ग़ज़ल सभी इल्जाम मुझ पर हैं रकीबों पर नहीं आते सफ़ीने रोज चलते हैं किनारों पर नहीं आते परेशां दिख रहें है क्यो...
ग़ज़ल
सभी इल्जाम मुझ पर हैं रकीबों पर नहीं आते
सफ़ीने रोज चलते हैं किनारों पर नहीं आते
परेशां दिख रहें है क्यों ये सारे फूल बागों के
ये भवरें आजकल ही क्यों गुलाबों पर नहीं आते
नए इस दौर में कुछ तो गया हैं छूट ही पीछे
पुराने गीत अब उनके भी होठों पर नहीं आते
सभी ही उड़ गए जब से पहर ये तीसरा आया
परिंदे भी तो अब सूखे से पेड़ों पर नहीं आते
मुझे गुमराह करके तुम कभी रास्ता न पाओगे
महकते फूल ये हरगिज भी काटों पर नहीं आते
ग़ज़ल
जो औरों को ख़ुशी देते वही खुशहाल रहते हैं
ख़लिश रखते है जो मन में वही कंगाल रहते हैं
बतादूँ राज खुशियों का करे मन आजमा लेना
जो खुशियाँ बाँटते वो तो मालोमाल रहते हैं
नहीं मैंने बताया पर ज़माने को पता सारा
मुहब्बत हो गई जब से गुलाबी गाल रहते हैं
नहीं शिकवा है लोगों से ये है क़ानून कुदरत का
यहाँ सूरज व चन्दा भी बदलते चाल रहते है
तुम्हारे बिन कोई श्रृंगार मुझको अब नहीं भाता
उदासी भर गई दिल में व बिखरे बाल रहते हैं
बड़ी बातें वो करते हैं हमेशा शान शौकत से
जो घर जाकर के देखा तो बड़े बदहाल रहते हैं
हमारे ही मुखालिफ तो खफा से आज हैं सारे
सभी हम काटते रहते वो बुनते जाल रहते है
सुनीता की तमन्ना बाँहों में उनकी ही दम निकले
फिदा हैं हमसफर पर हम तभी ससुराल रहते हैं
ग़ज़ल
होके अब तो विदा चल पड़ी बेटियाँ
मेरे आँगन की थी रौशनी बेटियाँ
गुडिया गुड्डे खिलोने पड़े रह गए
हो गई अब तो शायद बड़ी बेटियाँ
करती महसूस माँ की कमी को बड़ा
लौटी पीहर से फिर अनमनी बेटियाँ
ये सहनशक्ति का ये एक भण्डार हैं
जानें किस चीज की बनी बेटियाँ
दिन ढले अब वो घर से निकलती नहीं
रहती हैं आज कल क्यों डरी बेटियाँ
कुल को दीपक मिले सब यही चाहते
कोख में इसलिए ही मरी बेटियाँ
जाने किस बाग के फूल टूटे हैं ये
देख किसने खरीदी बिकी बेटियाँ
अधढंका सा है तन वो थिरकती रही
आज महफ़िल में क्यों नाचती बेटियाँ
सूखी मेहंदी गई रंग को छोड़ कर
इस तरह बाटँती है ख़ुशी बेटियाँ
पूछते है वो जन्नत मिलेगी कहाँ
जिसके आँगन में हों खेलती बेटियाँ
प्यार सत्कार थोडा सा गर मिल सके
ओर कुछ भी नहीं मांगती बेटियाँ
घर की दीवार को गौर से देखती
बीता बचपन रही खोजती बेटियाँ
दर्द में माँ पिता जी अगर हो कभी
रहती बेचैन सी हर घड़ी बेटियाँ
भाव मन के सुनीता उतारा करे
अब तो जाती नहीं इस गली बेटियाँ
ग़जल
समंदर और किनारें बोलते हैं
सुनो नदियाँ व झरने बोलते हैं
वो अच्छा सामने कहते हैं मुझको
बुरा बस पीठ पीछे हैं बोलते हैं
ख़ता तूने भले अपनी न मानी
तेरे कपड़े के छीटें बोलते हैं
जो सूखें हैं वो ज्यादा फड़फड़ाते
