जिन्न हो तो ऐसा / व्यंग्य/ शशिकांत सिंह शशि

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हमारे हाथ एक दिन वही पुराना चिराग लग गया जिससे जिन्न निकला करता था। हमने उसे घिसा तो तुरंत जिन्न बाहर निकला- क्या हुक्म है आका।'' ...

हमारे हाथ एक दिन वही पुराना चिराग लग गया जिससे जिन्न निकला करता था। हमने उसे घिसा तो तुरंत जिन्न बाहर निकला- क्या हुक्म है आका।''

-'' बैठ तुझसे बात करनी है। कोई बात करने वाला नहीं मिल रहा। दोस्त-मित्र तो अब ऑनलाईन मिलते हैं। एक तू ही है जो खाली है।''

-'' शुक्रिया आका। हुक्म कीजिये।'

-'' अबे, तू इतना बड़ा है। इतना ताकतवर है फिर सबको आका-आका क्यों कहता चलता है। जिसने जो कहा मान लिया। अपनी अक्ल क्यों नहीं लगाता ? आका पालने का शौक तो आदिमयों में है तू तो जिन्न है अक्ल लगा लिया कर।''

जिन्न हंसा।

-'' आका, अपनी अक्ल लगाने से सौ लफड़े पैदा होते हैं। आदमी किसी को अपना आका मान ले और मजे में उसके पीछे-पीछे चलता रहे। न हींग लगे न फिटकरी। किसी को आका बनाने से लाभ यह होता है कि उसकी गलतियों नज़र नहीं आती। उसको आसानी से आप क्लीन चिट देंगे तो वह भी आपको क्लीन चिट देगा। शांति और सौहार्द्र बढ़ता है। अपनी अक्ल लगाने से राजनीति से लेकर बाजार तक में केवल कमियां दिखती हैं। आदमी दुःखी रहता है। अंत में जेल जाकर परम पद को प्राप्त करता है। ''

हमारी बांछे खिल गई। इतना ज्ञानी जिन्न इतनी आसानी से मिल गया। हमने उसे और उकसाया-

-'' अच्छा, तेरे जिन्न लोक में भी एक आका होता है और बाकी उसकी जी जी करते हैं।''

-'' नहीं आका, यह नुस्खा तो मेरे पहले मालिक ने बताया था। वह इन्सान था। उसने जब मुझे चिराग से आजाद किया तो मैं मुंह लटका कर खड़ा हो गया तब उसने समझाया कि आदमियों में एक आका होता है और बाकी उसकी जी जी करते हैं। वही किया कर खुश रहेगा। तबसे वही करता आ रहा हूं।''

-'' अच्छा, आका बदलने पर तुझे परेशानी नहीं होती। मान ले एक भीमकाय मजबूत आदमी है तेरे सामने और तू उसे आका-आका कह रहा है। उसके बाद एक सींक से आदमी आ गया। तू उसे भी आका-आका कह रहा होता है।''

-'' आप भी न आका। मज़ाक करते हो। अरे आदमी को तो मैं आका कहता ही नहीं हूं। वह तो उसके हाथ लगे चिराग को कहना पड़ता है। जिसके हाथ चिराग लगा वही आका। आपलोगों में भी तो यही चलता है न। एक नेता जब पार्टी बदलता है तो वह उसी को आका-आका कहने लगता है जिसे कल तक वह गालियां दे रहा था। उसकी सौ बुराइयां गिना रहा था आज वह उसके तलवे चाटने को अपना सौभाग्य मानता है। एक दिन पहले वह अपने कंधे पर हाथ छाप तिरंगा लेकर घूम रहा था आज वह कमल छाप झंडा लेकर घूम रहा है। उसे तो कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि वह चुनाव जीतने के चक्कर में होता है।''

-'' वाह प्यारे लाल तुझे तो भारतीय राजनीति की बड़ी समझ है। ''

-'' आका, भारतीय चिराग में सत्तर सालों से कैद था। आपको जानकर हैरानी होगी कि यहां चिराग के अंदर भी राजनीतिक आवाजें ही सुनाई देती है। यहां की हवा में ऑक्सीजन से अधिक राजनीति है।''

-'' अच्छा, एक बात बता क्या तू देश की गरीबी, भुखमरी, बेकारी आदि को दूर कर सकता है ? मतलब इतनी ताकत है तेरे में ?'

