० हिन्दी को आत्मा में पिरोने की जरूरत... हर वर्ष हिन्दी-दिवस अथवा हिन्दी पखवाड़े पर हमारा मन अचानक ही अपनी मातृभाषा के लिए तड़प उठता है। व...
० हिन्दी को आत्मा में पिरोने की जरूरत...
हर वर्ष हिन्दी-दिवस अथवा हिन्दी पखवाड़े पर हमारा मन अचानक ही अपनी मातृभाषा के लिए तड़प उठता है। वर्ष भर भले ही हम छोटे-छोटे अभिवादन अथवा स्वागत सत्कार के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी ज्ञान की गंगा प्रवाहित करने का प्रयास करते रहे हैं किन्तु 14 सितम्बर के आते ही या उससे कुछ पहले ही हम हिन्दी के ऐसे शब्दों का प्रयोग शुरू कर देते हैं, जिसका मतलब भी शायद हम नहीं समझते हैं। अब तो व्हाट्सअप आ जाने के बाद से बड़े-बड़े संवाद और प्रवचन भी हिन्दी का गुणगान करते हुए भेजे जाने लगे हैं। इस बात को देश का प्रत्येक नागरिक स्वीकार करेगा ही कि राष्ट्र को दृढ़ और बलवान बनाने के लिए सांस्कृतिक एकता का होना अति-आवश्यक है, जिसके लिए राष्ट्र की भाषा तथा लिपि विशेष अंग की तरह होना भी जरूरी है। राष्ट्रीय भाषा के बिना किसी राष्ट्र के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस संबंध में तुर्की नागरिक श्रीमती खालीदा अदीव खानम का यह कहना है कि तुर्की जाति और राष्ट्र की एकता तुर्की भाषा के कारण ही विस्तृत हुई, यह हर देश के लिए एक समझ का विषय होना चाहिए। हमारे लिए यह बड़े विडम्बना की बात है कि हम अब तक अपनी राष्ट्रीय भाषा को मान्यता नहीं दिला पाये हैं, ऐसे में राष्ट्रीयता का दावा खोखला ही रहेगा।
किसी भी देश की राष्ट्रीय भाषा और उसकी एकता ही सांस्कृतिक एकता का प्रधान स्तंभ मानी जाती है, जो देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक बोली और समझी जाए। हमारे हिन्दुस्तान में कोस-कोस पर बदले पानी और चार कोस पर बानी वाली कहावत आज भी फलीभूत हो रही है। भिन्न-भिन्न प्रांतों में जो भाषाएँ प्रचलित है, उनमें राष्ट्रीय भाषा बनने की योग्यता तो है ही नहीं, किन्तु हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा होने से रोकने के सारे गुण विद्यमान है। कारण यह है कि हमारा संविधान उन्हें ताकत देते हुए कहता है कि हिन्दी उसी दशा में राष्ट्रीय भाषा का स्थान पा सकती है जब सारे प्रदेश उसे राज-काज की भाषा के रूप में स्वीकार कर लें। हमारी भाषा हिन्दी जो अभी राष्ट्र भाषा नहीं राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है देश के बहुत बड़े हिस्से में बोली जाती है, और उससे भी कहीं अधिक बड़े भाग में समझी जाती है। हमारे देश में अभी भी हमारी भाषा का तीन स्वरूप दिखायी पड़ रहा है और वह है -उर्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तानी। तीनों ही स्वरूपों के पक्षपाती और समर्थक भारी तादाद में मौजूद हैं, और खींचतान का दौर अब तक चल ही रहा है।
हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल पाने के पीछे हमारी अपनी दूषित मानसिकता ही शायद अब तक काम कर रही है। प्रभुता की इच्छा तो हर प्राणी में होती ही है। अंग्रेजी भाषा ने इसका द्वार खोल दिया है और हमारा शिक्षित समुदाय चिडिय़ो की मुख की तरह उस द्वार के अंदर घुसकर जमीन पर बिखरे दाने चुगने लगा है, और स्थिति यहाँ तक पहुंच चुकी है कि अब वह कितना भी फडफ़ड़ाए, उन्हें गुलशन की हवा नसीब नहीं हो रही है। उनके पंख निर्जीव हो गये हैं, उनमें उडऩे की शक्ति नहीं रही, वह भरोसा भी नहीं रहा कि वह दाने बाहर मिलेंगे भी या नहीं? जहाँ तक मेरी सोच का सवाल है अपनी भाषा का दर्द आम-आदमी से दूर हमारी केन्द्र में बैठी सरकार भी महसूस नहीं करना चाह रही है। केन्द्र सरकार और योजनाकारों पर मैं इस आरोप को मढऩे से तनिक भी भय नहीं रखता हूं। कारण यह कि लाखों की संख्या में देश के अन्दर केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सी.बी.एस.