मनोज कुमार श्रीवास्तव, 1987 संवर्ग के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं. आपने सहायक प्राध्यापक के रूप में अध्यापन कार्य किया और इसक...
मनोज कुमार श्रीवास्तव, 1987 संवर्ग के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं. आपने सहायक प्राध्यापक के रूप में अध्यापन कार्य किया और इसके बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा का सफर प्रारंभ किया। आयुक्त एवं सचिव जनसंपर्क, सचिव संस्कृति, न्यासी सचिव, भारत भवन, प्रबंध संचालक मध्यप्रदेश माध्यम, भोपाल कमिश्नर, मुख्यमंत्री सचिवालय में प्रमुख सचिव पद का कार्यभार संभाल चुके मनोज श्रीवास्तव वर्तमान में न्यासी सचिव, भारत भवन, संस्कृति, वाणिज्यिक कर और धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग के प्रमुख सचिव हैं.
एक कुशल प्रशासक की अपनी छवि के साथ ही मनोज कुमार श्रीवास्तव एक विचारशील लेखक भी हैं. गद्य और पद्य दोनों में आपकी लेखनी समान अधिकार से चलती है. कविता के संसार के समानांतर आपका गद्य विचार-जगत की गहराइयों में जाता है. अपनी जातीय परम्परा से निरंतर संवाद करता आपका लेखन आधुनिकता के प्रचलित मुहावरों से भी बाहर जाता है.
मनोज कुमार श्रीवास्तव द्वारा रची गई किताबों में - मेरी डायरी से, यादों के संदर्भ, पशुपति, स्वरांकित और कुरान कविताएँ प्रमुख हैं. इनके अलावा वंदेमातरम्, यथाकाल और पहाड़ी कोरबा पर पुस्तकें हैं. सुंदरकाण्ड के पुनर्पाठ पर आपने अब तक चौदह भागों में सुदीर्घ व्याख्या लिखी है जो वृहद पुस्तकाकार रूप में दो खण्डों में प्रकाशित है. इसके अभी दो खण्ड आना शेष हैं. मनोज श्रीवास्तव ने शक्ति की अवधारणा पर भी गंभीर विचार किया है. शक्ति प्रसंग नाम से आपकी एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है.
संपर्क – डीएन 2/11, चार इमली, भोपाल मप्र
प्रकाशक
रचना समय
197, सेक्टर-बी, सर्वधर्म कॉलोनी,
मो. : 9424418567, 9826244291
आवरण संयोजन : प्रीति भटनागर
मुक्ति को
जिसने इन स्नैप्स को खींचने
के लिए मुझे लगातार उकसाने
का धर्म निभाया
1
एक समय था
जब देवताओं की भी मृत्यु होती थी
और असुरों की भी
गुजरते थे वे भी
जन्म और मरण के चक्र से
रहे होंगे औरों के विश्वासों में
देवता स्वभावतः अमर
इस देश में
अमरता का अर्जन करना पड़ता है
दूध का समुद्र है
जीवन के पोषण के लिए पर्याप्त
लेकिन उससे भी आगे
पुरुषार्थ का एक और
पल है
भारी कशमकश के बीच
मंथन करना पड़ता है उसका भी जब
अमर होना लाइसेंस नहीं है
किसी आलस्य का
और बैठे ठाले नहीं मिलते
नश्वरताओं की उलझी पहेलियों से निकलने के पथ
कर्म ही धर्म रहा उनका
इतिहास ने अमर
कर दिया जिन्हें
एक समय था जब देवताओं की भी मृत्यु होती थी
2
मृत्योsर्मा अमृतं गमय
मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो
लेकिन कोई ले नहीं जाएगा वहां
कि तुम किसी के कांधों पे सवार होकर
अमृत की यात्रा नहीं कर सकते
प्रार्थना पवित्र है
लेकिन निर्भर नहीं है
भारी मेहनत लगती है
कशाकश भरी है ये कोशिश
और वह भी अकेली नहीं
तुम्हारे भीतर के शुभ तत्व
और
अशुभ
के बराबर की बहुत सी
सामूहिक परीक्षाओं को देकर
भव-संभव होता है अमृत
अमृत का उदय
अमृत घटता है जब इतने सारों के बीच
वही अमृत-घट है
शिप्रा के इस घाट पर पहचानो उसे
3
वही तो आस है
अन्यथा सोचो
कभी देवत्व भी नश्वर होता
पानी के बुलबुले की तरह
तो क्या हममें
इस पानी में नहाने की
इस पूतपावन इच्छा का भी
यह सामुदायिक जनम होता
हम अपनी अपनी बहुत सी क्षणभंगुरताओं
बहुत-सी अस्थिरताओं
बहुत-सी परिवर्तनशीलताओं से होते हुए
महाकाल के द्वार आते हैं
साक्षात् करने
उस स्थाणु को जो हमारे भीतर अमृत की आशा का स्फुरण
करता है
अमृत सिर्फ़ आस्वाद नहीं है
वह समय में एक सफर भी है जिसका किनारा कहीं नहीं
यों ही नहीं दो आदि-देवों में
किसी को भी
तीसरे का छोर
न मिल सका कभी
महाकाल के कोई फ्रंटियर नहीं दिए गए हमें पहुंचने
यही क्या हमको कम वरदान
कि शिप्रा तक पहुंचकर ही
हमारी यात्रा हो जाती है
उत्सव संभवा
4
अमृत की वह बूंद जो हमारे लिए विकल है
उसकी खोज हमें भी है
यहीं गिरी थी कहीं
यहीं कहीं
गिरी थी वहां जहां नदी है
गंगा हो या गोदावरी
त्रिवेणी हो या क्षिप्रा
नदी है तो
इस पृथ्वी पर जीवन
अमृत है
5
आसमान से सिर्फ उल्काएं ही नहीं गिरतीं
सिर्फ बिजली ही नहीं टूटती
अमृत भी गिरता है
आसमान से गिरा सब कुछ
खजूर में ही नहीं अटकता
प्रवाहित भी होता है
अटकाने नहीं, तारने
अमृत को भी
धरती की उतनी ही प्यास है
जितनी धरती को अमृत की
अमृत आकाश की आदि आकांक्षा है
अमृत धरती की प्राचीन स्मृति है
6
वे कोई और हैं
जिनके यहां शैतान भी
बराबरी से अमर है
लेकिन इस कुंभ-कल्चर में
ऐसा कोई समानान्तर
