सिस्टम आदमखोर, जि़न्दगी दूभर है, कविता को हथियार बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के। असुरों के आगे विनती में हर स्वर है, क्रान्ति-भरे फिर ...
सिस्टम आदमखोर, जि़न्दगी दूभर है,
कविता को हथियार बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
असुरों के आगे विनती में हर स्वर है,
क्रान्ति-भरे फिर भाव जगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
कान्हा है यदि मौन, भार अब तुझ पर है,
घटता द्रौपदि-चीर बढ़ा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
सुन ले फिर पाश्चात्य-सभ्यता घर-घर है,
श्रेष्ठ सनातन मूल्य बचा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
भरा हुआ दुःख से खुशियों का अन्तर है,
मन पर भारी बोझ, हटा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
पापों की बुनियाद खोखली, पल-भर है,
जग को अब ये बात बता तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
सच है नाव-सवार, नाव जल-भीतर है,
नैया सच की पार लगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
साँस-साँस पर आज लोटता विषधर है,
दंश न मारे, बीन बजा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
हर पापी के हाथ विष-बुझा खंजर है,
‘सच’ भोला इन्सान, बचा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
कहाँ छुपा काले धन वाला अजगर है
मुद्दा संसद बीच उठा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
‘महिषासुर’ भर रहा हृदय में फिर डर है,
माँ दुर्गे को जगा, जगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
संसद में खर्राटे भरे मिनिस्टर है,
इसको तीखा मज़ा चखा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
क्यों जूए-सा बोझ रखा कंधे पर है,
मत जीवन बदहाल बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
घुड़की देता हुआ समय अब बन्दर है,
मत घुड़की पै माथ नवा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
इस सिस्टम के पास लूट का मंतर है,
मत इसकी बातों में आ तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के |
राम-नाम का ढोंग हृदय के भीतर है,
इस ‘शबरी’ के बेर न खा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
दे लंका में आग जहाँ सब बदतर है,
बन कपीश इस बार दिखा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
आग आँधियों को आयी अब लेकर है,
अपने छप्पर-छान बचा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
संवेदन से दूर भावना पत्थर है,
स्पंदन-हित बुद्धि लगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
अब चीज़ों का भाव पहुँच से बाहर है,
क्या पीयेगा दूध-मठा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
हवस अमीरों को धन की अम्बर पर है,
अब इनको औक़ात बता तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
ये संसद का बजट वसंती छल-भर है,
बनकर कोयल गीत न गा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
इस निजाम को छेद, भेद ये पल-भर है,
मात-मात-दर-मात न खा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जीवन का आनंद लीक से हटकर है,
बन कोल्हू का बैल चला तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
हर उन्मादी लिये हाथ में खंजर है,
नफरत की दीवार गिरा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
असहायों का यहाँ रुदन में हर स्वर है,
मुस्कानें बस्ती में ला तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
द्रौपदि बैठी जिस जंघा के ऊपर है
क्यों न तोड़ता वो जंघा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जहाँ सरों पर छतें नहीं, बस अम्बर है,
भले झौंपड़ी बने, बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
मुझमें-तुझमें बस इतना ही अन्तर है,
मैं माचिस, बारूद बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
बस थोड़ी ही दूर नूर जल्वागर है,
सोच जहाँ पर आज खड़ा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
इस नुक्कड़-नाटक में परिवर्तन-स्वर है,
मेरे सँग में गोल बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जिसके भीतर खुशहाली का मंज़र है,
उस चिन्तन को पका, पका तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जल्लादों की छुरी हमारे सर पर है,
बड़े बुरे हैं हाल, बचा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
मेरी मति पर कुंठाओं का पत्थर है,
ऐसे मत आरोप लगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
उड़ी पतंगों के पीछे अब लंगर है,
कहीं न हो ये काम बता तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जहाँ प्रेम का बदला-बदला-सा स्वर है,
वहाँ लगी है आग, बुझा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
ये भी जीने का कोई क्या स्तर है,
कदम प्रगति की ओर बढ़ा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
लेकर कच्ची चली ‘सोहनी’ गागर है,
नदिया भरे उफान, बचा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
डाका अबकी बार हमारे हक़ पर है,
दिल्ली को यह बात बता तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
देश लूटता धनिक, सांसद, अफसर है,
अब भारी आक्रोश जता तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
नदी बनी ये बता भला क्यों पोखर है,
पोखर को फिर नदी बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
अपना बल मत भूल कि तू तो नाहर है,
अंधकार दे चीर, बला तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
देख तुझे अँधियार काँपता थर-थर है,
लाया है इस बार प्रभा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
इन्क़लाब का तू ही तो नामाबर है,
परचम सच का उठा, उठा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
महँगाई का बोझ करे तन दुल्लर है,
जमाखोर को सबक सिखा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
वर्षों से ये ही शोषण का मंजर है,
आग-बबूला आज हुआ तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
तू ही तो विष पीने वाला शंकर है,
रच दे फिर इतिहास नया तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
कह दे नेता देश बेचता तस्कर है,
परदा अब की बार उठा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
उसने अपना नाम रखा क्या ‘ईश्वर’ है?
