रक्षाबन्धन का पर्व आ रहा है। भाई-बहन के अटूट प्रेम का पर्व रक्षाबन्धन। ब्रज अंचल में इसे सलूने भी कहते हैं। सलूना निश्चय ही सलोने का अपभ्रं...
रक्षाबन्धन का पर्व आ रहा है। भाई-बहन के अटूट प्रेम का पर्व रक्षाबन्धन। ब्रज अंचल में इसे सलूने भी कहते हैं। सलूना निश्चय ही सलोने का अपभ्रंश होगा, जिसका भावार्थ है सुन्दरता-युक्त, लावण्य-युक्त। भाई-बहन का रिश्ता निश्चय ही बहुत-ही सुन्दर, बड़ा ही प्यारा और लावण्य-युक्त रिश्ता है। इस रिश्ते की कोई बराबरी नहीं, कोई तुल्यता नहीं, कोई साम्य नहीं। फिर शायद इसके सलोनेपन में राखियों का सौन्दर्य भी समाहित हो गया होगा। रक्षाबन्धन के दिन भाई लोग अपनी-अपनी बहनों की बाँधी हुई राखियाँ अपनी कलाइयों पर सजाए घूमते हैं। सुन्दर-सुन्दर राखियाँ। सलोनी बहन ने अपने सलोने भाई की सलोनी कलाई पर बाँधी सलोनी-सुन्दर, सजीली राखी। सांकरी गलिन मां काँकरी चुभतु है का आख्यापन करने वाली ब्रज-संस्कृति यदि इस प्यारे त्यौहार को सलोने कहकर अभिहित करती है तो किसी को आश्चर्य क्योंकर हो!
खैर..हमारी भाषा-शोधी दृष्टि इस पर्व के सलोनेपन पर नहीं अटकना चाहती, बल्कि वह उसका अतिक्रमण करती हुई पहुँचना चाहती है- राखी शब्द के अनुसंधान पर। राखी शब्द निश्चय ही रक्षा से निःसृत है। रक्षा-रक्खा। क्ष संयुक्ताक्षर में क और ष- इन दो वर्णों का मेल हुआ है। ष का सही-सटीक उच्चारण अब कोई करता नहीं। लगभग सौ फीसदी लोग इसे श ही उच्चरित करते हैं। जीभ को पलटकर तालू में लगाएं तब इसका उच्चारण होता है। पूर्वांचलीय लोग इसका उच्चारण ख भी करते हैं। इसीलिए बचपन में हम वर्णमाला बोलते समय ‘य र ल व श ख स ह’ बोल जाया करते थे। राम जी के छोटे भाई लक्ष्मण का नाम लक्खन और फिर लखन भी इसीलिए बन गया होगा।
बांगला-भाषी लोग प्रायः रक्षा को रक्खा, दीक्षा को दीक्खा और शिक्षा को सिक्खा बोलते हैं। शायद भारोपीय परिवार की अन्य भाषाओं में भी इस ध्वनि का विकास इसी रूप में हुआ हो। तो रक्षा से रक्खा बना और जो चीज रक्षा करे उसे स्त्रीलिंगी होने के नाते नाम मिला राखी। बहनें अपने भाई की रक्षा के उद्देश्य से, उसके अमरत्व की आकांक्षा में जो रेशमी धागा उसकी कलाई पर बाँधती हैं, उसे कहते हैं राखी। कहीं-कहीं इसका विपरीत अर्थ भी लगाया जाता है कि भाई की कलाई पर राखी बाँधकर बहन उससे वचन लेती है या उसे याद दिलाती है कि भइया, तू मेरी रक्षा करना। मेरी पत रखना। ज़रूरत पड़े तो मेरे काम आना।
