कविताएँ राजेश जोशी नया प्रहसन यह त्रासदी नहीं उसका प्रहसन चल रहा है मित्रो! जो हमारे द्वार तक आ पहुँचे हैं वो बर्बर नहीं बर्बरों ...
कविताएँ
राजेश जोशी
नया प्रहसन
यह त्रासदी नहीं उसका प्रहसन चल रहा है मित्रो!
जो हमारे द्वार तक आ पहुँचे हैं
वो बर्बर नहीं बर्बरों का स्वांग बनाये मसखरे हैं!
होता है कई बार कि उनका पश्ता क़द और कमअक्ली
उन्हें एहसासे-कमतरी से भर देती है
और वो बर्बरों से भी ज्यादा हिंसक और क्रूर हो जाते हैं।
हो सकता है, ऐसा भी हो सकता है
कि उनके घर में लगे आईने उन्हें मुग्ध कर डालें
और मसखरे अपने आप को
सचमुच का बर्बर समझने लगें।
हो सकता है वो हमसे उसी तरह पेश आयें
जैसे दूसरी जंगे अज़़ीम के दौर में
बर्बर हमारे साथ पेश आते थे।
होने को कुछ भी हो सकता है
हो सकता है कि प्रहसन
त्रासदी से ज्यादा त्रासद हो!
मसखरा
भाण्डों और चारणों का युग समाप्त हुए बहुत दिन बीते
हालांकि उनके पास फिर भी कमाल का हुनर था
गाथा को कहने और गाने का।
वो हुनर हमारे युग के चारणों ने नहीं सीखा
इनकी कला में सिर्फ उत्तेजना है और उद्दण्डता।
अतीत की ग़ल्तियों को दुरुस्त करना तो संभव नहीं
और वर्तमान हमारे हाथ में नहीं रहा
हमारा बुद्धू बक्सा अब उस काम को दोहरा रहा है
हालांकि उसे शायद नहीं पता
कि दोहराना सिर्फ़ मसखरा हो जाना है
और वह...
चलो छोड़ो,
हर बात को कहना क्या ज़रूरी है!
असहमतों के लिये एक हिदायत
जो असहमत हैं
वो बाहर चले जायें।
सड़क पर चलने के कायदे में फिलहाल
कोई रद्दोबदल नहीं किया गया है
लेकिन सुरक्षित रहने के लिये हर खासो आम को
यह इत्तिला दी जाती है
कि विचारों की सड़क पर दाहिने बाजू चलना ही
सुरक्षित रहने का सबसे कारगर उपाय है
इस हिदायत के बावजूद जिन्हें इधर उधर जाना है
वो बाहर चले जायें।
तुम्हारा यह सवाल एकदम वाजिब है
कि बाहर जाने का रास्ता कहाँ है
और कौन सा मुल्क है हमारे वास्ते
तो जवाब यह है
कि बाहर जाने का रास्ता तुम्हारे अंदर ही छिपा है
उसे तुम्हारी पैदाइश के साथ ही तुम्हारे भीतर बना दिया गया था
उससे बाहर जाने से पहले लेकिन
काया को जूते की तरह बाहर ही छोड़ दें
यह ज़रूरी है
और इसके बाद किसी दूसरे मुल्क की ज़रूरत ही नहीं रहेगी।
कहाँ है असहिष्णुता
कहाँ है असहिष्णुता
सारे लोग मजे से अपने अपने रास्ते जा रहे हैं
जो ज़्यादा समझदार हैं वो पहले से ही
दाहिने बाजू जाती सड़क पर हैं
और फिलहाल जो सीधे सामने की ओर जा रहे हैं