कौन लूटता देश बता तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
क्रान्तिकारियों साथ रही जो जलकर है,
वो ही बुझी मशाल जला तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
असुरों की चर्चा फिर से अधराधर है,
भय का यह माहौल मिटा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
कैसे मानूँ मेरी पीर निरुत्तर है,
जाने सबका हाल, ‘जगा’ तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
मेघनाद-सा गर्जन, रावण-सा स्वर है,
धूल अधम को चटा, चटा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
आज कंश का मित्र बना मुरलीधर है,
इस रिश्ते से खुश है क्या तू लाँगुरिया? गाल छर असुरों के।
कर में ले तलवार दूसरे खप्पर है,
लाश खलों की आज बिछा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
तेरे ही काँधे पै सच की काँवर है,
चल तेजी से पाँव बढ़ा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जहाँ दलदली भूमि कीच या गोबर है,
वहाँ नहीं चादरें बिछा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जिनके सोचों बीच लफंगा-लोफर है,
कर उन बीच न बैठ सभा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
फिर बम का आंतक देख पटरी पर है,
सोच-समझकर कर ट्रेन चला तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
कोई बोले ‘अल्ला’ कोई ‘हर-हर’ है,
बढ़ता हुआ फसाद घटा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
बस थोड़ी दूरी पै अमृत-निर्झर है,
वक्ष चीर दे कुछ तम का तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
एक यही तो रूप सत्य है-सुन्दर है,
‘भगत सिंह’ बन आज दिखा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जहाँ आदमी बेहद दब्बू-कायर है,
वहाँ क्रान्ति की बाँच कथा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
भले दीखती तेरी काया पंजर है,
पहले ऐसा वीर न था तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
छुपा हुआ झाड़ी के पीछे अजगर है,
सच को लेगा लील, भगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के |
सूखे हुए खेत की खातिर जलधर है,
गहरे तम में अग्नि-शिखा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
है रावण-दरबार तुझे किससे डर है,
अंगद जैसा पाँव जमा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
तू है मौला-मस्त, विकट यायावर है,
इन्क़लाब की बहा हवा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
तू नैतिक मूल्यों का सच्चा बुनकर है
ले-ले शब्दों में फरसा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
यह तेरा उपचार श्रेष्ठ अति हितकर है,
लगा घाव पर सही दवा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
ख़ामोशी को लादे गया दिसम्बर है,
नया साल खुशहाल बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
राजनीति का कीचड़ भरा सरोवर है,
इसमें सच का कमल खिला तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
मुख पर कालिख पोत कुकर्मी ये नर है,
यूँ मत रंग-अबीर लगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
हर कउए की दृष्टि तेरी रोटी पर है,
लंगूरों के बीच घिरा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
दाना तो क्या छूछ न आये घर पर है,
रखा रहा ऐसी मक्का तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
महँगाई के कारण जन-जन को ज्वर है,
जनता का संताप मिटा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जो हैं आदमखोर उन्हीं से टक्कर है,
गरेबान तक हाथ बढ़ा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
वो जीतेगा जिसकी चोट निरंतर है,
वही पुराने हाथ दिखा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
इत में घोर अभाव उधर मालोजर है,
सबको एक समान बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
