समीक्षा सिमटूं तो मैं बूंद बनूं /फैलूं तो सागर हूं मैं प्रो . ओम राज ‘‘अ भी तो सागर रोज हैं’’- शीर्षक पूनम माटिया का काव्य-संकलन विविध क...
समीक्षा
सिमटूं तो मैं बूंद बनूं/फैलूं तो सागर हूं मैं
प्रो. ओम राज
‘‘अभी तो सागर रोज हैं’’- शीर्षक पूनम माटिया का काव्य-संकलन विविध काव्य-विधाओं के रंग-बिरंगे फूलों का आकर्षक गुलदस्ता है. दोहों से मलयागिरी के चंदन की सुगंध भरती महसूस होती है तो संग्रह की गजलों से नोखेज गजल की जुल्फों से मुश्क और अंबर की खुशबू उड़ती महसूस होती है. संग्रह की कुछ छोटी-बड़ी कविताएं छंद-बद्ध कविता की शर्तें पूरी करती है. संग्रह में कुछ कविताएं यूरोपीय ब्रीड की अथवा टी.एस. इलियट की भारतीयकृत शैली में हैं. ‘‘पन्ने जिंदगी के’’, ‘‘भीगी सी शाम बहके से अरमान’’, ‘‘तस्वीर’’, ‘‘अनुभव के रंग’’ इसी श्रेणी की कविताएं हैं.
अतुकांत छंद-मुक्त कविताएं प्रायः मानसिक बिम्बों (मेण्टल इमेजरीज) पर आधारित होती हैं किंतु यदि कलि विशिष्ट ‘मेण्टल इमेज’ की काव्याभिव्यक्रि के प्रति सजग नहीं हैं तो एक केन्द्रीय बिम्ब से नई शाखाएं फूटने लगती हैं. नई अतुकांत कविता की काव्य तरंगें आंसिलेटिंग प्रकृति की होती हैं. गजल या दोहे की तरह यह तरंगें सीधे कागज पर नहीं उतरतीं, वरन् इधर-उधर घूमकर, भटककर, विशिष्ट केन्द्रीय विषय की परिधि से हटकर अनर्गल और निरर्थक प्रतिबिंबों, उपमाओं, रूपकों, संकेतों और प्रतीकों को बटोरकर कविता का रूप धारण करती हैं और इस प्रकार की अतिबुद्धिवादी कविताएं रेशम की उलझी हुई गांठ प्रतीत होती हैं. पूनम भाटिया की अतुकांत कविताओं का मैं इसलिए प्रशंसक हूं क्योंकि इन में ‘‘वन इमेजरी, वन शाट’’ (One Imagery; One Shot) है. किसी विशिष्ट मानसिक बिम्ब से दूसरी नई शाख नहीं फूटती अर्थात् अशोक के वृक्ष में नीम की शाख फूटती नजर नहीं आती. पूनम माटिया की अतुकांत कलिताओं की एक अन्य विलक्षण विशेषता यह भी है कि उन्होंने इन कविताओं की रचना प्रक्रिया में चौंकाहट पैदा करने वाले रंग-बिरंगे रूपकों और प्रतीकों का प्रयोग करके इन्हें अति बुद्धिवादी नहीं बनाया है. नई कविता के प्रबुद्ध आलोचक इस तथ्य से परिचित हैं कि नामी-ग्रामी नई कविता के हस्ताक्षरों द्वारा रचित कवियों की कविताओं से तोते के रंग-बिरंगे परों की मानिन्द यदि रूपक और चौंकाहट पूर्ण प्रतीक नोच लिए जाएं तो उनकी कविताएं पिंजरे में मरे निर्जीव तोते के समान प्रतीत होगी.