उपलब्ध नहीं
क्या इसने देवता लोगों को ग़ाफिल बना दिया
कि असुर उन्हें निरंतर सजग रखते
देवता और असुरों के बीच
संघर्ष उपयोगी ही रहता है
न हो
तो चार जगह भी न टपके
अमृत
हम मर्त्य मनुष्यों के हेतु
7
अमृत के पूर्व विष भी निकला था
और हालांकि एक बड़ी हद तक नीलकंठ ने
उसे धारा
लेकिन पूरा नहीं
कुछ बूंदें तब भी टपक पड़ीं
कहते हैं कि जहरीले जीव-जन्तु और
जहरीली वनस्पतियां वहीं से आईं
और जहरीली जिह्वा
जहरीले दिल
जहरीले रसायनों से बुझे हुए खेत
जहरीले ड्रग्स
जहरीली गैसें
कारखानों के जहरीले निर्गम
वे किस मंथन के बाइ-प्रोडक्ट थे
जो नीलकंठ के गले में भी न समाए
हम सबके हिस्से आए
8
वे तो त्यागी थे परम
और तपस्वी भी कोई उनकी जोड़ का न था
या शायद एक अपर्णा ही थीं
जिन्होंने अपने तप के प्रतिबल से उन्हें
अपना जीवन साथी सिद्ध भी किया
लेकिन हम हैं
काम क्रोध मद मोह लोभ के मारे
हम तो विष सिरजते हैं
विष को जितना धारण करते हैं
उतना वितरण भी
उनका विषधारण उन्हें
नीलकंठ बनाता है
हमारी विषधारणाएं हमें
रंगा हुआ सियार
सो उन महाकाल की नगरी में
शिप्रा स्नान कर
हम छोड़ने की कोशिश करते हैं
अपने रंग
कि आ सकें अपने ज्योतिर्नित्य स्वभाव में
बारह साल में शायद इसीलिए कहते हों
कि घूरे के भी दिन फिरते हैं
9
कि बात यदि कंठ की ही हो रही हो
तो यही नहीं कि
उन्होंने कंठ में विष धारण किया
बल्कि यह भी कि
कंठ में धारे हुए को दे दिया
मंथन की रज्जु की तरह
वापरने
उनके कंठ से तब भी फूटी
रामकथा
और निकले राग भी मधुरतम
सो यों भी निकला
अमृत
कि जिसका पान करते ही
रुंध जाते हैं अब भी
करोड़ों कंठ
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मुझे तो हमेशा से शक रहा है इन रूपकों पर
ये वैसे नहीं हैं जैसे दिखते हैं
इनके खाने के दांत और हैं दिखाने के और
ये देखते कहीं और हैं इनका निशाना कोई और है
सो जो कालकूट विष है
वह कहीं कूटनीति के काल का जहर तो नहीं
या काल की कूटनीति का
कि जो महाकाल है उसी को जरूरी है
कि वह वऊ के इस हलाहल को पिये
और थाम कर रखे उसे पूरी देह में फैलने से
समय की विषाक्तता का निवारण
है उस शख्स के ही बूते का
जो लांघ सकता हो काल की चाल को
और उसके भक्त के सिवा कोई नहीं बोल सकता है
ओ युग!
ओ कल्प!
आ तू आ ले घनघोर गरल का आसव
मैं भी इधर पुकारता हूं
कालभैरव!
कालभैरव!
11
यह क्यों होता है कि
जब भी अमृत निकलता है
तो सबसे पहले असुर उसे हड़पते हैं
और बेदखल करने की कोशिश करते हैं
किसी भी समानांतर प्रतिद्वन्द्वी को
चाहे वह देवता जैसा ही क्यों न हो
देवताओं को भी ऋषि का शाप है
और वे पराजित होकर ही
समझ सकते हैं
ज़िन्दगी की असल ताकत की कीमत
जनम और मरण के बीच जिसकी गति है
और जो इस मध्यावधि में तमाम मायामोह
से गुज़रते हुए हमें देखती है
वही ताकत आधारभूत है
उसके बिना किसी रत्न का उदय संभव नहीं
उसकी वशिमा का ही खेल है यह सब
उसके बिना देवत्व की भी
कोई विजय संभव नहीं
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जब वे यहां आते हैं
तो स्नान करते वक्त
अपने आत्म का पुराना कपड़ा
यहीं छोड़ जाते हैं
और यों होती है उनकी आत्मा पुनर्नवा
कभी यहीं सांदीपनि से शिक्षा पाए
किसी ने बड़े होकर
शरीर को वस्त्र कहा था
मगर
उसके भीतर भी कुछ
इनरवियर हैं
जैसे कि यही हमारा आत्म जो संसार से
बहुत सी रग़बत के बाद बनता है
बहुत घिस भी चुका होता है
बहुत से कषाय हैं
जिन्हें इसी घाट पर छोड़ देना है
फिर शिप्रा की लहरें ही सीढ़ियां चढ़ आएंगी
और ठिकाने लगा देंगी
तुम्हारे परित्यक्त को
यह नदी
दैनिक जीवन के ढांचों में फंसे
आत्म से
एक अप्रतिहत आत्मा तक बहती है
तुम्हें इसके उद् गम
और तय की गई दूरी का गलत भूगोल पढ़ाया
गया है
यदि ये तुम्हारे भीतर न बही
तो यह बही ही नहीं
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हम त्वरित यात्रा के युग में हैं
जहां मशीनें
तीर्थयात्रा करती हैं
हमारे पैर नहीं
चाहे वे कार हों या प्लेन
यहां कांधे पे भी हमारे कोई बोझ नहीं
वह हमारे वाहन की डिकी में है
और हम इस तीर्थ को देखते भी नहीं
पहले उसे मोबाइल कैमरे में कैप्चर
करते हैं
और व्यस्त हो जाते हैं सेल्फी में
हटाते हुए जोर से
और तनिक हिकारत से भी
बीच में आ गए
कावड़िये को
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सुविधाओं के नाम पर
इन दिनों उपभोग का
एक काींट-कानन रचा जाता है
उस स्थली पर भी
आकर्षण के ये नए इंद्रजाल तामीर होते हैं
जो तपस्या का क्षेत्र है
जहां शिव का सुप्रभात भी
भस्मार्ति से होता है
और जहां राज त्याग के
महात्माओं ने योग साधा था
जैसे कि वह नदी जिसने
शिव के कंठ का विष ग्रहण किया
एक जरूरी पीठिका हो
आधुनिकतम सुविधाओं के लिए
इस कंट⋎ास्ट से ही शायद पता लगे
