मैं बिलकुल हट्टा-कट्टा हूं । देखने में मुझे कोई भला 'आदमी रोगी नहीं कह सकता । पर मेरी कहानी किसी भारतीय विधवा से कम करुण नहीं है, यद्यप...
मैं बिलकुल हट्टा-कट्टा हूं । देखने में मुझे कोई भला 'आदमी रोगी नहीं कह सकता । पर मेरी कहानी किसी भारतीय विधवा से कम करुण नहीं है, यद्यपि मैं विधुर नहीं हूं । मेरी आप लगभग पैंतीस साल की है । आज तक कभी बीमार नहीं पड़ा था । लोगों का बीमार देखता था तो मुझे बड़ी इच्छा होती थी कि किसी दिन में भी बीमार पड़ता तो अच्छा होता ।
यह तो न था कि मेरे बीमार होने पर भी दिन में दो बार बुलेटिन निकलते । पर इतना अवश्य था कि मेरे लिए बीमार पड़ने पर हंटले पामर के बिसकुट- जिन्हेँ साधारण अवस्था में घरवाले खाने नहीं देते - दवा की बात और है - खाने को मिलते । यूडी. कलोन' की शीशियां सिर पर कोमल-करों से बीवी उंड़ेल कर मलती और सबसे बड़ी इच्छा तो यह थी कि दोस्त लोग आकर मेरे सामने बैठते और गंभीर मुद्रा धारण करके पूछते, कहिए किस की दवा हो रही है? कुछ फायदा है?
जब कोई इस प्रकार से रोनी सूरत बनाकर ऐसे प्रश्न करता है तब मुझे बड़ा मजा आता है और उस समय में आनंद की सीमा के उस पार पहुंच जाता हूं जब दर्शक लोग उठकर जाना चाहते हैं पर संकोच के मारे जल्दी उठते नहीं । यदि उनके मन की तसवीर कोई चित्रकार खींच दे तो मनोविज्ञान के 'खोजियों' के लिए एक अनोखी वस्तु मिल जाए ।
हां, तो एक दिन हाकी खेलकर आया । कपड़े उतारे स्नान किया । शाम को भोजन कर लेने की मेरी आदत है, पर आज मैच में रेफ्रेशमेंट जरा ज्यादा खा गया था इसलिए भूख न थी । श्रीमती जी ने खाने को पूछा । मैंने कह दिया कि आज स्कूल में मिठाई खाकर आया हूं कुछ विशेष भूख नहीं है । उन्होंने कहा ''विशेष न सही, साधारण सही । मुझे आज सिनेमा जाना है । तुम अभी खा लेते तो अच्छा था । संभव है मेरे आने में देर हो । '' मैंने फिर इंकार नहीं किया, उस दिन थोड़ा ही खाया । बारह पूरियां थीं और वही रोज वाली आध पाव मलाई । मलाई खा चुकने के बाद पता चला कि 'प्रसाद' जी के यहां से बाग बाजार का रसगुल्ला आया है । रस तो होगा ही । कल संभव है, कुछ खट्टा हो जाए । छ: रसगुल्ले निगलकर मैंने चारपाई पर धरना दिया । रसगुल्ले छायावादी कविताओं की भांति
सूक्ष्म नहीं थे, स्थूल थे । एकाएक तीन बजे रात को नींद खुली । नाभि के नीचे दाहिनी ओर पेट में मालूम पड़ता था, कोई बड़ी-बड़ी सुइयां लेकर कोंच रहा है । परंतु मुझे भय नहीं मालूम हुआ, क्योंकि ऐसे ही समय के लिए औषधियों का राजा, रोगों का रामबाण, अमृतधारा की एक शीशी सदा मेरे पास रहती है । मैंने तुरंत उसकी कुछ बूंदें पान कीं । दोबारा दवा पी । तिबारा । पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा की सार्थकता उसी समय मुझे मालूम हुई । प्रातःकाल होते-होते शीशी समाप्त हो गई । दर्द में किसी प्रकार कमी न हुई । प्रातः काल एक डाक्टर के यहां आदमी भेजना पड़ा ।
रायबहादुर डाक्टर विनोदबिहारी मुकर्जी यहां के बड़े नामी डाक्टर हैं । पहले जब प्रैक्टिस नहीं चलती थी तब आप लोगों के यहां मुफ्त जाते थे । वहां से पता चला कि डाक्टर साहब नौ बजे ऊपर से उतरते हैं । इसके पहले वह कहीं जा नहीं सकते । लाचार दूसरे के पास आदमी भेजना पड़ा । दूसरे डाक्टर साहब सरकारी अस्पताल के सब-असिस्टेंट थे । वे एक एक्के पर तशरीफ लाए । सूट तो वे ऐसा ही पहने हुए थे कि मालूम पड़ता था, प्रिंस आफ वेल्स के वेलेटों में हैं । ऐसे सूट वाले का