सिधेसरा खेत के मेड़ पर बैठे खैनी रगड़ते हुए आसमान की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखता है फिर अगले पल निराश होकर अपने खेतों में झुलसते हुए धान क...
सिधेसरा खेत के मेड़ पर बैठे खैनी रगड़ते हुए आसमान की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखता है फिर अगले पल निराश होकर अपने खेतों में झुलसते हुए धान के पौधों को । आज धान की रोपनी किये पच्चीस दिन हो गए हैं। खेतों में दरारें पड़ने लगी हैं। लेकिन वर्षा के नाम पर इंद्रदेव बस इतना ही मेहरबान हुए हैं की कहीं-कहीं पर थोड़ी बहुत घास उग आई है जानवरों के चरने पर थोथूने छिलने भर।
अचानक पीछे से किसी की चिल्लाने की आवाज आती है। अरे, यह तो मेरी पत्नी सुमंतिया की आवाज मालूम पड़ती है! वह बदहवास गिरती-पड़ती रोती- बिलखती दौड़ती चली आ रही है। सिधेसरा के समीप आकर हाँफते-कपसते हुए कहती है - नंदुआ के शरीर से आग बिग रहा है,उसे तेज ज्वर है,तीन उल्टियां भी कर चुका है , आँखें फाड़े जा रहा है , हिलता -डुलता भी नहीं है।
इतना सुनते ही सिधेसरा का कलेजा काँप जाता है। वह जल्दी से अपना लूंगीं खोंसकर दौड़ाते हुए घर की तरफ भागता है। पीछे से सुमंतिया भी भागती हुई आती है।
(नंदुआ सिधेसरा-सुमंतिया का एकलौता औलाद है। वह तेरह वर्ष का है। बचपन से ही गूंगा और विकलांग है। )
घर पहुंचकर देखता है कि नंदुआ का आधा शरीर खटिया के उस ओर लटका हुआ है। चेहरा उल्टियों में सना हुआ है। उसकी सांसें धीमी पड़ रही है l सुमंतिया छाती पीटकर रोने लगती है। सिधेसरा सुमंतिया को सँभालते हुए कहता है - कुछ नहीं होगा हमारे लल्ला को धीरज रखो। हम अभी लट्ठनमा का टेम्पू मंगवाते हैं इतना कहकर वह लट्ठनमा को बुलाने चला जाता है।
लठ्ठनमा को आवाज लगाता है - लट्ठन, हमरे नंदुआ का तबियत बड़ी जोर से ख़राब है उसे डागडर साहेब के पास ले चलना पड़ेगा। तुम गाड़ी ले चलो।
लठ्ठनमा अंदर से झुंझलाते हुए कहता है - देख, सिधेसर भईया तुम्हारी बेटी के बियाह में गाड़ी बीस जगह ले गए थे अपना रिस्क पर। तुम्हारे पास आठ हजार रूपये बाकी हैं l मालिक रोज मुझे घुड़कियाँ देता है, "सिधेसरा कब पइसा देगा?" कल ही गरियाते हुए कहा कि अबसे चाहे कोई तुम्हारे यहाँ मर भले न क्यों जाए लेकिन गाड़ी नहीं देना है। आखिर हमारा भी रोजी-रोटी का सवाल है कल होकर मालिक गाड़ी छीन लिया तो हमारे बच्चे तो भूखे मर जायेंगे!
