृति - धर्मेन्द्र मेवाड़ी - डिटेल) अगर किसी कंकाल पर सिर्फ़ थोड़ी सूखी त्वचा लगा दी जाए, तो वह कैसा लगेगा? सम्भवतः फुलेश्वर महतो की तरह...
(कलाकृति - धर्मेन्द्र मेवाड़ी - डिटेल)
अगर किसी कंकाल पर सिर्फ़ थोड़ी सूखी त्वचा लगा दी जाए, तो वह कैसा लगेगा? सम्भवतः फुलेश्वर महतो की तरह। फुलेश्वर महतो, उर्फ़ फुलेसर! हमारी शाखा का दैनिक मजदूर। रोज 132 रुपये पाने वाला।
अगर फुलेसर जी की मृत्यु हो जाये, तो दाह संस्कार के समय उनके शव को कोई चिता की लकड़ियों से अलग पहचान भी पायेगा, शंका होती है। सूखी पतली काली पड़ गयीं लकड़ियों पर तेल लगा दिया जाये, ऐसा उनका रंग।अंगूठे और तर्जनी को मिला कर जितनी अधिकतम गोलाई बनाई जा सकती है, इतने पतले- पतले हाथ। पैर इनसे थोड़े पुष्ट। शरीर का कोई अंग शायद ही होगा, जहाँ से शिराओं के दर्शन न होते हों। जीव-विज्ञान की प्रयोग-शाला मे अगर किसी जीवित व्यक्ति के ही शरीर से हड्डियाँ गिन लेने का प्रचलन होता, तो संभवतः सभी विद्यार्थियों के सबसे प्रिय 'सब्जेक्ट' यही होते।
चेहरा देख कर विस्मय होता है, एक ही चेहरे पर कितनी चिंताओं की लकीरों को प्रश्रय मिल सकता है। न न शायद त्वचा अत्यधिक सूख जाने के कारण ही इतने सारे वक्र उत्पन्न हो गये होंगे। चेहरा देखने पर प्रतीत होता है जैसे किशमिश बन गया हो। कोटरों में धंसी निर्जीव सी पीली पड़ी आँखें, कुछ अधिक ही बड़ी प्रतीत होतीं हैं। पुरे शरीर में आँखों के वर्ण का साथ देते पीले दांत!
फुलेसर जी लगभग घिसट कर धीरे- धीरे चलते हैं। कैशियर मिश्रा जी (उपनाम बाबा) का कथन सुनिए "हे ऐ अनमैस(अनिमेष) बाबू! देखते हैं, ई बुढ़वा कितना बरजात (शायद बदजात का अपभ्रंश, मुझे भी नहीं पता) है। कितना लूसुर-लूसुर काम करता है। (कुल जमा पाँच लोगों में मुझे किसी से कोई खास सरोकार नहीं, मैं निर्विकार बना रहता हूँ। मन तो करता है, मिश्रा जी से उनकी कार्यकुशलता की चर्चा करूं, पर मिश्रा जी तो मेरे पिता से भी छह वर्ष बड़े हैं, सोचकर चुप रह जाता हूँ।) खाली बैठे दफ़्तरी मुकेश जी के गले के खंखार मे उलझी और होंठों में दबे खैनी के रस से सनी आवाज आती है "आँ.... हाँ... नाय ठिक्के बोलते हैं!"