पूनम माटिया के संग्रह की कविताएं किसी पूर्व निर्धारित काव्योजन तथा निर्धारित विशिष्ट वर्णय विषय तक सीमित नहीं. उनकी कविताओं में, ‘‘शवाब’’ है, ‘सुरूर’ है, ‘मीठी मुस्कान’ है तो ‘आइना’ भी है. ‘कजरारे नयन’ हैं तो ‘भीगी सी शाम’ भी है. अधरों पर मुस्कान है तो ‘भीतर नमी सी’ है. ‘कशिश’ है तो ‘नजदीकियां’ भी है. ‘तड़प’ है तो ‘गुस्ताखी’ भी है. पूनम माटिया की कविताओं से कोई खास ‘मानी इमेज’ नहीं उभरती. मेरे अपने अनुसार कविता का मूल उत्स ‘नॉस्टलजिया’ और ‘यूटोपिया’ होते हैं. गुलमुहरी भावनात्मक अतीत की ओर वापसी ‘नॉस्टलजिया’ है. प्रेमी अथवा प्रेमिका का आश्रय लेकर कल्पना में संजोए प्रणय-मिलन की एकांतिक अभिलाषा ‘यूटोपिया’ है.
श्रृंगार-प्रधान प्रेम-गीतों में कामाभिव्यक्ति का आधार तत्व यूटोपियन होता है. पूनम मााटिया की कविताओं में भी प्रेम उपस्थित है किंतु उनकी ‘निश्छल प्रेम’ शीर्षक कविता में ‘लव पार्टिकल’ (Love Particle) गॉड पार्टिकल (God Particle) का रूप धारण करके अवतरित हुआ हैः-
प्रेम ईश है, प्रेम भक्त है
यह धरती है, प्रेममय है
व्योम में भी व्याप्त है प्रेम
काव्य-रचना की प्रक्रिया अत्यंत रहस्यमयी है. कभी कवि अपने मन से बाहर नहीं आता, किंतु जब अंर्तचेतना अपना मार्ग बदलती है तो वह दृश्य जगत से संवाद करने लगता है. किसी भी काव्य-कृति में कार्यरत काव्यानुभूति पहाड़ी पर स्थित मठ में अर्चना हेतु विशिष्ट कॉरीडोर में चलती श्वेत-वस्त्रा साध्वी नहीं रह पाती. पूनम मााटिया की काव्यानुभूमि पी.बी. शैली के ‘स्काईलार्क’ की तरह हमेशा आदर्शवाद के नीले गगन में नहीं उड़ती.
जॉन कीट्स की ‘नाईटिंगेल’ की तरह वह यथार्थ के वृक्ष की टहनी पर बैठकर जमीन पर पसरे यथार्थ को भी अपनी गति जागृत काव्य-संवेदना द्वारा अभिव्यक्ति प्रदान करती है. उनकी एक कविता है ‘गरीब की थाली’ जिस में वह कहती हैः-
स्वतंत्रता तन-मन को मिली थी उन्नीस सौ सैंतालिस में
आशा है, अब कुछ ऐसा कर पाएं सरकार और हम
सर पे छत, तन पे कपड़ा और बच्चों को शिक्षा
साथ ही दो जून की रोटी भी हो गरीब की थाली में!
पूनम मााटिया की कविताएं ‘दी स्पानटेनियस आऊटबर्सट् ऑफ पोएटिक थॉट्स’ ही नहीं वरन् ‘द मोस्ट इंटीमेट इमोटिव स्पर ऑफ ए पोएटिक माइंड’ भी है.