वही देश का शत्रु दिखे जो लीडर है,
मत इसका सम्मान करा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
खिले न कोई फूल, डाल पर पतझर है,
कैसे कहूँ वसंत, बता तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
फिर ‘गौरी’ घोड़े पर आया चढ़कर है,
तान प्रत्यंचा वाण चला तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
सच कहने को मुँह मैंने खोला-भर है,
आगे मेरी बात बढ़ा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
चापलूस औ’ तुझमें भारी अन्तर है,
मत असत्य को माथ नवा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
हर कोई बन गया जहाँ पर मधुकर है,
उन ग़ज़लों के गाँव न जा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
तर आँखों के साथ निर्धनों के घर है,
उस बेटी का ब्याह रचा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
अरे उसे पहचान साधु जैसा स्वर है,
पहन गेरुआ वस्त्र ठगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
तब ही नतमस्तक होगा हर अक्षर है,
भाषा को हथियार बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
इस सिस्टम में पाता न्याय अनादर है,
जिसका पहरेदार बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के |
तेरे घर में चून आज मुट्ठी-भर है,
किसको देगा इसे खिला तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
अँधियारा इस बार हमारा रहबर है,
ग़लत दलीलों बीच घिरा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
इन्क़लाबियों की ये क्रान्ति धरोहर है,
अंगारे से राख हटा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
चीजें दीखें साफ कौन नर-किन्नर है,
कर उजियारा और घना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
इस युग में हर नंग दिखे परमेश्वर है,
नंगे को नंगा कह जा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
चटक रंग के साथ खिला गुलमोहर है,
यूँ ही पानी-खाद लगा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
जीवन तेरा फूटा हुआ कनस्तर है,
चाहे जैसे रोज बजा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
क्यों जि़न्दा नारी की देह चिता पर है,
मत चलने दे ग़लत-प्रथा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
देखें हम भी तेरा अब क्या तेवर है,
अग्निमुखी चिन्तन में आ तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
सही चोट करने का ये ही अवसर है,
घन को भरकर जोश उठा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
मेरी तेवरियों का विद्रोही-स्वर है,
इनके हर तेवर को गा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
मेरी तेवरियों में पावक गोचर है,
हर तेवर को बना ऋचा तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
सौ से ऊपर इस तेवर का नम्बर है,
ऐसी ही तेवरी बना तू लाँगुरिया, गाल छर असुरों के।
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+ रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
Mo.-9634551630
आदरणीय विद्वान् साथियो !
' तेवरी ' ग़ज़ल नहीं है क्योंकि --
' वृहद हिंदी शब्दकोश ' [ सम्पादक- कालिका प्रसाद ] के षष्टम संस्करण जनवरी - १९८९ के पृष्ठ -४९० और ४९३ पर तेवर [ पु . ] शब्द का अर्थ - ' क्रोधसूचक भ्रूभंग ', ' क्रोध-भरी दृष्टि ' , ' क्रोध प्रकट करने वाली तिरछी नज़र ' बताने के साथ-साथ ' तेवर बदलने ' को - ' क्रुद्ध होना ' बताया गया है | ' तेवरी ' [स्त्री. ] शब्द ' त्यौरी ' से बना है | त्यौरी या ' तेवरी ' का अर्थ है - ' माथे पर बल पड़ना ' , ' क्रोध से भ्रकुटि का ऊपर की और खिंच जाना ' |
वस्तुतः तेवरी सत्योंमुखी चिन्तन की एक ऐसी विधा है जिसमें शोषण , अनीति , अत्याचार आदि के प्रति स्थायी भाव ' आक्रोश ' , से ' विरोधरस ' परिपक्व होता है |
