( परसाई व्यंग्य पखवाड़ा - 10 - 21 अगस्त के दौरान विशेष रूप से हास्य-व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन किया जा रहा है. आपकी सक्रिय भागीदारी अपेक...
(परसाई व्यंग्य पखवाड़ा - 10 - 21 अगस्त के दौरान विशेष रूप से हास्य-व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन किया जा रहा है. आपकी सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है. )
एक हास्य व्यंग्य रचना
अफसोस है!!
सुधा गोयल ‘नवीन’
अफसोस कई प्रकार के होते हैं। अपनी गल्तियों पर अफसोस, दूसरे की नादानी पर अफसोस, फेल हो जाने का अफसोस, मंजिल न मिलने का अफसोस. कोई गिर गया, पैर टूट गया, एक्सीडेण्ट हो गया या मर गया...........
इत्यादि। सूची इतनी लम्बी है और समय बहुत कम। मैं शीघ्रताशीघ्र मुख्य मुद्दे पर आ जाना चाहती हूँ।
अफसोस का अर्थ होता है- दुखः होना। दुखः एक ऐसा स्थायी भाव है जिसकी प्रतिक्रिया एकान्त-प्रियता, पीड़ा, आँसू, अवसाद और निराशा होती है। दुखः की चरमस्थिति में व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है।
उसका किसी से बात करने का मन ही नहीं करता है। दूसरों द्वारा समझाई जाने वाली दार्शनिक बातों से तो उसे मितली सी आने लगती है।
कहते हैं कि दुखः बाँटने से कम होता है, लेकिन यह बात शत-प्रतिशत खरी नहीं है। कभी-कभी दुखः बाँटने के उद्देश्य से आने वाले मेहमान की मंशा उस दुखः की चर्चा करके तुलनात्मक अध्ययन करने की होती है, कि
उसका दुःख ज्यादा है कि सामने वाले का। यदि सामने वाले के दुःख की तीव्रता अधिक हुई तो प्रत्यक्ष में तो वह प्रलाप के साथ आँसू भी बहा सकता है, परन्तु मन ही मन उस परमपिता परमेश्वर को धन्यवाद दे रहा होता है जिसने उसके ऊपर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखी हैं। दिल के किसी कोने में उसे अपने सत्कर्मों पर गर्व भी हो रहा होता है, वह सोचने लगता है, ’’ अब झेलो बच्चू.....किसी की भी पीठ में छूरा भौंकने से बाज न आते थे....... अब अपने पर पड़ी है तो रोने के लिए कन्धा ढूंढ रहे हो....”
मेरे एक पड़ोसी, आत्मीय, व मित्र हैं........(सुविधा के लिए उनका नाम ‘‘ख’’बाबू रख देते हैं।) जिनका सबसे प्रिय पास-टाइम है लोगों के घर जाना........... अफसोस करने। मित्र, पड़ोसी, प्रियजन के अतिरिक्त रेल के डिब्बे में मिले किसी अपरिचित के दुःख का भी यदि उन्हें आभास मिल गया तो पत्नी से कहेंगे, ’’भागवान तैयार हो जा... फलां के घर अफसोस करने जाना है...... बहुत दिन से तू घर से निकली भी नहीं है..... चल लौटते में चप्पल भी खरीद लीजो......’’