एक्के पर आना वैसा ही मालूम हुआ जैसा लीडरों का मोटर छोड्कर पैदल चलना । मैं अपना पूरा हाल भी न कह पाया था कि आप बोले, ''जबान दिखाइए'' । प्रेमियों को जो मजा प्रेमिकाओं की आँखें देखने में आता है, शायद वैसा ही डाक्टरों को मरीजों की जीभ में आता है । डाक्टर महोदय मुस्कराए । बोले, ' 'घबराने की कोई बात नहीं है । दवा पीजिए । दो खुराक पीते-पीते आपका दर्द वैसे ही गायब हो जाएगा, जैसे हिंदुस्तान से सोना गायब हो रहा है । '' मैं तो दर्द से बेचैन था । डाक्टर साहब साहित्य का मजा लूट रहे थे । चलते-चलते बोले, ''अभी अस्पताल खुला न होगा नहीं तो आपको दवा मंगानी न पड़ती । खैर, चन्द्रकला फारमेसी से दवा मंगवा लीजिएगा । वहां दवाइयां ताजा मिलती हैं । बोतल में पानी गर्म करके सेंकिएगा । '' दवा पी गई । गर्म बोतलों से सेंक भी आरंभ हुई । सेंकते-सेंकते छाले पड़ गए । पर दर्द में कमी न हुई ।
दोपहर हुई शाम हुई । पर दर्द में कमी न हुई, हटने का नाम तो दूर । लोग देखने के लिए आने लगे । मेरे घर पर मेला लगने लगा । ऐसे-ऐसे लोग आए कि कहां तक लिखें । हां, एक विशेषता थी । जो आता एक न एक नुस्खा अपने साथ लेता आता था । किसी ने कहा, अजी, कुछ नहीं हींग पिला दो, किसी ने कहा, चूना खिला दो । खाने के लिए सिवा जूते के और कोई चीज बाकी नहीं रह गई जिसे लोगों ने न बताई हो । यदि भारतीय सरकार को मालूम हो जाए कि देश में इतने डाक्टर हैं तो निश्चय है कि सारे मेडिकल कालेज तोड़ दिए जाएं । इतने खर्च की आखिर आवश्यकता ही क्या है?
कुछ समझदार लोग भी आते थे, जो इस बात की बहस छेड् देते थे कि असहयोग-आंदोलन सफल होगा कि नहीं, ब्रिटिश नीति में कितनी सच्चाई है, विश्व आर्थिक
सम्मेलन में अमेरिका का भाषण बहुत स्वार्थपूर्ण हुआ इत्यादि । मैं इस समय केवल स्मरण-शक्ति से काम ले रहा हूं । तीन दिन बीत गए । दर्द में कमी न हुई । कभी-कभी कम हो जाता था; बीच-बीच में जोरों का हमला हो जाता था, मानो चीन-जापान का यद्ध हो रहा हो ।
तीसरे दिन तो यह मालूम होता था कि मेरा घर क्लब बन गया है । लोग आते मुझे देखने के लिए, पर चर्चा छिड़ती थी कि पंडित बनारसीदास ने इस बार किसको पछाडा, प्रसाद जी का अमुक नाटक स्टेज की दृष्टि से कैसा है, हिंदी के दैनिक पत्रों में बड़ी अशुद्धियां रहती है, अब देश में अनारकिस्ट नहीं रह गए है, लार्ड विलिंगडन अब ब्रुकबांड चाय नहीं पीते, छतारी के नवाब टेढ़ी टोपी क्यों लगाते है 'और राय कृष्णदास हफ्ते में नौ बार दाढ़ी क्यों बनवाते है; .अर्थात लार्ड विलिंगडन और महात्मा गांधी से लेकर रामजियावन लाल पटवारी तक की आलोचना यहां बैठकर लोग करते थे । और यहां दर्द की वह दर्दनाक हालत थी कि क्या लिखूं । मुझे भी कुछ बोलना ही पड़ता था । ऊपर से पान और सिगरेट की चपत अलग, भला दर्द में क्या कमी हो । बीच-बीच में लोग दवा की सलाह और डाक्टर बदलने की सलाह और कौन डाक्टर किस तरह का है, यह भी बतलाते जाते थे ।
आखिर में लोगों ने कहा कि तुम कब तक इस तरह पड़े रहोगे । किसी दूसरे की दवा करो । लोगों की सलाह से डाक्टर चूहानाथ कतरजी को बुलाने की सबकी सलाह हुई । आप लोग डाक्टर साहब का नाम सुनकर हंसेंगे । पर यह मेरा दोष नहीं है । डाक्टर साहब के मां-बाप का दोष है । यदि मुझे उनका नाम रखना होता तो अवश्य ही कोई साहित्यिक नाम रखता । परंतु ये यथानाम तथा गुण । आपकी फीस 'आठ रुपए थी और मोटर का एक रुपया अलग । आप लंदन के एफआरसीएस. थे ।
