डॉग फ़ोबिया / कहानी / सतीश कुमार त्रिपाठी

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+++ डॉग फोबिया +++ ... मुझे डाग-फोबिया की समस्या है, यह एक तरह का रोग माना जाता है । मैं कोई पांच साल का था तो पड़ोस के पले हुए एक अल्सेशिय...

+++ डॉग फोबिया+++

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मुझे डाग-फोबिया की समस्या है, यह एक तरह का रोग माना जाता है । मैं कोई पांच साल का था तो पड़ोस के पले हुए एक अल्सेशियन कुत्ते ने मुझे काट लिया था। समय के साथ बचपन की यादें शनैः -शनैः खतम होती जाती हैं। परंतु आज भी जब कोई कुत्ता मुझे घूरता है या मेरी तरफ बढ़ता है तो मुझे भय हो जाता है। उस अल्सेशियन का काला मुंह, लटकती जीभ, बड़े-बड़े दाँत डरावनी चमकती आंखें जेहन में कौंधने लगती है। इसलिये मैं कुत्तों और कुत्ते पालने वालों से भरसक दूर रहता हूं।
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सड़कों पर घूमने वाले आवारा कुत्तों से उतना डर नहीं लगता, वो अपना पेट भरते है और अनावश्यक इंसानों से उलझते नहीं हैं। परंतु पालतू कुत्तों से डर लगता है, कब भौंकने लगे, कब काट लें, कब आकर पैरों के नीचे लोटने लगे कोई भरोसा नहीं होता। पालतू कुत्तों का व्यवहार सामान्य कुत्तों से अलग होता है। शायद पालकों के हिसाब से कुत्तों में अलग-अलग गुण आ जाते हैं। पालतू कुत्ते का नैसर्गिक स्वभाव समाप्त हो जाता है।
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वो सर्दी के महीने थे रात ग्यारह बज रहे थे, दांत किटकिटाने वाली सरदी पड़ रही थी। सहसा मुझे कूं-कूं की धीमी आवाज सुनाई दी, फिर इस कूं-कूं की आवाज तेज होने लगी। यह कुत्ते की आवाज थी। पत्नी ने दरवाजा खोल कर दुर-दुर कर उसे भगाया, लेकिन वह कुत्ता वही कूं-कूं करता रहा। सर्दी बहुत भयावह थी चारों तरफ घना कुहरा था, दालान कि फर्श ठंड से अधिक ठंडी हो गई थी। पत्नी को दया आ गई। उन्होंने एक बोरी बाहर रख दी।
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दरवाजा बंद करते हुए बताने लगी कि पड़ोस में, हमारी लेन में दस बारह मकान आगे कोई सज्जन रहते थे, नौकरी लगाने के नाम पर बहुत लोगों से पैसे ले चुके थे। बीती रात सारा सामान लेकर गायब हो गये। कुत्ते को छोड़ गये, वही कुत्ता है। उनकी दयालुता पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए मैंने कहा :-“अच्छा किया बोरी दे दी, अन्यथा अभी तक सोफे और कालीन पर बिचरने वाला और बिस्तर पर सोने वाला कुत्ता सीमेंट की सड़क पर सर्दी कैसे बिताता”।
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सामान्य कुत्तों की तरह घासफूस, राख, कही बुझती हुई अलाव, या कही गाड़ी के नीचे सोने की आदत, एक ही दिन में नहीं बन पाती। मुझे उसके पालकों पर क्रोध और उसपर दया आई। कैसे निर्दयी लोग रहे होंगे, उस मूक प्राणी को दरबदर ठोकरें खाने के लिये छोड़ दिया। जब जा रहें होंगे तो वह बेचारा भी उनके पीछे-पीछे ही जा होगा। कैसे धोखा दिया होगा इस मूक प्राणी को, यह सोचकर ही कोफ्त होने लगी।