कि हम कितना आगे बढ़ आए हैं
कि हम जो मंहगे दस्तरख्वान वाले
होटल में आके ठहरे हैं
बहुत प्रगति कर गये हैं
गुफाओं में लेटे हुए
भरथरी से
वह जो हम देखते हैं
यहां आकर
वह दृश्य भी हमारा दर्शक है
वह हमारे कौतुक को
देखता है
कौतुक से
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मैंने कहा वाट लग गई कावड़िए की
अवंती
जब से तेरा टूरिस्टीफिकेशन हुआ
तूने तो शिव के इस तट पर
केवल एक प्रतीक्षा की थी
गड़ते कंकर
गड़ते कांटे
लेकिन बात परीक्षा की थी
सो लगता था
प्रस्थान किया है एक कठिन अज्ञात की ओर
जाने वाले राही ने
और साथ में चना चबेना लिए हुए
विश्वासों का
ढूंढ ही लेगा अपना तीरध
वह
जिसके लिए रहा आया
जनम जनम का सपना तीरथ
आज अवंती बोली मुझसे
तीर्थ तो अब भी उसका है
जो कावड़िए-सा आता है
और रही बात पर्यटक की
सो उसकी चिंता भी क्या
उसकी केअर हो जाती है
और वह भी तो
शहर ही पहुंचता है
तीर्थ नहीं
यों गंतव्य आज भी खुद को मंतव्य से ही परिभाषित करता है
और इसीलिए मैं कहती हूं वे दो फरक लोग हैं और एक दूसरे
की राह नहीं काटते
इसलिए खुश रह कावड़िए
कभी भी
तेरी वाट नहीं लगने की
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इस बीच बहुत-सा जहर फैल गया है
राष्ट के शरीर पर
और हम खड़े देख रहे हैं तटस्थता के तीर पर
यह क्षिप्रा का तट नहीं है
वे घड़ा फोड़ रहे हैं
लेकिन वह अमृत कुंभ नहीं है
उनका भांडा फूटे या वे किसी पर ठीकरा फोड़ें
फैलता तो विष ही है
सांप अब अशिव से गले लगते हैं
अमृत की गिरी बूंदों के बारे में तो कहानी भी प्रसिद्ध हुई
और वे स्थान भी
किन्तु लगता है जहर की भी बूंदें गिरी थीं
और उनके लिए तब तो कोई छीनाछपटी न हुई
आज स्पर्धा है
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क्या पता
वह वहीं मिल जाये
फक्कड़ तो है ही वो
निकल पड़ा होगा खुद भी
लाखों की भीड़ में
अपना ठौर ढूंढने
और इतनी धुन में कि महीने भर
दाढ़ी भी न बनाई हो
और बाल भी न कटवाये हों
शिप्रा की सीढ़ियों पर वह
तब तक नींद निकाल रहा हो जब तक
किसी कांस्टेबल की सीटी उसे
असमय न जगा दे
और उधर खुद उसके मंदिर
कितने तो दर्शन
कितनी तो पूजा
कितने तो पुष्प
कितनी तो धूप
कितनी दियाबाती
और कितना नैवेद्य
उसके दर्शन मिलेंगे
या उसका दर्शन मिलेगा
जब इंसान उसकी खोज में है
तो वह भी तो उनके बीच
खोजता होगा
इंसान
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होगा वह बहुत दिनों का भूखा
होगा वह बहुत दिनों का प्यासा
समझता होगा यों वह बहुत से लोगों की
भूख प्यास का मतलब
लोग उसे भंडारी समझते हैं
कि वह अपना कोष खोल देगा
और उम्मीद करते हैं कि उसकी और
पैंडोरा की पेटियों में फर्क होगा
जबकि वह तो भस्म रमाये है
और बैठा भी एक चट्टान पे ही
लोग उसे पहचानने में गफलत कर दें
लेकिन वह उन्हें पहचानता है
जो उसे घूमने आए हैं
अनादिकाल से
घूमता है स्वयम् नक्षत्रों और सौरमंडलों
ब्रांडों और काले गढ्ढों में
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वह मिला उसे
जो उससे मिलना तो चाहता था
लेकिन मन में इस बात का बोझ लिए था
कि अयोग्य है उसके
इसलिए कि विधर्मी है
उससे मिलकर कहा उसने
कि उसका कोई मज़हब नहीं
जो है वह उसने नहीं बनाया
उसने नहीं सरहद खींची
वह तो वह विराट्
कि आकाश से जिसके
केशों में उतरती है गंगा
और चांद भी वैसे ही कटा हुआ
कला हुआ उसके शीश पर
वह मिला उसे नहीं
जो उस पर वंशगत अधिकार का दावा करता था
और इस कारण ऐसे आश्वस्त था
कि उसे उतनी उत्कटता से
खोजता भी न था
उसे इतना हथियाये था कि
उसे सोचता भी न था
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सर्प है तो लेकिन हाइडा नहीं
हरक्युलिस को जिसके सामने
परीक्षा देनी पड़े पौरुष की
शिव का कंठहार है
उसका कि जिसे मिलने वाला है एक नाम नया
इसी प्रक्रिया में नीलकंठ का
यह मंथन की तैयारी है
सर्प विश्व को रत्न मिले
इस बात को भी जाने बगैर
घिस जाने को तैयार हैं रस्सी की तरह
लोगों को रस्सी में सर्प का भ्रम होता है
और भय भी
वहां तब सर्प रस्सी बना स्वेच्छया
जीवन को आश्रय देने
उसकी श्रीवृद्धि करने
लगे रहे जो दिन रात
उन इतिहासों ने
इन दिनों तैयार कर लिए हैं
जाने कैसे जाने कितने
अपने अपने सांपनाथ और नागनाथ
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मूल में तो कोई लूसीफर न था
एक शिव थे जिनके हृदय में
एक माला की तरह था वह
और शिव भी संत थे
भस्म को
ही अंगराग बनाए
ऐसे न थे संत कि जो सर्प का सिर काटते हों
ऐसे न थे सर्प ड्रेगन की तरह
एक सर काटने पर एक और उग आता हो
ओ रावण
ओ रक्तबीज
यह भी एक ट्रेजडी है नीच
कि इतना इतना फर्क है
कि संस्कृतियों के भी अपने अपने समुद्र हैं
किसी जगह सर्प भी उच्चाशय हैं
किसी जगह इन्सान भी क्षुद्र हैं