ई.) का संचालन कर रही केन्द्र सरकार ने पहले तो हिन्दी के अंकों को चलन से बाहर कर दिया और अब उस प्रयास में निरंतर लीन है कि किसी तरह हिन्दी भाषा को एक विषय के रूप में भी लोग भूल जाएँ। जी-हाँ कक्षा नवमीं-दसवीं से ही हिन्दी विषय को हटा दिया गया है। कक्षा ग्यारहवीं-बारहवीं में अपने तीन मुख्य विषयों के साथ विद्यार्थी को पी.ई. अथवा फिजिकल एजुकेशन या आई.पी. इन्फर्मेशन प्रेक्टिस विषयों में से एक को चुनना होता है। इन विषयों के बीच अंग्रेजी अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल है। यह बात मालूम न हो कि हिन्दी भी आई.पी. और पी.ई. के स्थान पर पढ़ी जा सकती है, ऐसा मुझे नहीं लगता, किन्तु राष्ट्रभाषा के प्रति उदासीन रवैया हटाये नहीं हट रहा है।
अपनी मातृभाषा के लिए जब मैं यह लेख लिखने बैठा हूँ तो अपना कर्तव्य मानते हुए यह बताना भी लाजिमी महसूस करता हूं कि विश्व में हिन्दी को लेकर किसी प्रकार की हेय विचारधारा नहीं है। स्वयं हमारे देश में प्रतिवर्ष हजारों विदेशी हिन्दी सीखने आते रहे हैं। पूरी दुनियाँ आज हमारी मीठी भाषा हिन्दी का स्वाद चखना चाहती है। अमेरिका जैसे बड़े किंतु जनसंख्या में हमारे किसी एक प्रदेश की तुलना में कही कम नजर आता है, वहाँ भी 100 से अधिक हिन्दी स्कूलों का संचालन हो रहा है। कनाडा में भी लगभग 15 स्कूल हिन्दी माध्यम के बताये जाते हैं। इतना ही नहीं मॉरीशस में विश्वविद्यालयों ने भी हिन्दी भाषा को महत्व देते हुए 24 विश्व विद्यालयों की स्थापना कर दी है। आस्ट्रेलिया जैसे राष्ट्र में भी 100 के लभगभ हिन्दी शिक्षण संस्थान काम कर रही है और अपनी पीढ़ी को हिन्दी भाषा का ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। सारी दुनियाँ ने जहाँ हिन्दी को प्यार दिया है या देना शुरू कर रही है वहीं हमारे अपने देश में हिन्दी भाषा को लेकर कुछ विशेष न किया जाना किसी आश्चर्य से कम नहीं है। बावजूद इसके न जाने क्यों हमारे अपने देश में ही हिन्दी के साथ माँ नहीं मौसी जैसा व्यवहार किया जा रहा है।
हमारे देश के कर्णधारों का मानना है कि विकास की सीढ़ी अंग्रेजी के सहारे ही चढ़ी जा सकती है, जिसे मैं कदापि सहीं नहीं मानता। यदि ऐसा होता तो जापान, चीन और ईरान जैसे राष्ट्र सभ्यता की हर पायदान पर हमसे आगे न होते। कारण यह है कि इन देशों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं बल्कि उनके मुल्क की अपनी भाषा ही है। मैं अधिक जज्बाती न होते हुए इतना ही कहना चाहता हूँ कि जिस दिन मेरे अपने देश के नीति नियंताओं अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व को तोड़ देंगे और अपनी एक कौमी भाषा बना लेंगे, उसी दिन उनके साथ हम सभी को स्वराज्य और राष्ट्रभाषा के दर्शन प्राप्त हो जाएँगें।
अंत में मैं साहित्य के बड़े हस्ताक्षर और उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद के विचारों के साथ हिन्दी और राष्ट्रभाषा पर लिखने वाले अपने विचारों को विराम देना चाहूंगा। प्रेमचंद जी ने कहा था कि राष्ट्र भाषा केवल रईसों और अमीरों की भाषा नहीं हो सकती, उसे किसानों और मजदूरों की भाषा बनाना पड़ेगा। जैसे रईसों और अमीरों से राष्ट्र नहीं बनता, उसी तरह उनकी गोद में पली हुई भाषा राष्ट्र की भाषा नहीं हो सकती। यह मानते हुए कि सभाओं में बैठकर हम राष्ट्रभाषा की तामीर नहीं कर सकते। राष्ट्रभाषा तो बाजारों में बनती है। सभाओं में बैठकर हम उसकी चाल को तेज जरूर कर सकते हैं। इधर तो हम राष्ट्रभाषा का गुल मचाते हैं, उधर अपनी जबानों के दरवाजों पर संगीनें लिए खड़े रहते हैं, कि कोई उसकी तरफ आँख न उठा सके। इस प्रकार की नीति के चलते आज हमारी हिंदी बेगानी है।
प्रस्तुतकर्ता
(डा. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
मो. नंबर 94255-59291
Email-sk201642@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-09-2016) को "हिन्दी का सम्मान" (चर्चा अंक-2463) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'