कुछ लोगों का सौंदर्य रात में बढ़ जाता है, डाक्टरों की फीस रात में बढ़ जाती है । खैर, डाक्टर साहब बुलाए गए । आते ही हमारे हाल पर रहम किया और बोले, मिनटों में दर्द गायब हुआ जाता है, थोड़ा पानी गरम कराइए, तब तक यह दवा मंगवाइए । एक पुर्जे पर आपने दवा लिखी । पानी गर्म हुआ । दो रुपए की दवा आई । डाक्टर बाबू ने तुरंत एक छोटी-सी पिचकारी निकाली; उसमें एक लंबी सूई लगाई, पिचकारी में दवा भरी और मेरे पेट में वह सूई कोंचकर दवा डाली ।
यह कह देना आसान है कि मेरा कलेजा निगाहों के नेजे के घुस जाने से रेजा-रेजा हो गया है, अथवा उनका दिल बरूनी की बरछियों के हमले से टुकड़े-टुकड़े हो गया है, पर अगर सचमुच एक आलपीन भी धंस जाए तो बड़े-बड़े प्रेमियों को नानी याद आ जाए, प्रेमिकाएं भूल जाएं । डाक्टर साहब कुछ कहकर और मुझे सांत्वना देकर चले गए । इसके बाद मुझे नींद आ गई और मैं सो गया । मेरी नींद कब खुली कह नहीं सकता, पर दर्द में कमी हो चली थी और दूसरे दिन प्रातःकाल पीड़ा रफूचक्कर हो गई थी ।
कोई दो सप्ताह मुझे पूरा स्वस्थ होने में लगे । बराबर डाक्टर चूहानाथ कतरजी की दवा पीता रहा । अठारह आने की शीशी प्रतिदिन आती रही । दवा के स्वाद का क्या कहना । शायद मुर्दे के मुख में डाल दी जाए तो वह भी तिलमिला उठे । पंद्रह दिन के बाद मैं डाक्टर साहब के घर गया । उन्हें धन्यवाद दिया । मैंने पूछा कि अब तो दवा पीने की कोई आवश्यकता न होगी । वे बोले, 'यह तो आपकी इच्छा पर है । पर यदि आप काफी एहतियात न करेंगे तो आपको अपेंडिसाइटीज' हो जाएगा । यह दर्द मामूली नहीं था । असल में आपको सीलियो सेंट्रिक कोलाइटीज' हो गया था । और उससे 'डेवेलप' कर पेरिकार्डियल हाइहेट्यूलिक स्टमकालिस' हो जाता, फिर ब्रह्मा भी कुछ न कर सकते । मालूम होता है कि आपकी श्रीमती बड़ी भाग्यवती हैं । अगर छ: घंटे की देर और हो जाती तो उन्हें जिंदगी भर रोना पड़ता । वह तो कहिए कि आपने मुझे बुला लिया । अभी कुछ दिनों आप दवा कीजिए । ''
डाक्टर महोदय ने ऐसे-ऐसे मर्जों के नाम सुनाए कि मेरी तबीयत फड़क उठी । भला मुझे ऐसे मर्ज हुए जिनका नाम साधारण क्या बड़े पढ़े-लिखे लोग भी नहीं जानते । मालूम नहीं, ये मर्ज सब डाक्टरों को मालूम हैं कि केवल हमारे डाक्टर चूहानाथ को ही मालूम हैं । खैर, दवा जारी रखी ।
अभी एक सप्ताह भी पूरा न हुआ था कि दो बजे को एकाएक फिर दर्द रूपी फौज ने मेरे शरीर रूपी किले पर हमला कर दिया । डाक्टर साहब ने जिन-जिन भयंकर मर्जों का नाम लिया था उनका स्वरूप मेरी तड़पती हुई आंखों के सामने नृत्य करने लगा । मैं सोचने लगा कि हुआ हमला किसी उन्हीं में से एक मर्ज का । तुरंत डाक्टर साहब के यहां आदमी दौड़ाया गया कि इंजेक्शन का सामान लेकर चलिए । वहां से आदमी बिना मांगी पत्रिका की भांति लौटकर आया कि डाक्टर साहब कहीं गए हैं । इधर मेरी हालत क्या थी उसका वर्णन यदि सरस्वती शार्टहैँड से भी लिखे तो संभवत: समाप्त न हो । एयरोप्लेन के पंखे की तेजी के समान करवटें बदल रहा था । इधर मित्रों और घरवालों की कांफ्रेंस हो रही थी कि अब कौन बुलाया जाए, पर डिसार्मार्मेंट कांफ्रेंस' की भांति कोई न किसी की बात मानता था, न कोई निश्चय ही हो पाता था । मालूम नहीं, लोगों में क्या बहस हुई, कौन-कौन प्रस्ताव फेल हुए, कौन-कौन पास । जहां मैं पड़ा कराह रहा था उसी के बगल में लोग बहस कर रहे थे । कभी-कभी किसी-किसी की चिल्लाहट सुनाई दे जाती थी । बीमार मैं था, अच्छा-बुरा होना मुझे था, फीस मुझे देनी