इतने दिन हो गये, आज तक मुकेश जी को कोई बात गलत भी लगती हो, मैंने नहीं देखी। शायद उनकी जिव्हा ने "आँ... हाँ... नाय ठिक्के बोलते हैं" से अधिक कुछ न बोलने का प्रण लिया हुआ था।
एक दिन यूँ ही मिश्रा जी से पूछ लिया मैंने "बाबा फुलेसर जी सत्तर बहत्तर साल के तो जरुर होंगे? चल भी नहीं पाते हैं ढंग से।"
"हें-हें! अनमैस बौस! कमती बुझते हैं ई बुढ़वा को, एक नम्बर का इश्कबाज आदमी है। वैसे ई साँझ को जल्दी भागता है। फुलझरी(गाँव के पास के पहाड़ का नाम) पर जा कर 'हरिन' का शिकार करता है ई। अभी आपको कुछ टेर नहीं है। छौड़ा जब तक लोट-पोट, बुढ़वा तब तक तीन.....!(आगे की बातें कानों से टकरा कर लौटने लगीं।) संयत हुआ, तो मिश्रा जी की लम्बी "हिं हिं हिं हिं ईँ........" और मुकेश जी की थूक खंखार लिपटी "वा... री.... बाबा...!" सुनाई देती है।
छिः मुकेश जी की आवाज मन में घृणा उत्पन्न करती है। ये आदमी आखिर अपना गला क्यों नहीं साफ़ करता है। मन करता है किसी लकड़ी से इसका गला और मुह सब साफ़ कर डालूं।
बाबा और फुलेसर जी मे हमेशा छत्तीस का आंकड़ा दिखाई पड़ता है। बाबा अंदर तो फुलेसर जी बाहर बरामदे में, बाबा बरामदे में, तो फुलेसर जी और बाहर एकदम सड़क पर निकल जाते टहलने के लिए। इतना कोंचते ही हैं मिश्रा जी उन्हें। कभी नाम ले कर नहीं बुलाएँगे उनको। हरदम "ऐ दरोगा..", "जजवाड़े जी...!", "ऐ हो रिंग-मास्टर...", और न जाने किन किन सम्बोधनों से बुलाया करते हैं। पीछे से खैनी की पीक में डूबी मुकेश जी की घिनौनी हँसी "फिक्क....हूँ हूँ हूँ...!"
फुलेसर के गाँव से एक दिन एक लड़का आता है। कहता है "अरे बाबा! तोयं हैये हीँ, तोर साथिक सब भगवान ठिने जय लागलो!"
"पहले अप्पन बप्पाक कहीने जाएले! मादर...! (भद्दी सी गाली दी फुलेसर जी ने।)
मिश्रा जी सब काम छोड़ कर काउन्टर से खड़े हो गये। बोला "अभी तो फुलेंसरोंक बरतवार घुमे छें। अभी ई केशटा रंगिक शादी करतौं!"
"वा... री... बाबा...! मुकेश जी ने खानापूरी कर दी।
एक दिन तो हद ही हो गयी। नए मैनेजर साहब को आये सप्ताह भी नहीं बीता होगा। उन्होंने किसी करणवश फुलेसर जी को आवाज लगायी। बेचारे नहीं सुन पाए होंगे। मिश्रा जी ने कहा "हे ऐ सर! इरंग ई बुढ़वा नांय सुनतौं। एकरा फूलन देवी कहींक देखौं सूनी जितौं।(मेनेजर साहब और मिश्रा जी अपनी आंचलिक भाषा में ही बात किया करते हैं।) मुकेश जी ने उपस्थिति दर्ज करवाई "आँ.. हाँ... नय ठिक्के बोलते हैं!"
कल सारे खर्चों के वाउचर बन रहे थे। मेनेजर साहब ने मिश्रा जी से कहा "मीसर जी! फुलेंसरोंक भौचर भरीं दिहो। उनतीसे दिनाक भरियो, दू दिनाक नागा छीके।"
"हे ऐ सर! गरीब छीके।"
"ना ना मिसर जी! जे रुल छिके, से रुल छिके! कोनों हामर बांपोंक पैसा ना ने छिके जे दे दिए। बैंकोंक टाका छिके। हम्मे ना पारबों दीयेल!"
"जीरंग कहबों सर!"
मैं निर्विकार, मुकेश जी अखबार में डूबे हुए।
आज मेनेजर साहब छुट्टी पर थे। फुलेसर जी मेरे पास आए और पूछा "साहब पैसा चढ़ा दियें हैं?"