हवा चलती तो पत्ते बोलते हैं
तुम्हारी ही हिफाजत कर रहे हम
यही फूलों से काँटें बोलते हैं
मेरी उनको जरूरत है नहीं अब
मेरे अपनों के चेहरे बोलते हैं
न उसकी बात को हल्की लिया कर
तजुअर्बो से सयाने बोलते हैं
नईं तहजीब सी ली सीख किससे
बड़ों के बीच बच्चें बोलते हैं
कभी इस घर में चूड़ी थी खनकती
की अब टूटे झरोंकें बोलते हैं
तरक्की को बयाँ ये कर दिया ही
जो इन सड़कों की गड्डे बोलते हैं
ग़ज़ल
विवशता का बंधन भी अच्छा नहीं है
लड़े बिन समर्पण भी अच्छा नहीं है
जिसे दोष अपने छिपाने की आदत
वो कहता कि दर्पण भी अच्छा नहीं हैं
न तेरे बिना चैन मरके भी मिलता
बिना तेरे जीवन भी अच्छा नहीं है
बिखर जाएगी ऐसे सारी व्यवस्था
ये खाली सिंहासन भी अच्छा नहीं है
न बादल के जैसे ही रोया करो तुम
ये ज्यादा क्रंदन भी अच्छा नहीं है
नहीं हो सकेगी ग़ज़ल आज कोई
सुनीता अगर मन भी अच्छा नहीं हैं
ग़ज़ल 1
ये नफरत का असर कब तक रहेगा
है सहमा सा नगर कब तक रहेगा
हक़ीकत जान जाएगा तुम्हारी
जमाना बेखबर कब तक रहेगा
बगावत लाजमी होगी यहाँ पर
झुका हर एक सर कब तक रहेगा
हैं इक दिन हार जाएगी ये लड़कर
हवाओं का ये डर कब तक रहेगा
जमीं पर लौट के आना ही होगा
बता आकाश पर कब तक रहेगा
यहाँ फिर लौट आएँगी बहारें
मेरा सूना सा घर कब तक रहेगा
लगा लो फिर सुनीता बेल बूटे
पुराना सा शज़र कब तक रहेगा
ग़ज़ल
दूर जाने की बात मत करना
फिर रुलाने की बात मत करना
दर्द रग रग में ही समाया है
मुस्कुराने की बात मत करना
शान शौकत का है दिखावा सा
उस घराने की बात मत करना
है क़नाअत बहुत जरूरी भी
ओर पाने की बात मत करना
याद रखना शिक़स्त तू अपनी
फिर हराने की बात मत करना
बात अपनी बता सुनीता को
तू जमाने की बात मत करना
ग़ज़ल
लेखनी जब सहेली मेरी हो गई
मैं जमाने में सबसे धनी हो गई
है तजरुबा मेरा सूख जाएगा वो
जड़ अगर पेड़ की खोखली हो गई
आपके आगमन से मेरी बज्म में
रौशनी रौशनी रौशनी हो गई
एक गिरते को थामा तो ऐसा लगा
जैसे घनश्याम की आरती हो गई
दौर ए फैशन की अंधी चकाचौंध में
लापता लाज की ओढ़नी हो गई
मच गया आज कोहराम अम्बर में भी
जब खफा अब्र से दामिनी हो गई
अब सुनीता को ये छोड़ सकता नहीं
दर्द से इस कदर दोस्ती हो गई
ग़ज़ल
काम रख तू सिर्फ अपने काम से
ज़िन्दगी कट जाएगी आराम से
मुझसे नजरे मत मिला ओ अजनबी
डर जरा इस इश्क के अंजाम से
जिक्र मेरा क्या हुआ वो चल पड़े
इस कदर जलते है मेरे नाम से
कर दिया मदिरा ने घर बर्बाद जब
वो खफा सा हो गया है जाम से
भूख से माँ बाप घर में मर गए
लौट कर आया वो चारों धाम से
सर ही उसका काट डाला देखिये
हो गए जब दाम भी नाकाम से
अब वही निकले बड़े ज्ञानी यहाँ
देखने में जो लगे थे आम से
उसने देखा ओर नजरे फेर ली
जिन के खातिर हम हुए बदनाम से