उन्हें भी आगे जाकर दाहिने मुड़ जाना है
क्योंकि सामने की ओर जाती सड़क
आगे जाकर बंद कर दी गयी है
और जो लोग अभी बायें बाजू जाते दिख रहे हैं
वो भी आगे जाकर दायें बाजू मुड़ जायेंगे
क्योंकि किसी ओर दिशा में कोई सड़क
जाती ही नहीं
दीगर दिशाओं में जाती सारी सड़कें
बंद कर दी गयी हैं
सबको अन्ततोगत्वा एक ही रास्ते पर आना है
बल्कि यह कहना ज़्यादा मुनासिब होगा
कि सारे रास्ते एक ही रास्ते पर आकर मिल जाएँगे
कहाँ है असहिष्णुता
मो. 942579277
--
लीलाधर मंडलोई
मेरी यह सोच
निस्बतन मेरी यह सोच बन गयी कि
मैं एकदम घुन्ना हो गया
मेरी आवाज़ को लकवा मार गया
मेरी मुट्ठियाँ दीवार से चिपक गयी हैं
मेरी आँखों में मोतियाबंद हो गया
मेरे पाँव में बेड़ियाँ पड़ी हैं
मेरी आत्मा तक रेहन है
मेरा राष्ट्रवाद फिजूल हो उठा है
मेरा धर्म सवालों के कठघरे में है
मेरी जाति खो गयी है
मेरा पुश्तैनी आधारकार्ड बेमतलब हो गया है
मेरी अंगुलियों में छिपी पहचान लुप्त हो गयी है
मेरा यह देश मुझे अब अपना नागरिक नहीं मानता
मैं अपने ही देश में शरणार्थी हो गया हूँ
यह होना कितना ख़तरनाक
मैं जिनके साथ पचास सालों से हूँ
यह क्या हुआ एकाएक कि
उनका प्यार घृणा में बदल गया
और उनका धर्म युद्ध में
उनकी थाली में हरदम बना रहने वाला निवाला ज़हर हो गया
उनकी भाषा में नमी की जगह जलते अंगारे हैं
उनसे न्याय की उम्मीद सिरे से ख़त्म हो गयी
उनकी आँखों में हिकारत का भाव गहरा हो गया
उनकी पूजा में फिर से मनुष्य की बलि शामिल हो गयी
कोई नहीं जान पाएगा कि
यह होना कितना ख़तरनाक हो गया
अपने देश से कम
उनके लिए दुनिया के दरवाज़े बंद हैं
उन्हें उनके खेतों से हकाल दिया गया है
उनके सारे काम छीन लिये गये हैं
फिर भी वे हारे नहीं
पत्नी, बच्चे के साथ हुए हादसे को वे भूले नहीं
लड़ाई को परिवार से बड़ा मानते हुए
वे अपने इन्हीं हालातों में लड़ रहे हैं
आकाश में उड़ते विमानों को देख
वे उन्हें उड़ा देने की तरकीबों के बारे में सोचते हैं
जंगलों में छिपते-छिपाते
मेघ की गर्जना में, वे अपना बल पाते हैं
अपने रक्त में उबलते क्रोध में
उन्हें जीत का भरोसा होता है
वे निर्वासन में होकर भी ख़ुद को
निर्वासित नहीं मान रहे
उनकी अपनी आज़ादी को जीवित मानते हुए वे
समय के इंतज़ार में हैं
भूलकर त्रासदी को, लगा दिये उन्होंने
चट्टान पर देश के ध्वज
लोहित अंधेरे में चमकाने लगे वे अपने हथियार
उन्हें अपने देश से कम कुछ और नामंज़ूर...