-'' कर तो मैं चुटकी में दूं आका, पर आजतक किसी ने कहा ही नहीं। जो भी मेरा आका बनता है वह केवल अपने लिए ही मांगता है। देश के लिए तो कोई कुछ मांगता नहीं है। सबको डर यह रहता है कि जिन्न हाथ से निकल न जाये। वह अधिक से अधिक बटोर लेना चाहता है। आप कहें तो मैं देश के लिए ....................।''

-'' यार , देश के लिए बहुत लोग लगे हुये हैं। नेताओं की पूरी मंडली देश के विकास की कोशिश कर रही है। बुद्धिजीवियों का पूरा कुनबा देश के लिए हलकान है तू मेरे लिए काम कर।''

-'' हुक्म करो आका।''

-'' देख मेरी तीन पांडुलिपियां तीन प्रकाशकों के पास फंसी पड़ी हैं। न हां कहते हैं न नहीं कहते हैं। तू उनके हलक से उत्तर निकाल ला। ''

जिन्न ठहाके लगाने लगा। मैं उजबक की तरह उसे देख रहा था। वह हंस चुकने के बाद मुझ देखने लगा। मैंने सहमते हुये कहा-

-'' अबे तू भी साहित्यकारों पर हंसता है ? यानी कि अब जिन्न भी लेखक का मजाक उड़ायेंगे!''

-'' नहीं आका मैं तो इस बात पर हंस रहा हूं कि प्रकाशन के चक्कर में पड़ने की जरूरत ही क्या है, जब आपका यह जिन्न हाज़िर है। मैं उपन्यास ही छापकर लाता हूं न आपके लिए।''

-'' नहीं यार, तू छापेगा तो उसे पढ़ेगा कौन ? मैं तो चाहता हूं कि वह अमर उपन्यास हो। लोगबाग मेरा नाम किताबों में पढ़ें। तू छापेगा.........अच्छा कितनी प्रतियां छापेगा ?''

-'' पांच और कितनी। एक आपके लिए, एक उनके लिए जिन्हें आप 'सादर' भेजेंगे और एक मैं जिन्नलैंड लेकर जाऊंगा। दो पड़ी रहेगी तो आपके बच्चे देखेंगे।''

-'' और पाठकों के लिए ?''

-'' आप भी न आका मजाक अच्छी कर लेते हैं। हिन्दी को पाठक कहां मिलते हैं ? पढ़ने वाला भी लेखक ही होता है। वह आपको पढ़कर वाह-वाह करता है ताकि आप उसको पढ़कर वाह-वाह करें। पाठकों को तो उन्हीं के बारे में पता है जो स्कूल की सिलेबस में हैं। मेरी मानो तो पांच प्रतियां मुझसे छपवा लो। प्रकाशक तो पैसे लेकर छापेगा मैं फ्री की छाप दूंगा।''

-'' अच्छा, तू ऐसा कर कि मैं रोतों-रात महान व्यंग्यकार बन जाऊं ?''

-'' फेसबुक पर किताब की कवर लगा दो आका। वहां तो खूब वाह-वाह मिल जाती है। लोग बिना पढ़े ही तारीफों के पुल बांध देते हैं। आदमी संतुष्ट हो जाता है।''

-'' फिर तू क्या करेगा ?''

-'' मैं आपके लिए ऐसी मोबाइल की व्यवस्था करूंगा जिसकी बैट्री कभी खत्म न हो। आपका नेट रिचार्ज कर दूंगा अनलिमिटेड जो कभी खत्म न हो।''

मेरा मन मयूर मगन होकर नाचने लगा। वाह जिन्न हो तो ऐसा।

--

शशिकांत सिंह 'शशि'

जवाहर नवोदय विद्यालय शंकरनगर नांदेड़ महाराष्ट्र, 431736

मोबाइल-7387311701

इमेल-

skantsingh28@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. शशीकांत जी, बहुत बढिया लिखते है आप! आपके दो-चार व्यंग पढ़े है मैंने। बाकि भी पढूंगी।

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  2. बेनामी9:17 am

    kya bat hey Sir

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: जिन्न हो तो ऐसा / व्यंग्य/ शशिकांत सिंह शशि
जिन्न हो तो ऐसा / व्यंग्य/ शशिकांत सिंह शशि
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