हमारे समाज में जहाँ कदम-कदम पर बहन की जान को, उसकी इज्जत-आबरू को किसी न किसी से खतरा है, यह दूसरी धारणा ही अधिक पुष्ट प्रतीत होती है। इतिहास में भी ऐसे कई प्रकरण पढ़ने-सुनने में आते हैं कि जब किसी भारतीय ललना की आबरू पर, उसके पति अथवा राज्य पर आपदा आई तो उसने किसी तत्कालीन सशक्त पुरुष को राखी भेजकर या राखी बाँधकर मदद की गुहार लगाई और उस बलशाली भाई ने अपनी बहन की इच्छानुसार उसकी मदद की।
मनु ने स्त्री को आजीवन पुरुष की रक्षिता घोषित किया। मनु जानते थे कि प्रकृति ने ही स्त्री को कमज़ोर बनाया है। खासकर जिस समाज में सतीत्व की अवधारणा हो, यौन शुचिता पर जहाँ अतिशय बल दिया जाता हो, उस समाज में यदि किसी स्त्री को जीते जी मारना हो तो उसका सतीत्व भ्रष्ट कर दो। आज हमारे समाज में आए दिन महिलाओं पर बलात्कार की खबरें सुनाई देती हैं। एक ओर महिलाओं की संख्या घट रही है, दूसरी ओर यौन लिप्सा बढ़ रही है। शासक कमज़ोर और भ्रष्ट हो चले हैं। उन्हें जनता की सुरक्षा से अधिक अपनी तिज़ोरी भरने की चिन्ता है। कोई ऐसी कुत्सित घटना घटती है तो नेता और अफसर एक सुर में अलापते हैं- हमारे भी बेटियाँ और बहनें हैं, गोया उनकी बहनें और बेटियाँ भी उतनी ही अरक्षित हैं, जितनी आम नागरिकों की बहनें और बेटियाँ। सच्चाई तो यह है कि आज की महिलाएं सामन्ती युग से अधिक अरक्षित हो चली हैं। मनु ने जो बात कही थी उसमें से केवल स्वातंत्र्य को हटा दीजिए। बस। स्त्री को आज भी अवस्थानुसार पिता, पति, पुत्र और ये सब न हों तो विश्वस्त परिवार जैसी ही किसी ऐसी संस्था की ज़रूरत आजीवन बनी रहती है, जहाँ वह सुरक्षित रह सके। स्वतंत्र हो तो स्त्री और भी अरक्षित है। पराधीन मनुष्य को तो सपने में सुख की कामना नहीं करनी चाहिए। लेकिन सुख और सुरक्षा- दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं। बड़े-बड़े अपराधी अपने प्रतिद्वंद्वियों से जान बचाने के लिए राजकीय कारागारों में पड़े रहना अधिक निरापद मानते हैं। यदि घर-परिवार के तथाकथित कारागार में बेटी, पत्नी, माँ आदि रिश्तों के विभिन्न बन्धनों में जकड़ी स्त्री सुरक्षित है, तो वह उचित है या इन रिश्तों से आज़ाद होकर कदम-कदम पर लुटने की त्रासद स्वतंत्रता?