हिंदी गजल की तरह अब हिंदी में दोहों का रक्बा भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. अनेक कवि अपनी सारी साहित्यिक ऊर्जा तुकांतों की तलाश में खपा रहे हैं. दोहों के नित नए संकलन सामने आ रहे हैं. पूनम मााटिया गर चाहतीं तो चौथाई संकलन दोहों से भर देतीं किंतु वह कविता की किसी भी विधा में अनचाहे बलात् सृजन के पक्ष में नहीं है. संकलन में मात्र 11 दोहे हैं. उनमें से एक हैः-
बिटिया मेरा रूप है, बिटिया मेरा मान
इस घर की है शान तो, उस घर की भी आन
(यह सर्वविदित है कि पूनम माटिया गजलकार भी हैं. गजलकार के रूप में उनकी शुहृत पालम-ता-देहली महदूद नहीं. पूरे हिंदुस्तान में उनका महिला गजलकार के रूप में नाम सादर और ससम्मान लिया जाता है. संकलन के अंत में उनकी चार गजलें संकलित हैं और अंतिम चौथी गजल ‘तरही गजल’ हैं. मंच पर आसीन नामवर गजलकार यह अच्छी तरह जानते हैं कि मिस्रए तरह पर मिस्रए ऊला लगा कर अथवा मिस्रए सानी लगाकर सुंदर और प्रभावी मतला कहना आसान काम नहीं है. तरही गजल का मैदान अक्सर मतले से तय किया जाता है. पूनम माटिया जी ने यह मतला कहकर कमाल कर दिया है. मतला
जिसे सारा जमाना चाहता है
उसे दिल में बिठाना चाहते हैं
पूनम जी की काव्यात्मक आत्मस्वीकृति है- ‘जो किया वह मात्र एक बूंद है/अभी तो सागर शेष है’ऋ
यदि किसी गैबी अथवा अदृश्य शक्रि सागर का सार तत्व निकालकर हमारे सामने रखें तो वह बूंद ही कहलायगा इसलिए मेरी दृष्टि में उनके इस संकलन रूपी बूंद में महासागर समाया है.
पूनम जी का यह तीसरा काव्य-संकलन है. ईश्वर वह दिन भी हमें जल्दी दिखाए जब उनका अंग्रेजी कविताओं का संकलन भी हमारे सामने हो. वह अंग्रेजी में भी कविता करती है और स्तरीय कविता करती है. ईश्वर प्रदत्त काव्य प्रतिमा से सम्पन्न जन्मजात कवि के लिए भाषा काव्याभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है. दो वर्ष पहले मैंने कविता को समर्पित अंग्रजी की प्रसिद्ध पत्रिका BIGBUZZ में उनकी एक कविता पढ़ी थी. शीर्षक था- SPLIT VISION और उसकी कुछ पंक्तियां थीं-
But Today the branches
of tree like open fingers
have sieved the light
of the sun reaching me
अर्थात्
आज उसी वृक्ष की शाखाऐं/
दो फैली हाथ की उंगलियों की तरह/
रोक रही हैं सूरज को मुझ तक आने से/
और भेज रहीं है धूप को मेरे पास/
पत्तियों रूपी चलनी से छानकर
सम्पर्कः 255, आर्यनगर
काशीपुर-244713 (उत्तराखंड)
मो. 09412152858
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समीक्षा
रजनी सिंह कृत गैया मैया एक अभिनन्दनीय काव्य कृति है
डॉ. विद्या विनोद गुप्त
अनेक महत्वपूर्ण कृतियों की गौरव शालिनी कवयित्री एवं अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों एवं पुरस्कारों से अलंकृत रजनी प्रकाशन, रजनी विला, डिबाई-203393, जिला बुलंद शहर उत्तर प्रदेश की महिमा मंडित प्रकाशिका रजनी सिंह की समीक्ष्य कृति गैया मैया एक अभिनन्दनीय काव्य कृति है, जिसमें कवयित्री की काव्य प्रतिभा सुरुचि सुवा सरस अनुरापूर्ण शैली में प्रस्फुटित हुई है.
वेदों और पुराणों में वर्णित गैया मैया की सेवा के कारण गोप गोपी एवं ग्वाल बाल के संग गौ पालन और संवर्धन में भगवान श्री कृष्ण गोपाल नाम से प्रसिद्ध हुए. गौ की पूजा काम धेनु के रूप में होती है. गौ माता का दर्शन शुभ होता है. गौ माता हमारे लिये न केवल उपहार है वरन् उपकार भी है. गैया मैया, गंगा गौरी, गीता गणेश एवं गायत्री के समान शुभ फल देने वाली मोक्षदायिनी है. बैतरणी पार कराती है.
हिन्दी साहित्य का काव्यात्मक इतिहास एवं मेघदूत एक भावानुवाद की रचना कर कवयित्री रजनी सिंह ने जो ख्याति एवं प्रतिष्ठा अर्जित की है, गैया मैया भी काव्य जगत में यश और गौरव प्राप्त करेगी.