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सुबह पत्नी जल्दी जग जाती है, बाहर झाडू लगाने गईं तो वह बोरी में लिपटा हुआ लेटा था, पत्नी ने उसे रोटी के दो टुकडे डाले और कामों में व्यस्त हो गई। मैं आफिस जाने के लिये बाहर निकला, स्कूटर बाहर निकाला। उसी समय वह स्कूटर के पास आ गया। मैंने पहली बार उसे देखा, इंडियन ग्रे-हाउण्ड नस्ल का भूरे रंग का विशालकाय कुत्ता था। उसकी पूंछ कटी हुई थी।
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मेरी जान एकबार सूख गई। मैंने दुर-दुर कर भगाने की कोशिश की, लेकिन वह तो पालतू था दुर-दुर का मतलब नहीं समझता था। वह भागा नहीं वही मेरे आस पास मँडराता रहा। पड़ोस के शरीफ मियां सपत्नीक दरवाजे पर आ गए थे। मैं कुत्ते डर को अंदर छिपाते हुए स्कूटर साफ करता रहा। शरीफ मियां ने कुछ खाने को डाला तो कुत्ता उनकी तरफ चला गया मेरा डर कुछ कम हुआ। मैंने शरीफ से पूछा:-“कल से ये यहाँ घूम रहा है, पता नहीं कहाँ से आया है इसका नाम क्या है?” शरीफ ने भी मुझे वही बात बताई जो पत्नी ने बताई थी और आगे जोड़ दिया:-“जब इसके मालिक का ही नाम कोई नहीं जानता तो इसका नाम किसी को कैसे पता होगा”।
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मैंने स्कूटर स्टार्ट किया और आफिस की ओर जैसे ही बढ़ा वह मेरी और लपका, मेरी घिग्गी बंध गई स्कूटर डगमगा गया। मुहल्ले में बेईज्जती ना हो और भोकाल कायम रहे इसलिए मैंने हिम्मत बटोर कर गाड़ी की रफ्तार बढाई, वह भी अपने लंबे लंबे पांव से गाड़ी के साथ-साथ दौड़ने लगा, कुछ देर में मैं समझ गया की यह मुझे काटेगा नहीं बल्कि मुझे मालिक का दर्जा दे रहा है। मुझे अच्छा सा महसूस हुआ मेरा डर उससे कुछ कम हो गया।
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पचास कदम आगे, लखनऊ के अलीगंज सैक्टर आई का मशहूर कूड़ा घर है, उसके पास पहुँचते ही ढेर सारे कुत्ते कूड़ा घर से निकलकर एकाएक सड़क पर आ गए और उस अजनबी कुत्ते पर भौंकने लगे। भौंकते हुए कुत्तों के भय से स्कूटर पर ब्रेक देना पड़ा। वह मेरे साथ दूसरे कुत्तों के क्षेत्र में घुस आया था। उसका आकार उन देशी सामान्य कुत्तों से दुगुना था, पर वह कुत्तों वाले नियम नहीं जानता था। ढेर सारे कुत्तों के सामने उसका आकार बेकार था, भों-भों कर कुत्ते उसके पास आते और काट कर भाग जाते। एकबार वह जोर से भौंका सारे कुत्ते दस बारह कदम पीछे हटे एक पल शांति के बाद फिर कुत्ते भौंकते उसकी तरफ बढ़ते, उसे काटने लगते वह फिर भौंकता, आकार के अनुसार उसकी आवाज भूंकने की आवाज भी उन कुत्तों से दूनी थी। वह दूसरे कुत्तों से लड़ने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया था। मैं स्कूटर से उतर दुर-दुर करने लगा देशी कुत्ते दूर हट गए और वह वापस मुड़ कर भागने लगा। अब कुत्ते भी उसके पीछे भाग रहे थे, बीच-बीच में उसे काट भी ले रहे थे।
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उसके जाते ही मैं भी आफिस की तरफ निकल लिया। ऑफिस में काम करते हुए रह-रह कर उसकी निरीहता का ख्याल आ रहा था। पांच बजे शाम को वापस लौटा तो वह कुत्ता घर से दस बारह कदम दूरी पर खड़ा था। स्कूटर गैरेज में रखते हुए गौर किया कि कुछ सामान्य कुत्ते उसके आसपास मंडरा रहे है , गुर्रा रहे थे और बीच-बीच में आकर उसके पैरो पर काटकर भाग जा रहे थे, मगर वह भौंकने या काटने की जगह कूं-कूं कर चुप हो जाता, एक दो बार वह खुद उनके पास जाता तो वो उसे काटकर भगा देते, वह फिर दीवार के पास आकर खड़ा हो जाता। उसकी हालत पर या स्वयं के कुछ न कर पाने पर तरस खाते हुए मैं घर में घुस चुका था।