22
जल में कुंभ
कुंभ में जल है
कबीर को
यहाँ
इस वक्त
स्नान करते हुए
शिप्रा में
फिर से पढ़ो
और जल की महिमा
को समझते हुए
जल को ही जलांजलि दो
23
गुरु कुम्हार
शिष कुंभ है
क्या यह वही गुरु है
जो सिंह राशि में प्रवेश करता है
अवंती
तेरा यह कुंभ
क्या उसी का शिष्य है
क्या बारह साल पढ़ने के बाद
इसकी हायर सेकेन्ड्री होती है
कुंभ को एक गुरु-दक्षिणा देय है
कुंभ को एक ऋषि-ऋण
चुकाना है
यदि नहीं चुकाया अभी
तो उसका स्मरण
दिलाने आयेगा
अगला युग
24
शिप्रा का तट है
बह रही है
अमृतमयी नदी
तुम्हारी बहुत सी शिकायतें हैं नदी से
तुम कहते हो कि
नदी इनका जवाब तक नहीं देती है
बस बहती रहती है
नदी शायद प्रतिप्रश्न भी न करे
लेकिन मैं पूछे लेता हूं
तुम नदी के पास आए हो
और तुम्हें पानी ले जाना है
तो जितना तुम नदी को देखो
देखो
लेकिन देखो थोड़ा अपने कुंभ को भी
कुंभ माने कंटेनर
कि तुम कुछ और समझे थे इसके मायने
कि कुंभ बहुत खगोलीय-सा कुछ है
जिसमें तुम्हारा घड़े भर भी योग नहीं
घट और घटक के न्याय से परे
तो यह तुम्हारा कुंभ नहीं
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जब बहुत सी भीड़भाड़ हो
तो व्यवहार का एक गढ्ढा है
बहुत नीचे उतर जाते हैं लोग
उस गर्त में कहते हैं कि
हमारे भीतर के असुर रहते हैं
और ओवरक्राउडिंग में ही बाहर निकलते हैं
कुंभ का एक प्रत्याख्यान है
जहां बहुत सी भीड़ में
काल के कलुष से मुक्ति के लिए
एकत्र होते हैं लोग
भीतर के देवदर्शनार्थ बाहर आये हुए
कि मुक्ति का कोई प्राइवेट रूम नहीं है
वह है तो सबके साथ है
वह है तो साझा है
वह जितना अपने भीतर के ईश्वर को देखना है
उससे ज्यादा ताकना है कौतुक से
मंदिर को ही नहीं
अलग अलग तरह के ईश्वरों को
जो आये हुओं में प्रत्यक्ष होते हैं
इतने सारे चेहरे
इतनी भाषाएं
इतने भांति भांति के वस्त्र ही नहीं शरीर भी
ये क्या बस एक सच का उपलक्ष्य होते हैं
कि इतनी ही विविधता के विप्र ही नहीं
क्या पता ब्र भी हों
26
अंदर से लगातार जिससे मेरी बात चलती रहती है
चाहे मैं काम कर रहा हूं या
कार में बैठा हुआ हूं
वह कौन है
जिंदगी भर यह एक समानान्तर कलरव किसका है
लगातार भीतर पृष्ठभूमि में हो रहा शोर
कई बार तय नहीं हो हो पाता
कि वह बातचीत है
कि ध्वनि
जो कभी ऐसी भी होती है
कि प्रदूषण हो उससे
तब क्या इस मेले की बाहर की भीड़ में
उसकी अस्तव्यस्तताओं में
बहुत से कोलाहल में
हम उस बैकग्राउंड हल्ले की
किसी गहरी संरचना का
कोई तोड़ पाते हैं
कि जब अंदर बाहर दोनों ही तरफ
एक सी हंगामेदार आवाजों का उत्कर्ष हो
तब ही संभव हो पाती हो
वह संपूर्ण निरुपायता
क्या पता
जिसके बाद घटित होता है
एक पवित्र
और पूर्ण
और अश्रुतपूर्व
और निरालंब
निःशब्द
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जिस समुद्र मंथन से रत्न निकले
उसने यह भी बताया कि
रत्न पत्थर नहीं हैं
सुंदर और चमकदार
मसलन समुद्र मंथन से
पन्ना नहीं निकला
न मूंगा न मोती
न हीरा न गोमेद
फिर भी कहा यही गया कि
मंथन से रत्न निकले
मंथन के बाद वैसी न रही दुनिया
हम जानते हैं
वैसे न रह पाए रिश्ते सुरासुर के
लेकिन यह कौन सा हादसा हुआ
मंथन के इतने बरसों बाद
कि मायने रत्न के भी
वैसे न रहे
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जब शिप्रा में पानी न बचा
तो भी कुंभ उसमें बचा रह गया था
लोग तब भी आते रहे थे
उन लोगों को पानी पानी करने
जिन्हें कुंभ का अर्थ पानी में नहाना भर लगता था
इतनी गर्मी में धूप में
पानी की एक बूंद भी अमृत है
अगर किसी की प्यास सच्ची हो
कई बार पानी ज्यादा होकर भी
नदी की मर्मस्थानीय वेदना को नहीं छुपा पाता
शिप्रा के जब दर्पण में झांकें
तो क्या हम
झांकेगे
अपनी गिरेबां में
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दो नदी जब मिलती हैं तो वे दो से अधिक होती हैं
गंगा और यमुना जब मिलीं
तो उनमें एक अज्ञात सरस्वती भी थी
प्रयाग से पूछो
इस बार जब शिप्रा से
नर्मदा मिली हैं
तो वे भी दो से कुछ जियादह हैं
यह अवसर
उस आधिक्य के
सारस्वत अर्थ
के अनुसंधान की चुनौती समेत है
वह जो पहले कभी नहीं हुआ था
इतिहास में
अब हुआ तो यकीन मानिए
उसके भी कुछ अभिप्रेत हैं
30
जब अमृत पृथ्वी पर गिरा
तो किस पर गिरा
रॉकफेलर पर?
नहीं वह तो धरती की छाती पर किसी
चह्लान के गिरने की याद दिलाने वाला नाम है
फोर्ड पर?
नहीं वह नाम भी शब्दकोश भर में तीर्थ के
मायने में है
अन्यथा वह अपने अतीर्थ तैयार करता है
यों लेते जाओ धरती के धुरंधरों के नाम
हरेक में नहीं कहने के किन्तु परंतु
फिर भी नाहक
मन करता है
बार बार यह शक
कि अमृत कैद है
हो न हो
इन्हीं के पास
यों इन्हें यह कहकर बरी भी किया सकता है
कि जब अमृत गिरा
तब ये थे ही नहीं
सच, किसी भी रूप में?