सुबह से अब तक वो घर लौटे नहीं
मन में हैं बेचैनियां सी शाम से
ग़ज़ल 5
पूछते वो मुझे मुझको क्या चहिए
मुझको थोड़ी सी तेरी वफा चाहिए
हो शिकायत कोई तो बता दो अभी
दिल में रखना नहीं ये गिला चाहिए
सब पुरानों से अब दोस्ती होगी
मुझको दुश्मन कोई अब नया चाहिए
चूक जाए भले छोड़ कोशिश न तू
फिर निशाना तुझे साधना चाहिए
छाँव पीपल की मेरा पुराना सा घर
खो गया जो मेरा बचपना चाहिए
हम भी कहने लगेंगे गज़ल एक दिन
दोस्तों आपसे हौसला चाहिए
साँझ ढलते ही सूरज चला जाएगा
जलता हर पल रहे वो दिया चाहिए
कैसे बदलेगी तस्वीर इस देश की
उनके जैसा कोई सरफिरा चाहिए
कुछ तो हैं भ्रष्ट नेता मेरे देश में
साफ संसद की हमको हवा चाहिए
दिल को रोका मगर फ़िर भी माना नहीं
प्यार करने की मिलनी सजा चाहिए
ओर चाहत नहीं अब सुनीता है मुझे
देख खुद को सकूँ आईना चाहिए
ग़ज़ल 6
सब ही चुपचाप है बोलता कौन है
आज बाजार में फ़िर बिका कौन है
जेब अपनी सभी भर रहे बैठ कर
अब वतन के लिए सोचता कौन है
राह से सब गुज़रते न कोई रुका
देख लो ये पड़ा अधमरा कौन है
मैं तरसती हूँ माँ की उसी डाँट को
माँ के जैसे मुझे टोकता कौन है
सारी ही कोशिशें अब तो नाकाम सी
जग में रोके किसी से रुका कौन है
खुद को कहते हो ज्ञानी बताओ जरा
दिल के अंदर हमारे बसा कौन है
अपने अहंकार से हटके सोचा करो
ये खुशी ओर ग़म बाँटता कौन है
खोलकर आँख थोड़ा सा देखा करो
मुल्क को हर क़दम लूटता कौन है
कहते कलियुग में घनश्याम मिलते नहीँ
बनके मीरा समर्पित भला कौन है
हाथ माला है माथे पे चन्दन लगा
आज फिर बन गया देवता कौन है
सबको मालूम फिर भी रहे पूछते
सरहदो पर ये सर काटता कौन है
आजतक क्यों किसी ने कबूला नहीँ
कोख में बेटियाँ मारता कौन है
फिर से दंगे भड़कने लगे देश में
बैठ कर तालियां पीटता कौन है
आज ये फैसला वक्त पर छोड़ दो
बेवफा कौन है बावफा कौन है
सब खिलौने है माटी के संसार में
कौन छोटा यहाँ और बड़ा कौन है
लगता मेरा ज़माने में कोई नहीं
अब सुनीता से यूँ रूठता कौन है
तेरी दिल दुखाने की आदत न जाती
मेरी मुस्कुराने की आदत न जाती
दिए काट तुमने मेरे पंख बेशक
मगर फड़फड़फड़ाने की आदत न जाती
कभी द्वार अपना भले वो न खोले
मेरी खटखटाने की आदत न जाती
पता है कि लहरें इसे तोड़ देगी
मगर घर बनाने की आदत न जाती
सदा ये चमकता है सूरज के जैसे
तभी सच बताने की आदत न जाती
बड़ी चोट खाई कई बार टूटा
मगर दिल लगाने की आदत न जाती
कई बार पकड़ी है चोरी तुम्हारी
क्यों माखन चुराने की आदत न जाती
तुम्हारी हकीकत सभी जानते हैं
बहाने बनाने की आदत न जाती
ये जैसा है वैसा रहेगा हमेशा
सुनीता जमाने की आदत न जाती
ग़ज़ल 7
चोर खजाने के रखवाले हैं साहब
उनके आगे क्या ये ताले हैं साहब
नदियाँ अपनी पावनता तब खो देती