28 अध्यायों में आबद्ध यह काव्य कृति गैया मैया गंगा मैया की भांति पतित पावनी और मोक्ष दायिनी सिद्ध होगी.
सम्पर्कः सावित्री साहित्य सदन, 5/7 सरदार पटेल मार्ग, चांपा-495671 छत्तीसगढ़
कृतिः गैया मैया (काव्य कृति)
कवयित्रीः रजनी सिंह
प्रकाश एवं प्राप्ति स्थानः रजनी प्रकाशन, रजनी विला, डिबाई-203393, जिलाः बुलंद शहर (उ.प्र.) भारत
प्रथम संस्करणः 2015, मूल्य 50/- मात्र, पृष्ठ-44
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समीक्षा
राजपथ के साथ पगडंडियां भी
माधव नागदा
छपास बुभुक्षा के इस दौर में गंभीर लघुकथाकार आज भी लघुकथा को एक सामाजिक दायित्व की भांति ले रहे हैं. पवित्रा अग्रवाल इनमें से एक हैं. लघुकथा आज सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है. लघुकथाकार की नजर जितनी पैनी और साफ होगी वह उतनी ही सफाई से छद्म यथार्थ की परतें उधेड़ते हुए पाठकों को सच्चाई से रूबरू करा सकेगा.
उन्होंने ‘चित भी उनकी और पट भी’, ‘आस्तिक-नास्तिक’, ‘जेल की रोटी’, ‘औचित्य’, ‘शुभ दिन’, ‘अशुभ दिन’, ‘पाप-पुण्य’, ‘बैठी लक्ष्मी’, ‘वाह देवी मां’ आदि एक दर्जन से अधिक लघुकथाओं में बार-बार धारणाओं पर प्रहार किया है( ताकि पाठक वैज्ञानिक सोच की और प्रवृत्त हो सकें. यह स्वागतयोग्य कदम है और साहसपूर्ण भी, खासकर यह देखते हुए कि देश में अंधश्रद्धा व अतार्किकता के विरुद्ध काम करने वाले नाकाबिले बर्दाश्त होते जा रहे हैं, कहीं-कहीं तो उन्हें ठिकाने (डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर, लेखक गोविंद पानसरे) लगा दिया जा रहा है. इन लघुकथाओं में पवित्रा ने मुहूर्त, वास्तुदोष, मूर्तिपूजा, जन्म-पत्री मिलान, शकुन, पशुबलि आदि तर्कहीन परम्पराओं की धज्जियां उड़ायी हैं. उनकी नजर गलत मान्यताओं के चलते मुस्लिम के चलते मुस्लिम नारी की नारकीय जिंदगी (जन्नत, मोहब्बत) पर भी रही है. यहां भी उनकी कोशिश रही है कि मुस्लिम मर्दों में चेतना जगे और वे ‘जच्चगी में मौत हुई तो जन्नत मिलेगी’ वाली आधारहीन धारणा से ऊपर उठें.
‘आंगन से राजपथ’ की लघुकथाओं में कई प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं. रूढ़िभंजक स्वर तो मुख्य है ही. इसके अलावा पारिवारिक स्थितियां (शुभ-अशुभ, कथनी-करनी, तूने क्या किया, जागरूकता, अगर-मगर, दारू की खातिर, दायित्व, उलाहना, दखल, झापड़, डुकरिया आदि), जाति व्यवस्था का दंश (स्टेटस, एक और फतवा, मजबूरी), भ्रष्टाचार और व्यवस्था का विरूप (कानून सबके लिए, लोकतंत्र, सजा, पॉल्यूशन चैक, उसका तर्क, दो नुकसान, सौतेला व्यवहार, बेईमान कौन, समाजसेवा), नारी सशक्तिकरण (दबंग, काहे का मरद, अच्छा किया), अन्य सामाजिक/समकालीन संदर्भ (बेचारा रावण, बवाल क्यों, टी आर पी का चक्कर, रानी झांसी अवार्ड, उलझन, वो किराये का था, घर ना तोड़ो) को भी इन लघुकथाओं में कथ्य बनाया गया है. ‘शुभ-अशुभ’ पवित्रा अग्रवाल की प्रथम लघुकथा