मैं क्यों बन्द आज पिंजड़े में मैं क्यों बन्द आज पिंजड़े में और क्यों अपनी गति भूला क्या नहीं अधिकार मुझे है उड़ने और झूलने का झूला मैं स्वच्...
मैं क्यों बन्द आज पिंजड़े में
मैं क्यों बन्द आज पिंजड़े में और क्यों अपनी गति भूला
क्या नहीं अधिकार मुझे है उड़ने और झूलने का झूला
मैं स्वच्छन्द गगन का पक्षी हर पल सपनों में था जीता
प्रकृति की अनुपम सृष्टि था उड़ने में बड़ा सुभीता
मैं इच्छा करता सदैव था सारे गगन में घूमूं
देखूं सारा जगत उड़कर चहुंदिशि की सुगन्ध चूमूं
किन्तु आज इन सलाखों में हैं सभी स्वप्न धाराशायी
मिट्ठू मियां सीता राम की धुने हैं जाती रटाई
अब बालो मैं स्वच्छन्द गगन का यह सब कैसे सह पाऊं
कटोरी की मैदा से अच्छी मैं तीखी निबौरी झट खाऊं
भले ही छीन लो मेरा बैठना पेड़ों की डाली पर रहना
पर न छीनिये उड़ना मुझसे और उन्मुक्त गगन में बहना ।।
प्रकृति का खेल निराला
गागर का हो छलकना
या नदिया का बहना
कोयल का कू कू करके
आम की डालों पे रहना........
सबका मन हरषाए
बोझिल तन सुख पाए।
स्वर्ण राग सूरज गाए
रजत बात चन्दा सुनाए
कल-कल झरन-झरते
मधुप मधुकरी बनाए......
प्रकृति का खेल निराला
सबका मन हरषाए।।
हृदय की ऊंचाई
मेरे
विचारों से विमुख हो
तुमने अपना लिया था उसे
शीर्ष पर स्थान देकर
मुझे-
पददलित किया
लेकिन
मैं तब भी शान्त रहा
और
आज भी शान्त हूं
फिर भी व्यथित हो रहे हो
मेरी ओर
आशापूर्ण दृष्टि से देख रहे हो
तुम तो-
गेहूं के लिए
मुझे त्याग चुके थे
स्वार्थ पे बढ़
सेवा से भाग चुके थे
फिर क्यों आए-
मुझ गुलाब के पास
उसे-
उसका यथोचित स्थान देने
उदर से हृदय को उच्चता पर स्थापित करने।
तिरस्कृत जन
आज का जन
कितना तिरस्कृत है
और-
कितना परिष्कृत
यह सभी कुछ जानता है
पर -
तन्त्र तो
अपने वायदों और
कागजों की
योजनाओं को ही मानता है
और -
अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए
सभी पथ पहचानती है।
शान्ति का स्वर्ग
पहले जो किया है
वे अब न हो पायेगा
हिंसा का पथ भी
कहां तक ले जायेगा
एक दिवस तो वापस
घर पे ही आयेगा
हिंसा का त्याग कर
अहिंसा अपनायेगा।
देश में एक बार
फिर खुशियां छाएंगी
सत्य की विजय
शान्ति स्वर्ग बनायेगी
खुशहाल जीवन
तुम
खिलकर के पुनः मिले
मिले जो दो हृदय
सभी मिट गये शूल
दग्ध हुआ द्वेष
और राहों की धूल
आने से नूतन खुशियां
कलियां मुस्कराने लगीं
किन्तु-
तुम शान्त क्यों हो
स्मरण न होने पर भी
था सर्वस्व अर्पित
और -
आज स्मरण होने पर भी
सभी कुछ है समर्पित
लेकिन -
तुमसे चाहता हूं मैं
सर्वप्रथम
शान्ति ,प्रेम और प्रसन्नता का
आश्वासन
खुशहाली के लिए।
अति जनसंख्या पर रोक लगाओ
आज हमारे देश में कितना
जनसंख्या का बढ़ गया भार है
आर्थिक विकास अवरुद्ध हुआ है
नित गरीबों पर हो रहा प्रहार है
राष्ट्रीय आय बढ़ती नित जाती
प्रति व्यक्ति आय न बढ़ती है
कितना भी धरा करे उत्पादन
उसकी भी इक सीमा पड़ती है
यही प्रश्न आ समक्ष खड़ा है
अति जनसंख्या पर रोक लगाओ
हो सके देश का चहुंमुखी विकास
ऐसा नियम यम संयम अपनाओ।
कश्मीर
हमारा
प्यारा सुन्दर सा कश्मीर
धरा का स्वर्ग
राष्ट्र का मुकुट
स्वर्ण किरीट
आज पद्दलित किया जा रहा है
हमारे ही देश के
कुछ उन भ्रमित नवयुवकों के हाथ
जो-
अपने विवेक को खो
पर राष्ट्र के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं
और उनके ही हथियारों से
बीज बो रहे हैं
अपने गृहराष्ट्र और समाज में
हिंसा व अलगाव के,
लेकिन-
आज वह समय आ गया है
कि
उन कश्मीर के भटके हुए युवकों को
पुनः वापस आना पड़ेगा
और -
विश्व व राष्ट्र में हो रहे परिवर्तनों का अहसास
करना पड़ेगा।
समझाना होगा
उन इरादों को भी
जोकि व्याप्त हैं
उन परराष्ट्रवादियों में
कश्मीर के प्रति
और-
परिवर्तित करनी पड़ेगी
समस्त देश को अपनी विचारधारा
जो आज तक है
उन विदेशियों के प्रति।
अतीत के क्षण
आज पुनः
जाग्रत हो उठी हैं अतीत के
उन अनसुलझे क्षणों की स्मृतियां
जिनसे