आज की व्यस्त दिनचर्या में किसी के पास इतना समय नहीं है कि दोस्तों को चाय पर बुलाए और गपशप करके समय बर्बाद करे, लेकिन तबियत खराब होने पर वही व्यक्ति अफसोस करने आए साथियों की खूब आवभगत करता है, चाय पिलवाता है, और आग्रह से कहता है, ‘‘ धन्यवाद भइया फिर आइएगा।’’
हमारे ‘ख’ बाबू को ऐसे ही दोस्तो की तलाश रहती है। पूरे शहर का चक्कर लगाते रहते हैं कि आज किसके घर आदर-सत्कार से चाय पी जा सकती है, वह भी बिना किसी फिरौती के।
एक बार तो बस हद ही हो गई। ’ख‘ बाबू के पड़ोसी मिश्रा जी के समधी के साले की देर रात रोड एक्सीडेण्ट में अचानक मृत्यु हो गई। मिश्रा जी के घर पर भी मातम छाया हुआ था। सुबह से ही लोग-बाग अफसोस प्रकट करने आ-जा रहे थे। मिश्राइन ने घर के बैठकखाने में सफेद चादर बिछाकर आगन्तुकों के स्वागत का पूरा इन्तजाम कर दिया था। हाथ जोड़कर स्वयं भी आ बिराजीं थी, यह बात अलग है कि अपने समधी के साले से वे कभी नहीं मिली थीं, यहाँ तक कि उन्हें उसका नाम भी नहीं पता था, लेकिन आने जाने वालों के सामने बाल्टी-भर आँसू बहाकर उसकी तारीफों के कसीदे काढ़ने में कोई कोर कसर बाकी न रखी थी उन्होंने।
“आपको याद है न भाईसाहब...... उस लड़के ने जब यूनिवर्सिटी में टाॅप किया था तब हमारे समधियों ने घर-घर मिठाई बाँटी थी..... स्वीमिंग और टेनिस खेल का तो चैंपियन था....... एक से एक मालदार घरों से सुन्दर-सुन्दर लड़कियों के रिश्ते आ रहे थे.......हाय री किस्मत! विधाता को कुछ और ही मंजूर था।‘‘
अपने हाव-भाव, स्वरों के उतार-चढ़ाव, व भंगिमाओं से मिश्राइन आगन्तुकों की भावनाओं को उद्वेलित करने में पूर्णतः सफल हो रहीं थीं।
यदि आने और जाने वाले के बीच में थोड़ा सा एकान्त अन्तराल मिल जाता तो मिश्राइन रसोई में जाकर मुँह में कुछ डाल लेने के साथ समधियों के बड़बोलेपन, दिखावा, और घमंड का नतीजा भोगने का श्राप देकर वापस आकर मोर्चा सभाँल लेती और फिर शुरू हो जाता वही प्रलाप व आँसू का सिलसिला।
’ख‘ बाबू की व्यस्तता सुबह से ही शुरू हो गई थी। आने वालों को घर के अन्दर जाने का रास्ता दिखाने से लेकर किसी को पानी पिलाना तो किसी को बाथरूम का रास्ता दिखा रहे थे। पत्नी से घर पर कह आए थे कि खाना न बनाए, समघियों का मामला है, खाना तो मिश्रा के घर से ही जाएगा उनके घर............ तो अफसोस करने उन्हीं के घर चले चलेंगे दोनों। मिश्रा के समधी उनके भी तो समधी हुए, न गए तो कितना बुरा मानेंगे। फिर अगले तीन दिनों तक ’ख‘ बाबू के चेहरे पर शिकन बनी रही। घर के जरूरी काम जैसे दूध, ब्रेड, राशन भी उन्होंने तीसरे दिन के हवन के बाद ही लाना ठीक समझा। ’ख‘ बाबू की पत्नी भी काफी सुकून महसूस कर रहीं थी। ’ख‘ बाबू दिन भर घर से बाहर मिश्रा जी के घर ड्यूटी दे रहे थे, जिससे घर में शान्ति थी, न खिचखिच न पिचपिच, दूसरे उन्हें खाना भी नहीं बनाना पड़ रहा था। मिश्राइन मानती ही न थीं। ’ख‘ बाबू उनको भावनात्मक सहारा जो दिए हुए थे। साथ ही खाने का टोकरा पैक कराकर मिश्रा की गाड़ी में समधियों के घर ले जाने का दुरूह जिम्मा भी ’ख‘ बाबू ने अपने सिर ले रखा था। अच्छी बात यह हुई कि मिश्रा के समधी ’ख‘ बाबू से अत्यधिक प्रभावित व
एहसानमन्द दिखाई दिए। ’ख‘ बाबू का दिल भी बल्लियों उछला। सोचने लगे अफसोस करने जाने के अनेकानेक फायदों में से एक सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि एक भरोसेमन्द, पद-प्रतिष्ठा वाले, सज्जन इंसान उनके दोस्त, और उनके कद्रदान बन गए। अब यदाकदा उनके घर भी जाना आना लगा रहेगा और पत्नी के साथ उनके घूमने की समस्या का भी हल निकल जाएगा।
मेरे सुधी पाठकों जरा ध्यान से सोचिए कहीं सांत्वना देने या अफसोस करने के बहाने कोई ’ख‘ बाबू आपकी भावनाओं से मजा लेने या अपना उल्लू सीधा करने तो नहीं आए हैं।
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badalte samaj ka sahi chitran sudha di .girte samajik mulya par achcha vyangya
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