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रात फिर उसे दरवाजे पर कूं-कूं सुनाई दी मैंने पत्नी से बोला कि एक बोरी डाल दो। पिछली रात को उन्होंने स्वयं बिना बोले बोरी डाल दी थी, आज भी डालना ही था। परंतु आज मैंने कह दिया था तो मेरे ऊपर एहसान करते हुए पंडतानी कहने लगी :-“ वैसे तो कुत्तों से बहुत डर लगता है, रास्ता तक बदल लेते हो पर इसपर बहुत प्यार आ रहा है। वो रखी है बोरी डाल दो”।
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इसी क्रम में वे आगे बोलीं:-“ मेरे घर के सामने गंदगी ना करे मैं ही झाड़ू लगाती हूं, कोई बाई तो तुमने लगवाई नहीं है जो मुझे आर्डर दो”। मैं बोरी लेकर यह सोचते हुआ बढ़ा कि कुत्तों की तरह इंसानों के भी अधिकार क्षेत्र होते हैं, दूसरे के अधिकार क्षेत्र में घुसते ही अगला काट खाने को तत्पर हो जाता है।
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अगले दिन रविवार था नौ बजे कुर्सी लगाकर धूप का आनंद लेने लगा, वह सामने नगर निगम कि दीवार के पास था, वहाँ देशी कुत्तों का अधिकार था, वो कुत्ते गुर्रा रहे थे और दौड़कर उसके पैरो पर काट ले रहे थे। वह मेरे पास आ गया । हमारे यहां नानवेज नहीं बनता न ही आवश्यकता से अधिक खाने की चीजें बनतीं, अतः सामान्यतः कुत्ते मेरे घर की तरफ नहीं आते थे। शायद इसीलिए मेरे घर का अहाता उसे सुरक्षित लग रहा होगा। वह घूम फिर कर वहीं आ जाता था। कुछ देर मेरे पास वह चुपचाप बैठा रहा। पुनः सड़क पार नगर निगम कि दीवार के पास गया और देशी कुत्तों के साथ धींगामस्ती शुरू हो गई, उसके पैर से कई जगह से खून रिस रहा था। उनके प्राकृतिक व्यवहार में मुझे हस्तक्षेप करना मुझे उचित नहीं लगा। शाम तक कुत्तों का यही खेल चलता रहा। वह अब कमजोर और लाचार दिख रहा था।
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सोमवार कि सुबह बोरी तो वहीं रखी थी पर वो मुझे नजर नहीं आया मैं इधर उधर देखते हुए ऑफिस चला गया। शाम को लौटा तो वह फिर नहीं दिखा, शरीफ मियां अपने घर की खिड़की साफ कर रहे थे, मैंने उनसे पूछा:-“ भाई वो कुत्ता नहीं दिख रहा कही चला गया क्या?” उन्होंने बताया :-“ सुबह उसकी लाश नाली के अंदर पड़ी थी। कुत्तों के काटने से कई घाव हो गए थे, शायद इसी वजह से मर गया। नगर निगम वाले दोपहर को उसकी लाश ले गए।“
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“चलो जो हुआ ठीक हुआ। उस गरीब की किस्मत में यही लिखा था” यह कहते हुए मैं घर में आया। चाय पीते हुए मुझे उस इंसान का खयाल आया जो उसके मरने से पहले ही मर चुका था।
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स्वयं के इंसान होने का गर्व भी टूटता महसूस हुआ।
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27-7-2016

सतीश कुमार त्रिपाठी , अनुभाग अधिकारी, केन्द्रीय विद्यालय, इरनाकुलम (केरल)

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रचनाकार: डॉग फ़ोबिया / कहानी / सतीश कुमार त्रिपाठी
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