“ प्रत्येक सत्यशोधक को अपने हृदय में एक मठ बनाना चाहिए । और दिन में एक बार उसमें बैठकर , विश्राम करना चाहिए । सत्य विवाद पटु लोगों का खिल...
“ प्रत्येक सत्यशोधक को अपने हृदय में एक मठ बनाना चाहिए । और दिन में एक बार उसमें बैठकर , विश्राम करना चाहिए । सत्य विवाद पटु लोगों का खिलौना नहीं है । जिस व्यक्ति ने आत्म ज्योति नहीं जगायी , वह अध्यात्मजगत का दर्शन भी नहीं कर सकता । अध्यात्म , सत्यान्वेषक के जीवन के कला-सौंदर्य , धर्म दर्शन और पूर्णता को प्रगट करता है । “
इन विचारों को रचने वाले थे – भारत के महान दार्शनिक डा. राधाकृष्णन , जिनके अनुभूत सत्य और अध्यात्मिकता के झलक , उनके जीवन में मृदुता और दृढ़ कर्तव्यनिष्ठा के समन्वय के रूप में प्रतीत किया गया । उसके लिए प्रकृति आज भी कह रही है कि डा.राधाकृष्णन एक महा मानव , युग ऋषि और बींसवी सदी के महान आचार्य थे । अमेरिका के प्रेसीडेंट – उडरो विल्सन , चेकोस्लोवाकिया के प्रेसीडेंट –जान मसारिक और आयर्लैंड के प्रेसीडेंट – डीलेबरा भी पहले शिक्षक थे । भारत का भी एक शिक्षक , जो विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे , जिन्होंने 12 मई 1962 को राष्ट्रपति पद की शपथ लेकर गुरूता को महिमामंडित किया , वे महामहिम डा. राधाकृष्णन इस श्रृंखला में सर्वोपरि हैं ।
सन 1908 से 1948 अर्थात 40 वर्षों तक आपके शिकषकीय जीवन का लाभ न केवल भारत , बल्कि विश्व के अधिकांश देशों ने निर्बाध रूप से प्राप्त किया , वह उल्लेखनीय है । सन 1908 से 1927 तक प्रेसीडेंसी कालेज मद्रास में व्याख्याता , सन 1918 से 1921 तक मैसूर के महाराजा कालेज में दर्शन के प्रोफेसर ,1922 से 1930 तक पोस्ट ग्रेजुएट कौंसिल इन आर्ट्स के अध्यक्ष , सन 1931 से 1935 तक आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति , सन 1936 से 1938 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और्र ब्रिटिश साम्राज्य के विश्व विद्यालयों के कांफ्रेंस के प्रतिनिधि , सन 1939 से 1948 तक हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति का गुरूतर भार आपने सहज निर्वाह किया ।
एक ही व्यक्ति, एक ही समय में दुनिया के दो महादेशों के दो विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर हों , यह अपूर्व बात थी । सन 1932 से 1940 तक आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के स्पालडिंग चेयर आव ईस्टर्न रिलीजन एंड एथिक्स के प्रोफेसर थे , इसके साथ ही साथ कलकत्ता वि.वि. में भी आप दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर के रूप में व्याख्यान देते थे । प्रायः प्रत्येक वर्ष जनवरी से जून तक इग्लैंड जाकर और शेष महीने भारत में रहकर अध्यापन करते थे । भारत के इस महान आचार्य की विशिष्ट गरिमा तब और अधिक चर्चित हुई , जब आप पश्चिम के चकाचौंध से बिना आक्रांत हुए , विदेश पढ़ने नहीं , पढ़ाने जाने के अपने संकल्प को आपने पूर्ण कर दिखाया । दार्शनिक डा. राधाकृष्णन ने भारत का निर्माण , भारतीयतत्वों द्वारा किए जाने पर विश्वास व्यक्त किया । आपने यह प्रमाणित कर दिखाया कि भारत अतीत में ही नहीं , वर्तमान में भी विश्व को मार्गदर्शन देने की अप्रतिम क्षमता रखता है । विश्व गुरू पद के सम्मान को भारत के सम्मान के रूप में स्वीकार करते हुए , भारत के भविष्य निर्माता शिक्षकों के लिए आपने आदर व्यक्त किया। भारत के महामहिम राष्ट्रपति पद पर आरूढ़ डा. राधाकृष्णन से जब निवेदन किया गया कि राष्ट्र आपका जन्मदिन मनाना चाहता है , तब आपने तत्काल कहा कि मैं चाहता हूं कि वे एक शिक्षक के रूप में याद किये जावें । उन्होंने अपना जन्मदिन 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की स्वीकृति प्रदान की । शिक्षा और शिक्षकों का वे स्वयं कितना आदर करते थे , इस प्रसंग से उजागर होता है ।