31
वह तो एक माना हुआ सच
शुरूआत में जब जहर हो
अंत में अमृत ही निकलेगा
यह सच शायद उस समय से ही मान लिया गया
इसीलिए आरंभ की कटुकताओं
और तिक्तताओं से
क्यों हों हतप्रभ
तब तक
अपनी कोशिश
रहे अनवरत
जब तक अमृत का न उदय हो
और कृतज्ञता भी
उस प्रारंभिक विष के प्रति
ध्यान रखते हुए कि
वह प्रथम रत्न
रत्न की श्रेणी से
अवगणित जब नहीं परंपरा में
तो क्यों हो अवहेला का प्रयत्न
32
जब वह कुंभ प्रकट हुआ
तो वह सिर्फ अमृत न था
वह समुह्न भी था
ससीम में असीम को देखना
तब से ही शुरू हुआ
तब से ही शुरू हुआ
गागर में सागर को भरना
33
वह भरा हुआ था लबालब
और छलका तो संघर्ष से ही
अहंकार से तब भी नहीं
यह तो हमारी दुनिया
यह तो हमारा दौर
जब
अधजल गगरी छलकत जाय
34
यों पूंजी के बहुत हिमायतियों ने
खुद बहुत से सरमायादारों ने
पिछले दिनों जमकर कोशिश की है
कि दुनिया को चपटा कर दें
और अंततःघोषित कर ही दें
ये दुनिया फ्लैट है
सो लिख भी मारी हैं
इसी शीर्षक से किताबें
जितनी उनकी पुस्तक की प्रतियां बिकती हैं
और जितने कॉउच पोटेटो उन्हें पढ़ते हैं
उनसे ज्यादह लोग
यहां इकट्ठा होकर
समवेत स्वरों में कहते हैं
दुनिया कुंभ है
एक मधुर सी उजास भरती हुई स्मित
जब फैल जाती है कोटि कोटि अधरों पर
ऊपर हींसता है उनके साथ वह
कि जिसका एक पर्याय कुंभकार है
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मेरी बेटी ने अपने बचपन में
कुछ ड्राइंग्स बनाईं थीं
जिन्हें फ्रेम करवा के
हमने टांग रखा है
अपने कमरे में
जाने कैसे तब उसे सूझा
कि ब्रा को
बनाया उसने
एक कुम्हार की तरह
एक चाक पर घड़ा बनाते हुए
मेरी इन कविताओं से वर्षों पहले
और कुंभ आने के भी
जैसे उसने लिख दी
कैनवास पर कविता
मेरा दिल यह सोच वाक़ई उछल गया
ओ वर्ड्सवर्थ
कि तुम कहते थे बच्चा मनुष्य का पिता होता है
मेरी बिटिया की यह तस्वीर
एक मुस्कराता हुआ संशोधन करती हुई
बच्चा माँ भी हो सकता है
मनुष्य का
सृजन की दुनिया में
दुनिया को बनाता हुआ
परमपिता का पिता
जगन्माता की माँ
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जैसे किसी घड़े में भरती जाती हैं बूंदें
उसी तरह से भर रहे हैं
नगर में लोग
जैसे सभी बूंदें मिल जाती हैं
मिल जाते हैं इस भीड़ भीड़ में सब
और जल का तो जैसे स्वभाव है
अपने पात्र के अनुरूप रहना
यदि झेलनी पड़े तो अविचलित
कितनी भी हो धूप, सहना
किन्तु प्यास मिटाना
तृषित अधर की
तृषित हृदय की
तृषित आत्म की
कभी बूंद की प्यास बुझाती बूंदें देखी हैं
क्या ऐसा कुछ बता जाना कहीं
कविता के द्वारा किया गया कोई छल है
जरा गौर से देखो इसको
तुम भी मेरी तरह ही पाओगे
यह कुंभ जिन अमृत-बूंदों से सजल है
उन्हीं में कोई अमिट-सी प्यास छुपी है
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हो सकता है वह
वैसा पॉटर न हो
जो कुंभ दर कुंभ बनाता चलता हो
हो सकता है वह हैरी पॉटर हो
सृजेता नहीं, जादूगर
और एक पल में वह हमारी
आंखों के सामने से वापस खींच ले अपना जादू
यह गोल गोल खगोल
उसका इंद्रजाल हो उसकी कविता न हो
उसके होने के अनेक तरह के विभव हैं
यह संसार यह कुंभ उसी का होना है
इसी से कहते इसको भी भव हैं
इसके घटने में उसको देखना
इस घट को देखना
और सोचना
सम्मोहिनी
यह भी संभव है!
38
विश्व ईश्वर का विचार है
हमारे छोर से वृहद्
उसके छोर से सहज
बस ढेरों में से और एक
लेकिन छोर हैं तो हैं
इसलिए जो वह आदि मंथन था
हो सकता है विचार मंथन हो
और होते हैं प्रयोजन
व्यवस्थाएं
परिवर्तन
असंतुष्टियां
और आशाएं
विचार मंथन की इस प्रक्रिया में
सो हम भी वैसे ही गुजर रहे हैं
क्या पता कि हम उसका प्रयोजन हैं
क्या पता कि हम उसकी कोई व्यवस्था
क्या पता कि हम उसके द्वारा लाया हुआ परिवर्तन
क्या पता कि हम उसकी कोई असंतुष्टि
क्या पता कि हम अब भी उसकी आशा
और क्या पता कि मंथन वह
अब भी चलता हो
39
वह तो ठीक
कि हमें मिट्टी में मिल जाना है
वह भी ठीक कि हम
मिट्टी के बने हैं
पुतले हैं माटी के
लेकिन यह भी
कि माटी
कुंभ के बनने में भी काम आती है
सो हो सकता है कि हम कच्चा माल हों
और यह भी कम नहीं कि इससे कुंभ आकार लेता हो
और कम यह भी नहीं कि
जैसे यह कुंभ लौटता है बार बार
हर युग में
हम भी इसी तरह
हर युग में
लौटते
रहेंगे
सिर्फ कुंभकार के चक्के का ही
आवर्तन थोड़े होता है
40
भगवान के हाथों की
उनकी उंगलियों की
कोई छाप तो होगी
कि तुम तो मिट्टी थे
उसी ने तुम्हें आकार दिया
तुम इस बात के सबूत हो
कि वह निराकार भी
साकार में विश्वास रखता है
तो क्या हुआ कि तुम थोड़े
खुरदुरे थोड़े अनगढ़ हो
शायद शैतान के बनाए होगे
यदि तुम एकदम चिकने घड़े हो
41
इतनी जानकारी तो सबको है कि कुंभ
माटी से बनता है
किंतु कुंभ होता तब है जब
माटी में अमृत आन मिले
माटी की विनम्रता को
अमृत के आत्मविश्वास का
जब साथ मिलता है
तब कल्पवृक्ष के फूल झरते हैं
और पारिजात के भी
इस धरती पर
तब घटित होता है
तीर्थ यह
कि जिसका नाम कुंभ है
42
यों मंथन से निकला था
कल्पवृक्ष
पता नहीं वह हमारी कल्पनाओं का था
जिनकी बहुत-सी डालें एक दूसरे में उलझी होती हैं
