हाल ही में उत्तर प्रदेश में बड़े-बड़े नेताओं ने टीवी कैमरों के सामने वृक्षारोपण किया। उनका दावा है कि प्रान्त में पाँच करोड़ वृक्ष लगाए जाए...
हाल ही में उत्तर प्रदेश में बड़े-बड़े नेताओं ने टीवी कैमरों के सामने वृक्षारोपण किया। उनका दावा है कि प्रान्त में पाँच करोड़ वृक्ष लगाए जाएँगे। अब दावा है कि वादा है- यह तो हमारे महान नेता ही जानें। अपना दावा और अपना वादा वे ही गिनें- वे ही समझें। लिहाज़ा पता नहीं कि उन्होंने कितने वृक्ष लगाए, किन्तु टीवी की कृपा से इतना तो सारी दुनिया को पता चल गया कि अमुक-अमुक नेताजी ने वृक्षारोपण किया। वैसे हमारी सामान्य बुद्धि के अनुसार रोपण तो पौधों का होता है- नाजुक, नवजात पौधे, जिन्हें अनुकूल मिट्टी, खाद-पानी और हवा मिले तो जड़ पकड़ लें और एक दिन अपनी-अपनी क्षमतानुसार, अपने-अपने जेनेटिक गुणावगुण के अनुसार वयस्क पेड़ बन जाएँ। लेकिन हमारे नेता और बड़े-बड़े महानुभाव पौधे नहीं लगाते, वे तो लगाते हैं वृक्ष। यकीन मानिए, टीवी पर नेताजी लोगों ने जो बिरवे रोपे वे वृक्ष ही थे। लगभग आठ-आठ, दस-दस फुट ऊँचे लहलहाते हुए वृक्ष। और इसीलिए इस अभियान का नामकरण हमें बिलकुल युक्ति-संगत प्रतीत होता है- वृक्षारोपण, यानी वृक्ष का आरोपण। आज की पूरी राजनीति प्रदर्शन की राजनीति है। छोटा-सा बित्ते भर का पौधा लगाएं तो टीवी पर दिखेगा ही नहीं। इसलिए नेताजी अपनी से दुगनी ऊँचाई का लहलहाता हुआ पेड़ ही रोप देते हैं, कि लो, अब दिखाओ इसे टीवी पर।
किन्तु नेताओं का मुख्य काम पेड़ रोपना नहीं है। उनकी क्षमता, शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग और वृहत्तर व महत्तर प्रयोजनों के लिए होना चाहिए। ऐसा पूरा देशा जानता और मानता है। यही कारण है कि हमारे नेता लोग प्रायः अपने विपक्षी दलों और उनके नेताओं पर दोषों का आरोपण करते देखे-सुने जाते हैं। प्रान्त, देश और ब्रह्माण्ड में जो कुछ खराब, अनुचित और बुरा घटित हो रहा है, वह विपक्षी दल और उसके नेताओं ने किया और जो कुछ अच्छा है वह हमारा व हमारे दल का किया हुआ है। नेताओं द्वारा दोषारोपण तथा श्रेय-हरण का यह कार्यक्रम तो रात-दिन चलता रहता है, किन्तु वृक्षारोपण कभी-कभी और विशेषकर मानसून के दिनों में ही होता है। अलबत्ता दोनों ही बातें टी.वी. पर खूब प्रमुखता से दर्शायी जाती हैं।
पता नहीं, टेलीविजन दर्शकों को वृक्षारोपण अधिक सुहाता है या दोषारोपण। किन्तु जिस जोशो-खरोश के साथ हमारे नेता एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं, हमें लगता है कि उनका पूर्णकालिक और सबसे पसंदीदा कार्य यही है। वृक्षारोपण तो वे केवल टाइम-पास के लिए, स्वाद-परिवर्तन के लिए कभी-कभार कर लेते हैं।
दोषारोपण-कार्यक्रम की छटा देखनी हो तो शाम को टी.वी. पर कोई प्रमुख समाचार चैनल लगा लीजिए। ऐंकर जैसे ही किसी नेता को बोलने का मौका देता है वह दोषारोपण का पिटारा खोल देता है। उसके पिटारे में से तरह-तरह से विषैले नाग, रैटल स्नेक और करैत जोर-जोर से फुफकारने लगते हैं। चिल्ल-पों मच जाती है। नेताजी का स्वगत जो आरम्भ हो जाता है तो फिर किसी के रोके रुकने का नाम नहीं लेता। ऐंकर नेताजी को चुप कराने की कोशिशें करता ही रह जाता है, किन्तु नेताजी खुंटा तुड़ाई भैंस की तरह रेंकते-पोंकते, पूँछ उठाए, इधर-उधर उछलते-कूदते, ओंखड़ते चले जाते हैं। सामने कौन आया, किसने क्या कहा, किसने टोका, किसने रोका, किसने छेंका, उन्हें कोई होश नहीं रहता। दे दोषारोपण, दे दोषारोपण, दे दोषारोपण। ये ले बेटा, और ले, और भी ले, थोड़ा और ले, अभी और ले। नेताजी दोषारोपण करते-करते जब तक बेहाल नहीं हो जाते, लगे रहते हैं। दोषारोपण की उनकी क्षमता बेमिसाल है, श्लाघ्य है, वंदनीय है। पता नहीं अनुकरणीय भी है कि नहीं! यदि इसी शिद्दत से ये नेता लोग देश-वासियों की सेवा करते और देश की तकलीफें दूर करने की कोशिशें करते तो देश की तमाम समस्याएं वैसे ही दूर हो जातीं जैसे देश की पढ़ी-लिखी, समझदार जनता आम चुनावों और बहुरूपिये, छद्म-वेशधारी नेताओं से दूर हो गई है। ...