थी, परंतु लड़ और लोग रहे थे । मालूम होता था कि उन्हीं लोगों में से किसी की जमींदारी कोई जबरदस्ती छीने लिए जा रहा है । अंत में हमारे मकान के बगल में रहने वाले पंडित जी की विजय हुई और आयुर्वेदाचार्य, रसज्ञ-रंजन, चिकित्सा-मार्तंड, प्रमेह-गज-पंचानन, कविराज पंडित सुखडी शास्त्री के बुलाने की बात तय हुई । आधा घंटा तो बहस में बीता । खैर, किसी तरह से कुछ तय हुआ । एक सज्जन उन्हें बुलाने के लिए भेजे गए । कोई पैंतालीस मिनट बीत गए, परंतु वहां से न वैद्यजी आए, न भेजे गए सज्जन का ही पता चला ।
एक ओर दर्द इनकम टैक्स की तरह बढ़ता ही चला जा रहा था, दूसरी ओर इन लोगों का भी पता नहीं । और भी बेचैनी बढ़ी । अंत में जो साहब गए थे वे लौटे, वैद्य जी ने बडे गौर से पत्र देखा और कहा कि 'अभी बुद्ध क्रांति-वृत्त में शनि की स्थिति है, एकतीस पल नौ विपल में शनि बाहर हो जाएगा ओर डेढ़ घड़ी एकादशी का योग है, उसके समाप्त होने पर मैं चलूंगा । आप आधा घंटे में आइएगा । सुनकर मेरा कलेजा कबाब हो गया । मगर वे कह आए थे, अतएव बुलाना भी आवश्यक था । मैंने फिर उन्हें भेजा । कोई आधे घंटे बाद वैद्य जी एक पालकी पर तशरीफ लाए । आकर आप मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गए । .आप धोती पहने हुए थे और कंधे पर एक सफेद दुपट्टा डाले हुए थे । इसके अतिरिक्त शरीर पर सूत के नाम पर कैवल जनेऊ था, जिसका रंग देखकर यह शंका होती थी कि कविराज जी कुश्ती लड़कर .आ रहे है ।
वैद्य जी ने कुछ और न पूछा-पहले नाड़ी हाथ में ली । पांच मिनट तक एक हाथ की नाड़ी देखी, फिर दूसरे हाथ की । बोले ''वायु का प्रकोप है, यकृत से वायु घूमकर पित्ताशय में प्रवेश कर अंत्र में जा पहुंची है । इससे मंदाभि का प्रादुर्भाव होता है और इसी कारण जब भोज्य पदार्थ प्रतिहत होता है तब शूल का कारण होता है । संभव है, मूत्राशय में अश्मन भी एकत्र हो । '' कविराज जी मालूम नहीं क्या बक रहे थे और मेरी तबीयत दर्द और क्रोध से एक दूसरे ही संसार में हो रही थी ।
आखिर मुझसे न रहा गया । मेंने एक सज्जन से कहा, ' 'जरा आलमारी में से आपटे का कोष ता लेते आइए' ' यह सुनकर लोग चकराए । कुछ लोगों को संदेह हुआ कि अब में अपने होश में नहीं हूं । मैंने कहा, ' 'दवा तो पीछे होगी, मैं पहले समझ तो लूं कि मुझे रोग क्या है पंडित जी कहने लगे, ' 'बाबू साहब, देखिए आजकल के नवीन डाक्टरों को रोगों का निदान तो ठीक मालूम ही नहीं, चिकित्सा क्या करेंगे । अंग्रेजी पढ़े-लिखों का वैद्यक-शास्त्र पर से विश्वास उठ गया है । परंतु हमारे यहां ऐसी-ऐसी औषधियां हैं कि एक बार मृत्युलोक से भी लौटा लें । मुहूर्त मिल जाना चाहिए । और अच्छा वैद्य मिल जाना चाहिए । '' इसके पश्चात वैद्य जी चरक, सुश्रुत, रसनिघंटु, भेषजदीपिका, चिकित्सा-मार्तंड के श्लोक सुनाने लगे । और अंत में कहा, ' 'देखिए, में दवा देता हूं और अभी आपको लाभ होगा । परंतु इसके पश्चात आपको पर्पटी का सेवन करना होगा । क्योंकि आपका शुक्र मंद पड़ गया है । गोमूत्र में आप पर्पटी का सेवन कीजिए, फिर देखिए दर्द पारद के समान उड़ जाएगा और गंधक के समान भस्म हो जाएगा । लिखा है
गोमूत्रेण समायुक्ता रसपर्पटिकाशिता ।
मासमात्रप्रयोगेण शूल सर्वे विनाशयेत् । ।