तभी पीछे से सुमंतिया गरजते हुए कहती है - अरे,मरे तुम्हारा मालिक, अभी गाड़ी ले चलो।अपने कानों से दोनों बालियां और नाक से नथिया निकालकर देते हुए कहती है ई लो - सब मिलाकर कुल सात हजार तो मिल ही जायेंगे बाकी एक - दो दिन में दे दूंगी।
लठ्ठनमा बालियां और नथिया अपने जेब में रखते हुए कहा - ठीक है चलता हूँ।
वह गाड़ी लेकर सिधेसरा के घर पहुँच गया । सिधेसरा नंदुआ को अपने छाती से लगाते हुए गाड़ी में बैठ गया। सुमंतिया खेतों में खाद के लिए जो पैसे थे उसे अंचरा में बांधते हुए गाड़ी में बैठ गई। लठ्ठनमा गाड़ी बढ़ा दिया।
एक घंटा बाद डागडर साहेब का क्लिनिक पहुँच गया। गाड़ी से उतरकर दोनों क्लिनिक में पहुंचे। डागडर साहब उस समय खाली ही बैठे थे। जल्दी से उन्होंने आला लगा कर चेक किया। नंदुआ की नब्ज-नाड़ियां शिथल पड़ गई थी। उन्होंने सिधेसरा को धीरज धराते हुए कहा - माफ़ करना तुम्हारा नंदुआ अब नहीं रहा।
सिधेसरा-सुमंतिया के पैरों तले जमीन खिंसक गई। दोनों नंदुआ से लिपटकर दहाड़ मारकर रोने लगे ।सुमंतिया रो-रो कर बेसुध होती जा रही थी । उधर सिधेसरा का भी बुरा हाल हो रहा था रो-रो कर । लठ्ठनमा भी सिधेसरा से लिपटकर रोने लगा । वह अपने जेब से बालियां निकालकर सुमंतिया को देते हुए कहा - भउजी, इसे रख लो दाह-संस्कार और काम-क्रिया भी तो करना है। पैसा कहाँ से आवेगा ? इसे बगल के सुनार के यहाँ बेच दो। सुमतियां बगल के सुनार के यहाँ बालियां बेचकर पैसे ले आई। लठ्ठनमा रोते हुए गाड़ी लेकर श्मशान की ओर चल पड़ा।
नंदुआ के काम-क्रिया के बाद सिधेसरा पर बीस हजार का अतिरिक्त कर्ज हो गया। दो महीना पहिले ही बेटी का बियाह किया था उसका पच्चीस हजार अलग से कर्ज था। खेती के जुताई,बीज खाद आदि का कर्ज भी लगभग तीस हजार हो गया था। उसके माथे पर कुल मिलाकर अब पुरे पचहत्तर हजार का कर्ज हो चुका था। दस बीघा पट्टे पर जमीन लेकर धान लगाया था, सोचा था सारा कर्ज उतार दूंगा लेकिन भगवान के आगे किसी की चलती है क्या ?
दसों बीघा के धान पानी के बिना झुलसकर राख हुए जा रहे हैं। डीजल से पटवन करके धान उगाना पत्थरों पर खेती करने जैसा ही है। सिधेसरा को ख्याल आया की आत्म हत्या कर लूँ। लेकिन फिर उसे दो महीने पहले ब्याही बिटिया और सुमंतिया का चेहरा याद आ गया। वह अपने-आप को थप्पड़ मारते हुए कहा "आत्महत्या " सोचना भी पाप है। मेरे मरने के बाद सुमंतिया इतना कर्ज थोड़े न उतार पायेगी अकेले और महाजन पैसे थोड़े न छोड़ देंगे। उसे रोज गालियां देंगे,प्रताड़ित भी करेंगे। उसका कालेज काँप गया ये सब सोचकर l
एक दिन रात के समय सिधेसरा सुमंतिया के पास बैठकर बड़े हिम्मत से कहा- सुनो, कल हम दिल्ली जा रहे हैं कमाने के लिए l एक आदमी से बात हुई है वो कोई काम दिलबा देगा। दो चार महीना कुछ काम-धंधा करेंगे तो कर्ज थोड़ा कम हो जायेगा। सुमंतिया साफ़ इनकार कर दी,बोली - इधर गाँव में ही मजदूरी करके चुका देंगे। सिधेसरा बहुत समझया, देखो शहर में ज्यादा पैसा मिलेगा,वहां एक से एक पैसेवाले बाबु हैं इधर गाँव में मजदूरी करके इतना बड़ा कर्ज नहीं उतरेगा।
सुमंतिया मान गई। बेचारी के पास विकल्प भी तो न था दूसरा ।
अगली सुबह सिधेसरा दिल्ली के लिए निकल पड़ा। सुमंतिया लिट्टी-चोखा बनाकर रास्ते में खाने के लिए दे दी। वह भी जिद करके सिधेसरा के साथ उसे "गया स्टेशन" तक छोड़ने आ गई । दो घंटे बाद "कालका एक्सप्रेस" आ गई । सिधेसरा किसी तरह धक्का खाता हुआ जेनरल डब्बे में ढूंसा गया।
सुमंतिया रोते हुए बोली - फोन करते रहना और अपने दम्मा का दवा समय पर लेते रहना।
सिधेसरा भी अंदर से रुआंसा होते हुए भरे कंठ से कहा - तुम भी अपना कमर-दर्द का ध्यान रखना। ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी।
उधर आंसुओं से सिधेसरा का गमछा भीग रहा था इधर सुमंतिया का फटा आँचल। शादी के अट्ठारह साल बाद दोनों एक दूसरे से इतने दिनों के लिए इतनी दूर जुदा हो रहे थे। अचानक सुमंतिया के कानों में गूंजने लगी " रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे।"
आज फिर एक गरीब शहर का बोझ बढ़ाने जा रहा था।
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धन्यवाद रचनाकार :)
जवाब देंहटाएंबहुत आम मगर छोटे गाँव की वास्तविकता....अच्छी कोशिश
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