कुछ अति ज्ञानी साहित्यकार 'तेवरी ' को ' ग़ज़ल ' का ही रूप मानकर काव्य की इस नूतन विधा पर हमले बोलते आ रहे हैं और ' तेवरी ' को ' ग़ज़ल ' ही मानने या मनवाने पर आमादा हैं | ' तेवरी ' ' ग़ज़ल ' कैसे है ?, वे इस प्रश्न का उत्तर देने से कतराते हैं | वे हर समय तेवरीकारों को कुछ इस तरह गरियाते हैं - " तेवरी - कवि मन - बहलाव के मदारी प्रतीत होते हैं |" [ डॉ. राजेश्वरी शांडिल्य ] या " आप ग़ज़ल को ' तेवरी ' क्यों कहना चाहते हैं ? [ डॉ.सुधेश ]
ऐसे सवालों को लेकर हमारा उत्तर सिर्फ इतना - सा है - " कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और साम्राज्यवादियों से टक्कर लेने वाली रानी लक्ष्मीबाई में क्या अन्तर है , उसे पहचानो | प्रेमिका को बाँहों में भरने के जोश और कुव्यवस्था से पीड़ित आमजन के आक्रोश को एक ही खाने में फिट मत करो | "
हमारे ऐसे ही अनेक उत्तरों को दरकिनार कर ग़ज़ल के महापंडित अन्ततः ऐसे व्याख्यान उतर आये हैं - " बुरा न मानें तो एक बात कहूं - " अब तक पढ़ी तमाम तेवरियाँ . ग़ज़ल का बिगड़ा रूप हैं | " [ज्ञान प्रकाश विवेक ]
तेवरी और ग़ज़ल में मूलभूत अन्तर क्या है , आइये इसे समझने का प्रयास करें -
1. ग़ज़ल का अर्थ है - ' प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत ' , जबकि तेवरी का अर्थ है - ' कुव्यवस्था का विरोध ', इसी कारण तेवरी को समकालीन यथार्थ की सत्योंमुखी प्रस्तुति के रूप में माना - स्वीकारा गया है |
2. तेवरी का स्थायी भाव ' आक्रोश ' और इससे बनने वाले रस का नाम ' विरोध ' है | जबकि ग़ज़ल एक प्रणय - गीत होने के कारण शृंगार रस की विधा है |
3. ग़ज़ल की सम्पूर्ण व्यवस्था में एक ही बहर अर्थात् छंद का समावेश किया जाता है , जबकि तेवरी के हर तेवर [कथित शे'र ] में दो छंदों का समावेश कर सम्पूर्ण तेवरी को दो - दो छंदों में भी लिखा जाने लगा है | तेवरी की पहली , तीसरी , पाँचवीं , सातवीं ....पन्क्तियों में मान लो यदि कोई सोलह मात्राओं का छंद निर्धारित किया गया हो तो दूसरी , चौथी , छठी , आठवीं ... पन्क्तियों में 14 , 18 , 25 , 30 मात्राओं का अन्य छंद प्रयोग में लाया जा सकता है | इस प्रकार ग़ज़ल के छंद से अलग विशेषता वाला पृथक दो पन्क्तियों [कथित मिसरे ] का तेवर [कथित शे'र ] बनाया जा सकता है | कम से कम मेरी तेवरियों में इस विशेषता का आलोक आपको अवश्य मिलेगा | मेरी प्रस्तुत तेवरी या तेवरियों में एक नहीं अनेक नये छंदों का मकरंद आप सबको चकित कर सकता है | नया या नये छंद का नाम क्या है या होना चाहिए , सुधिजन बताने का कष्ट करते हैं तो मुझ पर कृपा होगी |
6. तेवरी के हर तेवर में एक नहीं दो-दो स्वरांत [कथित काफिये ] भी अब तेवरी की शोभा बढ़ाने लगे हैं , जबकि ग़ज़ल के हर शे'र में एक ही काफिया आता है | ठीक यही व्यवस्था तेवरी के समान्त [ कथित रदीफ़ ] पर भी लागू होती है |
इस व्यवस्था से उलट कहीं - कहीं ग़ज़ल के रदीफ़ - काफियों जैसी व्यवस्था यदि तेवरी में दृष्टिगोचर होती भी है तो यह व्यवस्था ' कवित्त ' में भी मिलती है | क्या ' कवित्त ' को ग़ज़ल कहने या मानने का साहस किसी में है ??
7. तेवरी में गीतात्मकता पायी जाती है अर्थात् इसके सारे तेवर एक दूसरे के पूरक बनकर सम्पूर्ण कथ्य को पूर्णता प्रदान करते हैं , जबकि ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपनी स्वतंत्र सत्ता लिये हुए होता है |
ग़ज़ल से पृथक तेवरी की इन सारी विशेषताओं को दरकिनार कर अगर कोई ग़ज़ल का जानकार तेवरी को फिर भी ग़ज़ल मानता है तो उसे 'नाटक ' और ' एकांकी ' , 'लघुकथा ' और ' लघुकहानी ' तथा 'चुटकला ' और ' व्यंग्य ' के अन्तर को ध्यान में रखते हुए यह बताना ही चाहिए कि ग़ज़ल की हू - ब - हू नक़ल ' हज्ल ' ग़ज़ल से अलग विधा कैसे और क्यों है ??
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