मैँनें कहा, ' 'शुक्र अस्त नहीं हो गया, यही क्या कम है । पंडित जी गोमूत्र पिलाइए और गोबर भी खिलाइए । शायद आप लोगों के शास्त्र में और कोई भोजन रह ही नहीं गया है । इसी कारण से आप लोगों के दिमाग की बनावट भी विचित्र है । खैर, पंडित जी ने दवा दी । कहा कि अदरख के रस में इस औषधि का सेवन करना होगा । खैर, साहब, फीस दी गई, किसी प्रकार वैद्य जी से पिंड छूटा । दो दिन दवा की गई । कभी-कभी तो कम अवश्य हो जाता था, पर पूरा दर्द न गया । सीआईडी. के समान पीछा छोड़ता ही न था । वैद्य जी के यहाँ जब आदमी जाता तब कभी रविवार के कारण, कभी प्रदोष के कारण और शायद त्रिदोष के कारण ठीक समय से दवा ही नहीं देते थे ।
अब वैसी बेचैनी नहीं रह गई थी, पर बलहीन होता गया । खाना-पीना भी ठीक मिलता ही न था । चारपाई पर पड़ा रहने लगा । दिन को मित्रों की मंडली आती थी । वह आराम देती थी कम, दिमाग चाटती थी अधिक । कभी-कभी दूर-दूर से रिश्तेदार भी आते थे । और सब लोग डाक्टरों को गाली देकर और मुझे बिना मांगी सलाह देकर चले जाते थे । मैं चारपाई पर 'इंटर्न' था । आखिर मेरा विचार हुआ कि फिर डाक्टर साहब की याद की जाए । जिस समय मैं यह जिक्र कर रहा था एक कांग्रेसमैन' बैठे हुए थे । यह सज्जन अभी जेल से लौटे थे । मुझे देखने के लिए तशरीफ लाए थे । बोले, ''साहब आप लोगों को देश का हर समय ध्यान रखना चाहिए । ये डाक्टर सिवा विलायती दवाओं के ठीकेदार के और कुछ नहीं होते । इनके कारण ही विलायती दवाएं आती है । आप किसी भारतीय हकीम अथवा वैद्य को दिखलाइए । '' ऐसी खोपड़ी वालों से मैं क्या बहस करता? मैंने मन में सोचा कि वैद्य महाराज को तो मैंने देख ही लिया । कुछ और रुपयों पर ग्रह आया होगा, हकीम भी सही ।
एक की सलाह से मसीहुअ हिंद, बुकराते जमां, सुकरातुश्शफा जनाब हकीम आलुए बुखारा साहब के यहां आदमी भेजा । आप फौरन तशरीफ लाए । इस जमाने में भी जब तेज-से-तेज सवारियों का प्रबंध सभी जगह मौजूद हैं, आप पालकी मेँ चलते हैं । मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि पालकी रख दी जाती है अथवा कहार कंधे पर ले लेता है और हकीम साहब उसमें टहला करते हैं । मेरा मतलब यह है कि जब किसी के यहां आप बुलाए जाते हैं तब पालकी के भीतर बैठकर आप जाते हैं ।
हकीम साहब आए । यद्यपि मैं अपनी बीमारी का जिक्र और अपनी बे-बसी का हाल लिखना चाहता हूं पर हकीम साहब की पोशाक और उनके रहन-सहन तथा फैशन का जिक्र न करना मुझसे न हो सकेगा । सर्दी बहुत तेज नहीं थी । बनारस में यों भी तेज सर्दी नहीं पड़ती । फिर भी ऊनी कपड़ा पहनने का समय आ गया था । परंतु हकीम साहब चिकन का बंददार अंगा पहने हुए थे । सिर पर बनारसी लोटे की तरह टोपी रखी हुई थी । पांव में पाजामा ऐसा मालूम होता था कि चूडीदार पाजामा बनने वाला था, परंतु दर्जी ईमानदार था । उसने कपड़ा चुराया नहीं, सबका सब लगा दिया; अथवा यह भी हो सकता है कि ढीली-मोहरी के लिए कपड़ा दिया गया हो और दर्जी ने कुछ कतर-ब्योंत की हो और चुस्ती दिखाई हो । जूता कामदार दिल्ली वाला था, मोजा नहीं था । रूमाल इतना बड़ा था कि अगर उसमें कसीदा कढा न होता तो मैं समझता कि यह रूमाल मुंह अथवा हाथ पोंछने के लिए नहीं तरकारी बांधने के लिए है । हकीम साहब के दाढ़ी के बाल ठुड्डी की नोंक ही पर इकट्ठे हो गए थे । मालूम होता था कि हजामत बनाने का बुला है । हकीम साहब पतले-दुबले इतने थे कि मालूम पड़ता था, अपनी तंदुरुस्ती आपने अपने मरीजों को बांट दी है । हकीम साहब में नजाकत भी बला की थी । रहते थे बनारस में, मगर कान काटते थे लखनऊ के ।
आते ही मैंने सलाम किया, जिसका उत्तर उन्होंने मुस्कराते हुए बड़े अंदाज से दिया और बोले, ' 'मिजाज कैसा है?