व्यथित हो रहा था कभी मैं
पल-प्रतिपल,
वृक्षों के कटने
नदी का प्रवाह रुकने
और
वायु की गति थमने से
सोच में पड़ गया था मैं
कि क्या-
फिर लौटना पड़ेगा
अतीत के क्षणों में अथवा
आज फिर जाना पड़ेगा
बढ़ रहे प्रदूषण के कारण
मृत्यु की शैय्या पर विश्राम करने।
स्वार्थ की दुनिया
वे
चहते नहीं हैं कि
मैं आगे बढ़ूं और
स्पर्श कर पा सकूं अपना लक्ष्य
वे -
चिन्तित है कि मेरे इष्ट की
प्राप्ति के बाद
डूब जाएगी
उनकी स्वार्थ की दुनिया
पूर्ण नहीं हो पायेगी
उनकी कुचेष्टाएं
इसीलिए और
यही कारण भी हैं
जो-
बाधक बन रहे हैं मेरे पथ में
मुझे
अपने पथ से
विमुख करने के लिए।
ज्वालामुखी
जिसकी स्मृति होते ही
खड़े हो जाते हैं रोंगटे
कंपकंपाने लगता है शरीर
किन्तु-
विमुख नहीं होता हूं मैं
अपने पथ से और
किसी की सहायता की बाट जोहते
असहाय रुग्ण बच्चों भिखमंगेा के
नेत्रों में आशा की
एक भी किरण देखकर
रुक जाता हूं मैं
किन्तु -
जो सिर्फ झूठे आश्वासनों से
आंसू पोंछकर
अनुदान के सपने दिखाते हैं और
अनुदान राशि अपनी
तिजोरियों में भरकर
अच्छा सदुपयोग करते हैं
देखकर उन्हें -
जलने लगता है
ज्वालामुखी
सा मेरा हृदय।
समर्पण
मैंने
कई बार प्रयास किया था
अपने को सत्पथ पर ढालने का
किन्तु
समय नहीं था कुछ सोचने के लिए
फिर थी
मैं निराश नहीं हुआ और
प्रयासरत रहा
संघर्ष करता रहा
अपने कर्त्तव्य का यर्थाथ रूप
समझने के लिए
मैं-
एक दिन सफल भी हुआ
सत्पथ मिला अपनाया
दूसरों का हित समझा
विश्व को अपना कुटुम्ब माना
सभी के प्रति
अपने को समर्पित करते हुए।
भारत वर्ष हमारा है
आज सहस्रों कण्ठों से निकल रही यही धारा है
हिन्दुस्तान हमारा है यह भारतवर्ष हमारा है
इस धरती पर ही मैंने ज्ञान की ज्योति पायी है
धरा है इसकी अजब अनोखी गंगा-यमुना सी माई है
उत्तर में अविचल रक्षित पर्वतराज हिमालय है
जिसके परे शीश पर कैलाश के ऊपर शिवालय है
यह पावन ज्ञानभूमि सा प्यारा देश हमारा है
हिन्दुस्तान हमारा है यह भारतदेश हमारा है
विन्ध्य,सिन्धु,सतपुड़ा के स्थित यहां हैं घाट महा
तो देश के पूरब में स्थित खासीजयन्तिया के पाट महा
दक्षिण में चरणों को धोता है सागरसम्राट यहां
इस पावन तपोभूमि पर जन्मों से अधिकार हमारा है
हिदुस्तान.......
है आशान्वित भविष्य और अतीत भी गौरवशाली है
खुजराहों के दिव्यशिवाले है कश्मीर की निरुपम लाली है
कन्या कुमारी का अजबदृश्य मोहकतापूर्ण कौसानी है
हम हैं शान्ति के अमर दूत यह सन्देश हमारा है
हिन्दुस्तान.............
मां भारती वंदना
मां भारती के चरणों में है इस भारती का प्रणाम,
विद्यावारिधि का आशीर्वाद करवाये कल्याण।
मंझधार में फंसी तरणि का पार का सार दे,
ओ मां शारदे,
अगत सृजन शकितयां मां उदारता से वार दे,
बुद्धिदायिनी मां कहलाती क्यों शारदे,
पीड़ित जनों को भेंट जब अश्रुपूरित तार दे।
व्यथित हृदय द्रवित दृगों को अभिराम दे,
जगत के स्वरों के सार मां मुझे इकबार दे। ओ मां शारदे,
व्याप्त चराचर की कटुता को मिटा सकूं,
ज्ञान की पुण्य सलिला भारत में बहा सकूं।
भारतीयता को सुरों में लेखनी से पा सकूं,
अहं का ना धागा जकड़े मां ज्योति ऐसी जगा सकूं। ओ मां शारदे,
कर बद्ध हूं मैं सरस्वती आज तेरे चिन्तन में,
श्रृद्धा विश्वास से पूरित मस्तक मां तेरे चरणों में,
चाहता हूं न क्षणिक अहं भी अभिनन्दन से। ओ मां शारदे!
धन्य मानव तू
धन्य मानव तू
धन्य तेरे हैं काज
नये यूग को कहां से
कहां पहुंचाया आज
धरा से पहुंचा इन्दु तक
आगे कहां ले जायें तेरे काज
विश्राम कर नव चेतना ले
प्रारम्भ कर जनहित के काम
छोड़ दे विज्ञान का विनाशी जाल
मात्र कर शान्ति के लिए काज
शान्ति कार्य से सुखी होगी धरा
यश गायेगा तेरा सारा समाज।
शशांक मिश्र भारती संपादक - देवसुधा, हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर - 242401 उ.प्र. दूरवाणी :-09410985048/09634624150
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