मिल जाते जब गंदे नाले हैं साहब
जिसको सारी दुनियाँ पागल कहती है
उसने मोती खोज निकाले हैं साहब
बीती काली रात है अब तो भोर हुईं
अब तो कुछ ही दूर उजाले हैं साहब
है उनको दिखलाना तो आसान नहीँ
दिल के ऊपर कितने छाले हैं साहब
मेरी नियत में बिल्कुल भी खोट नहीं
उसने ही तो डोरे डाले हैं साहब
मेरे बच्चे आज वक्त वो भूल गए
मज़दूरी कर कर के पाले हैं साहब
उनकी टेढ़ी बातें हम नहीं समझ सके
हम तो बिल्कुल भोले भाले हैं साहब
ग़ज़ल 8
कौन फूलों में रंग भरता है
बोल जादू ये कौन करता है
जब भी भावों में डूब जाती हूँ
मेरा हर शेर तब निखरता है
कंस रावण रहे न घरती पर
किसको हासिल हुई अमरता है
अब न उम्मीद इस जमाने से
मेरा दामन वही तो भरता है
लोग कहते हैं इश्क कर लो तुम
कोई दिल में नहीं उतरता है
ग़ज़ल 9
अभी हो रही हैं इशारों से बातें
नदी कर रही है किनारों से बातें
धडकने लगा दिल मुहब्बत में जब से
मैं करने लगी हूँ सितारों से बातें
तू चुपचाप गर तो ये बेचैन मन है
भले रोज होती हजारों से बातें
खड़ी इस जहां ने ये दीवार कर दी
किया अब करेंगे दरारों से बातें
गई लौट जब से खिजा अपने घर को
लगे फूल करने बहारों से बातें
ग़ज़ल
बात उसकी भी मान लेते हैं
फिर से चलने की ठान लेते हैं
सीख लेतें हैं हम तजरुबों से
वो किताबों से ज्ञान लेते हैं
करना इजिहार है मुहब्बत का
उसके दिल की तो जान लेते हैं
मोल मेहनत का जब नहीं मिलता
तब ही कर्जा किसान लेते हैं
रोज होती रहें मुलाकातें
उस गली में मकान लेते हैं
गीत
ये भावों का दरिया समेटूँ मैं कैसे
बता इसको कागज पे लिख दूँ मैं कैसे
न कागज है और ये कलम भी नहीं है
अँधेरा सा है रौशनी भी नहीं हैं
इसी कशमकश में हूँ अब क्या करूं मैं
बहुत देर की जिन्दगी भी नहीं हैं
न दिखती हैं राहें ये ढूंढूँ मैं कैसे
ये भावों ---
किसे मैं सुनाऊं नहीं कोई सुनता
मेरे मन की पीड़ा न कोई समझता
इन्हें गीत ग़ज़लों में कैसे उतारूँ
ये जज्बात मुश्किल है इस दिल में रखना
भला ऐसे चुपचाप बैठूँ मैं कैसे
ये भावों –
मैं इस दिल में इनको दबा भी न सकती
जमाने से इनको छुपा भी न सकती
मुझे जीत लेंगे ये मुझसे ही लड़कर
कभी इनको मैं अब हरा भी सकती
सुनीता से हल इसका पूछूँ भी कैसे
ये भावों –
गीत
बड़ा कीमती है ये सोने का पिंजरा
मेरी बेबसी है ये सोने का पिंजरा
नहीं उड़ सकी दूर आकाश में हूँ
न जाने मैं बैठी ही किस आस में हूँ
मेरे झूठे विश्वास को देखकर के
उड़ाता हंसी है ये सोने का पिंजरा
मेरी ---
ये सोने का पिंजरा नहीं तोड़ सकती
मगर मै तो जीना नहीं छोड़ सकती
सलाखें न मजबूत सी टूट सकती
बड़ा ही बली है ये सोने का पिंजरा
मेरी ---
मैं सागर में रहकर भी प्यासी रही हूँ
खजानें में रहकर विलासी नहीं हूँ