या था वह वृक्ष कि जो हमारी
कल्पनाओं को सच करता है
यों मंथन से निकला था पारिजात वृक्ष
उस महाप्रयास की थकन भुलवाने
वह कि जिसे रात में ही खिलना था
जब हम थकान मिटा रहे हों
हम अपनी कल्पना चुन सकते हैं
किन्तु फूल चुने नहीं जाते पारिजात के
दोनों ही तरह के तरु
अमृत निकलने से पहले मंथन में मिले
कहती है कथा
और अमृत मिला
तो माटी में गिरा
यह बताने कि वृक्ष तब पनपते हैं
जब उन्हें नहीं माटी को सींचा जाता है
माटी दरक रही है अगर्चे आज
जरूरत भी है उसे
अमृत भरे कुंभ की
43
परंपरा कहती है कि
समुद्र मंथन में चंद्रमा भी निकला था
परंपरा यह भी कहती है कि
चंद्रमा मनसो जायते
कि चंद्रमा मन से पैदा हुआ है
तब चक्कर क्या है
तब यह हो न हो कोई मनोमंथन है
तब हो न हो यह मन समुद्र जितना विशाल है
और यह मन भी किसी विराट् पुरुष का है
छाया हुआ सर्वंमिदं
पूरी सृष्टि को व्याप्त करके
उसके आगे भी दो अंगुल गया हुआ
44
यह तो बताया भी गया कि अमृत देवताओं को मिला
यह भी कि एक को छोड़
कोई असुर उसे चख न सका
फिर दुनिया में इतने
असुर
आतंकी
पैदा कैसे होते रहते हैं
गो कि यह लघु संतोष है
वे मरते भी रहते हैं
जिस तरह से कोई अमृतगर्भ
सतत और शाश्वत है
और गतिमान व सक्रिय
उसी तरह से कोई
विषगर्भ भी है
कोई एक विवर कि जहां से
नए उपद्रव नए दुष्ट नए क्रूर
दृश्य जगत् में आते रहते हैं
विषगर्भ की निरंतरता का
खुद से ही
झगड़ा होगा
यदि वह जहर है तो वह अमर नहीं
वह तो अमृत ही है
जो अमर है
वह तो एक सत्य है
अविनाशी
अक्षर है
महाकुंभ में अमृत की बूंदों का
स्मरण करते हुए
जब इस चिंता में हों
कि शिप्रा में स्नान अभी बाकी है
ध्यान देना इस चुनौती पर
इसे छोटा कर्तव्य न मानना
लेना पूरी गंभीरता से
जहर के
कुछ रहस्यमय कुंडों का
अनुसंधान
अभी बाकी है
45
बहुत प्राचीन पुष्प है
अब भी उससे एक अमृत सुगंध आती है
लेकिन उसका अर्थ यह नहीं कि
हम उसके उपभोक्ता या
उत्तराधिकारी हैं
एक ऐसे अतीत का कि
जिसका हमें अतापता नहीं
भोगी होना वैसे ही है
जैसे रास्ते पर पड़े बटुए को उठा लेना
उसके धन से मौज मजा करना
हम तभी उसके पात्र हुए
जब वह मंथन
हमारे भीतर उतनी शिद्दत से लगातार चलता हो
हमारा मेरुदंड ही जिसकी मथानी हो
हमारी बोझा उठाये पीठ ही जिसका आधार
हमारी मांसपेशियां और धमनियां जिसकी रज्जु
अमृत के मंथन की कथा
अमृत के इतिहास की कथा से
यों ही तो
फरक है
स्मृति से मानो
संस्कार का
जितना
फरक हो
46
वह घट घट में व्याप्त है
कुंभ कुंभ में
वह सिर्फ नट-नागर ही नहीं
कुंभ के इस कोण से देखें
तो घट-नागर भी है
जब वह ब्रज में था तो
उसने कितने घट फोड़े
कभी माखन चुराने
तो कभी गोपियों को सबक सिखाने
वह यहां अपने गुरु की नगरी में
थोड़ा अनुशासित है
तो इसका मतलब यह नहीं
कि वह यहां किसी घाट का नहीं
या कि घट गया है नागरपन उसका
कलाएं उसने यहीं सीखीं
विद्याएं उसकी सब यहाँ की हैं
कुंभ का ज्ञान उसे है ही नहीं
जिसे नहीं इल्म
कि यह नगर सांदीपनि के उस योग्यतम शिष्य का
ज्ञान-कुंभ है
47
वह जो उलटा रखा है कुंभ
वह कभी न भरा जायेगा
और कोई सांस भीतर प्रवेश भी कैसे करेगी
या यह हो कि सत्य के कुंभ का मुख
सोने से लेप दिया गया हो
दोनों ही हालात में अमृत की असंभावना है
कुंभ को गोरख की विपरीतोक्ति मंजूर है
अवधू गागर कंधे पांणीहारी
कुंभ किसी के कंधे पर नहीं
कुंभ के कंधे पर सब हैं
सिर्फ पनिहारिनें नहीं
उलटबांसी में कुंभामृत है
किंतु वे हैं
कुंभ का वास्तविक विपक्ष
न इसे उन्होंने अवगाहा
अपने कुंभ को खुला जिन्होंने
इस या उस बहाने
न रखा कभी
न रखना चाहा
48
क्षीर-सागर मिल्की-वे है
वह कूर्म पीठ कोई ब्लैक होल
वह वासुकि
लगातार घूर्णन करती हुई कुंडलीकृत गैलेक्सीय संरचना
वह मंदार पर्वत कोई अक्षदंड
अंगकोरवाट के उस दृश्य में वे 91 असुर एक
अयनांत विशेष के दिन
और वे 88 देवता भी विषुव के बाद के अयनांत दिन
और यह घटनाक्रम भी काल के आरंभ पर
रत्नों का निकलना जैसे ऊर्जाओं की रिलीज़
और सबसे पहले महाकाल के रूप में
किसी परम काल के काम हैं
कई बार हृदय को कांपना पड़ा है
उस कथ्य के जागतिक वैराट्य के समक्ष
समुद्र मंथन और महाकुंभ के
ये वाचावरोधक आयाम हैं
जिसने ब्रांड के विज्ञान को
रूपक बनाकर
प्रणाम किया
कवि को
उससे ही यह साहस है
उसने ही यह काम किया
उससे ही यह तामझाम खड़ा है
सिंधु कितना ही बड़ा है
उसके बड़प्पन को नमन है
कुंभ में किंतु
मेरी मानिये
बस उसी का संघनन है
सिंधु कितना ही बड़ा है
उसके बड़प्पन को नमन है
किंतु यह भी एक साफ संकेत
अगस्त्यों को वह सिर्फ
एक आचमन है
49
अमृत के इक कतरे को
घूंट घूंट पीती हैं सदियां
हर गर्मी की वही तपिश है
और प्यास की बढ़ती जाती है परछाईं
जाने कितने मासूमों के
घर पर सिसकते हैं
खाली पड़े हुए घड़े
क्या आपके देखे आईं
वे कुछ टूटी हुई सुराहीं
वे कुछ चटके सपनों जैसे बर्तन
तब मानें कि कुंभ खगोलीय है
जब आसमान में
सूर्य चंह्न की निगरानी में
तागों से बंधे हुए लटके हों
अमृतकलश भी घर घर
दर्द की कमज़ात बस्तियों में
घट घट चेतना
जितनी जागे उतनी चमके
वे अमृत की वर्षा से हैं