वे मरे नहीं
बेवतन होते हुए जब उन्होंने पलट के देखा
उनके बहुत से लोग साथ में न थे
जो बहोत ज़ख्मी थे अलावा उनके
कई और लापता थे
वे मरे नहीं और वतन के काम पर हैं
उनके चेहरों को पहचानना मुश्किल
आज़ादी के नकाबों में ढँक
वे अब समाचारों में हैं
वे मरे नहीं और यकीकन, वही हैं
छापामार युद्ध में अब उनका कोई शानी नहीं
मेरी आस्तिकता उस धरती के लिए
मैं घनघोर नास्तिक हूँ और बना रहना चाहता हूँ ऐसा ही
मेरी आस्तिकता उस धरती के लिए है जहाँ मैं पैदा हुआ
धरती मेरे लिए किसी भी मृत ईश्वर से अधिक जीवित है
मैं उन दरवाज़ों के बारे में जानता हूँ
जो सिर्फ़ मेरी धरती में खुलते हैं
मैं उन कविताओं को जीता हूँ जिनमें ज़िंदा है मेरा देश
मैं अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी के क़सीदे नहीं लिखता
मैं उनका साहित्य ज़रूर पढ़ता हूँ लेकिन
मैं अपनी उस धरती के बारे में लिखता हूँ
जो घसीट ली गयी है डाइनामाइट के ढेर पर
हक़ की लड़ाई
मैं याद करता हूँ और गाता हूँ पुराने गीत
मैं कुटिल भंगिमाओं वाला आधुनिक कवि नहीं
मेरी आवाज़ न ही कहीं गिरवी है
किसी बड़ी कंपनी का मैं ख़रीदा ग़ुलाम भी नहीं
मैं अपमानों को भूलता नहीं
न ही जीता हूँ हताशा की शरण में
मैं शरणार्थी होने की लज्जा में आपादमस्तक होने के बाद
मनुष्य होने की आभा को बचाये हूँ
मैं सिर्फ अपने हक़ की लड़ाई में हूँ
मैं रक्त की नदी हूँ
दूसरों की बनाई नींव पर
मेरा घर न हो सकता था, न है
पति भी मेरा मालिक नहीं
तंगदिल इस दुनिया में
मैं एक मानुस और सिर्फ़ स्त्री नहीं
मैंने तैरकर पार की नदी
और पहाड़ लाँघकर आई हूँ
मेरे भीतर की लय और गति में
एक अनवरत नृत्य है अपने लिए
मैं समा नहीं सकती किसी बने-बनाये घेरे में
मैं रक्त की नदी हूँ
गोश्त का ढेर नहीं
एक बच्चा है गोद में
मैं सीरिया से निकलकर
अब दुनिया के सामने हूँ
उसके बेरहम जंग से गुरेज़ है मुझे
मैं भटक रही हूँ आसरे की तलाश में
एक बच्चा है गोद में
जिसे लेकर सोना ही पड़ता है यहाँ-वहाँ
मेरा परिचय पत्र किसी काम में मददगार नहीं
मेरी देह से जोड़ते हैं मेरी पहचान
देह जो अब मिट्टी के ढेर से अधिक नहीं
मेरे बेटे के लिए
कितनी कम होती जा रही है देह
रात गये होते हैं सिर्फ़ हाथ-पाँव लंबे
और अँधेरे में नापने लगते हैं
धरती का कोई दूसरा कोना
मो. 9818291188
मनोज कुमार श्रीवास्तव
1
कितनी बार लौटा दिया गया
लेकिन तटरेखा को न छोड़ा
समुद्र ने चूमते रहना
समुद्र कहता रहा
कि मेरे भीतर देखो
मेरे मंथन में रत्न हैं अमृत है
मुझे लौटाती हो तो वह तुम्हारा अधिकार है
तुम्हारा स्वभाव भी
तुम्हें सृजेता ने यही कर्त्तव्य सौंपा है
जैसे कि मुझे सौंपा है लौटना
सो मैं लौटता हूँ
शिप्रा में गंगा में गोदावरी में यमुना में सरस्वती में
गरज यह कि ज्ञात अज्ञात नदियों में
ताल तालाबों में पोखर में
धरती की धमनियों में
मेरे चुंबनों को जितनी बार लौटा दिया गया
मैं उससे भी अधिक बार लौटा हूँ
अलग अलग रूपों में
तजुर्बातो-हवादिस से आगे और ज्यादह
जैसे ये कुंभ लौटते हैं