डा. राधाकृष्णन को संत दीक्षिसार से अध्ययन और अध्यापन की अच्छी प्रेरणा मिली । सनातन धर्म के उन्नायक स्वामी विवेकानंद के अद्भुत साहस और वाग्मिता से भी आप विशेष प्रभावित रहे । उनमें अपनी कुशाग्रता और विलक्षणता तो थी ही , ऋषियों की तरह मंत्र दृष्टा उनके अपने चिंतन ने उन्हें विश्वविख्यात दार्शनिक , पूर्व – पश्चिम का समन्वयक और विश्व संस्कृति का शिक्षक बना दिया ।
विश्वविद्यालयोंके दीक्षांत समारोहों में जब वे भाषण देने के लिए बुलाये जाते थे तब वे स्नातकों से कहा करते थे – “ सम्प्रति यथेच्छसि तथा कुरू यथेस्ट बरतो: “ सामाजिक दर्शन को , अध्यात्म के सार्वभौमिक सत्य और मानवीय मूल्य के रूप में ग्रहण कर , इसी रूप में अपने छात्रों को आप शिक्षा देते थे । डा. राधाकृष्णन के व्याख्यानों को सुनने के बाद शिष्यगण कहा करते थे कि , हमारा प्रोफेसर सर्वाधिक विलक्षण है । गवर्नमेंट आर्ट कालेज राजमहेंद्रम के स्नातक छात्र लोग “ मोस्ट वंडरफूल” कहते थे , अपने इस प्रोफेसर को । मैसूर के छात्रगण आपको शुचिता और पवित्रता की प्रतिमूर्ति मानते थे । डा. राधाकृष्णन जी , भागवत धर्म स्वरूप लगते थे सभी को ।
डा. राधाकृष्णन जी सर्व सुलभ और छात्रप्रिय शिक्षक थे । आपके व्यवहार से शिष्यगण मुग्ध हो जाते थे । अपने पूज्य गुरू के प्रति उनके शिष्यों द्वारा व्यक्त किए गये अद्वितीय सम्मान का उल्लेख आज के संदर्भ में अत्यंत उपयोगी , प्रासंगिक और प्रेरणास्पद होगा ।
गुरू शिष्यों के मध्य आत्मिक सम्बंध था । जब प्रोफेसर डा.राधाकृष्णन ने मैसूर से कलकत्ता जाने का निश्चय किया और छात्रों को इसका पता लगा तो उन्होंने अपने आपको अनाथ अनुभव किया । युवा विद्वान प्रोफेसर के प्रति , छात्रों की अगाध श्रद्धा व प्रेम का सागर उमड़ पड़ा । विदा होने गाड़ी में बैठे प्रोफेसर की गाड़ी को खींचने के लिए छात्रों में होड़ लग गई । गुरू के लिए भी यह अपूर्व क्षण था । गुरू की बिदाई के दुख से दुखी छात्र श्रद्धायुक्त अश्रुपूरित नयनों से निहारते , उनकी गाड़ी को खींचते स्टेशन तक पहुंचाया । इस अदभुत और अपूर्व दृश्य को देखकर युवा प्रोफेसर के साथी और दर्शक गण सभी विस्मित रह गए । यह एक अकल्पनीय दृष्य था । छात्रगण जोरों से अपने गुरूदेव डा. राधाकृष्णन की जय कहना चाहते थे , किंतु रूंन्धे कंठ के कारण जयघोष उच्चारित नहीं कर पा रहे थे ।
उन दिनों विश्व के राष्ट्र नायकों द्वारा की जाने वाली सैनिक , राजनैतिक और आर्थिक कार्यवाहियों के कारण विश्व मानव समुदाय में बढ़ रही उदासीनता , भय , संसय और अशांति को देखकर , चिंतित होकर समाधान की पहल करने कराने वालों में केम्ब्रिज वि.वि. के भूतपूर्व कुलपति केनन से.ई. रेवन के साथ एक प्रमुख व्यक्ति डा. राधाकृष्णन भी थे । इस समय आप आक्सफोर्ड वि.वि. में प्राच्य धर्मों और आचार शास्त्र के स्पालडिंग प्रोफेसर और संयुक्त राष्ट्र शिक्षा विज्ञान एवं संस्कृति संस्था ( यूनेस्को) के उपप्रधान भी थे ।