कुछ ये जो पल मिल जाएं रहम के
50
‘दरिया’ अमृत नाम अनंत
लोग कहते हैं कि यदि अमृत कुंभ में है
तो एक परिधि में है
और यदि अमृत की सीमा है
तो वह उसे नहीं रहने देगी अमृत
बहुत दिन हो गये हैं अमृत को
जब से बिग बैंग की किरचें समेटकर
भर लिया गया था उनके होने के उजाले को
उस महाध्वनि को समन्दर के फर्श से उठाकर
धरती पर चार जगह बैठाया भी
लेकिन अमृत का आयतन हो
या कुंभ का व्यास
बेहतरी इसी में है कि
वे अपरिमेय रहें
वह वायदा है एक कविता का
वह जितनी छंदहीन हो
उतनी हो
लेकिन उतनी गेय रहे
कितने लोग
इन्तज़ार करते हैं
उसका
कब से
बहुत प्यासे ओंठों की
नीली पड़ गई खस्ताहाल पपड़ियों पर
बूंद टपके तो वह एक नभ से
51
वह एक कुंभ कि जिसमें
अमृत लेकर प्रकट हुए थे धन्वन्तरि
उसके अलावा भी
काश कोई पात्र होता
ज्यादा विशाल भी नहीं
अंतरिक्ष की तरह
होती एक अच्छी सी टोकनी
जिसमें रख लेते सबके दुख
और कर देते विसर्जित
पैंडोरा ने पेटी में मुसीबतों को बंद कर
क्या ऐसी ही कुछ की थी कोशिश
न पा सकी वह जगह
जहां सुरक्षित गाड़ दी जाती वह पेटी
बहुत मुश्किल होता है
रासायनिक कचरे तक का सुरक्षित निर्वर्तन
हम एम पी वाले जानते हैं
तो दुखों की इस टोकनी के डिस्पोज़ल के लिए
एक मंथन और हो
52
जब हम कुंभनगरी की
सड़कों पर इतनी भीड़भाड़ में
कि कंधे से कंधा टकराता हो
चलते हैं
तो क्या हमें कंधों से टकराते कंधों
की कोई याद
अपने मन और अस्थियों की हजार पर्तों के नीचे से
निकलकर कांपती हुई
हिलगी हुई ×पर आती दीखती है
जब मंथन चल रहा था
और एक रज्जु को खींचे जा रहे थे सब
हम सबका सामूहिक मन
बन तो चुका है
एक बहुत गहरा समुद्र
कि हम नहीं कल परसों के देश
कि नहीं हम सड़क के पोखर
सड़क पर चलते हुए भी
बाकी रह गया है मंथन
कि किसी को तो देनी होगी अपनी पीठ
कि किसी को तो अपने गले की शोभा
करनी होगी समर्पित
सब रस्सियां सावन के झूलों के लिए नहीं होती
कि किसी को उस वक्त जब झुके जा रहे हों लोग
न केवल प्रभुता की कदमबोसी में
बल्कि आत्महीनता में भी
खड़ा रखना होगा अपना मेरुदंड
जब तक यह सब शेष है
महाकाल के दरवाजे
काल का कोई पर्यवसान नहीं है
53
एक तनी हुई रस्सी पर नाचते थे मेरे एक कवि-पुरखा
एक बुनी हुई रस्सी को उलटा घुमाते थे दूसरे
और उन दोनों से बहुत पहले
एक तो सांप को रस्सी समझ कर आसक्ति की उस उंचाई पे
पहुंचे
जहां से
रूपांतरण शुरू होता है
उधर रस्सी पर हींसते हींसते झूल गए वो बलिदानी
जिनका जीवन ही कविता था
और इधर रस्सी कंठ में बांधकर
खत्म करते हैं जीवन
वे
शिक्षा में किंचित असफलता पर
वासुकि तुमसे न ली शिक्षा उनने
तुम जो रस्सी की तरह घिसाते रहे
अपनी पूरी देह
उस मंथन के लिए कि जिसका
कोई रत्न तुम्हें न मिलना था
तुम्हें रस्सी समझने का भ्रम भी न था
तैयारी तुम्हें रस्सी की तरह वापरने की ही थी
समुद्र मंथन के एक छोर पर विष था
दूसरे पे अमृत
तुम्हारे एक छोर पर दैत्य थे दूसरे पे देव
तुम उन दोनों को उत्तीर्ण कर लौट आए
फिर उसी शिवत्व के सामीप्य में
बिना घिसते ही रह जाने की शिकायत किए
जो शिव का अलंकार हो स्वयं
उसे अलंह्नत करने वाला रत्न कोई
है भी तो नहीं
54
चूंकि उनका मानना है
कि इतिहास ने विजयी की कथा ही कही
अवैधता की धूल और कीचड़ और कालिख से
सना मुंह लेकर
और पराजित रह गये अपना सा मुंह लेकर
तो वे इन दिनों टेल ऑफ द वैंक्विश्ड लिखते हैं
असुर की कथा
अवतार भले ही प्रार्थना की तरह गूंजते हों
युगों युगों से आशा के अमृत की तरह
जमीन से जुड़े भोले थके घाव लिए हृदयों के मंदिर में
इसलिए ही इनके फैशन में नहीं हैं
क्योंकि वह विजेता का भड़कीला परिप्रेक्ष्य है
इसलिए समुद्र मंथन पर भी
दैत्यों के दृष्टिकोण कम न होंगे
इतिहास यदि खूंखार लाल आँखों वाली विजयगाथा है
तो उस अश्लीलता का चमकीला दोष उन पर लगे
जिनमें इतिहास चेतना है
अभी तक तो उसकी अनुपस्थिति के आरोप प्रबल थे
इस मुल्क के बेशऊर लोगों पर
और टेल आफ द वैंक्विश्ड
कहिये न राजा दाहिर की
कहिये न राणा सांगा की
कहिये न भीमदेव की
कहिये न राणा प्रताप की
कहिये न टंटश भील की
कहिये न बिरसा मुंडा की
कहिये न दाराशिकोह की
कहिये न सिक्खों और मराठों की
इतिहास तो ये हैं
आपकी बुद्धिजीविता जिन अजब जंगलों में विचरण करती है
वे तो आपकी ही धारदार बुद्धिजीविता के मान से
गुमान से
पुराण हैं इतिहास नहीं हैं
उनका भूगोल तो अंतःकरण की तराइयों
पहाड़ों पठारों सरिताओं ने रचा है
क्यों चला रखे हैं हर शाहंशाह पर
जिसकी नसें मसें तक भीगी हुईं
मासूमों के बेवजह कत्लोगारद से
एक एक पृथक पृथक अध्याय
जिनमें सधे सोचे तरह से उनका औचित्य
यों बताया जाता है कि आप उसका
लगते हो एक्सटेंशन पर अब तक
चल रहा जनसंपर्क विभाग
विजेताओं के महिमामंडन से बाज आना है तो
अंग्रेजों को क्यों भेजते हैं
प्रकारांतर के महीन धन्यवाद
दबे पांवों चले आते हैं जो मासूमों के
दिमाग की दीवारें लांघकर
चिंता न कीजिये इस समुद्र मंथन की
इस कुंभ की
अमृत की बूंदें गिरने की
काहे का मंदार पर्वत काहे के वासुकि काहे के कूर्म
वे जो इतिहास नहीं
तो आपके पास नहीं
55
मंथन के इतनी सहस्राब्दियों बाद