जो रहता है इसमे वही जानता है
दुखों की गली है ये सोने का पिंजरा
मेरी –
नहीं ख्वाब साकार ही कर सकी हूँ
भले कैद में पर नहीं मैं थकी हूँ
किसी दिन मै उड़ जाऊँगी उस गगन में
है माना हठी है ये सोने का पिंजरा
सुनीता को ये पंख जिसने दिए हैं
ये हालात पैदा भी उसने किए हैं
वही हर एक समस्या मेरी हल करेगा
भले ताकती है ये सोने का पिंजरा
माँ तो रोकर के हर बात कह जाती है
पर पिता की तो मन में ही रह जाती है
उनके दिल में क्या अरमान होते नहीं
क्या पिता जी ये सपने सन्जोते नहीं
फर्क इतना सा है वो बताते नहीं
या तरंगें हमीं छू वो पाते नहीं
हँसता परिवार जब साथ होते पिता
अनकहे मन के जज्बात होते पिता
घर का हर एक कोना महकने लगे
लौटते घर को जब शाम होते पिता
माँ भले हर ही तूफान सह जाती है
पर - -
घर की मजबूत सबसे कड़ी हैं पिता
जो न रूकती कभी वो घड़ी हैं पिता
सारा परिवार मोती सा लगता मुझे
जो पिरोए इन्हें वो लड़ी है पिता
हैं कड़क धूप में छाँव मेरे पिता
हैं समन्दर मे इक नाव मेरे पिता
सबकी ही मुश्किलों का वो हल जानते
खुद दिखाते नहीं घाव मेरे पिता
सब्र का बाँध माँ भी तो ढह जाती है
पर - -
है निराशा तो आस मेरे पिता
टूटता जो न विश्वास मेरे पिता
उनका ये कर्ज मुझ पर रहेगा सदा
आम समझो न तुम खास मेरे पिता
माँ है गर राग संगीत मेरे पिता
माँ है उम्मीद तो जीत मेरे पिता
माँ अगर दीप है रोशनी बन गए
माँ है मर्यादा तो रीत मेरे पिता
ये सुनीता की आँखें भी बह जाती है
पर पिता ---
गीत
पता मैंने तेरा हजारों से पूछा
कभी चाँद से और सितारों से पूछा
है वेदों में ढूंढा पुराणों में ढूंढा
ये गीता के मैंने श्लोकों में ढूंढा
समन्दर की ठहरी सी लहरों से पूछा
थी मन्दिर में दीदार करने गई मैं
तेरी खोज में अब दीवानी हुई मैं
तेरा पर पाकर रहूँगी मैं एक दिन
कभी हर मानूंगी ऐसे नहीं मैं
ये सब फूल कलियों नहीं जानती हैं
ठिकाना तेरा तब बहारों से पूछा
लगी शाम ढलने अँधेरा हुआ है
सफल क्यों न प्रयास मेरा हुआ है
मैं जन्मोजन्म से तुझे ढूंढती हूँ
क्या ये खेल पूरा न तेरा हुआ
हवाओं ने शायद ही देखा हो तुमको
सुनीता ने उसको इशारों से पूछा
गीत 1
कर देंगे आजाद तुझको को कर देंगे आजाद माँ
और भी तो वीर पैदा होगे अपने बाद माँ
हम चले हैं माँ ये अपनी जान तेरे नाम कर
चरणों तेरे सर झुका कर ऊँची तेरी शान कर
ये तमन्ना इस धरा पर जन्म फिर से ही मिले
अब नहीं अमृत की चाहत हम चले विषपान कर
हार मानेगी नहीं तेरी कभी औलाद माँ
कर देंगे ------
हम गुलामी की बंधी इन बेड़ियों को तोड़कर
एक कर देंगे वतन को सब दिलों को जोड़कर
मिट्टी में मिल जाएगी तेरी ही हम माँ भारती
ओर जाएगे कहाँ हम तेरा आँचल छोड़कर
छोड़ जाएगे दिलों पर अपनी गहरी याद माँ
कर देंगे -----