खैर.. हम तो रक्ष यानी रक्ख यानी रख शब्द की बात कर रहे थे। महिलाओं के प्रति पूरा आदर-भाव रखते हुए मैं केवल शब्द की मीमांसा के उद्देश्य से कहना चाहता हूँ कि हमारे समाज में सुनने में आता है कि अमुक पुरुष ने अमुक महिला को रखा हुआ है, कि अमुक महिला अमुक की रखैल है। समाज-शास्त्री के लिए यह बिल्कुल सामान्य शब्द है। नैतिकता के नज़रिए से इस पूरी अवधारणा पर आपत्ति की जा सकती है। स्त्री-विमर्श की दृष्टि से तो इसे गर्हणीय ही माना जाना चाहिए। किन्तु मेरी दृष्टि तो भाषा-शास्त्री की है। रखैल से क्या आशय है? रखैल, यानी वह महिला, जिसकी रक्षा करने, जिसके भरण-पोषण और शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक सभी ज़रूरतों की पूर्ति करने, यानी सर्वभावेन जिसकी रक्षा करने का दायित्व किसी सक्षम पुरुष ने ले लिया है। चाहे इसे सामाजिक रिश्ते की मान्यता न हो, किन्तु जो इस पूरे दायित्व को निभा रहा हो। हाल में, हमारी माननीय न्यायपालिका ने ऐसी महिलाओं को अपने पुरुष साथी की संपत्ति पर अधिकार दिया है, उनके बच्चों को वारिस की हैसियत दी है। इससे मेरी उपर्युक्त प्रपत्ति की ही पुष्टि होती है।
जब हम किसी वस्तु को अपने पास रखते हैं तब भी यही भाव रहता है। वस्तु हमारे पास है, यानी हम उसकी रक्षा करेंगे। उसे हमने रख लिया है, अब उसे कोई हानि नहीं पहुँचेगी। वह हमारे पास सुरक्षित है, यानी भली-भांति रखी हुई है।
एक बार पुनः स्त्री-विमर्श पर लौटते हैं। आज समाज में खुलापन तो बहुत आया। महिलाओं को समाज ने स्वतंत्रता दे दी, या यों कहिए कि उन्होंने अपने-आप प्रयास करके स्वतंत्रता हासिल कर ली। किन्तु समाज का वातावरण ऐसा नहीं कि वे स्वतंत्र होकर भी निरापद रह सकें। जगह-जगह आपराधिक मानसिकता के पुरुष हैं। वे छल-छद्म करके या बलात् महिलाओं की अस्मिता को चोट पहुँचाते हैं। यहाँ यौन शुचिता की बात नहीं है। यदि स्वेच्छा से कोई यौन शुचिता को तिलांजलि देना चाहे तो यह उसका स्वयं का निर्णय है। हमारे इतिहास में ससम्मान रहने वाली, विदुषी नगरवधुओं का जिक्र आता है। किन्तु कोई पुरुष बलात् यानी जबरदस्ती किसी महिला पर अपना यौन व्यवहार आरोपित करे और उसके साथ उसकी इच्छा के विपरीत यौनाचार करे तो यह कृत्य अपराध की श्रेणी में आता है। हमारे समाज में बार-बार महिलाओं के साथ यही हो रहा है, जो चिन्ता का विषय है।
ऐसी अरक्षित महिला को रक्षा की ज़रूरत है। इसलिए वह आज भी राखी बाँध रही है। यह राखी केवल भाई को बाँध देने से काम नहीं चलने वाला। यह राखी अब पूरी पुलिस व्यवस्था, शासन के सरमायेदारों, न्यायपालिका, मीडिया और हर उस व्यक्ति व व्यवस्था की कलाई पर बाँधने की ज़रूरत है, जहाँ से महिला को खतरा है। दिक्कत यह है कि महिलाओं पर खतरा निरन्तर बना हुआ है, वह कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। इसलिए मनु को व्यवस्था करनी पड़ रही है- महिलाओं को स्वतंत्रता मत दो- यानी महिलाओं को अरक्षित मत छोड़ो। वे अरक्षित हैं। उनकी रक्षा करने की कूवत इस पुरुष-सत्तात्मक समाज में किसी के पास नहीं। शासन के पास तो कतई नहीं। इसलिए बेहतर है वे अवस्थानुसार अपने पिता, अपने पति और अपने बेटे-बेटी की सुरक्षा के दायरे में रहें। ये पारिवारिक रिश्ते हमारे समाज की महिला के लिए अपेक्षाकृत अधिक निरापद हैं। हालांकि पूर्ण निरापद तो ये भी नहीं हैं! महिलाओं के जीवन की यही विडंबना है और रक्षाबंधन का त्यौहार इसी विडंबना का आख्यापन करता है। यह त्यौहार सलौना है, क्योंकि यह एक बहुत ही घिनौने समाज के चेहरे को अपनी सुन्दरता से ढांपे हुए है।
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