मैंने कहा, ''मर रहा हूं । बस, आपका ही इंतिजार था । अब यह जिंदगी आपके ही हाथों में है । ''
हकीम साहब ने कहा, ' 'या रब! आप तो ऐसी बातें करते हैं गोया जिंदगी से बेजार हो गए हैं । भला ऐसी गुफ्तगू भी कोई करता है । मरें आपके दुश्मन । नब्ज तो दिखलाइए । खुदावंदकरीम ने चाहा तो आननफानन में दर्द रफूचक्कर होगा । ''
मैंने कहा, ' ''अब आपकी दुआ है । आपका नाम बनारस में ही नहीं, हिंदुस्तान में लुकमान की तरह मशहूर है, इसीलिए आपको तकलीफ दी गई है ।
दस मिनट तक हकीम साहब ने नब्ज देखी । फिर बोले, ' मैं यह नुस्सा लिखे देता हूं । इसे इस वक्त आप पीजिए, इंशा अल्लाह जरूर शफा होगी । मैंने बगौर देख लिया । लेकिन आपका मेदा साफ नहीं है और सारे फसाद की बुनियाद यही है । ''
मैंने कहा, ' 'तो बुनियाद उखाड़ डालिए । किस दिन के लिए छोड़ रहे हैं । ''
हकीम आलू बुखारा साहब बोले, ' 'तो आप मुसहिल ले लीजिए । पांच रोज तक मुंजिज पीना होगा इसके बाद मुसहिल । इसके बाद मैं एक माजून लिख दूंगा । उसमें जोफ दिल, जोफ दिमाग, जोफ जिगर, जोफ मेदा, जोफ चश्म, हर एक की रियायत रहेगी । '' मुझसे न रहा गया । मैं बोला, ' 'कई जोफ आप छोड़ गए, इसे कौन अच्छा करेगा ।' ' हकीम साहब ने कहा, ' 'जब तक मैं हूं आप कोई फिक्र न कीजिए । ''
एक सज्जन ने उनके हाथों में फीस रखी । हकीम साहब चलने को तैयार हुए । उठे । उठते-उठते बोले, जरा एक बात का ख्याल रखिएगा कि आजकल दवाइयां लोग बहुत पुरानी रखते हैँ । मेरे यहां ताजा दवाइयां रहती हैं ।
मैंने उनकी दवा उस दिन पी । वह कटोराभर दवा जिसकी महक रामघाट के सिवर से कंपिटीशन के लिए तैयार थी, किसी प्रकार गले के नीचे उतार गया, जैसे अहत्कार लोग अंग्रेजों की डांट निगल जाते हैं । दूसरे दिन मुंजिज आरंभ हुआ । उसका पीना और भी एक आफत थी । मालूम पड़ता था, भरतपुर के किले पर मोरचा लेना है । मेरी इच्छा हुई कि उठाकर गिलास फेंक दूं पर घरवाले जेल के पहरुओं की भांति सिर पर सवार रहते थे । चौथे दिन मुसहिल की बारी आई । एक बडे से मिट्टी के बंधने से दवा मुझे पीने को दी गई । शायद दो सेर के लगभग रही होगी । एक छ गले के नीचे उतरा होगा कि जान-बूझकर मैंने करवा गिरा दिया । बधना गिरते ही असफल प्रेमी के हृदय की भांति चूर-चूर हो गया और दवा होली के रंग के समान सबकी धोतियों पर जा पड़ी । उस दिन के बाद से हकीम साहब की दवा मुझे पिलाने का फिर किसी को साहस न हुआ । खेद इतना ही रह गया कि उसी के साथ हकीम साहब वाला माजून भी जाता रहा ।
दर्द फिर कम हो चला । परंतु दुर्बलता बढ़ती जाती थी । कभी-कभी दर्द का दौरा अधिक वेग से हो जाता था । अब लोगों को विशेष चिंता मेरे संबंध में नहीं रहती थी । कहने का मतलब यह है कि लोग देखने-सुनने कम आते थे । वही घनिष्ठ मित्र आते थे । घरवालों को और मुझे भी दर्द के संबंध में विशेष चिंता होने लगी । कोई कहता कि लखनऊ जाओ, कोई एक्स-रे का नाम लेता था । किसी-किसी ने राय दी कि जल-चिकित्सा कीजिए । एक सज्जन ने कहा, यह सब कुछ नहीं, आप होमियोपैथी इलाज शुरू कीजिए, देखिए कितनी शीघ्रता से लाभ होता है । बोले, ' 'साहब, इन नन्हीं-नन्हीं गोलियों में मालूम नहीं कहां का जादू है । साहब जादू का काम करती है, जादू का । ''
एक नेचर-क्योर वाले ने कहा कि आप गीली मिट्टी पेट पर लेपकर धूप में बैठिए, एक हफ्ते में दर्द हवा हो जाएगा । हमारे ससुर साहब एक डाक्टर को लेकर आए । उन्होंने कहा, ' 'देखिए साहब! आप पढ़े-लिखे आदमी हैं । समझदार हैं। मैं बीच में बोल उठा, ' 'समझदार न होता तो भला आपको कैसे यहां बुलाता । ''