“ प्राणी मात्र की रक्षा और विश्व संस्कृति की विकास के साथ , मानवीय महान लक्ष्यों की सिद्धि के लिए आवश्यक है –पूर्व पश्चिम सूदूरपूर्व की , मध्य पूर्व की , प्राचीन भारत और ग्रीस के , स्लाव , लेटिन ,नार्डिक – यूरोप , उत्तरी और लेटिन अमेरिका और इस प्रकार सारे विश्व की महान संस्कृतियों का निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया जावे , उनकी फलप्रद व उपयोगी विभिन्नताओं की रक्षा करते हुए समान्वित निष्कर्षों को विश्वभरके छात्रों के लिए स्तरके अनुसार शैक्षिक पाठ्यक्रमों में समाहित किया जाना चाहिए । नैतिक शिक्षा के द्वारा चरित्रवान व्यक्ति और योग्य नागरिकों के निर्माण होने पर , राजनीति के अपराधीकरण के दुष्परिणाम से , विश्व संस्कृति को बचाया जा सकता है “ – आक्सफोर्ड में विश्वहित चिंतकों के समक्ष 18 जनवरी 1951 को डा राधाकृष्णन ने यह विचार व्यक्त किया था ।
काहिरा के प्रेसीडेंट नजीब से बिदा लेते हुए डा. साहब ने कहा था- शक्ति और अधिकार स्थायी नहीं है । उसे अथायित्व तभी प्राप्त होता है जब उसका नैतिक आधार हो ।
धर्म के सम्बंध में वे कहा करते थे – कि धर्म वास्तव में वायलिन के तार के समान है । यदि इस तार को हटा दिए जाए तो इसकी ध्वनि अंग से क्या स्वर निकलेगा ? डा. साहब ने जिस धर्म को स्वीकार व प्रचार किया है वह – सार्वभौम मानव धर्म । वे कहा करते थे कि भारत अमर राष्ट्र है । राम , कृष्ण , महावीर , गौतम और गांधी जैसे महान व्यक्तियों का देश “ भारत “ , रोम ग्रीस मिश्र के समान यह कभी विलुप्त नहीं हो सकता ।
आबेरिलीन कालेज में इनके स्वागत के समय बताया गया कि आप महान गणराज्य भारत के प्रसिद्ध नागरिक , विश्व प्रसिद्ध तत्वज्ञानी – शिक्षक , विश्व के राष्ट्रों में शांति स्थापित कराने वालों में अग्रणी , अंतर संस्कृति विनिमय के महान प्रचारक , अनुपम और अतुलनीय व्यक्ति हैं ।
भारत में ईसाई मिशनरी भेजने के प्रस्ताव के उत्तर में इंग्लैड के एक पादरी ने कहा था कि भारत में डा. राधाकृष्णन जैसे धर्म के सच्चे ज्ञाता हैं तब हमें अपने धर्म प्रचार के लिए मिशनरियों को भेजने की आवश्यकता ही नहीं है ।
उत्तर पश्चिम रेडियो जरमनी से बोलते हुए डा. युंग ने कहा था कि डा. साहब उन महान पुल निर्माताओं में से एक हैं जिनकी युग को सर्वाधिक आवश्यकता है । 1939 में लंदन के टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट के सम्पादक ने लिखा था – कि डा. साहब ने उच्चतर बौद्धिक सिद्धि प्राप्त कर ली है । वे आत्मा के अधिक परिस्कृत गुणों से युक्त हैं । मार्शल सटालिन का मत था – कि डा. साहब निडर और निर्भय व्यक्ति हैं । वे महान वक्ता , आदर्श लेखक और श्रेष्ठतम विचारक भी हैं । साधारण लोगों के लिए यह विस्मय जनक जरूर है , किंतु यह सब निर्विवाद है ।
एक बार गांधी जी ने , इनसे आदर्पूरवक कहा था कि मैं आपसे कुछ प्रश्न , अर्जुन के रूप में कर रहा हूं । आप मेरे कृष्ण हैं , मैं आपका अर्जुन , धर्मसमूढ़चेता हूं । कबिबर रविंद्र जी ने लिखा है – 20 वीं सदी का यह महान आचार्य सार्वभौम धर्म के प्रचारक हैं । महामना मालवीय जी ने डा. राधाकृष्णन जी को मूरतिमान मानव धर्म निरूपित किया । उनकी बहन श्रीमति कृष्णामूर्ति जी ने कहा करती थीं कि मेरे भाई डा. राधाकृष्णन , केवल दार्शनिक नहीं वरन कला मर्मज्ञ , साहित्य सर्जक और कला साहित्य को सक्रिय प्रोत्साहन देने वाले विश्व मानव संस्कृति के प्रचारक भी हैं । भवभूति ने ऐसी ही प्रकृति के पुरूषों के लिए लिखा है -
ब्रजादपि कठोराणि , मृदूनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतासि , को हि विज्ञातुमर्हति ॥
गीता के ज्ञान कर्म और भक्ति तीनों का समन्वय यदि एक ही जगह देखना हो तो डा. राधाकृष्णन का दर्शन चाहिए ।
गजानंद प्रसाद देवांगन ,छुरा
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