है जो 1994 में मनोरमा में प्रकाशित हुई थी. यह इतनी परिपक्व है कि कहीं से भी प्रथम लघुकथा नहीं लगती. इसका कारण संभवतः यह है कि पवित्रा मूलतः कहानीकार हैं. उनकी प्रथम कहानी 1974 में नीहारिका में छपी थी और प्रथम कहानी संग्रह ‘पहला कदम’ 1997 में प्रकाशित हुआ था. यह महज एक संयोग नहीं है कि जो भी रचनाकार कहानियां लिखते-लिखते लघुकथा लेखन में प्रवृत्त हुए हैं, उनकी लघुकथाएं भाषा, शिल्प और कथ्य की दृष्टि से दमदार होती हैं. कहानी असीम धैर्य, कठोर अनुशासन और सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता की दरकार रखती है. इन तीनों औजारों से लैस होकर जब कोई रचनाकार लघुकथा विधा में हाथ आजमाएगा तो निश्चित रूप से उसकी लघुकथाएं पाठकों का ध्यान आकर्षित करेंगी. पवित्रा ने अलग ही शिल्प विकसित किया है. वे अपनी लघुकथाओं में लेखक के रूप में लगभग अनुपस्थित रहती हैं.
परिस्थितियां और पात्र बोलते हैं, लेखक चुप रहता है. उनकी लघुकथाएं वर्णनात्मक नहीं, चित्रात्मक होती हैं. यहां तक कि पवित्रा अपनी तरफ से परिवेश का चित्रण भी नहीं करती. पात्रों के आपसी घात-प्रतिघात, संवाद और मुद्राओं से ही सब साफ हो जाता है. यह लेखकीय तटस्थता बहुत महत्वपूर्ण है. लेकिन भूल से या असावधानी से जहां भी यह तटस्थता टूटी है, लघुकथा की कसावट में भी टूटन दिखाई दी है. उदाहरण के लिए ‘तूने क्या दिया’ का यह आरंभ, ‘लालची स्वभाव की शगुन अक्सर अपने पति को ताने देती रहती थी. हमेशा उसने निशाने पर होते थे उसके ससुराल वाले.’
यहां लेखिका तटस्थ नहीं रह पातीं. वे अपनी ओर से सूचित करती हैं कि शगुन लालची स्वभाव की है कि वह सदैव ताने देती रहती है वगैरह-वगैरह. खुशी की बात है कि ऐसी लघुकथाएं संग्रह में बहुत कम हैं, इक्का-दुक्का, बस. पवित्रा की लघुकथाओं की सामर्थ्य सटीक संवाद योजना में निहित है. संवाद इतने टटके हैं कि पाठक आरंभ से ही बंध जाता है. ‘एक और फतवा’ का आरंभ इस संवाद से होता है, ‘फरजाना, योगा को चलोगी?’ यह छोटा-सा प्रश्न पाठकों में अकूत जिज्ञासा जगा देता है. इसी प्रकार सजा के इस आरंभ पर गौर करिए, ‘पत्नी ने कहा- तुम भी अजीब आदमी हो, तुमने जज साहब पर भी सौ रुपये का फाइन ठोक दिया.’ पत्नी का संवाद पूरी लघुकथा को एक ही सांस में पढ़ने के लिए बाध्य कर देता है. संग्रह की अधिकांश लघुकथाएं संवाद प्रधान हैं. यद्यपि इस प्रकार की लघुकथाओं में लेखक परिवेश का चित्रण नहीं कर पाता. परंतु पवित्रा ने इस कमी को भी कहीं-कहीं संवादों के माध्यम से दूर करने की कोशिश की है. ‘स्टेटस’ का यह संवाद इस बात का साक्ष्य है, ‘अब तक तो कुर्सियों पर बैठती थी. मुझे अच्छा तो नहीं लगता था किंतु यह सोचकर चुप बैठ जाती थी की बड़ी मुश्किल से तो मिली है...आज टीवी पर फिल्म आ रही थी.उसे देखने के लिए वह सोफे पर बैठ गई. पिंकी ने टोक दिया कि सोफे पर नहीं कार्पेट पर बैठ जाओ.’ अर्थात् कमरे में कुर्सिया हैं, सोफा है, टीवी है, कार्पेट है. परिवेश आ गया है. इससे अधिक लघुकथा में न तो गुंजाइश है और न ही आवश्यकता. कुछ लघुकथाओं में पात्रानुकूल हैदराबादी संवाद न केवल लघुकथा की विश्वसनीयता और संप्रेषणीयता में वृद्धि करते हैं वरन पवित्रा अग्रवाल के लघुकथा कर्म को पृथक से रेखांकित करते हैं. मसलन ‘अच्छा किया’ का यह संवाद, ‘सुबह होते इच मेरे कू खींच के हमारी अक्का के घर को ले के गया...अक्का और उसके मरद को गलीच-गलीच बातां बोला और मेरे कू वहींच मारना चालू किया. फिर हम और अक्का मिल के उसको चप्पल से मारे.’ दरअसल ‘अच्छा किया’ संग्रह की उन सशक्त लघुकथाओं में से एक है जिनमें नारी अपनी सम्पूर्ण चेतना, स्वाभिमान और जुझारूपन के साथ सामने आती है. अन्य दो हैं ‘दबंग’ और ‘काहे का मरद.’ यद्यपि इन तीनों लघुकथाओं की नायिकाएं निम्न मध्यवर्गीय अल्प शिक्षित औरतें हैं किंतु परिस्थितियां व यातनाएं उन्हें ऐसे मुकाम पर ला खड़ा कर देती हैं कि जिसे देखकर पढ़ी-लिखी नारीवादी महिलाएं भी दंग रह सकती हैं. ये स्त्रियां जिस मोड़ पर पहुंची हैं वह अविश्वसनीय नहीं है बल्कि उनकी अदम्य जिजीविषा और अस्मिता से उद्धृत है. संग्रह की कुछ लघुकथाओं में दोहराव अखरता है यथा ‘लक्ष्मी’ व ‘वाह देवी मां’ या फिर ‘छूत के डर से’ व ‘झटका’. कतिपय लघुकथाओं का निर्वाह ढंग से नहीं हुआ है और वे चुटकुला बनते-बनते रह गई हैं. जैसे संस्था, कल और आज, जुगाड़, इतना भारी आदि. अच्छे लेखक को निर्मम संपादक भी होना जरूरी है. रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ संग्रह की लघुकथाओं पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं, ‘ये लघुकथाएं आम आदमी के जीवन की रोजमर्रा की व्यथाएं और दुश्वारियां, संकीर्णताएं और उससे उपजे अंतर्द्वंद्व को प्रस्तुत करती हैं. इनका कैनवास घर-आंगन से लेकर राजपथ तक फैला है.’ वैसे पवित्रा जी राजपथ को छोड़कर पगडंडियों पर भी चली हैं. उन्होंने आम आदमी के इतने छोटे-छोटे दुखों को कथ्य बनाया है जिन्हें हम आम तौर पर नज़रअंदाज कर देते हैं. सास-बहू के मध्य तनावपूर्ण स्थितियां और किसी एक पक्ष द्वारा रिश्तों को बचाए रखने की चिंता, कथनी और करनी में अंतर के विश्वसनीय चित्र, मीडिया का छद्म, साहित्य और समाजसेवा को भुनाने के बेशर्म प्रयास, बुद्धिजीवियों की बगुला भक्ति, ऊंच-नीच के बदलते समीकरण, शराबखोरी और बेतहाशा संतानोत्पत्ति के चलते मुश्किल होती जा रही जिंदगी आदि विषय संग्रह की लघुकथाओं में अलग ही ढंग-ढब के साथ विकसित हुए हैं. उम्मीद है इन लघुकथाओं को पढ़कर पाठक जरूर स्वयं को बदला हुआ पायेंगे.
सम्पर्कः लालमादड़ी (नाथद्वारा) 313301, (राजस्थान)
मो. 09829588494
आंगन से राजपथ (लघुकथा संग्रह)
लेखिकाः पवित्रा अग्रवाल
प्रकाशकः अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110030
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