मैं भी लौटूंगा
ठुकरा दिए जाने से आहत हुए बगैर
कुंभ का अमृत भी इसी तरह बार लौटेगा
2
जब नर्मदा और शिप्रा मिल सकती हैं
तो क्यों नहीं मिल सकते
नागा साधु और शेष
जब दोनों के तट एक हैं
तो एक होंगे दोनों के घाट भी
सो खूब मिले इस बार
मेले में दो भाइयों के बिछड़ जाने की कहानी
बनाने का काम
छोड़ दिया हिन्दी फिल्मों पर
और कहा कि मेला मिलना ही है
माइक्रोस्कोप लगाकर दरारों को ढूंढते हुए लोग
जिन्होंने कमीशन किये हैं स्टडी प्रोजेक्ट
फिलहाल हतप्रभ हैं
इस सहज उल्लास पर
उनके होश में आने तक एक डुबकी
यह और भी
खींचती हुई रेखा इतिहास पर
3
एक समय था
जब देवताओं की भी मृत्यु होती थी
और असुरों की भी
गुजरते थे वे भी
जन्म और मरण के चक्र से
रहे होंगे औरों के विश्वासों में
देवता स्वभावतः अमर
इस देश में
अमरता का अर्जन करना पड़ता है
दूध का समुद्र है
जीवन के पोषण के लिए पर्याप्त
लेकिन उससे भी आगे
पुरुषार्थ का एक और भी
पल है
भारी कशमकश के बीच
जब उसका भी मंथन करना पड़ता है
4
वही तो आस है
अन्यथा सोचो
कभी देवत्व भी नश्वर होता
पानी के बुलबुले की तरह
तो क्या हममें
इस पानी में नहाने की
इस पूतपावन इच्छा का भी
यह सामुदायिक जनम होता
हम अपनी अपनी बहुत सी क्षणभंगुरताओं
बहुत-सी अस्थिरताओं
बहुत-सी परिवर्तनशीलताओं से होते हुए
महाकाल के द्वार आते हैं
साक्षात् करने
उस स्थाणु को जो हमारे भीतर अमृत की आशा का स्फुरण
करता है
डी एन-2/11, चार इमली,
भोपाल (म.प्र.)
मो. 9425150651
--
बसंत त्रिपाठी
संध्या राग
1
शामें कितनी भी अच्छी क्यों न हों
रात की दराज़ में
प्रेम-पत्र की तरह पड़ी होती हैं
प्रेम, जो अपनी सघन भावनाओं की
अनुभूत उपस्थिति के साथ
बीत चुका है
कालातीत
रात खुद
सुबह की चमक से चौंधियाकर
ससुराल आई नई बहू की तरह
कोठरी में दुबकी होती
दोपहर की थाली में
सुबह को
भोजन की तरह परोसा जाता है और साँझ उसे
निवाले की तरह निगल जाती है
2
यह गर्म लू के थपेड़ों से
भुनी हुई एक साँझ है
मूंगफली की तरह नहीं
कि छिलके उतारे अैर दाना मुँह
में कुरकुरा और मज़ेदार
भुट्टे की तरह भी सिंकी हुई नहीं
कि नींबू अैर नमक से मिलकर
जायकेदार
यह दोपहर की भट्टी से
अभी-अभी उतरी साँझ है
बड़े भूँजे सूरज ने इसे
देर तक भूना है
इसी दोपहर की कड़ाह में कभी
महाकवि ने देखा था
पत्थर तोड़ती मजूरन को
गर्म साँझ धीरे-धीरे काली हो गई है
लेकिन बैसाख की रात
अब भी धमका रही है
3
धूल का बवंडर
उठा है अभी-अभी
सूखी पत्तियों ने भी साथ दिया
बंद दरवाज़ों की दरार से
भीतर घुस आई है धूल
सारी चीज़ों को अपने घेरे में लेती हुई
सड़कें तो जैसे
धूल की चादर
फर फर उड़ रही हैं
मुँह के भीतर किचकिचा रही है धूल
परिन्दों ने ढूँढ़ लिया है
तत्काल को सुरक्षित जगह
खुशगवार शामों को
बेस्वाद बना रही है
सड़कों पर बिछी अलक्षित धूल।
4
पल को
पलकों ने उठाया
तह कर रख दिया
करीने से
मेरी नींद के स्याह जल में
नींद के जल में
उजले कपड़ों की तरह
धीरे-धीरे घुल रहा है बीता हुआ सघन पल
स्वप्न इशारे से बुलाता है अपने पास