पिटता हुआ उच्चैःश्रवा घोड़ा है
आंसुओं में भीगा चेहरा लिए कामधेनु
और दुर्घटनाग्रस्त ऐरावत
क्या ये घोड़ा अब ऊंचा सुनने लगा सो उच्चैःश्रवा हुआ
क्या ये गाय हमारी मनमानी को सहने से हुई कामधेनु
क्या ये हाथी अब पूर्व दिशा का भी दिग्गज नहीं रहा
आविर्भाव के दौर के रत्न
अब पशु हैं
हमारे पाश में फंसे हुए
प्रत्यभिज्ञा का यह एक नया रूप है
खुद से हमारी खून में मिली हुई पहचान
जानवरों के ये हम भी मालिक हैं
पढ़ते हैं शब्दकोश में अपना पर्याय
‘पशुपति’
56
जो पारावार नगर की सड़कों गलियों पर उमड़ रहा है
वह भी एक समुद्र है
और रत्न उसमें भी छिपे हैं
तो क्या हुआ कि वह एक तात्कालिक बाशिंदगी है
एक पारुष्य में ही पौरुष लगा
जनवादी होने के आमंडपन के बावजूद
जनविश्वासों के प्रति पराक्रांत हिकारत ही रही
जनानखाने की दुनियावी समझ पर
जैसे रहती थी मनसबदारों के भीतर
सो न हो पाया इस
पारावार पे कोई भी मंथन
उसे छोड़ो नदी तक पे नहीं हुआ कि
उसकी पैड़ी उतरे नहीं
कीचड़ में क्या कलकल छलछल नदी में भी
पांयचे चढ़ाकर ही उतरे
यदि ज्यादह ही जोर दिया किसी ने
बस शिकायत ही रही
और किसी के हाथों उसके दोहन की
खुद का काम यही था कि
इस्तेमालशुदा तकनीकों की उपभोग्यता पर सवाल करें
खुद का काम यही था कि
इन जादू मंतर की हेयता दिखाएं
एक लाल किताब जो उनके पास थी
प्रतिस्थापित किया उसे अपनी लाल किताब से
और उससे भी ज्यादा मगरूर तरह से कहा
कि इसके आगे कुछ लिखा नहीं गया
कि कुछ लिखा नहीं जा सकता
इस जनसमुद्र को एक छोटी सी तरी से
पार करने का करते जतन हुए
केवट को उतराई तो क्या देते
मेहनताना भी न दिया गया
57
बूंद ही तो गिरी थीं
गिरीं भी क्या छलकीं
तब धरती पर इतनी खुशहाली है
फूल खिलते हैं हिरन दौड़ते हैं पूरी मस्ती में
बिखरती है किसान के ओठों पर मुस्कान
मजदूर के पसीने के साथ उसकी हींसी भी
गिरती है इमारत को कुछ पावनता बख्शने
इनमें से कुछ भी बिना थ्रेट के नहीं
जिसे देखके लगता है
क्या होता है मतलब उस कुंभ के पूरा न मिलने का
कहीं छुपा रह गया है
चार बूंदों के सिवा
पूरा का पूरा कुंभ
जिसमें भरा हुआ है इतना अमृत
खगोल भर में भर सके आनंद
एक प्रमथ्यू था
देवताओं के यहां से अग्नि चुरा लाया
प्रतीक्षा है किसी ऐसे की
कि जो देवताओं के यहां से उठा लाए
पूरा का पूरा कुंभ
और यदि भारी हो बहुत
तो साथ ले ले साथियों को
अकेले तो अमृत निकला भी न था
58
लक्ष्मी निकलीं तो वरा उन्होंने
विष्णु को
वरण- स्वातंञ्य तो उनमें
आविर्भूत होते ही था
वह जैसे उनके अस्तित्व का सहजात था
और सबने उसका आदर भी किया
उस लक्ष्मी को दीपावली पर
या जब तब भी पूजता हुआ
पिता फिलहाल व्यस्त है
अक्षय तृतीया पर
अपनी बच्ची के हाथ में स्लेट थमाने से पहले
उसके हाथ पीले करने
59
क्या है वह कलश
जिसके मुख पर विष्णु हैं
कंठ में रुद्र
मूल में ब्रह्मा
और गर्भ में सागर
जो हर अनुष्ठान में पहले पूजित होता है
और कहा जिसे उदकुंभ जाता है
क्या वह उस कुंभ का कोई लघु संस्करण है
घर घर में उपस्थिति की आर्द्रता लिए
वह विराट कुंभ सागर से निकला था
और इस लघु कलश के गर्भ में सागर है
इन अनुष्ठानों को पंडितों के माध्यम से देखने से पहले
इनके भीतर की कविता देखिए
मर जाती है जो आभ्यसिक आवर्तनों में
इस कलश के अमृत से उसे जीवित
करना
कुंभ को अपने घर पर उत्सवित करना है
वह उदकुंभ कनक कलश नहीं
उसमें नदियों का एकत्र आवाहन वैसे ही है
जैसे सागर में एकत्र होती हैं नदियां
और आवाहन उसमें समस्त तीर्थों का यों है
जैसे कि उसे स्थापित कर
समस्त तीर्थयात्राओं को वहीं हासिल कर लिया गया
ये कुंभ तीर्थ ये कुंभ पर्व
प्रतिदिन किसी दरिद्रतम झोंपड़ी में भी
यों करते मिले
आराधना
60
जब नर्मदा और शिप्रा मिल सकती हैं
तो क्यों नहीं मिल सकते
नागा साधु और शेष
जब दोनों के तट एक हैं
तो एक होंगे दोनों के घाट भी
सो खूब मिले इस बार
मेले में दो भाइयों के बिछड़ जाने की कहानी
बनाने का काम
छोड़ दिया हिन्दी फिल्मों पर
और कहा कि मेला मिलना ही है
माइक्रोस्कोप लगाकर दरारों को ढूंढते हुए लोग
जिन्होंने कमीशन किये हैं स्टडी प्रोजेक्ट
फिलहाल हतप्रभ हैं
इस सहज उल्लास पर
उनके होश में आने तक एक डुबकी
यह और भी
खींचती हुई रेखा इतिहास पर
61
कितनी बार लौटा दिया गया
लेकिन तटरेखा को न छोड़ा
समुद्र ने चूमते रहना
समुद्र कहता रहा
कि मेरे भीतर देखो
मेरे मंथन में रत्न हैं अमृत है
मुझे लौटाती हो तो वह तुम्हारा अधिकार है
तुम्हारा स्वभाव भी
तुम्हें सृजेता ने यही कर्तव्य सौंपा है
जैसे कि मुझे सौंपा है लौटना
सो मैं लौटता हूं
शिप्रा में गंगा में गोदावरी में यमुना में सरस्वती में
गरज यह कि ज्ञात अज्ञात नदियों में
ताल तालाबों में पोखर में
धरती की धमनियों में
मेरे चुंबनों को जितनी बार लौटा दिया गया
मैं उससे भी अधिक बार लौटा हूं
अलग अलग रूपों में
तजुर्बातो-हवादिस से आगे और ज्यादह
जैसे ये कुंभ लौटते हैं
मैं भी लौटूंगा
ठुकरा दिए जाने से आहत हुए बगैर
कुंभ का अमृत भी इसी तरह बार बार लौटेगा
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