लौट जाएंगे ये तूफां हमसे लड़कर देखना
छोड़ देंगे रास्ता पर्वत भी डरकर देखना
करके देखो दोस्ती इस मौत से भी तुम कभी
तू अमर हो जाओगे ऐसे भी मरकर देखना
गूंजने देखो लगा है ये विजय का नाद माँ
गीत
अंधेरी रात में दीपक जगाने कौन आएगा
भटकते राही को रस्ता दिखाने कौन आएगा
नशे ने कर दिए बर्बाद कितने आशियाने हैं
ख़ुशी में गम में पीते हैं ये पीने के बहाने हैं
नशे के खौफ को दिल से मिटाने कौन आएगा
भटकते----
गिरी इंसानियत ऐसे गए ये भूल मर्यादा
गए हैं भूल रिश्तों को दिया है तोड़ हर वादा
है खोया मान रिश्तों का बचाने कौन आएगा
भटकते----
पली जब कोख में बेटी उसे ही मार डाला है
बुझाकर दीप कहता की नही मिलता उजाला है
जो टूटे फूल डाली से सजाने कौन आएगा
भटकते----
दबे हैं कर्ज से कंधे किसानों के नहीं दिखते
बड़े बदहाल है सारे तभी तो खेत भी बिकते
किये वादे तो लाखों ने निभाने कौन आएगा
भटकते----
कभी लड़ते हैं मजहब की खड़ी दीवार सी करके
मिलेगा क्या बता दो ये सियासत रोज ही करके
बड़ी गहरी लकीरें है मिटाने कौन आएगा
भटकते----
शहीदों का है अन्दर खून पर कुछ अनमना सा है
अँधेरा छट ही जाएगा ये फैला जो घना सा है
दहकती आग इस दिल में लगाने कौन आएगा
भटकते----
निरंतर जो चलेगा वो सदा उस पार जाएगा
मुझे विश्वास ही पूरा अँधेरा हार जाएगा
सुनीता संग कदमों को बढाने कौन आएगा
भटकते----
मुक्तक
मुस्कुराते हैं आपको देखकर
गुनगुनाते हैं हम आपको देखकर
और कोई वजह तो नहीं खास
जीए जाते हैं आपको देखकर
तुम हमारे लिए तो बहुत खास हो
हर ख़ुशी पास है तुम अगर पास हो
जब अँधेरा हुआ तुम उजाला बने
जब निराशा हुई बन गए आस हो
दूर जाना नहीं हमसे तुम रूठकर
जी सकेंगे न हम इस कदर टूटकर
बिन तुम्हारे अधूरे हैं बेजान हम
कब पतंगे उडी डोर से छूट कर
गई बेकरारी में ये उम्र सारी
मगर आँखें थकने लगी अब हमारी
बरसते हैं नैना तरसते हैं नैना
सदा देखने को ये सूरत तुम्हारी
जमीनों और वसीयत के बहुत हकदार मिलते हैं
मगर माँ बाप बूढ़े से सदा लाचार मिलते हैं
सुना जो बांटते वो ही मिला वापिस जमाने में
जिन्होंने फूल बाँटे थे उन्हें अंगार मिलते हैं
निगाहें ढूंढती फिरती उसी आँगन उसी घर को
मधुर फटकार वो माँ की पिता जी के उसी डर को
नहीं मंदिर मिला अब वो नहीं वो देवता मिलते
समझ में ही नहीं आता झुकाऊँ अब कहाँ सर को
समय के साथ थोड़ा सा बदलना भी जरूरी है
कभी चट्टान बन जाना पिघलना भी जरूरी है
नहीं हालात बदलेंगे हमारे देश के ऐसे
घरों से आज थोड़ा सा निकलना भी जरूरी है
दिलों के बीच में उनको खड़ी दीवार करने दो
हमें बस प्यार आता है हमें बस प्यार करने दो
हमारे इस मिलन को ये नहीं अब रोक पाएगा
जमाना कर रहा है तो इसे तकरार करने दो
हमें ये त्याग मर्यादा भी सिखलाती है रामायण