मैं उस ओर जाता हूँ शब्दहीन शब्दातीत
जैसे शाम
चुप पड़े खेतों के बहुत पीछे
रात की गोद में
धीरे-धीरे दुबककर सो जाती है।
5
यह एक संभ्रांत की शाम है
लगभग घटनातीत
घटनाओं के नाम पर
आसमान में बादलों के कुछ थिर टुकड़े हैं
और उनके भीतर से झाँकता पका हुआ संतरा
पंछियों की लैटती हुई उड़ाने हैं
आसमान की दीखती हलचल है
अैर उसके पीछे ठहरा हुआ नील
जो बरस रहा है
धीरे-धीरे धीरे-धीरे
यह पक्के मकान की छत की शाम है
घनी आबादी वाले रिहायशी से लगभग बाहर
भौतिक आशंकाओं के घेरे से बाहर खड़े
सौंदर्यवादी के लिए
शाम
दरअसल कब्रगाह है जिसमें वह पहले ज़िन्दा गिरता है
मौत फिर धीरे-धीरे आती है
आती चली जाती है
6
मामूली से मामूली दोपहरें भी
दिहाड़ी मजदूर की भूरी-नीली
बनियान में नमक की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें छोड़ जाती हैं
बस शाम ही है
जो उसे थपकी देती है
तनी हुई नसों में
राहत बनकर दौड़ती है
हाथठेला खींचता हुआ मजदूर
छत्तीसगढ़ी लोकगीत की धुन पर
लगभग थिरकता हुआ देशी ठेके तक पहुँचता है
शाम उसकी नसों में
नशा बनकर उतरती है।
मैं कहता कुछ नहीं आखिर क्या कह सकता था
मैं बस खिसियानी मुस्कुराहट के साथ
रह जाता हूँ
7
मैंने शाम से
उधार में रंग माँगा
कैन-सा रंग?- शाम ने पूछा
नीला या सफेद या सिंदूरी
या केसर
या धूसर
मैं अवाक देखता रहा उसे
इस रंगहीन चमकदार दुनिया में
कितने-कितने आदिम रंग अब भी हैं उसके पास
8
मेरी यादों में कुछ शामें
आकाशदीप की तरह टँगी हैं
मेरी नाव
उससे ही दिशा पाती है
मैं किसी भी पल उन शामों की ओर
लौट लौट जाता हूँ
9
शाम चाहे समुद्री हो, पहाड़ी हो, मरुस्थली, ऊसर या पथरीली
घने जंगल या नदी किनारे की नम शाम या टूटे छप्परों वाली
छत के भीतर
धीरे धीरे उतरती हुई
ये सारी शामें मेरे लिए सैलानी की शामें हैं
मैं हर बार
बस देखता हूँ अपने शहर की भागती
धूल उड़ाती गर्म और ठंडी शामें
मेरी हर शाम मेरे शहर की ही शाम
10
जब चला था
आकाश की रंगत बुझी नहीं थी
अब जब पहुँचा हूँ गंतव्य
शाम ने कहा - अलविदा
कल तक के लिए
अभी तो मुझे
उन चूल्हों की फिक्र करनी है
जो अब तक जले नहीं हैं
फिर वह पास ही के चूल्हे में धधकती हुई दिखाई पड़ी
वह बदले हुए रूप में भी
उतनी ही सुन्दर थी
11
मेरे साथ खेलोगे थोड़ी देर?
शाम ने पूछा
नहीं, मैंने कहा
खेलने के दिन तो गए
अैर फिलवक़्त तो बिल्कुल नहीं
अभी तो तुम पर कविता लिखने का समय है
-बगैर जिये भौंहों से हँसते हुए
उसने कहा.
12
मित्र ने पूछा अधिकारी ने पूछा
आलोचक ने पूछा
प्रधानमंत्री को फुरसत नहीं थी
इन बेकार की बातों के लिए
नहीं तो वे भी
अपने सबसे नाकारा चपरासी को दौड़ाकर पूछते
यह जो शाम से फिज़ूल बातें करने का शौक चर्राया है
उसका कोई अंत है? कब तक कला के इस स्थायी लेकिन उपेक्षित मूल्य से
इस तरह बातें करते रहोगे?
मानवीकरण से अब तक आक्रांत हो
62, वैभव नगर,
दिघोरी, उमरेड रोड,
नागपुर - 440034
मो. 09850313062
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