डाक्टर महोदय ने कहा, ' 'दवा तो नेचर की सहायता करने के लिए होती है । आप कुछ दिनों तक अपना 'डायट' बदल दीजिए । मैंने इसी डायट पर कितने ही रोगियों को अच्छा किया है । मगर हम लोगों की सुनता कौन है । असल में आपमें विटेमिन 'एफ' की कमी है । आप नीबू नारंगी, टमाटो, प्याज, धनिया के रस में सलाद भिगोकर खाया कीजिए । हरी-भरी पत्तियां खाया कीजिए । ''
मैंने पूछा, ' 'पत्तियां खाने के लिए पेड पर चढ़ना होगा । अगर इसके बजाय घास बतला दें तो अच्छा हो । जमीन पर ही मिल जाएगी । ''
इसी प्रकार जो आता इतनी हमदर्दी दिखलाता था कि एक डाक्टर, हकीम या वैद्य अपने साथ लेता आता था ।
खाने के लिए साबूदाना ही मेरे लिए अब न्यामत थी । ठंडा पानी मिल जाता था, यह परमात्मा की दया थी । तीन बजे एक पंडित जी महाराज आकर एक पोथी में से बड़-बड़ पाठ किया करते थे और मेरा मरज खाते थे । शाम को एक पंडित और आकर मेरे हाथ में कुछ धूल रख जाते कि महामृत्युंजय का प्रसाद है । इसी बीच में मेरी नानी की मौसी मुझे देखने आई । उन्होंने बडे प्रेम से देखा । देखकर बोलीं, ' 'मैं तो पहले ही सोच रही थी कि यह कुछ ऊपरी खेल है ।' ' मैंने पूछा, ' 'यह ऊपरी खेल क्या है नानीजी । '' बोलीं, ' 'बेटा, ' 'सब कुछ किताब में ही थोड़े लिखा रहता है । यह किसी चुडैल का फसाद है । '' मेरी स्त्री और माता की ओर दिखाकर कहने लगीं, 1 'देखो न इसकी बरौनी कैसी खड़ी है । कोई चुडैल लगी है । किसी को दिखा देना चाहिए' ' ।
मैंने कहा, ' 'डाक्टर तो मेरी जान के पीछे लग गए हैं! क्या चुडैल उनसे भी बढ्कर होगी । '' जब सब लोग चले गए तब मेरी स्त्री ने कहा, ' 'तुम लोगों की बात क्यों नहीं मान लिया करते? कुछ हो या न हो, इसमें तुम्हारा हर्ज ही क्या है । कुछ खाने की दवा तो देंगे नहीं । परमात्मा की आज्ञा तो टाली जा सकती है, परंतु अपनी या मैं तो कहूंगी किसी भले आदमी की स्त्री की आज्ञा कोई भला आदमी नहीं टाल सकता । मैंने कहा- 'तुम लोगों को जो कुछ करना है करो, मगर मेरे पास किसी को मत बुलाना । कोई ओझा या भूत का पचड़ा मेरे पास लेकर आया तो वही सन् 2 में मुजफ्फरपुर सम्मेलन में जो चप्पल पहनकर गया था उसी से में उठकर मरम्मत करने लगूंगा । '' श्रीमती जी बोलीं, अजी वह कोई ओझा थोड़े ही है । एम.ए. पास है । कुछ समझा होगा तभी तो यह काम करते हैं । कितनी स्त्रियां रोज उनके पास जाती हैं, कितने पुरुष जाते है । बड़े वैज्ञानिक ढंग से उन्होंने इसका अन्वेषण किया है । ''
मेरे दर्द में किसी विशेष प्रकार की कमी न हुई । 'ओझा से तो किसी प्रकार की आशा क्या करता । पर बीच-बीच में दवा भी होती जाती थी । अंत में मेरे साले साहब ने बड़ा जोर दिया कि यह सब झेलना इसीलिए है कि तुम ठीक दवा नहीं करते । होमियोपैथी चिकित्सा शुरू करो, सारी शिकायत गंजों के बाल की तरह गायब हो जाएगी । मैंने भी कहा, ''मुर्दे पर जैसे बीस मन वैसे पचास । ऐसा न हो कि कोई कह दे कि अमुक 'सिस्टम' का इलाज छूट गया । ''
अब राय होने लगी कि किस होमियोपैथ को बुलाया जाये । हमारे मकान से कुछ दूरी पर होमियोपैथ डाकिया था । दिनभर चिट्ठी बांटता था, सवेरे और शाम दो पैसे पुड़िया दवा बांटता था । सैकड़ों मरीज उसके यहां जाते । बड़ी प्रैक्टिस थी । एक और होमियोपैथ थे । चार पैसे फर्मा दिन में पुस्तकों का अनुवाद करते थे और प्राय: सायं होमियोपैथी से चार-छ: आने पैदा कर लेते थे । एक मास्टर भी थे जो कहा करते थे कि सच पूछो तो जैसी होमियोपैथी मैने 'स्टडी' की है, किसी ने नहीं की । कुछ बहस के बाद एक डाक्टर का बुलाना निश्चित हआ ।