तो साहब, दोषारोपण की ब्रह्मपुत्र में ऊभ-चूभ हो रहे नेताओं को जब चैनल की मर्यादा का खयाल नहीं रह जाता तो बेचारा या बेचारी ऐंकर के पास इस दोषारोपण की प्रचंड धारा में कूदने और नेताजी के बेकाबू हो गए घड़ियाली मुँह में कमर्शियल अन्तराल की ब्रेक लगाने के अलावा कोई चारा ही शेष नहीं रह जाता। मज़बूरन उसे घोषणा करनी पड़ती है- अब हमें रुकना पड़ेगा एक छोटे-से कमर्शियल ब्रेक के लिए। तो मिलते हैं ब्रेक के उस पार।
इस बरसाती मौसम में दोषारोपण से अधिक मुफीद है वृक्षारोपण। कहीं से पले-पलाए वृक्ष ले आओ और तमाम अधिकारियों, पत्रकारों, पिछलग्गुओं की भीड़ के बीच किसी माली की मदद से रोप दो वृक्ष। ले बेटा, हो गया तेरा आरोपण। सारा काम किया मज़दूरों और मालियों ने, श्रेय मिलता है नेताजी को। मज़ा तो तब आए, जब नेताजी खुद गैंती-फावड़े से गड्ढा खोदें, मिट्टी तैयार करें और फिर उसमें पौधा रोपें। लेकिन इतने जाँगर वाले नेता अब इस देश में पैदा नहीं होते। उनमें से अधिकतर तो पैदाइशी परजीवी हैं। खैर... पेड़ की किस्मत कहिए। उसे किसी बड़े नेता ने लगाया। उस पर झरने से पानी की बौछार करके उसे धन्य किया। रोपने वाले नेता के नाम की तख्ती वृक्ष के आगे ठोंक दी जाती है। बरसों यह तख्ती रहती है। कई बार खाद-पानी के अभाव में पेड़ मर जाता है, किन्तु तख्ती जिन्दा रहती है। उसे अमरत्व का वरदान प्राप्त है, जैसे नेताओं को। पेड़ से ज्यादा लोग उस तख्ती को देखते हैं। यहाँ एक प्रकार का रूपक है। देश मर जाता और बचा रह जाता है नेता।
नेताओं के नाम की तख्तियाँ तो और जगह भी लगती हैं। आजकल नेता लोग होलसेल में शिलान्यास करते हैं। एक ही जगह बैठे-बैठे बीसियों परियोजनाओं का शुभारम्भ कर डालते हैं। छुटभैये नेता अपने बड़े मुखिया नेता की विरुदावलियाँ संगमर्मर और ग्रेनाइट में खुदवाकर हाइमास्ट लाइटों के खंभे की जड़ में, नालियों की पुलिया पर, गली या सड़क के नाम-पट्ट के नीचे गारे-मसाले से चिनवा देते हैं, जिसमें बड़ी भावुक भाषा में सूचित किया जाता है कि ‘यह कार्य हमारे माई-बाप अमुक-अमुक नेताजी के आर्शीवाद से, अमुक-अमुक पदाधिकारी साहब की प्रेरणा से अमुक-अमुक निधि से संपन्न हुआ।’ यहाँ आर्शीवाद जान-बूझकर गलत वर्तनी में लिखा गया है, त्रुटिवश नहीं; और यह वर्तनी आजकल खूब प्रचलन में है। लेकिन होलसेल में जिन परियोजनाओं का शिलान्यास होता है, वे सब कार्यरूप में परिणत नहीं हो पातीं। कई बार ऐसी परियोजनाओं की शिलाएँ अहिल्याएँ बनी यहाँ-वहाँ धक्के खाती रहती हैं और उन्हें किसी वनगामी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पद-प्रहार का सुयोग मयस्सर नहीं होता। कोई-कोई परियोजनाएँ कागजों में ही बनती हैं, वहीं परवान चढ़ती हैं और वहीं से फलीभूत होती हुई, रूप-परिवर्तन करके, बड़े-बड़े लोगों की तिज़ोरियों में या स्विस बैंकों में पहुँच जाती हैं। उन्हें सद्गति प्राप्त हो जाती है।
पाँच करोड़ वृक्षारोपण के लिए फी पौध यदि दस रुपये की लागत भी आई और खुदाई, खाद, मज़दूरी आदि मदों पर फी पौध बीस रुपये और लगे तो यों समझिए कि डेढ़ सौ करोड़ रुपये का काम हो गया। इस मौसम के लिए बहुत हैं। अगले साल की जेठ-बैसाख में भगवान ने चाहा तो पाँच करोड़ में से ज्यादातर पौधों का राम नाम सत्त हो जाएगा। यदि वे लगाए ही नहीं गए होंगे तब तो और भी अच्छा रहेगा। कागजों में ही लगे, कागजों में ही रामनाम सत्त!! उसके बाद फिर से मॉनसून आएगा और फिर से वृक्षारोपण होगा। फिर से हरे-हरे कलदारों की फसलें लहलहाएँगी। और उसके बाद नए लोग आएँगे, नए नेता कमान संभालेंगे। वे इस वृक्षारोपण कार्यक्रम के सिलसिले को दोषारोपण की नई परम्परा से संवलित करेंगे। देश यों ही तरक्की के रास्ते पर आगे और आगे और आगे बढ़ता-डगराता चला जाएगा।
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