"हाँ फुलेसर जी! उनतीस दिन का" मैंने कहा।
"ऐ साहब! हम तो आपको बताकर छुट्टी कियें थे जिस दिन भाई मर गया था। और एक दिन तो गाड़िए बंद था, बारह किलोमीटर पड़ता है। पैदल कितना चलते।"
मैं ग्लानि में डूब गया। लगा किसी ने नाख़ून से छाती चीर कर कलेजे को मुट्ठी में भींच लिया हो।
"आर उस दिन छब्बीस जनवरी को रविवार था, पर हम आएँ थें।"
कैसे भूलूं वह दिन। बाकी के स्टाफ घर चले गये। मुझे निर्देश दे गये "गुप्ता जी झंडा फहरा दीजियेगा।" उफ़्फ़! कैसे करूंगा यह सब अकेले। फुलेसर जी ने ही कहा था बस! "साहब हम आपसे पहले आ जायेंगे, सब तैयारी कर देंगे। चिंता मत करिये।"
फुलेसर जी ने और कुछ नहीं कहा। चुपचाप बाहर बेंच पर बैठ गये। दोनों घुटने छाती पर चिपकाए।
दोनों हाथों से घुटनों को घेरे।
वही हल्की नीली चेकदार शर्ट, दायें सीने पर जेब से बस ऊपर छोटा सा पैबंद! हल्की स्लेटी पैंट। अपनी बदहाली सुनाते "स्पोर्ट-शूज", छह दिन लगातार पहनते हैं। और शायद रविवार धो कर पुनः छह दिन। जबसे आया हूँ तब से देख रहा हूँ। मुझे सहसा 'होली मदर्स एकेडमी' में गुजारे अपने अंतिम वर्ष याद हो आये। वही बदहाली! खैर छोड़ो वह बात....!
आँखों में नमी तैर गयी। कह नहीं सकता अपने भूत के लिए, या फुलेसर जी के वर्तमान के लिए।
264 रूपये। कितने होंगे! मैंने अन्दाजा लगाया। मेरी बुरी लत पर 22 दिन का खर्च! दादी के हाथ पर रख दूँ, तो आँखों में चमक! अरे इतने में तो मैं एक जोड़ी नयी चप्पलें ले लूँ! मैंने अपनी पुरानी चप्पलों को देखा। इतने में तो चार दिन खा सकता हूँ यहाँ के होटलों में।
फुलेसर जी भी संभवतः ऐसा ही कुछ हिसाब लगा रहे थे शुन्य में ताकते हुए। पर वो कुछ कतर-व्योंत कर रहे होंगे। बेचारे...!
मिश्रा जी ने उन्हें आज एक भी बार नहीं छेड़ा है।
"हे रे! मुकेश! ई जो काम हुआ है, बहुत अन्याय हुआ ई बुढ़वा के साथ....! सुनते हैं अनमैस सर...! ई हमरा सरभीस का पन्द्रहवां मैनेजर देखे हैं, इस तरह का काम कोई आज तक नहीं किया है...... फलां फलां फलां...!"
आँ.... हाँ... नाय ठिकके बोलते हैं!" आशा के अनुरूप मुकेश जी बोले।
फिर नीरवता छा गयी। एक घुटन अंदर, एक घुटन बाहर। सबने अपने अपने हिस्से की सहानुभूति प्रकट कर दी, पर मैं चुप रह गया। फुलेसर जी पर जैसे इन शब्दों का असर ना होना, मेरी बेचैनी बढ़ाने लगा। मैं आखिर क्या कहूँ? किसे दोष दूं? मैनेजर साहब ने क्या गलत किया? मिश्रा जी आखिर उनसे क्या कहते? फुलेसर जी आखिर क्यों उदास ना हों? मेरे पास शब्द भी नहीं। पहली बार अपने शब्दों के कंगाल होने पर खीज उत्पन्न हुई। मैं किसी को सांत्वना तक नहीं दे पाता।
"बाबा आठ सौ रुपया दीजिये।" मैंने निकासी फॉर्म मिश्रा जी को दी।
"पर इसमें तो एक हजार लिखें हैं अनमैस जी!" मिश्रा जी ने कहा।
"हाँ! दो सौ फुलेसर जी को दे दीजिये।" मेरा संक्षिप्त उत्तर।
"हे रे मुकेश! ई अनमैस सर पाकिट से दे रहे हैं फुलेसर को!"(आगे की बातें सुनने की इच्छा नहीं हुई, मैं बाहर निकलने लगा।)
"आँ... हाँ...नाय ठिक्के बोलते हैं।" यह सुन लिया मैंने।
मिश्रा जी की आवाज बाहर तक सुनाई पड़ती है "ऐ दरोगा....! जजवाड़े जी...!
लगता है माहौल पहले जैसा हो गया है...!
अनिमेष कुमार गुप्ता।
सुन्दर रचना
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