डाक्टर महोदय आए । आप भी बंगाली थे । आते ही सिर से पांव तक मुझे तीन-चार बार ऐसे देखा मानो मैं होनोलूलू से पकड़कर लाया गया हूं और खाट पर लिटा दिया गया हूं । इसके पश्चात मेडिकल सनातन-धर्म के अनुसार मेरी जीभ देखी । फिर पूछा, ' 'दर्द ऊपर से उठता है, कि नीचे से, बाएं से कि दाएं से, नोचता है कि कोचता है; चिकोटता है कि बकोटता है; मरोड़ता है कि खरबोटता है । '' मैंने कहा कि मैंने तो दर्द की फिल्म तो उतरवाई नहीं है । जो कुछ मालूम होता है, मैंने आपसे कह दिया । डाक्टर महोदय बोले ' 'बिना सिमटाम के देखे कैसे दवा देने सकता है । एक-एक दवा का भेरियस सिमटाम होता है । '' फिर मालूम नहीं कितने सवाल मुझसे पूछे । इतने सवाल तो आईसीएस. 'बाइवावोसी' में भी नहीं पूछे जाते । कुछ प्रश्न यहां अवश्य बतला देना चाहता हूं । मुझसे पूछा, ' 'तुम्हारे बाप के चेहरे का रंग कैसा था । के बरस से तुमने सपना नहीं देखा । जब चलते हो तब नाक हिलती है या नहीं । किसी स्त्री के सामने खडे होते हो तब दिल धड़कता है कि नहीं? जब सोते हो तब दोनों आखें बंद रहती हैं कि एक । सिर हिलाते हो तो खोपड़ी में खटखट आवाज आती है कि नहीं । मैंने कहा, ' 'आप एक शार्टहैंड राइटर भी साथ लेकर चलते हैं कि नहीं । इतने प्रश्नों का उत्तर देना मेरे लिए असंभव है । ''
फिर डाक्टर बाबू ने पचीसों पुस्तकों का नाम लिया और बोले, ' 'फेरिंगटन यह कहते हैं, नैश यह कहते हैं, क्लार्क के हिसाब से यह दवा होगी । डाक्टर साहब पंद्रह-बीस पुस्तकें भी लाए थे । आधा घंटे तक उन्हें देखते रहे । तब दवा दी । आपकी दवा से कुछ लाभ अवश्य हुआ, पर पूरा फायदा न हुआ । मैंने अब पक्का इरादा कर लिया कि लखनऊ जाऊं । जो बात काशी में नहीं हो सकती, लखनऊ में हो सकती है । वहां सभी साधन हैं ।
सब तैयारी हो चुकी थी कि इतने में एक और डाक्टर को एक मेहरबान लिवा लाए । उन्होंने देखा, कहा, ' 'जरा मुंह तो देखूं । '' मैंने कहा, ' 'मुंह-जीभ जो चाहे देखिए । '' देखकर बड़े जोर से हंसे । मैं घबराया । ऐसी हंसी केवल कवि-सम्मेलन में बेढंगी कविता पढ़ने के समय सुनाई देती है । मैं चकित भी हुआ । डाक्टर बोले, ' 'किसी डाक्टर को यह सूझी नहीं । तुम्हें 'पाइरिया' है । उसी का जहर पेट में जा रहा है और सब फसाद पैदा कर रहा है' ' मैंने कहा, ' 'तब क्या करूं?'' डाक्टर साहब ने कहा, 'इसमें करना क्या है? किसी डेंटिस्ट के यहां जाकर सब दांत निकलवा दीजिए । '' मैंने अपने मन में कहा, ' 'आपको तो यह कहने में कुछ कठिनाई ही नहीं हुई । गोया दांत निकलवाने में कोई तकलीफ ही नहीं होती । '
खैर, रातभर मैंने सोचा । मैंने भी यही निश्चय किया कि यही डाक्टर ठीक कहता है । डेंटिस्ट के यहां से पुछवाया । उसने कहलाया कि तीन रुपए फी दांत तुड़वाने में लगेंगे । कुल दांतों के लिए छानबे रुपए लगेंगे । मगर मैं आपके लिए छ: रुपए छोड़ दूंगा । इसके अतिरिक्त दांत बनवाई डेढ सौ अलग । यह सुनकर पेट के दर्द के साथ-साथ सिर में भी चक्कर आने लगा । मगर मैंने सोचा कि जान सलामत है तो सब कुछ । इतना और खर्च करो । श्रीमती से मैंने रुपए मांगे । उन्होंने पूछा, ' 'क्या होगा?'' मैंने सारा हाल कह दिया । वे बोलीं, ' 'तुम्हारी बुद्धि कहीं घास चरने गई है क्या? किसी कवि का तो साथ नहीं हो गया है कि ऐसी बातें सूझने लगी हैं । आज कोई कहता है दांत उखड़वा डालो । कल कोई कहेगा सारे बाल उखड़वा डालो; परसों कोई डाक्टर कहेगा नाक नोचवा डालो, आंख निकलवा दो । यह सब फजूल है । तुम सुबह टहला करो, किसी एक भले डाक्टर की दवा करो । खाना ठिकाने से खाओ । पंद्रह दिन में ठीक हो जाओगे । मैंने सबका इलाज भी देख लिया । '' मैंने कहा, ' 'तुम्हें अपनी ही दवा करनी थी तो इतने रुपए क्यों बरबाद कराए?''
कुछ दिन के बाद मैंने समझा कि स्त्रियों में भी बुद्धि होती है । विशेषत: बीस साल की आयु के बाद ।
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(डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया से साभार)
बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंआप बीमार पड़े थे
अथवा किसा संगोष्ठी का आयोजन था
सादर