सदा ही सार जीवन का भी समझाती है रामायण
ये करुणा, प्रेम, कर्त्तव्यों की अद्भुत एक गाथा है
नहीं इतने से शब्दों में समा पाती है रामायण
मिलेगा रास्ता तुझको पढ़ा कर सार गीता का
कभी न भूल पाएंगे ये जग उपकार गीता का
मिटेगी हर समस्या रास्ता मिल जाएगा तुमको
दिलों को चैन दे देता सदा दीदार गीता का
मन को अपने टटोला करो
राज ये भी तो खोला करो
छोड़ औरों पे रखना नजर
अपने अवगुण भी तोला करो
वक्त आता रहा वक्त जाता रहा
पर हमें ये सदा ही सीखता रहा
खींचता जो लकीरें ये मानव रहा
सिर्फ उनको यही तो मिटाता रहा
दोहे
आँखें होती आइना ,सब देती हैं बोल
मन के सारे भेद को , ये देती हैं खोल
भाई भाई कर रहे ,आपस में तकरार
याद किसी को भी नहीं , राम भरत का प्यार
जग में केवल माँ पिता , हैं ऐसे इन्सान
जो अपनी औलाद के , खातिर दे दे जान
अपने मुख से जो करे , अपना ही गुणगान
अंदर से है खोखला , समझो वो इंसान
ज्ञान उसे था कम नहीं ,था बेहद बलवान
पर रावण को खा गया ,उसका ही अभिमान
नदी किनारे तोड़ती ,आता है तूफ़ान
नारी नदिया एक सी, मर्यादा पहचान
ढल जाएगा एक दिन ,रंग और ये रूप
शाम हुई छिपने लगी ,उजली उजली धूप
माला लेकर हाथ में , कितना करलो जाप
काटेंगे सद्कर्म ही,तेरे सारे पाप
गौरीसुत हम आपसे ,विनती करते आज
पूरे सबके काज हो , रखना सबकी लाज
मीरा और रहीम हो ,तुलसी दास कबीर
दोहे में सबने कही ,बात बड़ी गंभीर
मनभावन अद्भुत बड़ा ,सुंदर दोहा छंद
गूढ़ ज्ञान से है भरा , मन को दे आनंद
कटते माँ के द्वार पर , दुख संकट जंजाल
देख सुनीता कर दिया ,सबको मालोमाल
घायल है माँ भारती ,दामन पर हैं दाग
नफरत की प्रतिशोध की ,बढती जाती आग
सबको जग में चाहिए , मान और सम्मान
अमृत ही सब चाहते ,कौन करे विषपान
कहने वाले कह गए ,बात बड़ी ही खूब
गर है तुमको तैरना ,पहले जाओ डूब
बहुत दुखी निर्धन यहाँ , बहुत दुखी धनवान
जग में देखा है दुखी , मैंने हर इंसान
पैसे ने कानून को, बना दिया है खेल
मुजरिम होते हैं बरी निर्दोषों को जेल
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परिचय
नाम : सुनीता काम्बोज
जन्म :
विधा : 10 अगस्त 1977 ब्याना , जिला यमुनानगर (हरियाणा) भारत
ग़ज़ल , छंद ,गीत
शिक्षा : हिन्दी और इतिहास में परास्नातक
प्रकाशन :
ब्लॉग : अनुभूति काव्य संग्रह
शब्दों की महक
सम्पर्क : Sunitakamboj31@gmail.com
पता :-
श्रीमती सुनीता काम्बोज पत्नी श्री राजेश कुमार काम्बोज
मकान नंबर -120 टाइप -3
जिला –संगरूर
स्लाईट लोंगोवाल पंजाब 148106
मोबाइल नंबर -09464266415,09779773491
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स्थाई निवासी – यमुनानगर (हरियाणा )
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